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परम प्रेक्षक की दृष्टि के माध्यम से एक नया दृष्टिकोण प्राप्त करें।
प्रेक्षक कौन है? जब प्रार्थना के दौरान मैं इस सवाल पर मनन करती हूँ, तब मुझे लगता है कि मेरे द्वारा ईश्वर के अच्छे कार्यों का साक्ष्य देने के लिए जब वह मुझे अनुमति देता है, उस समय मैं ईश्वर के प्रेम का प्रेक्षण मेरे अपने गहरे अंत:स्थल से और व्यक्तिगत नज़रिए से करती हूँ। एक परिचारिका की भूमिका में रहते हुए मुझे ईश्वर के लिए गवाही देना सबसे स्पष्ट और आसान है। प्रतिदिन मैं ऐसे लोगों से मिलती हूँ जब वे स्वयं टूटे हुए महसूस करते हैं, और बिलकुल नाजुक अवस्था में हैं। उन अवसरों पर ईश्वर मेरे कानों में फुसफुसाता है, क्या मैं तेरी मदद के लिए आगे आ जाऊं ? जब मैं उसके सामने आत्म समर्पण करती हूँ, और उसे अपना हाँ कहती हूँ, ऐसे अवसरों पर जिन लोगों की मैं देखभाल करती हूँ, उनके हृदयों को स्पर्श करने केलिये ईश्वर का आत्मा मुझसे होकर कार्य करता है: मुझे लगता है कि सौम्य और कोमल बनकर मेरी नज़र मेरे मरीज़ के चेहरे पर पड़ती है, और मुझे पता है कि ईश्वर मेरी आँखों से होकर उस मरीज़ को देख रहा है।
मेरे मरीजों की प्रतिक्रिया से यह बात साबित हो जाती है। उनके चेहरे बदल जाते हैं, और शान्ति और ज्योति उनकी चारों ओर फैल जाती है। उन क्षणों में मैं विश्वास करती हूँ कि मेरे मरीजों में ईश्वर के स्वर्गिक प्रेम और करुणा के अनुभव को मैं परम प्रेक्षक के रूप में देखती हूँ। मेरे मरीजों के साथ इस तरह जो भी घटित होता है, उनका सम्बन्ध मुझ से बिलकुल नहीं है, बल्कि यह कार्य पूरा का पूरा ईश्वर का है, जो अपनी इच्छा को मेरे द्वारा क्रियान्वित करता है। यह तभी संभव है जब मैं पीछे हटती हूँ, और ईश्वर के साथ मेरे व्यक्तिगत सम्बन्ध को और गहरा होने देती हूँ। लेकिन यह कार्य वहीं समाप्त नहीं होता। इस सम्बन्ध को दूसरों के साथ साझा करने के लिए वह मुझे आमंत्रित करता है।
इसका शुभारम्भ
पिछले पेंतकोस्त पर्व के दिन जब मेरा बप्तिस्मा हुआ था, ईश्वर के परिवार की एक दत्तक सदस्य के रूप में मेरा व्यक्तिगत सम्बन्ध का शुभारम्भ हुआ। परमेश्वर की बुलाहट के प्रति मेरी प्रतिक्रिया तत्काल, निरपेक्ष और अडिग थी। उस दिन से, उसके प्रति मेरे समर्पण और भक्ति का कोई जवाब नहीं था। उस भक्ति के चलते मैं समझ गयी कि प्रभु ख्रीस्त की उपस्थिति के बिना मैं कुछ भी नहीं कर पाऊंगी। और मेरी अन्य सारी ज़रूरतों से अधिक मुझे अपने जीवन में उसकी अत्यधिक ज़रुरत थी। मैं जहाँ थी, पूरी तरह शक्तिहीन, दुर्बल और मदद की ज़रूरत में थी, और मेरी सभी अपूर्णताओं और कमियों और शून्यता में, वहीँ उसने मुझसे मुलाक़ात की। मैं ने सबकुछ उसे समर्पित किया। मैं ने जानबूझकर मेरे जीवन का लगाम पूरी तरह उसके हाथों में दे दिया, मेरा दाम्पत्य जीवन, दोस्त, परिवार, घर के पालतू जानवर, मेरा धंधा, धन दौलत सब कुछ… । आप जो भी नाम ले, सब कुछ… । अब उन सब चीज़ों का मालिक वही है।
दिन भर उनसे मेरी व्यक्तिगत प्रार्थना में मैं अपने पुराने स्वभाव की एक-एक परत को त्यागना शुरू कर देती थी और ईश्वर से यही कहती कि हे प्रभु, मेरी इच्छा नहीं, बल्कि तेरी इच्छा पूरी हो। नतीजतन, ईश्वर ने मुझे अंदर और बाहर से पूरी तरह बदल दिया। मैंने अपने लंबे समय से चले आ रहे सदमे के बाद का तनाव विकार और दर्द संबंधी विभिन्न बीमारियों से ठीक हो जाने का अनुभव किया। लोगों ने मेरे साथ सकारात्मक तरीके से व्यवहार करना शुरू कर दिया। जब मुझे अपने शिक्षकों की आवश्यकता हुई, तो उन्होंने आकर मेरी मदद की, मेरी पहले से ही खुशहाल वैवाहिक जीवन कल्पना से परे और अधिक आनंदमय हो गई, नकारात्मक प्रभाव धीरे-धीरे बिना संघर्ष के ही दूर हो गए, और मुझे शांति का अनुभव हुआ। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि मैंने अपने अन्दर परमेश्वर की उपस्थिति को महसूस किया, और मैंने उसकी आवाज को सुनना शुरू किया।
मेरे लिए अपने प्रभु से बात करने से अधिक, उसको सुनना हमेशा स्वाभाविक रहा है, और प्रत्येक दिन, मैं येशु के चेहरे पर मनन-चिंतन करने के लिए अपना समय देती हूं। इस दौरान प्रभु के वचनों को मैं अपने ऊपर और अपने भीतर बहने देती हूं। मेरा विश्वास है कि हमारे पिता परमेश्वर हम में से प्रत्येक के साथ व्यक्तिगत संबंध रखना चाहता है, और वह हमारे साथ अपना बोझ साझा करना चाहता है। जब हम अपना समय येशु को समर्पित करते हैं तो वह इस बोझ का खुलासा करता है।
येशु को समय समर्पित करने का एक हिस्सा है, अपनी इच्छा को उन्हें समर्पित करना और लोगों को उनके कष्टों से मुक्ति दिलाने के लिए हमारे माध्यम से कार्य करने देना। मुझे यह बताया गया है कि पापियों के साथ संगति करना उनके धार्मिक मूल्यों के विरुद्ध है, हालाँकि मुझे आश्चर्य होता है कि यदि हम अपने आप को येशु के द्वारा काम करने के लिए उपलब्ध नहीं कराते हैं तो हम कैसे उम्मीद करते हैं कि येशु पीड़ितों को चंगा करना जारी रखेंगे?
हमेशा के लिए परिवर्तित
ईश्वर आसपास के लोगों को हमारे माध्यम से छू दे, इस केलिए हमें नर्स होने की जरूरत नहीं है। हम सभी के अपने अपने मित्र, परिवार, सहकर्मी और परिचित होते हैं, जिन्हें परमेश्वर की चंगाईपूर्ण प्रेम की आवश्यकता होती है। हर बार जब हम ईश्वर के सामने आत्मसमर्पण करते हैं, तब हम कहते हैं कि मेरी इच्छा नहीं, बल्कि तेरी इच्छा पूरी हो, और उस समय हमारी आत्मा ईश्वर की आत्मा के साथ जुड़ जाती है। इस तरह ईश्वर हमसे मुलाकात करता है। हम इसलिए सृष्ट किये गए थे कि हम ईश्वर के साथ घनिष्ठता में रहें, निरंतर प्रार्थना करें, आराधना स्थल पर रहें। जैसे-जैसे हम जीवन जीने के इस तरीके में आगे बढ़ते हैं, हम अपने अन्दर आत्मनिरीक्षण करने लगते हैं। हम परमेश्वर के बेशर्त प्रेम को गहराई से प्राप्त करते हैं, और हम हमेशा के लिए परिवर्त्तित हो जाते हैं। हम वापस नहीं जा सकते, क्योंकि हम बदल गए हैं, क्योंकि हमारे लिए उसका प्यार सिर्फ दिमाग के सतही ज्ञान से बढ़कर ह्रदय के गहरे रहस्योद्घाटन में बदल जाता है, जो हमारी पहचान का मूल तथ्य बन जाता है।
अथक प्रेम के केंद्र में प्रार्थना, आराधना, न्याय और शिष्यत्व की जीवन शैली है। यह सब आत्म समर्पण और अपने अहम् को समाप्त करने से शुरू होता है: दूसरे शब्दों में, हमें मसीह के साथ सूली पर चढ़ाया जाता है। परमेश्वर की विस्मयकारी शक्ति का पर्यवेक्षक बनने का कार्य प्रेम पर आधारित है। यह तब होता है जब हम आत्मसमर्पण करते हैं और परमेश्वर के प्रेम को प्रवाहित करते हैं, लोगों और परिस्थितियों में पुनरुद्धार और बहाली लाते हैं। हम प्रेम करते हैं, क्योंकि पहले उसने हमसे प्रेम किया, और जैसे ही हम परमेश्वर के प्रेम को अपने अन्दर से निर्मुक्त या प्रवाहित करते हैं, तब न्याय प्रवाहित होता है।
जब जब हम भूखे लोगों को खाना खिलाते हैं, जब जब हम अपने विश्वास को लोगों के साथ साझा करते हैं, जब जब हम भविष्यवाणी करते हैं, जब जब हम ईश्वर की अलौकिक शक्ति को प्रवाहित करके चंगाई लाते हैं, जब जब हम दया, विनम्रता और आज्ञाकारिता के साथ रहते हैं, तब तब हम परमेश्वर के प्रेम को प्रवाहित करते हैं और उसके गवाह बन जाते हैं। ईश्वर को हमारे द्वारा कार्य करने की अनुमति देकर हम उसके प्रेक्षक बनते हैं और संसार के प्रति उसके प्रेम को व्यक्त करते हैं, और तब लोगों का ईश्वर के साथ साक्षात्कार होता है।
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छोटी छोटी बातें मायने रखती हैं …
बड़े लम्बे अर्से से हम लोग अलास्का के डेनाली नेशनल पार्क जाना चाह रहे थे। आखिरकार उस प्रतीक्षित यात्रा का समय आ गया। हमने अगले दिन की आठ घंटे की बस यात्रा के लिए टिकट खरीदे, जहाँ हमें सृष्टि के वैभव और वन्य जीवन की प्रचुरता देखने की उम्मीद थी। हमारे साहसिक यात्रा में मौसम बाधा न बने, इस उम्मीद से हमने मौसम पूर्वानुमान देखा, और हम यह जानकर बहुत अधिक निराश हो गए कि पूरे दिन में 100% वर्षा होने की भविष्यवाणी की गई है! बारिश के दिन बस के अंदर बैठने के अलावा, शायद और कुछ भी देखने की संभावना नहीं है, यह जानते हुए, मेरे पति और मैंने निराश होकर यह फैसला किया कि हमारी योजनाओं को कुछ कुछ बदलना ही बुद्धिमानी होगी। अगली सुबह, फेयरबैंक्स में प्रवासी जलपक्षी अभयारण्य में सिर्फ एक बगेरी पक्षी को देखकर हमें संतोष करना पडा।
सृष्टि की पूर्णता मेरी हथेलियों में
हमारे छोटे समूह के दौरे का नेतृत्व करने वाले जानकार स्वयंसेवक ने रेतीले पहाड़ी सारस पक्षी के बारे में कुछ तथ्यों को बताकर हमारी यात्रा की शुरुआत की। रेतीले पहाड़ी सारस ऐसे पक्षियों की प्रजातियों में से एक है, जो शिशिर ऋतु में भोजन और विश्राम के लिए दक्षिण की ओर लम्बी यात्रा करता है। हमें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि इन सारसों की श्वासनली सात फीट लंबी होती है, जो एक फ्रांसीसी सींग की कुंडलियों की तरह एक जटिल तरीके से लिपटी हुई है। इस विशेष डिजाइन के परिणामस्वरूप एक अलग ज़िम्मेदारी इन पक्षियों को मिलती है, जो माँ चिड़िया और उसके बच्चे के लिए अद्वितीय थी, और हर मौसम में उड़ने वाले सारसों की विशाल भीड़ के बीच माँ और बच्चा सारस आपस में जुड़े रहते हैं। जब हम आकाश की ओर चुपचाप ताक रहे थे, तभी इन राख रंग के चिकने सारसों का एक विशाल झुण्ड दूर से उड़ता हुआ हमारे सर केऊपर से गुजर गया।
ओस से भींगे ज़मीन को रौंदते हुए, हम फिर एक तम्बू की ओर बढ़े, जहाँ स्वयंसेवक और एक पक्षी विज्ञानी मिलकर पक्षियों की विभिन्न प्रजातियों का वजन, माप और टैगिंग कर रहे थे, ताकि वर्षों की अवधि में इनकी बढ़ती घटती आबादी को ट्रैक किया जा सके। प्रत्येक पक्षी की पहचान करने और उनकी जानकारी दर्ज करने के बाद, उन्हें वापस जंगल में छोड़ने का समय आ गया था। एक कार्यकर्ता ने हमारे समूह के एक सदस्य के हाथ में एक कोयल पक्षी सौंप दिया, जैसे ही एक हथेली से दूसरी हथेली तक स्थानांतरण किया गया, उस पक्षी ने जल्दी से उड़ान भरी। इस तरह मेरे हाथों में एक फुदकी रखी गयी, मैं ने अपनी उँगलियाँ से उसकी नाजुक पीठ को सहलाया। मेरे हाथों में इससे पहले रखे गए दो पक्षियों से यह फुदकी बिलकुल भिन्न था, ऐसा लग रहा था कि इस फुदकी को मेरी हथेलियों में रहना पसंद है, इसलिए मुझे इसके पंखों को सहलाने का अवसर मिला और हमारी आँखें आपस में मौन संवाद कर रही थीं।
मेरे हाथों में तीन इंच से भी कम आकार की पूर्ण सृष्टि के रूप में, निर्माता की कोमलता झलक रही थी, इसलिए मुझे अचानक ईश्वर की एक जीवंत उपस्थिति का अनुभव हुआ। इस अनुभव को पाने पर मेरे मन में एक गीत की धुन बजने लगी: “इस स्थान पर सभी का स्वागत है, यहाँ ईश्वर की अद्भुत कृपा में, सभी का स्वागत है, सभी का स्वागत है”, मेरे आंसू बहने लगे। मानो वक्त ठहर गया, फिर भी फुदकी पक्षी को सीधे होने में मदद करने का एक तीव्र आग्रह मुझ में जाग उठा और इसमें बस कुछ ही सेकंड लगे। बस इतना ही प्रोत्साहन की जरूरत थी, और उस पक्षी ने आकाश की ओर अपना रास्ता बना लिया। वापस कार की ओर बढ़ती हुई, मौन ही मेरा साथी था। अनुग्रह के इस क्षण के लिए, एक पवित्र मौन ही एकमात्र उपयुक्त प्रतिक्रिया लग रही थी।
खुली बाहें
हमारे एजेंडा-रहित दिन का दूसरा पड़ाव फेयरबैंक्स का एक नयी तरह का गाँव और उसकी कुछ इमारतें थीं, जिन्हें किसी अन्य गाँव से यहाँ स्थानांतरित किया गया गया था। केबिनों और दुकानों के बीच घूमते हुए, मैं ने एक सादगी भरा गिरजाघर देखा। दरवाजा खोलकर, मैं खुरदुरे फर्श से होते हुए, उस स्थान की ओर पहुँच गयी, जहां येशु की एक नक्काशीदार चित्र छत से लटक रहा था। हाथ फैलाए येशु, मानो अंदर आने वालों को आमंत्रित कर रहा हो। गीत के बोल एक बार फिर मेरे दिमाग में कौंध गए। “इस स्थान पर सभी का स्वागत है।” अप्रत्याशित रूप से मुझे आज के दिन बार-बार जीवन के रचनाकार के उदार प्रेम के प्रमाण का सामना करना पड़ा। रेतीले पहाड़ी सारस मां और उसके बच्चे को जोड़ने वाली श्वासनली की जिस प्रेम के साथ खूबसूरत बुनावट की गयी थी, ऊपर उड़ने में और गीत गाने में सक्षम चुटकी भर वजन की पीली फुदकी, मेरे साथी लोगों की खुली हथेलियाँ जो पक्षियों की देखभाल में उन्हें पकड़ने, फिर विश्वास में उड़ान के लिए छोड़ने के लिए बनाई गई हैं। और अंत में गिरजाघर की छत्त का वह चित्रण, परमेश्वर के अद्भुत अनुग्रह में प्रवेश करने का निर्णय लेनेवाले सभी लोगों को दिया जा रहा अद्भुत निमंत्रण।
हमेशा, सभी का स्वागत है…
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क्रिसमस का जादू मुझे हमेशा मंत्रमुग्ध कर देता है, चाहे क्रिसमस काल को अनुभव करने से पहले मुझे कितनी ही दुख तकलीफों का सामना करना पड़े। कई साल ऐसे होते हैं जिसमे हम क्रिसमस का उत्साह और खुशी त्योहार गुज़रने के बाद अनुभव करते हैं। लेकिन एक बार जो क्रिसमस का उत्साह हम पर चढ़ जाता है, तो फिर वह उतरने का नाम नहीं लेता है।
परमेश्वर के इकलौते पुत्र को उपहार स्वरूप प्राप्त करने से हमें जिस आनंद का अनुभव होता हैं, वही इस अद्भुत त्योहार की नीव रखता है। इसी कारण से थोड़े समय के लिए ही सही, पर इस प्यारे जश्न के मौसम में सब से अच्छे से पेश आना हमारे स्वभाव का एक अभिन्न हिस्सा बन जाता है। क्योंकि छोटे बच्चों के लिए, सैंटा क्लॉज से तोहफे मिलने की उम्मीद उन्हें अपना आचरण सुधारने की प्रेरणा देती है, इसीलिए मैं यह अक्सर सोचा करती हूं कि इस त्योहार में ऐसा क्या है जिसकी वजह से हम वयस्क लोग भी अपने आचरण को सुधारने के लिए प्रेरित होते हैं और हम किस तरह से साल के बाकी दिनों में भी अच्छाई के प्रति उस झुकाव को कायम रख सकते हैं जिसे हम क्रिसमस के इस जादुई मौसम में अनुभव करते हैं।
एक गहरी यादगार
पिछले साल मैंने और मेरे पति ने विक्टोरिया नामक जगह की यात्रा की। वहां हम एक बेर के खेत में गए जहां की फसल खरीदते हुए हमने वहां की मालकिन से बात की। गर्मी के मौसम में भी वह दिन काफी शीतल था, और हम इस बारे में बात कर रहे थे कि पिछले साल का मौसम कितना भयंकर था। पिछले साल सूखा पड़ने की वजह से और जंगल में आग लगने की वजह से किसानों और फसलों की हालत बहुत बुरी थी। क्योंकि खेत की मालकिन आग बुझाने में भी मदद करती थी, उन्होंने आग बुझाते हुए कई करीबी दोस्तों को खोने का दुख भी झेला था।
इस दुखभरी बात को सुन कर मुझे तब और दुख हुआ जब खेत की मालकिन ने कहा कि “इस बार भी मैं आग से लड़ने के लिए पूरी तैयारी करके बैठी हूँ”। जब हम खेत से बाहर जा रहे थे, तब उसने अपने बच्चे को उठाया और उन दोनों ने हमें अलविदा कहा। खेत की यात्रा बेशक हमारी यात्रा का सबसे यादगार हिस्सा था और हमने वहां के लोगों में जो दृढ़ संकल्प देखा, वह हमें इस बात की याद दिलाता रहेगा कि किस तरह हमें तब अच्छाई करनी चाहिए जब हमसे इसकी उम्मीद की जाती है – चाहे साल का कोई भी समय हो।
छोटे छोटे कदम
एक बार जब हम दिसंबर में क्रिसमस की खुशी और नए साल के आने के उत्साह से गुज़र चुके होते है, तो हमें अच्छाई करने की ओर अपने मन को झुकाने के लिए थोड़ा ज़्यादा प्रयास करना पड़ सकता है। मैं आमतौर पर देखती हूं कि हमारी व्यस्तता हमारे जीवन को निर्देशित करने लगती है और व्यस्तता की गति थमने की कोई जगह दिखाई देनी बंद हो जाती है। जैसे-जैसे हमारे व्यवसायिक और व्यक्तिगत प्राथमिकताएँ हमारा ध्यान अपनी ओर खींचने लगती है, मैं सोचने लगती हूं कि कि क्या मैं ईश्वर के निर्देशों के प्रति उतनी ही सचेत रह सकती हूँ जितनी सचेत मैं तब होती हूं जब मैं क्रिसमस के मौसम में उपहार लपेटते और क्रिसमस भजन गाते समय होती हूं।
हालांकि, हमारे प्रभु कभी भी अपनी गति को धीमा नहीं करते हैं – वे कभी संघर्ष कर रहे स्थानीय व्यवसाय की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं, तो कभी हमें किसी ऐसे व्यक्ति को फोन करने की याद दिलाते हैं जो अकेला है, वे हमें क्षमा करने के लिए प्रोत्साहित करते है, और हमें दान देने के लिए प्रेरित करते है। मेरे पति कहते हैं कि ईश्वर की यह प्रेरणाएं ही हमें उनके नज़दीक लाने का मार्ग बनती है। मैं उन्हें ईश्वर की ओर बढ़े छोटे छोटे कदमों के रूप में देखती हूं जिन्हें प्राप्त करने से हम आशीष पाते हैं।
अगर हम अपनी व्यस्तता को दूर करने का बंदोबस्त भी कर लें, तो भी हमारे जीवन में अक्सर दूसरी बाधाएं होती हैं जो हमें ईश्वर के संकेतों का जवाब देने से निराश करती हैं। उदाहरण के लिए, जब हम किसी की मदद की पुकार सुनते हैं, तो हम यह तर्क देने लगते हैं कि हमारे योगदान से कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा या मदद मांगने वाले इंसान को शायद हमारी मदद लेना पसंद ना आए। या हम किसी व्यक्ति के साथ पुरानी दुश्मनी सुलझा लेने का ईश्वरीय संकेत यह सोच कर टाल देते हैं कि उसकी किसी नई बात ने हमें ठेस पहुंचाई है।
एक अच्छी लड़ाई लड़ें
इन सब बाधाओं के बावजूद, ईश्वर की बातें, उनकी सलाह हमारे दिल में चुभती रहती है। पर ऐसा क्यों होता है, क्या आपने कभी सोचा है? ऐसा इसीलिए होता है क्योंकि येशु ने हमारे अंदर के और बाहर के अंधकार को जीत लिया है। उनका प्रेम और उनका प्रकाश तेज़ी से जलता है, और हमेशा के लिए अच्छाई की चिंगारी को प्रज्वलित रखता है। यदि हम ईश्वर की अच्छाई के करीब आना चाहते हैं तो हमें उनके संकेतों पर अमल करना चाहिए। जैसा कि हमारी प्रिय फातिमा की मां मरियम ने हमें याद दिलाया था, कि हमारा भविष्य ईश्वर में है और हम उस भविष्य को बनाने के सक्रिय और जिम्मेदार भागीदार हैं।
अगर हम यह याद रखें कि हमारे साथ जो कुछ भी अच्छा हुआ है, जो भी प्रतिभाएं और आशीर्वाद हमें मिले हैं, वे सब प्रभु की ओर से हैं, तो हम अपने मन में आने वाले अच्छाई के प्रति हर झुकाव का स्वेच्छा से स्वागत करेंगे। आज के ज़माने में यह और भी जरूरी हो गया है कि हम अंधेरे से लड़ें, और मां मरियम से प्रार्थना करें कि वह हमें ध्यान केंद्रित करने और बुलाए जाने पर अच्छी लड़ाई लड़ने में मदद करें। किसी के जीवन को रोशन करने में, उन तक क्रिसमस की आशा और खुशी लाने में ज़्यादा समय नहीं लगता है। जब उन्हें इसकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है, खासकर तब जब उन्हें इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है। चाहे वह क्रिसमस के त्योहार का मौसम हो या वर्ष का कोई अन्य समय हो।
“जिसका सामर्थ्य हम में क्रियाशील है और जो वे सब कार्य संपन्न कर सकता है, जो हमारी प्रार्थना और कल्पना से परे है, उसी की महिमा कलीसिया में और येशु मसीह में पीढ़ी दर पीढ़ी, युग युगों तक होती रहे! आमेन! (एफिसियों 3:20-21)
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रेमंड कोलबे का जन्म सन 1849 में एक गरीब पोलिश परिवार में हुआ। बचपन में वे इतने नटखट और शरारती थे कि कोई यह अंदाज़ा भी नहीं लगा सकता था कि आगे चल कर लोग उन्हें परोपकार के शहीद, ऑशविट्ज़ के संत, मिलिशिया इमाकुलाटा के संस्थापक, माँ मरियम के प्रेरित और बीसवीं शताब्दी के संरक्षक संत के रूप में जानेंगे और याद करेंगे। एक दिन उनकी माँ उनके व्यवहार से इतनी परेशान हो गईं कि उन्होंने गुस्से में उन पर चिल्लाते हुए कहा: “रेमंड, तुम्हारा क्या होगा?!”
इस बात ने उन्हें झकझोर दिया। दुख भरे दिल के साथ वह गिरजाघर गया और प्रार्थना करते वक्त उसने ईश्वर के सामने वह सवाल दोहराते हुए पूछा, “मेरा क्या होगा? मेरा क्या बनेगा?” तब उसे मां मरियम के दर्शन हुए जिसमें उसने देखा कि मां मरियम अपने दोनो हाथों में एक एक मुकुट पकड़ी हुई है। एक मुकुट सफेद रंग का था और एक लाल रंग का। माँ मरियम ने रेमंड की ओर प्यार भरी नज़रों से देख कर उससे पूछा कि क्या वह दोनों में से किसी मुकुट को लेना चाहेंगे? रेमंड ने जवाब में कहा, “हां”, उसे दोनों मुकुट चाहिए थे।
रेमंड को पवित्रता का सफेद मुकुट पहले प्राप्त हुआ, जब उसने मैक्सिमिलियन कोल्बे का नाम स्वीकारा और धार्मिक प्रतिज्ञाओं को स्वीकार किया, जिनमें से एक प्रतिज्ञा पवित्रता की भी थी। अपने जूनियर सेमिनरी के दिनों में वह अक्सर अपने दोस्तों से कहा करता था कि वह किसी बड़े उद्देश्य पर अपना सारा जीवन न्यौछावर कर देना चाह रहा था। आखिर में उसने सन 1917 में मिलिशिया इमाकुलाटा की स्थापना इस उद्देश्य से की कि एक दिन वह निष्कलंक मां मरियम के नेतृत्व में मसीह की मध्यस्थता द्वारा सारी दुनिया को सच्चे ईश्वर से जोड़ पाएंगे। इस मिशन को पूरा करने के लिए उसने सब कुछ कुर्बान कर दिया, और इसी के सहारे उसे शहादत का लाल मुकुट प्राप्त हुआ।
साल 1941 में कोल्बे को नाज़ी सेना ने गिरफ्तार कर लिया और ऑशविट्ज़ प्रताड़ना शिविर भेज दिया। वहां एक कैदी का तब रो रो कर बुरा हाल हो गया जब किसी कैदी के फरार होने की सज़ा के रूप में एक कैदी को बिना दाना पानी से वंचित रखने की कैद की सज़ा सुनाई गई। अपने बीवी बच्चों की याद में उस व्यक्ति का बुरा हाल था। जब फादर कोल्बे को इस बात का पता चला तब उन्होंने उस कैदी की जगह खुद कैद होने का प्रस्ताव दिया। फादर कोल्बे ने जो दिन कैद में गुज़ारे, उन दिनों में उन्होंने कई लोगों को प्रार्थना करने के लिए प्रेरित किया। हर निरीक्षण के दौरान, जब बाकी लोग फर्श पर लेटे रहते थे, तब फादर मैक्सिमिलियन घुटने टेक कर या बीचों बीच खड़े हो गए, अधिकारियों से खुशी से मिला करते थे। दो हफ्तों की सज़ा के बाद, फादर कोल्बे को छोड़ कर बाकी सभी कैदी भूख प्यास से मर गए। मां मरियम के स्वर्ग में उद्ग्रहण की शाम को, नाज़ियों ने परेशान हो कर फादर कोल्बे को कार्बोलिक एसिड का इंजेक्शन लगा कर मार डालने का फैसला किया, और फादर कोल्बे ने भी शांत मन से उस घातक इंजेक्शन को लेने के लिए अपना बायां हाथ प्रस्तुत कर दिया। साल 1982 में पोप जॉन पॉल द्वितीय ने मैक्सिमिलियन कोल्बे को संत घोषित करते हुए उन्हें परोपकार के संत और बीसवीं शताब्दी के संरक्षक संत की उपाधि दी।
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इंग्लैंड के प्रमुख क्रिश्चियन रेडियो ने एक सर्वेक्षण कराया जहां उन्होंने इस बात की जांच करने की कोशिश की, कि कोरोना महामारी ने धार्मिक विश्वास और पूजा पाठ को किस तरह प्रभावित किया। इस सर्वेक्षण में तीन बातों का पता चला – पहली बात यह कि सड़सठ प्रतिशत लोग जो कि खुद को धार्मिक समझते हैं उनके ईश्वर पर विश्वास को इस महामारी ने चुनौती दी। एक चौथाई लोगों ने यह कहा कि इस महामारी ने उनके मन में मौत का डर पैदा कर दिया। और एक तिहाई लोगों ने यह माना कि उनका आध्यात्मिक जीवन कोरोना के कारण बुरी तरह प्रभावित हुआ। जस्टिन ब्रायरली, जो कि लोकप्रिय कार्यक्रम “अनबिलीवेबल” (अविश्वसनीय) की मेज़बानी करते हैं, उन्होंने यह टिप्पणी की कि उन्हें इस बात ने प्रभावित किया कि किस तरह कोरोना की वजह से अनेक लोगों को ईश्वर के प्रेम पर विश्वास करने में मुश्किल हुई। मैं भी इसी विषय पर बात करना चाहता हूं।
यह सच है कि मैं कुछ हद तक इस समस्या को समझ पा रहा हूं। ईश्वर पर विश्वास करने के बीच जो सबसे बड़ी बाधा है, वह है मानव पीड़ा और खासकर तब, जब हम मासूमों पर अत्याचार होते देखते हैं। नास्तिक लोग हमेशा धार्मिक लोगों से यह सवाल करते हैं कि, “कोई एक प्रेममय ईश्वर पर विश्वास क्यों और कैसे करे, जब दुनिया में विध्वंस, नरसंहार, प्रलय, विश्वयुद्ध और महामारी से हजारों, लाखों लोगों ने अपनी जान गंवाई है।” पर मैं यह भी स्वीकारूंगा कि एक तरह से, मुझे यह बहस बेबुनियाद लगती है, और बाइबिल पर आधारित शिक्षा के आधार पर और ख्रीस्तीय धर्म की शिक्षाओं को औरों को पढ़ानेवाले एक कैथलिक बिशप की हैसियत से मैं कहता हूं कि यह बहस बेबुनियाद है: क्योंकि मुझे नहीं लगता कि कोई भी व्यक्ति जो पवित्रशास्त्र को ध्यान से पढ़ता है, वह आसानी से इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है कि एक प्रेमपूर्ण परमेश्वर में विश्वास रखने का मतलब किसी भी तरह से मानव पीड़ा को झुठलाना नहीं है।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि ईश्वर नूह से प्रेम रखते थे, पर फिर भी उन्होंने नूह को उस जल प्रलय में जूझने दिया, जिस प्रलय ने पृथ्वी के लगभग सारे जीव जंतुओं का नाश कर डाला। इस बात पर कोई शक नहीं है कि ईश्वर अब्राहम से बहुत प्यार करते थे, फिर भी ईश्वर उससे अपने इकलौते बेटे इसहाक की बलि चढ़ाने को कहते हैं। देखा जाए तो बाइबिल के इतिहास में शायद ईश्वर ने मूसा से सबसे ज़्यादा प्रेम रखा, फिर भी मूसा को प्रतिज्ञात देश में कदम रखने की इजाज़त नहीं मिली। दाऊद ईश्वर की आंखों का तारा समझा जाता था, दाऊद की मधुर आवाज़ इज़राइल की शान थी, फिर भी ईश्वर ने दाऊद को उसके बुरे कर्मों और उसकी बुरी नीयत के लिए दंडित किया। यिरमियाह को खास तौर पर ईश्वर ने अपने दिव्य वचन का प्रचार करने के लिए चुना था, फिर भी वह अस्वीकृत और निष्कासित किया गया था। इज़राइल देश ईश्वर की चुनी हुई प्रजा है, वह देश ईश्वर का प्रतिज्ञात देश है, फिर भी ईश्वर ने कई बार इज़राइल को गुलाम होने दिया है, इज़राइल ने सदियों से कई युद्ध, कई त्रासदियां झेली हैं। और तो और, ईश्वर ने अपने इकलौते पुत्र को मानव उद्धार के लिए क्रूस पर बलि चढ़ने दिया।
इसी तरह वह बात, जो आज विश्वासियों और गैर-विश्वासियों दोनों के लिए कुछ दर्जे तक असंगत है, वह यह है कि बाइबल के लेखकों ने एक प्रेमपूर्ण परमेश्वर के अस्तित्व को मानव पीड़ा से कभी जोड़ कर नहीं देखा। बाइबिल दोनों ही बातों को झुठलाती नहीं है, फर्क बस इतना है कि वह इन दोनों बातों को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा नहीं करती। बल्कि बाइबिल इन दोनों बातों की सराहना करती है और इन सब बातों को जीवन के रहस्य के रूप में देखती है, कि ईश्वर की योजनाएं कितनी भिन्न और कितनी गहरी होती हैं। उदाहरण के तौर पर, कभी कभी बाइबिल के लेखकों ने मानव पीड़ा को पापी लोगों पर भेजी हुई ईश्वर की सज़ा के रूप में देखा। कभी कभी मानव पीड़ा के द्वारा ईश्वर ने अपनी प्रजा का शुद्धीकरण किया। कभी कभी मानव पीड़ा ने भविष्य में आने वाली आशिषों के द्वार खोले। पर बाइबिल के लेखकों ने यह भी माना कि ज़्यादातर परिस्थितियों में हमें इस बात का ज़रा सा भी अंदाज़ा नहीं होता कि मानव पीड़ा ईश्वर की योजना में क्या भूमिका निभा रही होती है। और ऐसा इसलिए है, क्योंकि हमारी सीमित सोच और सीमित ऐतिहासिक जानकारी ईश्वर के उस असीमित मन को समझने के काबिल ही नहीं, जो इस ब्रम्हांड का सृष्टिकर्ता और संचालक है। देखा जाए तो अय्यूब का ग्रंथ इन्हीं सारी बातों की चर्चा करता है। जब अय्यूब अपनी दुख तकलीफों के लिए ईश्वर को दोषी ठहराता है, तब ईश्वर एक लंबे प्रवचन के द्वारा अय्यूब को जवाब देता है। यह प्रवचन पूरे बाइबिल में ईश्वर का सबसे लंबा प्रवचन है और इसमें ईश्वर अय्यूब को याद दिलाता है कि ईश्वर के कितने ही ऐसे कार्य हैं जिनका मकसद समझने में मनुष्य जाति असमर्थ है। “तुम कहां थे जब मैंने पृथ्वी की नींव रखी…”
एक बार फिर से, बाइबिल के लेखकों को चाहे मानव पीड़ा के पीछे का मकसद समझ आया या नही आया, फिर भी किसी भी लेखक ने कभी भी यह कहने की कोशिश नहीं की, कि अगर मानव जाति पीड़ा में हैं तो इसका मतलब यह है कि ईश्वर हमसे प्यार नहीं करते। इन लेखकों ने शिकायतें की, शोक मनाया पर यह सब उन्होंने ईश्वर की उपस्थिति में किया, क्योंकि उनका ईश्वर और उसके अनंत प्रेम पर गहरा विश्वास था। मुझे इस बात पर भी कोई शक नहीं है कि आजकल कई लोग ऐसा सोचते हैं कि मानव पीड़ा लोगों को ईश्वर पर विश्वास करने से रोकती है। पर मेरा मानना है कि ऐसा इसीलिए है क्योंकि आजकल के धार्मिक अगुवे, लोगों को धर्मग्रंथ की सही और सशक्त शिक्षा देने में असमर्थ रहे हैं। क्योंकि अगर आपको मानव पीड़ा का दुख ईश्वर के प्रेम से दूर करता है, तो इसका सीधा मतलब यह है कि आपने कभी बाइबिल में उपस्थित ईश्वर पर विश्वास ही नहीं किया।
मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मेरा मकसद मानव पीड़ा को नकारना या छोटा दिखाना नहीं है। ना ही मैं उस मानसिक तनाव को झुठलाने की कोशिश कर रहा हूं जो मानव पीड़ा से उपजती है। मेरा मकसद सिर्फ लोगों को ईश्वर के रहस्य की गहराई की ओर आने के लिए प्रेरित करना है। जिस प्रकार याकुब ने रात भर स्वर्गदूत से कुश्ती लड़ी, उसी प्रकार हमें भी अपने विश्वास को कमज़ोर होने देने की जगह ईश्वर के साथ संघर्ष करना चाहिए। हमें अपनी दुख तकलीफों को ईश्वर के दिव्य प्रेम से दूर जाने का ज़रिया नहीं बनने देना चाहिए। पर हमें उसे जीवन के एक अभिन्न और अकल्पनिक भाग के रूप में देखना चाहिए। यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि अय्यूब की तरह हम ईश्वर के सामने धरना दे कर अपनी बात रखने की कोशिश करें। पर अगर हम ऐसा करते है तो फिर हमें अय्यूब की ही तरह ईश्वर के प्रवचन को सुनने और अपनाने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।
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लोकप्रिय इतिहासकार टॉम हॉलैंड ने ‘डोमिनियन: हाउ द क्रिश्चियन रेवोल्यूशन रीमेड द वर्ल्ड’ (प्रभुत्व, मसीही क्रांति ने किस प्रकार दुनिया का पुन:सृजन किया) नामक एक असाधारण पुस्तक लिखी है। उपशीर्षक उनके तर्क को सारांशित करता है। लेखक टॉम हॉलैंड धर्मनिरपेक्षतावादी विचारधारा के साथ असहज महसूस करते हैं| उनकी सोच शिक्षा जगत में सर्वोच्च शासन करती है और ईसाई धर्म को एक खंडित, पुराने धर्म, एक आदिम, पूर्व-वैज्ञानिक युग से जुडा हुआ, तथा नैतिक और बौद्धिक दोनों की प्रगति के लिए एक अवरोध के रूप में मना जाता है। वास्तव में, उनका तर्क है, ईसाई धर्म पश्चिमी दिमाग का सबसे शक्तिशाली आकार देने वाला रहा है और जारी है, हालांकि इसका प्रभाव इतना व्यापक और इतना गहरा है कि इसे आसानी से अनदेखा किया जाता है।
इसे खुले में लाने के लिए लेखक टॉम होलैंड एक बहुत ही प्रभावी रणनीति को अपनाते हैं | उनकी सबसे पहली रणनीति है कि वे येशु सूली पर चढ़ाए जाने का क्या मतलब है, इसका एक क्रूर यथार्थवादी लेखांकन के माध्यम से परिचित कराते हैं तकि पाठक लोग ईसाई धर्म के बारे में एक नयी समझ विक्सित करें। उस ज़माने के लोगों की कल्पना के मुताबिक़ रोमी क्रूस पर मौत के घाट उतार दिया जाना सबसे बुरी किस्मत थी। तथ्य यह है कि अंग्रेजी शब्द excruciating “कष्टदायी”, जो सबसे अधिक पीड़ादायक प्रकार के दर्द को दर्शाता है, लातीनी शब्द cruce (क्रॉस) से आता है जो काफी हद तक इस तथ्य का खुलासा करता है। लेकिन क्रूस की भयानक शारीरिक पीड़ा से अधिक पीड़ा उससे होनेवाला भयंकर अपमान से थी। नग्न किया जाना, लकड़ी के दो टुकड़ों पर कीलों से ठोंका जाना, कई घंटों या दिनों तक मरने के लिए छोड़ दिया जाना, और राहगीरों के उपहास का शिकार होना, और फिर, मृत्यु के बाद भी, क्रूसित व्यक्ति की लाश को आसमान के पक्षियों और मैदान के जानवरों के द्वारा नोचकर खा जाने के लिए छोड़ देना, ये सारी बातें बड़े अपमानजनक अनुभव को पैदा करनेवाली थीं। इसलिए, आदिम ईसाइयों द्वारा क्रूस पर चढ़ाए गए एक अपराधी को ईश्वर के पुनर्जीवित पुत्र के रूप में घोषित करना, इससे अधिक हास्यपूर्ण, परेशान करने वाला और साथ साथ क्रांतिकारी संदेश नहीं हो सकता था। इसने ईश्वर, मानवता और समाज की सही व्यवस्था के बारे में प्राचीन दुनिया की सभी धारणाओं को उलट दिया। यदि ईश्वर को एक सूली पर चढ़ाए गए व्यक्ति के साथ पहचाना जा सकता है, तो इसका मतलब है कि मानव परिवार के सबसे छोटे और सबसे भूले हुए सदस्य भी प्रेम के योग्य हैं। और यह सही है कि येशु के प्रारम्भिक अनुयायियों ने न केवल इस सत्य की घोषणा की, बल्कि बेघर, बीमार, नवजात और वृद्धों की देखभाल करके इसे ठोस रूप से उन्होंने जीया और येशु के संदेश को और भी क्रांतिकारी बना दिया।
हालांकि हॉलैंड ने उन बाकी सारे तरीकों पर गौर किया जिनके द्वारा ईसाई दर्शन ने पश्चिमी सभ्यता को प्रभावित किया, फिर भी हॉलैंड ने पाया कि क्रूसित येशु की छवि से निकलने वाली अवधारणा सबसे ज़्यादा प्रभावशाली रही है। हॉलैंड के मुताबिक हम यह अक्सर भूल जाते हैं कि हर व्यक्ति आदर सम्मान के योग्य है, कि सब मनुष्य सामान्य अधिकार और प्रतिष्ठा के धारक हैं, कि करुणामय प्रेम मानव संवेदनाओं में सबसे ज़्यादा सराहनीय भाव है। और यही भाव सदियों से हमारे ईसाई समुदाय का सबसे सरल, सबसे महत्वपूर्ण अंग रहा है, चाहे हम यह माने, या ना माने। इस बात का सबूत हम उन प्राचीन सभ्यताओं में प्राप्त कर सकते हैं, जहां ऐसी संवेदनाएं मौजूद नहीं थी। और आज भी देखें तो ऐसी कई संस्कृतियां हैं जो ईसाइयत से निर्मित नहीं है लेकिन इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता कि वहां भी ख्रीस्तीय भाव सराहे जाते हैं।
हॉलैंड अपनी किताब में ज़्यादातर पश्चिमी इतिहास के उन महत्वपूर्ण अवधियों की बात करते हैं जो क्रूस की अवधारणा के प्रभाव को दर्शाती है। मैं उनके पश्चिमी ज्ञानोदय के अध्ययन पर विशेष ध्यान दूंगा | ज्ञानोदय , जिनके राजनीतिक मूल्य सुसमाचार के अलावा अकल्पनीय हैं, और पीड़ितों और हाशिए पर रहने वाले लोगों की पीड़ा पर केन्द्रित समकालीन विभिन्न “जागृत” आंदोलन एक ऐसी संस्कृति का फल है, जिसके केंद्र पर दो हजार वर्षों से, एक क्रूस की लकड़ी पर चढ़ाया गया और अन्यायपूर्ण रूप से निंदा किया गया व्यक्ति रहा है।
मुझे वह भाग सबसे प्रिय है जहां हॉलैंड बीटल्स बैंड के सुप्रसिद्ध गाने “ऑल यू नीड इज लव” की चर्चा करते हैं, जिसे उन्होंने सन 1967 में एबी रोड पर एक बड़ी भीड़ के सामने गाते हुए रिकॉर्ड किया था। उस गाने के भाव ऐसे हैं जिस पर ना तो कैसर अगस्तस, ना चंगेज़ खां और ना ही फ्रेडरिक नीत्शे की सोच विचार मेल खायेगा, बल्कि उस गीत का सार काफी हद तक संत अगस्तीन, संत थॉमस एक्विनस, असिसी के संत फ्रांसिस और प्रेरित संत पौलुस के विचारों से मेल खाता है। कोई चाहे या ना चाहे, ईसाई आंदोलन ने बड़े भारी रूप में पश्चिम की छवि को बदला है और जिस नज़रिए से हम दुनिया को देखते हैं, उसको रूप प्रदान करने में बड़ा योगदान दिया है ।
हॉलैंड की यही बातें उसकी किताब का नब्बे प्रतिशत हिस्सा हैं – जिससे मैं पूरी तरह सहमत भी हूं। वह जिन बातों का दावा करता है वे ना केवल सच हैं, बल्कि वे वर्तमान काल के लिए महत्वपूर्ण हैं। क्योंकि वर्तमान काल में ईसाई धर्म को अक्सर अलग या किनारे रखा जाने लगा है। गौरतलब है कि मेरे लिए, यह पूरी किताब तब पलटती सी मालूम हुई जब आखिर में लेखक ने इस बात को माना कि ना तो वे किसी ईश्वर को मानते हैं, और ना ही पुनरुत्थान में विश्वास रखते हैं। ईसाई विश्वास ने जिन आंदोलनों को जन्म दिया, उन्हें लेखक झुठला नहीं सकते हैं, लेकिन उस विश्वास की पुष्टि करना लेखक के बस में नहीं है। आजकल सामाजिक व्यवस्था को धार्मिक संवेदनाओं से अलग कर के देखना आधुनिक दर्शन शास्त्रियों में बहुत ही प्रचलित तरीका है। इमैनुअल कान्त और थॉमस जेफर्सन जैसे प्रसिद्ध दर्शन शास्त्रियों ने ऐसा किया है। लेकिन यह एक निरर्थक प्रयास है, क्योंकि ख्रीस्तीय मूल्यों को इतिहास से पूरी तरह अलग नहीं किया जा सकता। अगर कोई ईश्वर नहीं है, और येशु मृतकों में से नहीं जी उठे, तो फिर यह कैसे मुमकिन है कि इस दुनिया में हर व्यक्ति अनंत आदर का हकदार है और अनेक अधिकारों से सुशोंभित है? अगर कोई ईश्वर नहीं है और मसीह कभी नहीं जी उठे तो हम क्यों यह नहीं कहते हैं कि अपने क्रूस की शक्ति से कैसर जीत गया? शायद लोग येशु को बस एक धार्मिक शिक्षक और एक साहसी व्यक्ति के रूप में सराहते होंगे, पर अगर वे मर कर कब्र में ही रह गए होते तो आज भी उनका बुरा करने वालों का राज होता, और अपना हक मांगने वालों पर दुनिया हंसा करती।
यह बात इतिहास की किताबों में कैद है, कि जब शुरू शुरू में ईसाइयों ने सुसमाचार का प्रचार करना शुरू किया, तब वे मानव अधिकारों की बात नही कर रहे थे; वे केवल उस येशु की बात कर रहे थे जो पवित्र आत्मा के द्वारा मृतकों में से जिलाए गए थे। वे बस इस बात का प्रचार कर रहे थे कि जिसे कैसर के राज ने मौत दी, उसे ईश्वर ने फिर से जीवित किया। टॉम हॉलैंड अपनी जगह बिल्कुल सही हैं कि पश्चिमी सभ्यता में कई सियासी और सामाजिक बदलाव ख्रीस्त के द्वारा ही आए हैं। पर जिस प्रकार कागज़ के फूल पानी में ज़्यादा देर टिक नहीं सकते, उसी तरह येशु के क्रूस से नहीं निकलने वाले विचार बदलते समय के सामने ज़्यादा समय तक टिक नही पाएंगे।
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माला विनती जिसे हम रोज़री माला की प्रार्थना भी कहते हैं, एक अंतरंग आध्यात्मिक बातचीत है जिस के द्वारा आप अपने डर, अपनी जरूरतों और इच्छाओं को धन्य कुँवारी मरियम और ईश्वर के सम्मुख प्रकट करते हैं। जीवन में जो कुछ भी आप चाहते हैं उसे पूरा करने और असंभव को आप के जीवन से दूर करने के लिए जपमाला आपको आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करती है।
यह ध्यानपूर्ण आध्यात्मिक वार्तालाप को कभी भी और जहाँ कहीं भी जाने पर आप कर सकते हैं। आप इसे सामूहिक परिदृश्य में या स्वयं अकेले भी कर सकते हैं। आप अपने बच्चों के साथ, अपने जीवनसाथी के साथ या जिस व्यक्ति को आप प्यार कर रहे हैं, और अपने दोस्तों के साथ माला विनती की प्रार्थना कर सकते हैं। आप इसे अपना पारिवारिक कार्यक्रम बना सकते हैं। आप खाना बनाते समय, गाड़ी चलाते समय, सार्वजनिक परिवहन में चलते समय, लाइन में प्रतीक्षा करते हुए, या स्नान करते समय भी माला विनती की प्रार्थना कर सकते हैं। आप माला विनती की प्रार्थना कहाँ कहाँ कर सकते हैं इसकी कोई सीमा नहीं है।
हर बार जब आप माला विनती की प्रार्थना करते हैं, आप अधिक आध्यात्मिक रूप से सशक्त हो जाते हैं, आप अधिक चंगाई, अधिक आत्मविश्वास, अधिक प्रेरणा, अपने जीवन में अधिक चमत्कारी परिवर्तन, अधिक आध्यात्मिक जागरूकता और अपने जीवन में अधिक दिव्य कृपा प्राप्त करते हैं। हाँ… माला विनती में चमत्कारी शक्ति है!
माला विनती की प्रार्थना आपको अपने लिए और दुनिया के लिए शांति देती है, और आपके लिए और अपने परिवार के लिए उत्कृष्ट उद्देश्य, शक्ति, जीत, चंगाई, चमत्कार, शांति, स्पष्टता, दृढ़ संकल्प, दृष्टि, एकता और सद्भाव देती है। जब आप माला विनती करते हैं तब आपके जीवन में और भी आशीषें प्रवेश कर सकती हैं!
हर बार जब आप माला विनती की प्रार्थना करते हैं, तब आपकी आत्मा नई आशा, प्रेरणा, ऊर्जा और चंगाई से भर जाती है। मैं इसकी एक गवाह हूं। प्रत्येक ‘प्रणाम मरिया’ प्रार्थना अनुग्रह का क्षण है, दया का क्षण है, चंगाई का क्षण है, आशा का क्षण है, कृतज्ञता का क्षण है, नम्रता का क्षण है और आत्म समर्पण का क्षण है।
जब भी आपको संदेह होता है, या आप अपने लक्ष्यों तक पहुँचने में बाधा का सामना करते हैं; जब भी आप अकेला, उदास या आशंकित महसूस करते हैं; हर बार जब आप अनुभव करते हैं कि दूसरे आप को धमकाते हैं, तिरस्कृत करते हैं या मानो पूरी दुनिया आपके खिलाफ हो, तो अपने मन, शरीर और आत्मा को मजबूत करने के लिए अपने दिल में विश्वास और प्यार के साथ माला विनती करें। आध्यात्मिक रूप से सशक्त करने वाला यह शस्त्र आपको हार न मानने और विजयी होने के लिए प्रोत्साहित करेगा।
व्यक्तिगत निवेदन करने और दूसरों और दुनिया की जरूरतों के लिए प्रार्थना करने के लिए विशेष रूप से चंगाई की प्रार्थना के लिए माला विनती आपके काम आवें। चिंतन और प्रार्थना के उन पलों में, जब आप सुसमाचार की घटनाओं के लिए परमेश्वर और धन्य कुँवारी मरियम के प्रति अपना आभार प्रकट करते हैं, तब आप आवश्यक आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं। यदि आप माला विनती के बारे में नहीं जानते हैं, तो यह आपके लिए इसकी शक्ति को खोजने और इसे आजमाने का अवसर है! माला सबसे बड़ी विरासतों में से एक है जिसे आप अपने बच्चों के लिए छोड़ सकते हैं और अपने परिवार और दोस्तों के साथ साझा करने के लिए यह एक शानदार उपहार है।
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ज़िंदगी में संघर्ष कर सफल होने के तीन तरीके हैं।
कभी सोचा है कि ऐसा क्यों होता है कि जो चीज़ें हम करना चाहते हैं उन्हें नहीं कर पाते हैं और जिन चीज़ों से हम दूर रहना चाहते हैं उन्हें ही कर डालते हैं। संत पौलुस के मन में भी यही उलझन थी (रोमियों 7:15)। और क्यों आखिर में हमें एक वैश्विक महामारी से गुज़र कर ही यह समझ आया कि कौनसी आदतें लाभकारी हैं और कौनसी आदतें बेवजह? इस महामारी से पहले न जाने हमारी ज़िंदगी को कितनी ही फिज़ूल बातों ने घेर रखा था। पर फिर इस महामारी ने आकर दुनिया में बीमारी और मौत फैलाई जिसने कहीं न कहीं हमारे कठोर दिल को पिघलाने का काम किया।
कई लोगों के लिए सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना बड़ी ही मुश्किल का काम रहा है लेकिन कई लोगों के लिए यह नियम लाभकारी रहा है। जितना ज़्यादा समय हमने एकांत में बिताया उतना ही ज़्यादा हम ईश्वर के करीब आ पाए हैं और हमें अपने जीवन में जो ज़रूरी है उस पर मनन चिंतन करने का अवसर मिला। जब हम इन पाबंदियों से मुक्त हो कर वापस बाहर की दुनिया में प्रवेश करेंगे तब हम फिर से पुरानी आदतों को अपनाने की भूल कर सकते हैं। इसीलिए पिछले कुछ महीनों में अपने निजी जीवन में जो प्रगति की है उसे बरकरार रखने के लिए हमें एक अच्छे कैथलिक की तरह अपने हाथों को गंदा करने, रोज़री की धूल झाड़ने, वेदी पर मोमबत्ती जलाने और अपने मन को स्वर्ग की ओर करने की आवश्यकता है। इन सब के साथ हमें तीन कदम उठाने हैं जिससे हम अपनी आध्यात्मिक प्रगति में दृढ़ रह पाएं।
लगातार प्रार्थना करें
यह अच्छी बात है कि हम अपनी हर दुख तकलीफ में ज़ोरों से प्रार्थना करते हैं, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब हमारे जीवन में किसी बात की आवश्यकता होती है तब खूब प्रार्थना करना आसान होता है। लेकिन जब ज़िंदगी आराम से चल रही हो, ध्यान रहे, तब आलस्य होकर उत्साह न खो दें, बल्कि उस समय लगातार प्रार्थना करना बहुत ज़रूरी है।
जब आप वापस अपनी पुरानी दिनचर्या में जाएं तब अपनी प्रार्थना के समय को अपनी दिनचर्या के अनुसार न बदलें। बल्कि अपनी दिनचर्या को अपनी प्रार्थना के समय के अनुसार बदलें। अगर इस महामारी के दौरान आपने प्रार्थना, ध्यान और मनन चिंतन को ज़्यादा समय दिया तो कोशिश होनी चाहिए कि स्कूल और काम पर वापस जाने के बाद आप प्रार्थना, ध्यान और मनन चिंतन के समय में कटौती न करें।
प्रार्थना की मात्रा में कटौती न करने के नए उपाय खोजें – काम पर जाते वक्त आप कार में भजन, प्रार्थनाएं या प्रवचन सुन सकते हैं, आप डिनर के ठीक बाद खाने की मेज़ पर ही शाम की प्रार्थना कह सकते हैं, किसी दिन रोज़री, तो किसी दिन नोवेना, तो किसी दिन सिर्फ बाइबल पाठ कर सकते हैं।
रविवार मिस्सा को एक जिम्मेदारी से अधिक महत्त्व देना
इस वक्त हम पवित्र मिस्सा में भाग लेने और पवित्र यूखरिस्त ग्रहण करने के लिए लालायित हैं। इतने महीने हम इस कृपा से वंचित जो रहे हैं। जैसा कि लोग कहते हैं, “किसी चीज़ की कमी हमें उसकी असल अहमियत से परिचित करा देती है।”
लेकिन जब चर्च जा पाना फिर से आसान हो जाएगा तब भी क्या हम इसी प्रकार पवित्र मिस्सा और यूखरिस्त के लिए भूखे होंगे? अपनी पुरानी दिनचर्या में वापस जाने पर हर रविवार के मिस्सा में शामिल होना हमारे लिए किसी संघर्ष से कम नही होगा। इसीलिए हमें रविवार के मिस्सा को एक आदत, एक ज़िम्मेदारी से बढ़कर एक आशीष, एक कृपा के रूप में देखना चाहिए।
इसी विचार पर मनन चिंतन करते हुए जोसव् मारिया एस्क्रिवा ने कहा है, “कई ईसाई जन अपनी ज़िंदगियां आराम से जीते हैं (उन्हें किसी बात की जल्दबाज़ी नही होती)। अपने व्यवसायिक जीवन में भी वह हर काम आराम से करते हैं (वे हर काम को समय देते हैं)। लेकिन कितनी अजीब बात है कि यही लोग प्रार्थना के मामले में जल्दबाज़ी करते हुए देखे जाते हैं। वे चाहते हैं कि पुरोहित प्रार्थनाएं जल्दी जल्दी पढ़े और मिस्सा बलिदान की विधि को छोटा किया जाए।
हम ईश्वर को अपना ज़्यादा समय कैसे दे सकते हैं?
आप अपना पूरा रविवार ईश्वर को समर्पित करें। हां मिस्सा बलिदान में भाग लें पर यहीं अपनी भक्ति न रोकें। अपनी पल्ली में एक समुदाय का निर्माण करें। रविवार के मिस्सा के बाद एक दूसरे के साथ चाय पानी पिएं या किसी परिवार को अपने घर चाय या खाने पर बुलाएं। कभी रविवार के मिस्सा के लिए जल्दी आ कर पाप स्वीकार करने की कोशिश करें, या सुबह के मिस्सा से पहले अपने परिवार के साथ मिलकर रोज़री माला बोलें, या एकांत में प्रार्थना करें।
अतिरिक्त चीज़ो को अलग करें
लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग ने हमारे जीवन की उन तमाम बातों को छांट दिया जिसमें हम अपना वक्त बर्बाद किया करते थे। शायद इस महामारी ने हमें अपनी गतिविधियों को जांचने का मौका दिया। ऐसी कौनसी चीज़ें, आदतें हैं जिनकी हमें याद आई या याद नही आई। और वो कौनसी ऐसी चीज़ें, आदतें थी जिनकी हमें ज़रूरत थी, या ज़रूरत नही थी?
क्या हमारी दिनचर्या बेमतलब की उलझी हुई है? क्या जो भी हम करते हैं वह हमें सिर्फ तनाव और डरावने सपने देता है? क्या बच्चों को हर एक पाठ्येतर कार्यक्रम (एक्स्ट्रा करिकुलर प्रोग्राम) में डालना ज़रूरी है? क्या हम बच्चों को पाठ्येतर कार्यक्रमों से दूर रख कर उनके साथ गलत कर रहे हैं या उन्हें पाठ्येतर कार्यक्रमें में डाल कर उनका भला कर रहे हैं? शायद अब वक्त आ गया है कि हम जापान की मशहूर प्रबंधन विशेषज्ञ मेरी कोंडो की तरह इन पाठ्येतर कार्यों को भी छांटे ताकि हमारा परिवार हर चीज़ का एक स्वस्थ मिश्रण बन सके।
हमें कोशिश करनी चाहिए कि हमारा काम, हमारी ज़िम्मेदारियों को जाने वाला समय, हमारे पारिवारिक समय से कम हो। परिवार का एक साथ होना, एक दूसरे के साथ समय बिताना, परिवार को अंदर से मज़बूत करने के लिए बहुत ज़रूरी है। एक साथ बैठ के खेल खेलना, कभी मिलकर खाना बनाना, कभी सैर पर जाना, साइकिल चलाना, इन्हीं सारी बातों से ही तो वे यादें बनती हैं जिन्हें बच्चे आगे चलकर याद करते हैं।
इस महामारी ने हमें हमारी प्राथमिकताओं और हमारे आध्यात्मिक जीवन को गहराई से जांचने का अवसर दिया है। और इस बात में कोई शक नही है कि इस समय हम जिन तकलीफों और परेशानियों से गुज़रते हैं, उसके बदले ईश्वर से हमें वे कृपाएं मिलेंगी जिससे हम अपने जीवन में ज़रूरी बदलाव ला पाएंगे।
देखा जाए तो यह समय खुद में बदलाव लाने के लिए बहुमूल्य समय है।
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जिनसे आप प्यार करते हैं उनसे कैसे बात करनी चाहिए? आइए जानते हैं कुछ आसान तरीके।
चबाने की खुशी
मैंने संत पौलुस की “प्रेम से प्रेरित सत्य बोलने” की सलाह (एफेसियों 4:15) को बड़ी ही गंभीरता से लिया है। और ऐसा करते हुए मेरी नीयत बिल्कुल साफ रहती है। साथ ही साथ मैंने यह सलाह औरों में भी बांटी हैं, पर अक्सर इसके परिणाम के रूप में मुझे बस निराशा, मतभेद, और गलतफहमी ही हाथ लगी है। क्या आपने भी कभी ऐसा महसूस किया है? एक दिन मैं बैठ कर यही सब सोच रहा था कि क्यों मुझे इस सलाह के नकारात्मक परिणाम ही मिले हैं, तभी मैंने खुद से यह सवाल किया कि इस बारे में हमारी पवित्र माता मरियम की क्या राय होगी? तुरंत ही मेरे कानों में उनके वे शब्द सुनाई दिए जो उन्होंने काना के विवाह में सेवकों से कहे थे: “वे तुम लोगों से जो कुछ कहे, वही करना” (योहन 2:5)। पर बात यहीं खत्म नही होती।
जब मैंने मां मरियम का हाथ थाम कर सुसमाचार पढ़ना शुरू किया, मुझे याद आया कि लूकस के सुसमाचार में येशु की जन्म गाथा के ठीक बाद मां मरियम के बारे में कहा गया है : “उनकी माता ने इन सब बातों को अपने हृदय में संचित रखा।” (लूकस 2:51)। इसी वचन ने मुझे समझाया कि क्यों मेरे चंचल दिल ने कभी अच्छे फल नहीं पैदा किए। मुझे पहले मां मरियम की आंखों से चीज़ों को देखना, समझना, उन पर मनन चिंतन करना है। और फिर मुझे येशु की नकल उतारने से पहले समझना है कि किस तरह येशु प्रेम से प्रेरित सत्य को कहते थे। मुझे ईश्वर के वचन को खोजना है, समझना है और उसे ठीक तरह चबाने के बाद ही निगलने की कोशिश करनी है। तो अब सवाल यह उठता है की येशु किस प्रकार प्रेम से प्रेरित सच कहा करते थे?
कुंठा का दर्द
येशु का प्रेम से प्रेरित सच कहने का एक उदाहरण हमें तब मिलता है जब येशु की मुलाकात एक अमीर युवा व्यक्ति से होती है। वह युवा येशु से सवाल करता है कि अनंत जीवन पाने के लिए उसे क्या करना चाहिए? जिसके जवाब में येशु कहते हैं कि उसे अपने पड़ोसियों को अपने समान प्यार करना चाहिए। इसके जवाब में वह युवा कहता है “गुरुवर, इन सब का पालन तो मैं अपने बचपन से करता आया हूं” (मारकुस 10:20)।
इस चर्चा की शुरुआत येशु उस बात से करते हैं जिसमें वह नवयुवक पहले से ही अच्छा है; वे कार्य या विचार धारा जो उस नवयुवक में पहले से सराहनीय रूप से विद्यमान है। लेकिन इसके बाद जो वचन में लिखा है, वह और भी दिलचस्प है। मारकुस अपने सुसमाचार में हमें बताते हैं कि “येशु ने उसे ध्यानपूर्वक देखा और उनके हृदय में प्रेम उमड़ पड़ा।” (मारकुस 10:21)। यहां हमें येशु की मानसिकता का प्रारंभिक छोर मिलता है, जो कि प्रेम है। येशु किसी से भी जीवन का सच कहने की शुरुआत प्रेम से करते हैं।
अक्सर जब मैं किसी से अपना विश्वास साझा करता हूँ और सामने वाले व्यक्ति पर सुसमाचार का कोई असर नहीं पड़ता तो मैं सच कहूंगा मुझे गुस्सा चढ़ता है। फिर भी इस कहानी में येशु यह जानते हुए भी कि उस नवयुवक का क्या जवाब होगा, उसकी ओर देखते हैं और उससे प्रेम रखते हैं। उन्हें उसके जवाब से कोई चिढ़ नही होती। येशु यह भी जानते थे कि जब वह नवयुवक येशु की सलाह को सुनेगा तो दुखी हो कर वहां से चला जाएगा। लेकिन शायद उस वक्त येशु के दिल में उम्मीद थी कि वह नवयुवक आखिर में येशु की सलाह को अपना कर ईश्वर की कृपा प्राप्त करेगा।
क्या हम भी वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा येशु ने किया? क्या हम भी अपना सत्य बोलने की शुरुआत प्रेम से करते हैं
आप ही वह व्यक्ति हैं
प्रेम से प्रेरित सच कहने का एक और उदाहरण है जो हम पुराने विधान में पाते हैं। यह वह कहानी है जिसमे नबी नातान राजा दाऊद को उनके किए व्यभिचार और हत्या का लेखा जोखा देने जाते हैं। (2 समूएल 12)। अब यहां सवाल यह उठता है कि राजा दाऊद को उनके पापों की याद दिलाने से पहले नबी नातान उन्हें अमीर इंसान और गरीब इंसान की कहानी क्यों सुनाते है? नबी नातान राजा दाऊद से सीधे सीधे भी तो कह सकते थे कि उन्होंने दूसरे व्यक्ति के साथ घोर अन्याय किया है। लेकिन नबी नातान ने ऐसा नहीं किया, पर क्यों?
हम पढ़ते हैं कि राजा दाऊद नबी नातान की कहानी सुन कर उस अमीर इंसान पर क्रोधित हो कर कहते हैं, “जीवंत प्रभु की शपथ! जिस व्यक्ति ने ऐसा किया, वह प्राणदंड के योग्य है।” (2 समूएल 12:5)। इस प्रकार नबी नातान राजा दाऊद को उनके पापों का स्मरण कराने से पहले उनके दिल में न्याय की चिंगारी जलाते हैं, ताकि उसकी रौशनी में वे अपनी गलतियां देख सकें। अगर राजा दाऊद एक न्याय प्रिय इंसान नही होते तो ना तो वे उस अमीर व्यक्ति के किए कार्यों से नाराज़ होते, और ना ही उसका नाम पूछते। जब नबी नातान ने उनसे कहा, “आप ही वह धनी व्यक्ति हैं”, तब राजा दाऊद का दिल पछतावे से भर गया और आगे चलकर उन्होंने इसी भाव को स्त्रोत 51 में लिखा। इसीलिए अगर हममें से किसी को कभी किसी व्यक्ति के साथ उनकी मौलिकता की चर्चा करनी पड़े तो हमें नबी नातान के उदाहरण को ध्यान में रख कर लोगों से आराम से बात करनी चाहिए।
अंतिम छोर
सुसमाचार में एक और उदाहरण हैं जहां हम येशु को प्रेम से प्रेरित सच कहते हुए पाते हैं। यहां येशु अपने पुनरुत्थान के बाद पेत्रुस से बातें कर रहे हैं। (योहन 21:15-18)। झील के किनारे अपने शिष्यों को खाना खिलाने के बाद येशु पेत्रुस से तीन बार पूछते हैं, “सिमोन, योहन के पुत्र! क्या तुम मुझे प्यार करते हो?” हम जानते हैं कि पेत्रुस मन ही मन शर्म और ग्लानि से जूझ रहा था, क्योंकि उसने पहले येशु को तीन बार अस्वीकार किया था। तो सोचने वाली बात है कि येशु ने यह सवाल ही क्यों किया? येशु ने यह सवाल इसीलिए किया क्योंकि वे जानते थे कि पेत्रुस उन से सच में प्रेम करता था।
फादर डेनियल पूवन्नात्तिल दक्षिण भारत में केरल के मशहूर धर्म प्रचारक हैं। वे कहते हैं कि जब येशु को गेथसेमनी बाड़ी में गिरफ्तार किया गया था तब पेत्रुस जानता था कि अब येशु के साथ बहुत बुरा होने वाला है। फिर भी उसने येशु का पीछा किया, दूर से ही सही, पर अपनी जान जोखिम में डाल कर उसने ऐसा किया। उसका सबसे बड़ा संघर्ष उसके विश्वास और उसके डर के बीच किसी एक को चुनना था। आखिर में जब उससे पूछताछ की गई, तब उसने अपने डर के वश में आकर येशु को अस्वीकार किया। लेकिन लूकस अपने सुसमाचार में इसके बारे में कहते हैं, “प्रभु ने मुड़ कर पेत्रुस की ओर देखा।”
फादर डेनियल इसके बारे में समझाते हुए कहते हैं कि पेत्रुस का येशु को अस्वीकार करना यूदस के धोखे से अलग इसीलिए था क्योंकि पेत्रुस इतना निराश नहीं हुआ था कि वह येशु की नज़रों से गिर जाए। येशु के लिए पेत्रुस के प्रेम ने ही उसे उसकी दुर्बलता और उसकी शर्मनाक गलती के बावजूद कृपा के अंतिम छोर में स्थान दिया। इसीलिए जब येशु ने पलट कर देखा, उनकी नज़र ने जैसे उस उलझन भरे माहौल में एक जाल फेंक कर पेत्रुस को अपनी ओर खींच लिया, और उसे तब तक संभाले रखा जब तक येशु ने वापस आ कर उसकी आत्मा को बचा नहीं लिया।
जब हम उन लोगों से आमना सामना करते हैं जिन्होंने अपनी जिंदगी अपने हाथों से बिगाड़ी है, तब हम उनसे किस प्रकार बात करने की कोशिश करते हैं?
इसीलिए हमें खुद से यह सवाल करना चाहिए, “क्या मैं खुद को बताए गए उदाहरणों की तरह आचरण करता हुआ पाता हूं? क्या मैं नबी नातान और येशु की तरह ही मुश्किल वक्त में संयम रख पाता हूं?
प्रसिद्ध कैथलिक उपदेशक डॉक्टर मार्क नीमो अक्सर कहते हैं, “हमारी जीवन कहानी पाप से शुरू नही हुई थी, वह प्रेम से शुरू हुई थी।” अगर येशु पापियों से बात करते वक्त पहले उनमें छिपी अच्छाई को बाहर लाने की कोशिश करते हैं, तो क्या मुझे और आप को भी ऐसा नहीं करना चाहिए?
प्यारे येशु, मुझे आप ही की तरह प्रेम से प्रेरित सच बोलने की कृपा प्रदान दीजिए। मेरे शब्द दूसरों को मज़बूती दें। और जब भी मैं खुद को निराशा में पाऊं, मैं दुनिया को आपके नज़रिए से देख कर यह भरोसा रखूं कि आपका जीवनदाई संदेश मेरे दिल में प्रवेश करेगा। मैं खास तौर से उन लोगों के लिए प्रार्थना करता हूं जो आपकी राह से भटक गए हैं। आपकी आत्मा मेरे हर शब्द का मार्गदर्शन करे और मुझे प्रेम और चंगाई का स्त्रोत बनाए। आमेन।
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क्या आप आज सुबह एक औसत दर्जे का जीवन जीने के लिए उठे हैं?
आप एक बेहतर और महत्वपूर्ण योजना के लिए बुलाए गए हैं।
चिन्ह और चमत्कार
“मैं तुम लोगों से यह कहता हूं – जो मुझ में विश्वास करता है, वह स्वयं वे कार्य करेगा, जिन्हें मैं करता हूं। वह उन से भी महान कार्य करेगा, क्योंकि मैं पिता के पास जा रहा हूं। तुम मेरा नाम ले कर जो कुछ मांगोगे, मैं तुम्हे वही प्रदान करूंगा, जिससे पुत्र के द्वारा पिता की महिमा प्रकट हो। यदि तुम मेरा नाम ले कर मुझ से कुछ भी मांगोगे, तो मैं तुम्हें वही प्रदान करूंगा।” (योहन 14:12-14)।
हां आपने सही पढ़ा, येशु मसीह ने हमसे कहा है कि हम उनसे भी ज़्यादा महान कार्य करेंगे! जिस ईश्वर ने मनुष्य रूप धारण कर हमारे बीच निवास किया, उस ईश्वर से भी ज़्यादा महान कार्य! क्या हमें यह बात ठीक से समझ भी आ रही है? क्या येशु ने सच में ऐसा वादा किया है? क्या हम इस बात को ठीक तरह समझ भी पा रहे हैं? कोढियों को चंगा करने, अंधों को दृष्टि देने, बहरों को ठीक करने से भी महान कार्य? मृतकों को ज़िंदा करने से भी महान कार्य? क्या येशु के कहने का मतलब था कि हम वे सब कार्य करेंगे जो येशु ने किया, लेकिन उनसे भी ज़्यादा की तादात में, क्योंकि वे अपने पिता के पास जाने की तैयारी कर रहे थे? क्या हम सच में विश्वास करते हैं कि जिन चिन्हों के बारे में येशु ने हमें बताया था वे चिन्ह उन लोगों पर प्रकट होंगे जो येशु पर विश्वास करते हैं? और क्या हम इन चिन्ह और चमत्कारों के भागी बनेंगे? क्योंकि येशु ने कहा है, “वे मेरा नाम ले कर अपदूतों को निकालेंगे, नवीन भाषाएं बोलेंगे और सांपों को उठा लेंगे। यदि वे विष पियेंगे, तो उस से उन्हें कोई हानि नही होगी। वे रोगियों पर हाथ रखेंगे और रोगी स्वस्थ हो जाएंगे।” (मारकुस 16:17-18)।
पिछले कुछ सालों से मैं अपने शहर मैनचेस्टर, इंग्लैंड में स्थित एक चैरिटी में सयाम्सेवक के रूप में काम कर रहा था। यहां अलग अलग चर्च और अलग अलग संप्रदाय के लोग साथ आ कर बेघर लोगों की सेवा किया करते थे, उन्हें रात को रहने के लिए जगह, सोने के लिए बिस्तर, शाम का खाना, और जाने से पहले सुबह का नाश्ता दिया करते थे। शनिवार को मेरे कैथलिक चर्च की बारी थी। अक्सर मुझे रात को जाग कर इन बेघर लोगों की सेवा करने, उन्हें खाना देने और उनका खयाल रखने की कृपा मिलती थी। मैं इन लोगों की सेवा करना बड़े सौभाग्य की बात समझता हूं। इन लोगों में काफी लोग मुसलमान थे।
अराजकता का सिद्धांत
वहां कई सालों से कई चमत्कार होते आ रहे थे। उनमें से एक चमत्कार बड़ा ही अनोखा था। रात शुरू ही हुई थी, हमेशा की तरह मैं एक वॉलंटियर साथी (जो मेरे दोस्त भी थे) के साथ बेघर लोगों को इकट्ठा करने निकला। हमने घंटी बजाई और बिल्डिंग के अंदर गए। वहां मुझे एक औरत मिली जिन्होंने मुझे एक पर्चा दिया जिसमें एक नाम लिखा था। उस औरत ने मुझसे कहा कि यह नाम एक ऐसे व्यक्ति का था जिसे कुछ समय पहले पुलिस यहां छोड़ गई थी क्योंकि वह सड़क पर बैठा नशा कर रहा था। और हालांकि मुझे बताया गया कि वह व्यक्ति अब ठीक था और सो रहा था, फिर भी मैं इन बातों से खुश नही था और मैंने खुद उससे मिलने की इच्छा जताई। जब मैं उससे मिला, उसकी आंखों में मुझे घना अंधेरा दिखाई दिया। मुझे उससे तुरंत दूर हो जाने का मन हुआ इसीलिए मैंने उससे कहा कि दुर्भाग्यवश आज रात वह यहां नही रह सकता। मेरे लिए ऐसा कहना बड़ा मुश्किल था, क्योंकि इसका मतलब था कि वह रात उसे सड़क पर बितानी पड़ेगी। लेकिन उसके लिए यहां आ कर रहना भी ठीक नही था। मैंने उसे समझाया कि हमें पता चला था कि वह नशा कर रहा था, और क्योंकि यहां कुछ औरतें भी रात गुज़ार रही थी हम उसे यहां रहने की इजाज़त नहीं दे सकते।
हम एक इंसान को आश्रय देने के लिए बाकी लोगों को बुरी हालत में नहीं रख सकते थे। और हालांकि उसने हमसे कहा कि वह चुपचाप आराम से रहेगा, मैंने उससे कहा कि हम उसे इसलिए यहां रुकने की इजाज़त नहीं दे सकते क्योंकि इस आश्रय में नशा करने और नशा रखने की मनाही थी। मेरे इतना कहने पर वह चिल्लाने लगा और कसम खाने लगा कि वह खुद बाहर चला जाएगा। मैंने उससे कहा कि एक बार वह बाहर गया तो फिर उसे हमारी इजाज़त के बगैर फिर से अंदर नहीं आने दिया जाएगा। मेरे इतना कहते ही वह बाहर शहर की ओर भागा, इसी बीच पास वाले कमरे में दो आदमी लड़ने लगे। चारों तरफ हंगामा होने लगा। इन सब के बीच मुझे एक और व्यक्ति को आश्रय से निकालना पड़ा। इसके बाद भी खूब हंगामा हुआ। मैंने खूब समझाया पर वह इंसान इतना थका था, इतने गुस्से में था और इतने नशे में था कि वह कुछ सुनने समझने की हालत में ही नही था।
ईश्वर को सुझाव देना?
जब हम इन सब हंगामे के बाद बाहर निकले तब बाकी लोग आ कर हमसे हाथ मिला कर हमें शुक्रिया अदा करने लगे कि हमने उन दो व्यक्तियों को बाहर निकाल दिया, क्योंकि उन लोगों ने बाकी लोगों को काफी परेशान कर रखा था। ये लोग बड़े खुश थे कि उस रात वे शांति से सो पाएंगे। जब हम आगे बढ़े तब हमने एक पुलिस वैन को बीच रोड खड़े देखा। पुलिस ऑफिसर सबको पीछे हटने का आदेश दे रहे थे, क्योंकि बीच रास्ते में एक इंसान बेहोश पड़ा था। दूसरा पुलिस वाला झुक कर उस इंसान की नब्ज़ देखने लगा। मुझे जल्दी ही इस बात का अहसास हुआ कि ज़मीन पर पड़ा इंसान वही पहला मुसलमान है जो हमसे लड़ाई कर के शहर की ओर भागा था। मैं तुरंत पुलिस वाले के बगल से गुज़रता हुआ उस इंसान के पास पहुंचा और मैंने उस पर अपने हाथ रखे।
“अरे तुम यह क्या कर रहे हो?” पुलिस वाले ने गुस्से में पूछा, लेकिन मैंने उनसे कहा कि मेरा इस व्यक्ति के लिए प्रार्थना करना बेहद ज़रूरी है। फिर मैंने तुरंत ईश्वर से प्रार्थना की ” हे ईश्वर तू ने सृष्टि के प्रारंभ में इस दुनिया में जान फूंकी थी, इस इंसान में भी जान फूंक दे। येशु, तू ने अपने दोस्त लाजरुस को कब्र में से जिलाया था, इस इंसान को भी जिला दे।” बीच में मैं रुक कर सोचने लगा, “मैं कौन होता हूं अपनी साधारण जुबान से ईश्वर को सलाह देने वाला? आखिर वे ईश्वर हैं। और उनके सामने मेरे शब्द कितने मामूली हैं। हां यह बात ज़रूर है कि यह प्रार्थना मैंने सच्चे दिल से की थी। फिर मैंने पवित्र आत्मा से मिले वरदान जो की “अनोखी भाषाओं के वरदान” का प्रयोग कर प्रार्थना की ( 1 कुरिंथी 12:1-11)
जब मेरा दिल बैठ गया
संत पौलुस हमसे कहते हैं कि, “आत्मा भी हमारी दुर्बलता में हमारी सहायता करता है। हम यह नही जानते कि हमें कैसे प्रार्थना करनी चाहिए, किंतु हमारी अस्पष्ट आहों द्वारा आत्मा स्वयं हमारे लिए विनती करता है। ईश्वर हमारे हृदय का रहस्य जानता है। वह समझता है कि आत्मा क्या कहता है, क्योंकि आत्मा ईश्वर के इच्छानुसार संतों के लिए विनती करता है।” मुझे याद नहीं कि मैं वहां कितनी देर अपने घुटनों में रह कर प्रार्थना करता रहा, पर कुछ समय बाद अचानक एक पुलिस वाला चिल्ला उठा, “मुझे इसकी नब्ज़ मिल गई!!! यह सुनकर मेरा दिल झूम उठा। मैं उत्साहित हो कर लगातार येशु को धन्यवाद दिए जा रहा था। कुछ समय बाद एंबुलेंस भी आ गई और हार्ट मॉनिटर में उसकी धड़कन देख कर मैं ईश्वर को और धन्यवाद देने लगा।
इन सब के बीच मैंने अपने आसपास के लोगों पर ध्यान ही नही दिया था क्योंकि उस समय मेरा सारा ध्यान उस इंसान को बचाने में लगा हुआ था। और मैं यह विश्वास करता हूं कि ईश्वर ने ही मुझे उस इंसान की मदद करने के लिए प्रेरित किया। इन सब के बाद जब मैं वहां से उठा तो मुझे अहसास हुआ कि उस स्थान पर काफी बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई थी। फिर से कई लोग मुझसे मिले और उन्होंने मुझे धन्यवाद कहा, क्योंकि इतने हंगामे के बाद भी मैंने उस व्यक्ति के लिए प्रार्थना की थी।
कुछ हफ्तों बाद मैं फिर से आश्रय में वॉलंटियर के रूप में कार्य कर रहा था जब एक दूसरा मुसलमान व्यक्ति मेरे पास आया। उसके चेहरे पर एक बड़ी सी मुस्कान थी और वह मुझसे उस व्यक्ति के बारे में बात करना चाहता था जिसके लिए उस रात मैंने प्रार्थना की थी। उसने मुझे बताया कि उस रात वाला व्यक्ति तीन साल पहले इंग्लैंड आया था और वह तभी से शराब और नशे का आदी था। लेकिन कुछ दिनों पहले इस व्यक्ति की मुलाकात उस शराबी व्यक्ति से हुई और वह यह देख कर हैरान रह गया कि वह शराबी व्यक्ति पूरी तरह नशा मुक्त हो कर वापस अपने घर जा कर रहने लगा था। अब वह व्यक्ति बेघर नही था। मैंने यह सब सुनकर उत्साहित हो कर ईश्वर की स्तुति की। हालांकि कहानी यहीं समाप्त नही होती। मैंने महसूस किया कि जिस व्यक्ति ने मुझे यह खबर दी थी उसके दिल में भी कोई दुख था। इसीलिए मैंने उससे सुसमाचार सुनाया जिसके बाद हमने साथ में प्रार्थना की। हमारा ईश्वर आशिषों की बौछार करने वाला ईश्वर है।
ईश्वर सच में महान है!
हमें विश्वास में दृढ़ होना चाहिए। येशु ने हमसे कहा है कि विश्वास का एक छोटा सा बीज भी अपने अंदर पहाड़ों को हिलाने की ताकत रखता है और “ईश्वर के लिए सब कुछ संभव है” (मत्ती 19:26)। त्रियेक ईश्वर, सृष्टिकर्ता, मुक्तिदाता और शुद्धिकर्ता, पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा हर बपतिस्मा प्राप्त विश्वासी में निवास करते हैं। हमें इसी बात पर विश्वास करते हुए अपना जीवन बिताना चाहिए। “येशु मसीह एकरूप रहते हैं – कल, आज और अनंत काल तक। और उनके शब्द “आत्मा और जीवन” हैं (योहन 6:63)।
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“देखिये। देखिये घावों को। घावों के अन्दर प्रवेश कीजिये । उन्ही घावों के द्वारा हम चंगे हुए हैं। क्या आप कटुता का अनुभव कर रहे हैं, या उदास महसूस कर रहे हैं, क्या आप को लगता है कि जीवन सही रास्ते पर नहीं है और आप बीमार भी हैं? वहाँ देखिये, शांत भाव से देखिये ।“
इन्हीं शब्दों के साथ संत पापा फ्रांसिस हमें बताते हैं कि येसु के पांच घावों – उनके छिदे हुए हाथ, पाँव और बाजू के द्वारा कोई भी व्यक्ति किस तरह पूर्ण चंगाई पा सकता है। प्रायः सभी काथलिक इन पांच घावों की भक्ति से परिचित हैं। लेकिन क्या आपने येशु के छठवें घाव के बारे में सुना है?
बारहवीं शताब्दी के फ़्रांसीसी मठाध्यक्ष और आध्यात्मिक रहस्यवादी संत बर्नार्ड क्लेयरवॉक्स ने येशु से पूछा कि उनकी सबसे बड़ी अप्रिय पीड़ा क्या थी? येशु ने कहा: वह पीड़ा मेरे कंधे पर थी जिसे मैंने क्रूस के दु:खदायी रास्ते में सहन किया था । उस घातक घाव की पीड़ा बाकि अन्य घावों से अधिक थी, जिसके विषय में किसी भी व्यक्ति ने कभी कोई विवरण नहीं दिया है।
बीसवीं शताब्दी में पियत्रेलसीना के संत पिओ ने इस छठवें घाव की पुष्टि की । वे एक जीवित संत के रूप में लोकप्रिय थे, जिन्होने 50 से अधिक वर्षों तक अपने शरीर पर मसीह के घावों को वहन किया। एक बार कैरल वोज्टीला (जो बाद में संत जॉन पॉल द्वितीय बने) के साथ पाद्रे पिओ की दिलचस्प बातचीत हुई। उस बातचीत के दौरान फादर वोज्टीला ने उन से पूछा कि उनके क्षतचिन्ह (stigmata) के किस घाव से उन्हें सबसे अधिक दर्द हुआ । उन्हें उम्मीद थी कि पाद्रे पिओ अपनी छाती के घाव के विषय में कहेंगे। लेकिन पाद्रे पिओ ने उत्तर दिया, “यह मेरे कंधे का घाव है, जिसके बारे में कोई नहीं जानता है और न ही इसे कभी ठीक किया गया या इलाज किया गया है।”
पाद्रे पिओ की मृत्यु के बाद, संत की सारी संपत्ति की सूचि बनाने का काम ब्रदर मॉडेस्टिनो को सौंपा गया था । उन्होंने पाया कि पाद्रे पिओ के गंजी पर खून का धब्बा था जो गोल आकार में था, जो उनके दाहिने कंधे के पास का था। उसी शाम ब्रदर मॉडेस्टिनो ने अपनी प्रार्थना में पाद्रे पिओ से उनकी गंजी के रक्तरंजित निशान का अर्थ पूछा। मसीह के घावों को कंधे पर धारण करने के सबूत के रूप में उसने पाद्रे पिओ से एक चिन्ह की मांग की। उसी रात को मध्यरात्रि के समय ब्रदर मॉडेस्टिनो अपने दाहिने कंधे के असहनीय दर्द से जाग उठे। उन्हें लगा कि कोई चाकू उनके कंधे की हड्डी तक चुभा दिया हो। वे सोचने लगे कि अगर यह दर्द जारी रहा तो उस दर्द से उनकी मृत्यु हो जाएगी, लेकिन कुछ समय बाद दर्द खत्म हो गया। पाद्रे पिओ की आध्यात्मिक उपस्थिति के संकेत स्वरूप उनका कमरा एक स्वर्गीय इत्र की सुगंध से भर गया। और उन्हें एक आवाज़ सुनाई दी, “यह वही है जिसे मुझे सहना पड़ा।“
इस पर विचार करें: येशु ने अपने पांवों को क्रूस पर ठोके जाने की अनुमति दी। उसने स्वेच्छा से अपने हाथों को समर्पित कर दिया। उन्हें अपनी बगल को भेदा जाना स्वीकार्य था। संत योहन के सुसमाचार के अनुसार, येशु के कंधे पर क्रूस का भरी बोझ लादा गया, कंधा घाव और खून से भर गया था। जिस कंधे पर बिना किसी और की सहायता से येशु ने हमारे पापों का बोझ उठाया, वही कंधा उनके पूरे संकट भरी यात्रा के दौरान क्रूस का भार ढोने के लिए उपलब्ध रहा।
यह कंधा आज भी हम सभी के लिए उपलब्ध है, और उन लोगों के लिए भी, जिनको इसकी जरूरत है।
इसलिए, संत पिता फ्रांसिस हमसे अनुरोध करते हैं कि, हम सब शांत भाव से उनकी ओर देखें। जो हमें अपना कंधा दे रहे हैं, उन येशु की आवाज़ को सुनने ओर समझने की कोशिश करें, ताकि उनके कंधो पर आप अपना सिर रख कर आराम करें और उनके भयानक घावों की पीड़ा को हम सब की खातिर सहने के लिए सक्षम बनानेवाले उनके प्यार को महसूस करें|
मसीह के कंधे के घाव के प्रति भक्ति को बढ़ावा देने के लिए, संत बर्नार्ड क्लेयरवॉक्स ने मसीह के कंधे के घाव के प्रति इस प्रार्थना को लिखा:
हे प्राण प्यारे येसु, ईश्वर के विनम्र मेमने, मैं अभागा पापी, तेरे कंधो के पवित्र घावों की वंदना और पूजा करता हूँ जिस पर तूने क्रूस का भारी बोझ उठाया था, वह भारी बोझ जो मांस को फाड़ देता है और हड्डियों को नग्न कर देता है। तेरे अति पवित्र शरीर पर अन्य सभी पीड़ाओं से अधिक इस घाव ने सबसे अधिक पीड़ा पहुंचाई है। हे दुःख से घिरे येशु, मैं तेरी आराधना करता हूँ, तेरे अति पवित्र और दर्दभरे घाव के लिए मैं तेरी स्तुति करता हूँ, तुझे महिमान्वित करता हूँ और तुझे धन्यवाद देता हूँ। मुझ पापी पर दया कर। अपने पवित्र क्रूस के भारी बोझ के तले मेरे क्षम्य और अक्षम्य पापों को कुचल दे और मुझे अपने क्रूस पथ से स्वर्ग की ओर ले चल। आमेन।
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