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पवित्र मिस्सा शुरू होने में सिर्फ एक मिनट बाकी है, और मुझे लगता है कि हर बार की तरह, इस बार भी मिस्सा हमारे परिवार के लिए बड़े संघर्ष का कार्य होने जा रहा है। जब तक पुरोहित सुसमाचार पढ़कर समाप्त कर लेता है, तब तक मैं थक हारकर चूर चूर हो जाती हूँ। फिर जैसे ही धर्मसार की प्रार्थना होती है – मैं यह चिल्लाने की इच्छा को दबा रही हूं, कि “हम बाथरूम की ओर कोई और यात्रा नहीं करनेवाले हैं!” – तब तक मेरा तीन साल का बच्चा जो हमेशा “काम में व्यस्त” रहता है, घुटने टेकने के आसन पर अपना जीभ लगाकर चाटता है, जबकि मेरा सात साल का बच्चा मुझसे कहता है कि वह फिर से प्यासा है और पूछता है कि परम प्रसाद के “अभिन्न तत्व” का क्या अर्थ है। मिस्सा पूजा में जाना हमेशा बड़ा संघर्ष का काम रहा है। मिस्सा में बेहतर ध्यान न देने के लिए मैं निराशा और शर्मिंदगी महसूस करती हूं। अपने ध्यान और एकाग्रता को बनाए रखने केलिए इतनी सारी मांगों को पूरा करती हुई मैं ईश्वर की आराधना कैसे कर पाऊँगी? मेरा उत्तर है: सादगी भरा ह्रदय।
मुझे लगता था कि “मिस्सा में सक्रिय भागीदारी” वाक्यांश का अर्थ यह है कि हर एक शब्द जो मैं सुनती हूँ, उस के गहरे अर्थ को अपने अन्दर समाहित करना है। लेकिन जिंदगी के इस दौर में एकाग्र चित्त रहना एक विलासिता है। जब मैं अपने बच्चों की परवरिश करती हूं, तो मैं यह समझने लगती हूं कि ईश्वर अपने निमंत्रण या अपनी उपस्थिति से सिर्फ इसलिए मुझे वंचित नहीं रखता है क्योंकि मेरा जीवन अस्त व्यस्त रहता है। वह मुझसे प्यार करता है और मुझे वैसे ही स्वीकार करता है जैसी मैं हूं – गड़बड़, अस्त-व्यस्त, अव्यवस्थित और बाकी सब कुछ – यहां तक कि एक अस्त-व्यस्त मिस्सा बलिदान की अव्यवस्था या अराजकता के अनुभव के मध्य में भी। यदि हम इसे याद रखें, तो आप और मैं यूखरिस्त रूपी परम पवित्र संस्कार में परमेश्वर के प्रेम के सर्वोच्च उपहार हेतु अपने हृदयों को तैयार करने के लिए सरल कदम उठा सकते हैं।
एक लघु वाक्यांश ढूंढ लें
प्रत्येक मिस्सा बलिदान के दौरान मैं जिन शब्दों को सुनती हूँ, उनके बारे में सोचकर मैं अक्सर अभिभूत हो जाती हूं। मेरा ध्यान भटक जाता है, और मैं बोले गए कई भागों पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए संघर्ष करती हूं। यदि आप इस चुनौती पर भी जीत पा लेते हैं, तो जान लें कि अभी भी आप और मैं मिस्सा को भक्ति के साथ सुनने और उसमें सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए बुलाये गए हैं। कैसे? आइए इसे सरल बना लेते हैं। आप किसी एक छोटा वाक्यांश को सुनें, जो आपका ध्यान आकर्षित करता है। उस पर चिंतन करें। इसे दोहरावें। इसे येशु के पास लायें और उनसे कहें कि वे आपको दिखाएं कि यह वाक्यांश क्यों महत्वपूर्ण है। इस वाक्यांश को पूरे मिस्सा बलिदान में अपने दिल में रखें और जिस समय आप अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभा रहे हैं, उस समय इसे आपके मनन चिंतन का एक लंगर बनने दें। आपका खुला हृदय येशु मसीह के अनुग्रह केलिए एक परिदृश्य हैं।
प्रेमपूर्ण दृष्टि
प्यार को हमेशा शब्दों की जरूरत नहीं होती। कभी-कभी एक साधारण नज़र प्यार के सागर को प्रकट कर सकती है। यदि शब्द आप पर हावी हो जाते हैं, तो अपने हृदय की आवाज़ सुन लें और अपनी आँखों को क्रूस पर या क्रूस यात्रा के किसी एक स्थान पर केंद्रित करके अपने प्रेम को प्रभु की ओर मोड़ दें। जो चीज़ें आप को दिखाई देती हैं उन पर मनन करें: येशु का चेहरा, उनका कांटों का ताज, उनका रक्त रंजित ह्रदय ….। आपके द्वारा चुना गया प्रत्येक विवरण आपके हृदय को येशु के करीब खींच लाता है और आपको परम प्रसाद में हमारे प्रभु के प्रेम के अपार उपहार को प्राप्त करने के लिए तैयार करता है।
अपना दिल लायें
यदि सब कुछ विफल हो जाता है, तो अपने आप को येशु केलिए प्रेम की भेंट के रूप में उस के पास ले आवें। प्रभु आपके इरादों और आपकी सच्ची इच्छाओं को जानता है। यदि आप अपने नियंत्रण से बाहर की चीज़ों से व्याकुल और भूले भटके हुए महसूस करते हैं, तब भी आप प्रभु की आराधना करने, उनका स्वागत करने और उनसे प्रेम करने के लिए हृदय से उनके सामने आ सकते हैं। अपने दिल के स्नेह को जगायें और दोहरायें “हे प्रभु, मैं यहाँ हाजिर हूँ। मैं आपको स्वीकार करता हूँ। मेरे दिल को बदल दे प्रभु!”
जब भी हम अपने प्रभु से मिस्सा बलिदान में मुलाकात करते हैं, तब प्रभु हर बार आनन्दित होते हैं, चाहे हमारी परिस्थितियाँ जो भी हो, उन बातों की वे परवाह नहीं करते। येशु मानव थे — वे थक गए थे, उनके कार्य में बाधाएं आ गयीं थीं। इसलिए हमारे प्रभु जीवन की गड़बड़ियों और परेशानियों को समझते हैं! और इन सब गड़बड़ियों के बीच में भी, वे अपने आप को परम प्रसाद के रूप में आपको देना चाहते हैं। तो अगली बार जब आप मिस्सा बलिदान में जाएँ, तब येशु को अपना इच्छुक हृदय समर्पित करें, और जैसे आप हैं, वैसे ही उसके सामने आने के लिए अपनी “हाँ” उसे दें। गिरजा घर में बच्चों के साथ आपकी प्रार्थना के दौरान हो रही पारिवारिक अराजकता से बढ़कर, मसीह का प्रेम सबसे महत्त्वपूर्ण सच्चाई है।
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हन्ना एलिस साइमन जन्म से अंधी थी, फिर भी हममें से अधिकांश जो देखते हैं, उससे आगे वह देखती है! पेश है उनके जीवन की एक कहानी जो निश्चित रूप से आपको छू जाएगी
एक बहुत ही भावुक व्यक्ति होने के नाते, दो साल पहले, मैं छोटी छोटी चीजों पर आंसू बहाती थी। यह स्थिति तब बदल गयी जब मुझे बच्चों के एक समूह से बात करने के लिए एक गिरजाघर में आमंत्रित की गयी थी। उस समय मुझे उन बच्चों से मिलने का अवसर प्राप्त करके बड़ी खुश थी, इसलिए मैं बड़े आत्म विश्वास के साथ बाहर निकली। मुझे नहीं पता था कि मेरे साथ क्या होनेवाला है।
वहां पहुँचने पर, वे मुझे गिरजाघर के अन्दर ले गए और मैं बच्चों के दोपहर के भोजन के बाद लौट आने का इंतजार करने लगी। धीरे-धीरे, एक-एक करके, वे अंदर आए और मेरी चारों ओर भीड़ लगा दी। उन्होंने बात की कि मैं कितनी अजीब दीखती थी और उनमें से कुछ ने मुझे भूतनी कहा। वे मुझे अपने हाथों से चीजें बनाकर दिखा रहे थे, लेकिन मुझे नहीं पता था कि क्या हो रहा है। जैसे ही उनके क्रूर शब्द मेरे अन्दर दुबकी लगा रहे थे, मुझे लगा कि मैं टूटने और रोने वाली हूँ। जैसे ही मेरी पलकों में आंसू छलक पड़े, मैं चुपचाप प्रार्थना करने लगी, लेकिन मैं बस उस जगह से भाग जाना चाहती थी। मैं अभी भी अपने दिल में ईश्वर से प्रार्थना करती रही, “हे ईश्वर… कृपया… मैं इनके सामने रोना नहीं चाहती… कृपया मजबूत बनने में मेरी मदद कर …”
मेरी माँ यह सब देख रही थी। माँ ने मुझसे कहा, “हन्ना… यह रोने का समय नहीं है और हालांकि यह गुस्सा करने का भी समय नहीं है, फिर भी तुम उनको बता दो कि उन्होंने जो किया वह गलत है। उन्हें किसी दूसरे व्यक्ति के साथ ऐसा नहीं करना चाहिए। तुम्हें यह बात उन सबको बता देना चाहिए।”
घबराहट के साथ, मैंने उन बच्चों का सामना किया जिन्होंने मेरा अपमान किया था और अचानक ईश्वर ने मेरे होठों पर सही शब्द डाल दिए। मैंने उनसे कहा, “आप मुझे अजीब कह सकते हैं लेकिन मैं अजीब नहीं हूँ। मै खास व्यक्ति हूँ। मैं ईश्वर के लिए खास हूं। मैं उसकी प्रिय हूँ। अगली बार जब आप लोग किसी ऐसे व्यक्ति को देखें जो आप की नज़र में अलग या अजीब लगता है, तो उसके पास जाएं और उससे कहें कि ‘तुम खास हो और मैं तुम्हें उसके लिए प्यार करता हूं।’
उस दिन ईश्वर ने मुझ पर और बच्चों की उस पूरी भीड़ पर एक चमत्कार किया। मेरे बोलने के बाद, वे सभी मेरे पास आए और जिन बच्चों ने मेरा अपमान किया था, उन्होंने माफी मांगी, लेकिन यह सबसे ख़ास बात यह नहीं है। भीड़ के बीच में मुझसे छोटी एक और लड़की थी, जो दिव्यांग भी थी। वह मेरे पास आई और बोली, “भले ही मुझे स्कूल में बहुत अपमान का सामना करना पड़ा हो, लेकिन आज आपने जो कहा वह मुझे मजबूत करता है। मुझे एहसास हुआ कि मैं भी खास हूं।” तब मुझे समझ में आया कि ईश्वर ने मुझे उन सभी अपमानों का सामना करने की अनुमति क्यों दी। मेरी नियति भीड़ में उस एक शख्स को ताकत देना था, जिसे इसकी जरूरत थी।
उत्पत्ति ग्रन्थ, अध्याय 12, श्लोक 2 में यह कहा गया है, “मैं तुम्हारे द्वारा एक महान राष्ट्र उत्पन्न करूंगा, तुम्हें आशीर्वाद दूंगा और तुम्हारा नाम इतना महान बनाऊंगा कि वह कल्याण का स्रोत बन जाएगा।” इसलिए, अपने दिल के दर्द-पीड़ा और अपने डर को ईश्वर पर डाल दो। भले ही पूरी दुनिया आपके खिलाफ हो और एक भी व्यक्ति आपसे प्यार न करे… भले ही आपका दिन रात के समान अंधेरा हो, जान लें कि एक ईश्वर है जो आपकी परवाह करता है… जो दुनिया की सभी वस्तुओं से ज्यादा, सभी व्यक्तियों से अधिक आप से प्यार करता है। जान लीजिये कि परमेश्वर आप को चाहता है, आप उसके लिए अनमोल हैं। आप एक आशीर्वाद हैं!
'क्या ईश्वर पर मेरा भरोसा मेरे बैंक खाते, संपत्ति और संसाधनों पर बहुत अधिक निर्भर करता है? या क्या मैं सच में परमेश्वर पर भरोसा रखती हूँ?
तीसरी दुनिया के देश में सेवा दे रहा एक मिशनरी परिवार अपने मिशन केंद्र से लौटने के बाद आराम करने केलिए हमारे साथ रहने के लिए आया था। दोपहर के भोजन के समय, एक दिन उन्होंने प्रभु द्वारा प्रदान किये गए कृपाओं के बारे में एक अद्भुत गवाही साझा की। वे बहुत गरीब इलाके में रह रहे थे और लोग अक्सर उनके पास मदद मांगने आते थे। उस मिशनरी परिवार को उनके अपने जीवन यापन के खर्च के लिए एक मासिक वजीफा मिलता था, और आमतौर पर प्रत्येक महीने के अंत तक यह वजीफा ख़तम हो जाता था। उनके घर में रेफ्रिजरेटर या कोई अलमारी भी नहीं थी, इसलिए प्रति दिन के लिए उन्हें जो भी खाना चाहिए था, वे उसी दिन बाजार से खरीद लेते थे और वही खाते थे।
एक महीने जब वे बजट देख रहे थे, तो उन्होंने देखा कि उनके पास कुछ भी नहीं बचा है – अगले वजीफा आने तक कुछ साडा भोजन करने के लिए भी शायद ही पर्याप्त था। और फिर उन्होंने अपने दरवाजे पर दस्तक सुनी। दरवाजे पर दस्तक का आमतौर पर मतलब होता था कि कोई जरूरतमंद कुछ मांगने आ रहा है। माता-पिता ने बच्चों से कहा, “दरवाजा मत खोलो। हमारे पास कुछ भी नहीं बचा है।” माँ और पिताजी जानते थे कि उनके पास अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए कुछ भी पर्याप्त नहीं था। लेकिन बच्चों ने मातापिता के व्यवहार से आशरी चकित होकर अपने माता-पिता से कहा, “आपका विश्वास कहाँ है?” बच्चों में से एक ने कहा, “यदि आप खुद पर भरोसा करते हैं, तो आप ईश्वर को चमत्कार करने के लिए कोई जगह नहीं छोड़ रहे हैं।”
अपने बच्चों की प्रतिक्रिया से परेशान माता-पिता ने दरवाजा खोला। दरअसल, कोई मदद मांगने के लिए ही आया था, और बच्चों ने अपने पास जो कुछ था वह सब उस परिवार के लिए दिया जो ज्यादा जरूरतमंद था। पिटा जी ने दरवाजा बंद करने के बाद कहा, “ठीक है, अब हमें पूरे सप्ताह भूखे रहना पडेगा।”
उस घटना के बारे में हमें बताते हुए उन्होंने कहा, “मैं अल्प विश्वास वाला था! उस सप्ताह में जो अनाज और अन्य सामग्री हमें जो मिली, उसे देखकर आप विश्वास नहीं करेंगे! कोई हमारे लिए कुछ चावल लाया, कोई नारियल से भरा हुआ ठेला लाया, किसी और व्यक्ति ने हमारे लिए गन्ना ला दिया। कुछ लोगों ने हफ्ते भर हमें रेस्टोरेंट में खाना खाने के लिए आमंत्रित किया। हमें एक बार फिर परमेश्वर के वचन की सच्चाई दिखाई गई, ‘दो और तुम्हें भी दिया जाएगा।”
वह लूकस 6:38 को उद्धृत कर रहा था जब येशु ने अपने शिष्यों से कहा था, “दो और तुम्हें भी दिया जाएगा। दबा-दबा कर, हिला-हिला कर, भरी हुई, ऊपर उठी हुई, पूरी की पूरी नाप तुम्हारी गोद में डाली जायेगी; क्योंकि जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिए भी नापा जायेगा।”
बाद में जब मैंने इस अद्भुत गवाही पर विचार किया, तो मैंने अपने आप से पूछा, “मेरा भरोसा कहाँ है? क्या यह मेरे संसाधनों, मेरे बैंक खाते, मेरी संपत्ति में है? या यह ईश्वर में है?” उन मिशनरी बच्चों में से एक ने जो कहा था, उस पर मैं ने मनन किया, “यदि आप खुद पर भरोसा करते हैं, तो आप ईश्वर को चमत्कार करने के लिए कोई जगह नहीं छोड़ रहे हैं।” क्या मैं अपने जीवन में परमेश्वर को चमत्कार करने के लिए कोई जगह छोड़ता हूँ?
जैसे हम तपस्या काल के करीब आते हैं, कलीसिया हमें और अधिक प्रार्थना, उपवास और भिक्षा दान के रिवाजों को कार्यान्वित करने के लिए आमंत्रित करती है। भिक्षा दान देना, विशेष रूप से जब हम केवल अपने अधिकता में से नहीं, बल्कि त्याग करके अपनी कमी में देते हैं, तब हम अपने दिलों को और विशाल बना सकते हैं और हम अपने कुछ स्वार्थों से छुटकारा प्राप्त कर सकते हैं। भिक्षा दान देने से, हमें अपने जीवन में परमेश्वर के लिए जगह बनाने में भी मदद मिल सकती है क्योंकि हमारे भिक्षा दान के द्वारा परमेश्वर अपनी अद्भुत और भरपूर देखभाल और प्रावधान से हमें आश्चर्यचकित कर सकता है।
इस तपस्या काल में, आइए हम प्रार्थनापूर्वक प्रभु से पूछें कि उसके द्वारा दिए गए उन उपहारों के साथ – चाहे वह हमारा समय हो, हमारी ऊर्जा हो, या हमारी मुस्कान हो – लेकिन विशेष रूप से हमारे बैंक के क्रेडिट कार्ड्स या बटुआ, इन सारे उपहारों के साथ हम और अधिक उदार कैसे हो सकते हैं। जब आप भिक्षादान करने के लिए उन प्रार्थनापूर्ण सुझावों का अनुसरण करते हैं, तो आश्चर्यचकित न हों, क्योंकि लूकस 6:38 में किये गए अपने वादे को परमेश्वर पूरा करता है, “दबा-दबा कर, हिला-हिला कर, भरी हुई, ऊपर उठी हुई, पूरी की पूरी नाप तुम्हारी गोद में डाली जायेगी; क्योंकि जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिए भी नापा जायेगा।…” मेरे पिताजी अक्सर हमसे कहा करते थे, “उदारता के मामले में कभी भी आप प्रभु को पछाड़ नहीं सकते!”
'अकेलेपन का इलाज आपके पास ही है!
साठ के दशक के दौरान रॉक ग्रुप थ्री डॉग नाइट का एक पॉप गीत बड़ा हिट हुआ था, एक सबसे अकेला नंबर है, जिसने अलगाव से जुड़े दर्द के बारे में बात की थी। उत्पत्ति की पुस्तक में हम देखते हैं कि आदम बगीचे में अकेला रह रहा था। निश्चित रूप से, उसे ईश्वर की ओर से अनुमति मिली थी कि वह अपना प्रभुत्व प्रकट करने के लिए सभी प्राणियों को नाम दे सकता था। इसके बावजूद भी, कुछ कमी थी: वह अकेला महसूस करता था क्योंकि “उसे अपने लिए कोई उपयुक्त सहायक नहीं मिला” (उत्पत्ति 2:20)।
बिना शर्त का प्रेम
एकांत के इस नाटक का अनुभव आज अनगिनत स्त्री-पुरुष कर रहे हैं। लेकिन, ऐसा होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इस अकेलेपन का इलाज सीधे आपके सामने है: वह परिवार, जिसके बारे में “समाज का मौलिक प्रकोष्ठ” में संत पापा फ्राँसिस हमें याद दिलाते हैं, (इवेंजेलियम गौदियम, 66)। देखा जाए तो, परिवार वह है जहाँ युवा लोग अपनी आँखों से देख सकते हैं कि मसीह का प्रेम जीवित है और अपने माता पिता के प्रेम में वह प्रेम मौजूद है, जो इस बात की गवाही देते हैं कि बिना शर्त का प्रेम संभव है।
इसलिए हम अलग-थलग, अकेले और आत्मनिर्भर व्यक्तियों के रूप में जीवन जीने के लिए नहीं बनाए गए हैं, बल्कि हम अन्य व्यक्तियों के साथ संबंधों का आनंद लेने के लिए बनाए गए हैं। यही कारण है कि ईश्वर ने कहा, “मनुष्य का अकेला रहना अच्छा नहीं। मैं उसके लिए एक उपयुक्त सहायक बनाऊँगा” (2:18)। इन सरल शब्दों से पता चलता है कि मनुष्य के दिल को तभी सबसे ज़्यादा खुशी मिलती है, जब वह अपने दिल को किसी दूसरे के दिल से जोड़ता है। एक दिल जो उसे बिना शर्त के और कोमलता से प्यार करे और उसके अकेले होने के एहसास छीन ले। ये वचन हमें दर्शाते हैं कि परमेश्वर ने हमें अलग-थलग रहने के लिए नहीं बनाया, जिसके कारण हमें अनिवार्य रूप से उदासी, दुःख और चिंता का सामना करना पड़ता है। उसने हमें अकेले रहने के लिए नहीं बनाया। उन्होंने पुरुषों और महिलाओं को खुश रहने के लिए बनाया, ताकि वे अपनी कहानी और यात्रा को दूसरे के साथ तब तक साझा कर सकें जब तक कि मृत्यु उन्हें अलग ना कर दे। पुरुष स्वयं को खुश नहीं रख सकता है। स्त्री स्वयं को सुखी नहीं रख सकती है। लेकिन, किसी के साथ अपनी यात्रा साझा करना उन्हें पूर्ण बनाता है, ताकि वे प्यार के अद्भुत अनुभव को जी सकें, एक दूसरे से प्रेम रख सकें, और बच्चों में अपने प्रेम को फलते हुए देख सकें। भजनकार इसे इस तरह कहता है: “तेरी पत्नी तेरे घर में फलवंत अंगूर बेल के सदृश रहेगी; तेरी चौकी के चारो ओर ज़ैतून के अंकुरों के समान तेरे बाल बच्चे होंगे। देखो, जो व्यक्ति प्रभु का भक्त है, वह आशीष पाएगा” (भजन संहिता 128:3-4)।
गौरव की रक्षा
अपनी प्यारी रचना के लिए ईश्वर का एक सपना है: जिस प्रकार ईश्वर एक दिव्य प्रकृति को साझा करने वाले तीन व्यक्ति हैं, जिस प्रकार पुनर्जीवित मसीह हमेशा के लिए अपनी कलीसिया से जुड़ चुके हैं, उसी प्रकार उनका आलौकिक शरीर, उस संबंध और प्रेम का प्रतीक है जिसे एक पुरुष और स्त्री अपनी यात्रा को एक दूसरे के साथ साझा कर, और एक दूसरे से प्रेम रख कर प्रदर्शित करते हैं।
यह वही योजना है जिसकी कल्पना येशु ने मानवता के लिए की थी। “सृष्टि की आरंभ से ही, परमेश्वर ने उन्हें नर और नारी बनाया’। इस कारण पुरुष अपने माता-पिता को छोड़ेगा और अपनी पत्नी के साथ रहेगा, और वे दोनों एक शरीर होंगे। इस प्रकार अब वे दो नहीं, बल्कि एक शरीर हैं” (मरकुस 10:6-8; में उत्पत्ति, 2:24 की तुलना)। इसीलिए, वे यह निष्कर्ष निकालते हैं, “इसलिये जिसे परमेश्वर ने जोड़ा है, उसे कोई मनुष्य अलग न करे” (मारकुस 10:9)। यह अंतिम पंक्ति महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि सृष्टिकर्ता की मूल योजना में कोई फेरबदल नहीं है। ऐसा नहीं है कि एक पुरुष एक महिला से शादी करता है और, अगर चीजें ठीक नहीं होती हैं, तो वह उसे ठुकरा देता है और प्लान बी पर चला जाता है। नहीं, बल्कि, पुरुष और स्त्री को एक-दूसरे को पहचानने, एक-दूसरे को पूरा करने, एक दूसरे की मदद करने के लिए बुलाया जाता है। ताकि वे एक दूसरे को अपने उद्देश्य और भाग्य का एहसास करा सकें।
उत्पत्ति ग्रन्थ के शुरुआती अध्यायों पर आधारित येशु की यह शिक्षा, विवाह के संस्कार का आधार है, जो कि एक दिव्य आदेश है, जैसा कि धर्मग्रन्थ में और परमेश्वर के पुत्र के शब्दों के माध्यम से प्रकट होता है। समकालीन सोच के विपरीत, यह एक ऐतिहासिक या सांस्कृतिक निर्माण नहीं है, चाहे कोई विधायी या न्यायिक संस्थान कुछ भी कहे।
येशु की शिक्षा बहुत स्पष्ट है और विवाह की गरिमा की रक्षा करती है जो कि एक पुरुष और महिला के बीच का वह प्रेम है जो कि संवैधानिक है। इसके अलावा बाकी कुछ भी शादी नहीं है। इसके अलावा, एक पुरुष और महिला के मिलन का अर्थ है निष्ठा। जो बात पति-पत्नी को विवाह में एकता में रहने की अनुमति देती है, वह है मसीह के अनुग्रह से प्रभावित आपसी आत्म-दान का प्रेम। लेकिन, इस मिलन का पोषण करने में कड़ी मेहनत लगती है: यदि पति-पत्नी अपने निजी हितों का पीछा करते हैं, या किसी की अहंकारी संतुष्टि को बढ़ावा देते हैं, तो यह संबंध टिक नहीं सकता।
पति या पत्नी या दोनों व्यक्ति इस तरह का व्यवहार कर सकते हैं जो कि उनके संबंध को संकट में डाल सकता हैं। यही कारण है कि येशु इस बात को सृष्टि की शुरुआत में वापस लाते हैं ताकि वे हमें यह सिखा सकें कि ईश्वर मानव प्रेम को आशीर्वाद देता है, कि वह ईश्वर है जो एक दूसरे से प्रेम करने वाले पुरुष और महिला के दिलों को जोड़ता है। वह उन्हें अविभाज्यता में उसी तरह शामिल करता है जैसे वह अपनी कलीसिया के साथ एकजुट होता है। यही कारण है कि कलीसिया परिवार की सुंदरता की पुष्टि करते नहीं थकती क्योंकि यह हमें शास्त्र और परंपरा द्वारा प्राप्त हुआ है। साथ ही साथ, वह उन लोगों पर अपना मातृ स्नेह प्रदान करने का प्रयास करती है, जिन्होंने ऐसे रिश्तों का अनुभव कर किया है जो कि टूट गए हैं या मुश्किल और दर्द भरे बन गए हैं।
टूटे हुए और अक्सर विश्वासघाती लोगों के साथ परमेश्वर का कार्य करने का तरीका हमें सिखाता है कि परमेश्वर की दया और क्षमा के द्वारा घायल प्रेम को ठीक किया जा सकता है। इस कारण से, कलीसिया निंदा या दोषारोपण के साथ नेतृत्व नहीं करती है। इसके विपरीत, पवित्र माता कलीसिया को प्रेम, दान और दया प्रदर्शित करने के लिए बुलाया गया है, ताकि घायल और खोए हुए दिलों को ठीक किया जा सके और उन्हें ईश्वर के आलिंगन में वापस लाया जा सके।
आइए हम याद रखें कि हमारे पास कलीसिया की माता, धन्य कुंवारी मरियम के रूप में एक महान सहयोगी है, जो कि विवाहित जोड़ों को प्रामाणिक रूप से एक साथ रहने और उनके मिलन का नवीनीकृत करने में मदद करती है, जिसकी शुरुआत भगवान के मूल उपहारों से होती है।
'प्रश्न:
क्या यह सच है कि येशु मसीह ही उद्धार का एकमात्र मार्ग है? मेरे परिवार के कुछ सदस्य येशु पर विश्वास नहीं करते हैं। उन जैसे लोगों का क्या होगा ? क्या उन्हें बचाया जा सकता है?
उत्तर:
वास्तव में, येशु अपने बारे में कुछ साहसिक दावे करते हैं कि वे कौन है। वे कहते हैं कि वे “मार्ग, सत्य, जीवन” हैं — वे बहुतों में से केवल एक मार्ग या जीवन के अलग अलग मार्गों में से एक मार्ग नहीं है। वे आगे कहते हैं कि “मुझ से होकर गए बिना कोई पिता के पास नहीं आ सकता।” (योहन 14:6)।
मसीही होने के नाते, हम मानते हैं कि केवल येशु मसीह ही दुनिया के उद्धारकर्ता हैं। जो कोई उद्धार पाता है, वह येशु में और उसके द्वारा उद्धार पाता है—उसकी मृत्यु और पुनरुत्थान ने संसार के पापों को उठा लिया गया और पिता के साथ हमारा मेल करा लिया; और उस पर हमारे विश्वास के माध्यम से हमें उसकी कृपाओं और दया तक पहुँचने की अनुमति मिलती है। मुक्ति केवल येशु के द्वारा ही है—बुद्ध द्वारा नहीं, मुहम्मद, या अन्य कोई महान आध्यात्मिक नेता द्वारा नहीं।
लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि केवल ईसाई ही स्वर्ग जाते हैं? यह इस बात पर निर्भर करता है कि उस व्यक्ति ने सुसमाचार सुना है या नहीं। अगर किसी ने कभी येशु का नाम नहीं सुना है, तो उसे बचाया जा सकता है, क्योंकि ईश्वर ने प्रत्येक मानव हृदय में “ईश्वर के लिए क्षमता” और प्राकृतिक कानून (हमारे दिलों पर लिखे गए सही और गलत की सहज भावना) को रखा है। जिस व्यक्ति ने कभी भी सुसमाचार की घोषणा नहीं सुनी है, वह येशु के बारे में अपनी अज्ञानता के लिए दोषी नहीं है, और वे अपने ज्ञान के अनुसार परमेश्वर को सर्वोत्तम तरीके से खोजकर और प्राकृतिक नियमों का पालन करके, मोक्ष की कृपा प्राप्त कर सकते हैं।
लेकिन अगर किसी ने येशु के बारे में सुना है और उसे अस्वीकार करने का निर्णय लिया है, तो जिस उद्धार को येशु ने उस व्यक्ति के लिए हासिल किया है, वह व्यक्ति उस उद्धार को अस्वीकार करने का फैसला करता है। कभी-कभी लोग येशु का अनुसरण नहीं करने का निर्णय लेते हैं क्योंकि, शायद उनका परिवार उन्हें अस्वीकार कर देगा, या उन्हें एक पापी जीवन शैली को छोड़ना होगा, या उनका अभिमान उन्हें एक उद्धारकर्ता की आवश्यकता को स्वीकार करने की अनुमति नहीं देता है। जो उद्धार मसीह हम में से प्रत्येक को देना चाहता है, उस अविश्वसनीय उपहार से मुंह मोड़ना कितना दु:खद होगा!
इसके साथ ही, हम मानते हैं कि हम किसी व्यक्ति की आत्मा के उद्धार के बारे में फैसला नहीं कर सकते। शायद किसी ने सुसमाचार सुना था, लेकिन वह सही रीति से नहीं सुनाया गया था; हो सकता है कि वे येशु के बारे में जो कुछ भी जानते हैं वह किसी टी.वी. सीरियल से आता विकृत जानकारी हो; हो सकता है कि वे ईसाइयों के बुरे व्यवहार के कारण मसीही विश्वास के बारे में गलतफहमी रखते हों और इस तरह वे मसीह को स्वीकार करने में असमर्थ हों। गांधी के जीवन का एक प्रसिद्ध वाकया है, जिसमें वह महान हिंदू व्यक्ति ईसाई धर्म की प्रशंसा करते हैं। गांधी सुसमाचार पढ़ना पसंद करते थे और उसमें निहित ज्ञान का आनंद लेते थे। लेकिन जब उनसे पूछा गया, “यदि आप स्पष्ट रूप से मसीह में विश्वास करते हैं, तो आप अपना धर्मांतरण करके ईसाई क्यों नहीं बन जाते हैं?” उन्होंने जवाब दिया, “आह, मैं आपके मसीह से प्यार करता हूँ, लेकिन आप ईसाई लोग उस मसीह से बिलकुल विपरीत हैं!” ईसाइयों के बुरे व्यवहार ने इस महान नेता को ईसाई बनने से रोका!
तो, उत्तर को सारांशित कर लेते हैं: परमेश्वर, उन तरीकों के माध्यम से, जो केवल स्वयं वही जानता है, उन लोगों को बचा सकता है जिन्होंने कभी सुसमाचार नहीं सुना है, या शायद इसे प्रचारित करते हुए नहीं सुना है, या इसे सही ढंग से नहीं सुना है, या इसे ईसाइयों के जीवन में अमल होते हुए नहीं देखा है। हालाँकि, जिन्होंने सुसमाचार को सुना है, लेकिन इसे अस्वीकार कर दिया है, वे उद्धार के उपहार से दूर हो गए हैं।
यह जानते हुए कि आत्माएं स्वर्ग और नरक के बीच लटकी हुई हैं, इसलिए हम जो प्रभु को जानते हैं, हमें सुसमाचार प्रचार का महत्वपूर्ण कार्य दिया जाता है! हमें अपने अविश्वासी मित्रों और उनके परिवार के सदस्यों के लिए प्रार्थना करनी चाहिए, अपने आनंद और अपने प्रेम के साथ उन्हें अपनी गवाही देनी चाहिए, और उन्हें “हमारी आशा के आधार” समझाने में सक्षम होना चाहिए (1 पतरस 3:15)। शायद हमारे शब्द या हमारे कर्म आत्मा को अंधकार से के उद्धार वाले विश्वास के प्रकाश में लाएंगे!
'आगे पढ़ें और आप निश्चित रूप से परमेश्वर के हृदय की कुंजी पाएंगे!
लिस्यू की संत तेरेसा ने एक बार समझाया था कि प्रार्थना “दिल का उछाल” है; यह स्वर्ग की ओर मुड़ी हुई एक सरल दृष्टि है, यह पहचान और प्रेम की पुकार है, जिसमें पीड़ा और आनंद दोनों शामिल हैं।”
उसने मेरे दिल में घोंसला बना लिया
जब मेरे पति और मैं पालक माता-पिता बन गए, हम दोनों, तीन भयभीत, पीड़ित और बेसहारे बच्चों की जरूरतों को पूरा करने में असहाय महसूस कर रहे थे, और दु:खी होकर अपने आप को इस कार्य के लिए अयोग्य और अशिक्षित या कुशलहीन समझ रहे थे, तभी मैंने एक नए तरीके से “दिल के उछाल” को अपने अन्दर अनुभव किया। वे तीनों बहुत ही प्यारे और सुन्दर बच्चे थे – चार साल की एक लड़की, ढाई साल का उसका भाई, और सिर्फ छः महीने की उनकी छोटी बहन।
जैसे जैसे हमने निद्राविहीन उन पहले कुछ हफ्तों को गुज़ारा, वैसे ही हमने एक तरीका अपनाया, जिसके कारण धीरे-धीरे मेरे लिए अपने ईशशास्त्र के अध्ययन को फिर से चालू करना संभव हो गया, और सप्ताह में एक दो बार, मैं घर से थोड़ी दूर पर स्थित प्रार्थनालय की ओर चली जाती थी और वहां के शांत वातावरण में सुकून पाती थी। फिर भी, मेरे दिमाग में तूफ़ान उठा हुआ करता था। उस समय तक मेरे लिए यह स्पष्ट था कि मेरे सर पर ये तीन बच्चे सवार थे, जिनमें से प्रत्येक अपने पूर्व माता-पिता और बड़े भाई से अलग किये जाने के बाद हमारे साथ जीवन को समायोजित करने के लिए संघर्ष कर रहा था। फिर भी मैं यह भी जानती थी कि अगर मैं उन तीनों की देखभाल करने में असमर्थ थी, तो यह संभावना नहीं थी कि मैं उनमें से किसी को भी रख पाऊंगी – जिसमें वह सुंदर, छोटी, भूरी आंखों वाली बच्ची भी शामिल है, जिसने मेरे दिल में अपना घोंसला बना लिया है।
देर रात, मैं उनके बगल में झूले में बैठ जाती, बच्चों में से किसी एक के साथ झपकी लेती और ईश्वर से पूछती कि वह मुझसे क्या चाहता है। जब तक वे बच्चे हमारे पास लगभग एक वर्ष बिता चुके थे, तब तक यह स्पष्ट नहीं था कि क्या हम उन्हें गोद ले पाएंगे, या वे अपने माता-पिता के पास लौट जाएंगे। (जबकि हमारे जैसे संरक्षक पालकों केलिए बच्चों का उनके अपने मातापिता से पुनर्मिलन कराना ही प्राथमिक लक्ष्य है। दुर्भाग्य से बड़ी संख्या में ऐसे बच्चे कभी घर नहीं लौट पाते हैं।) इसलिए, मैंने परमेश्वर के हृदय की कुंजी की तलाश की। सेमिनरी के एक प्रोफेसर ने मुझे धन्य चार्ल्स डी फुकॉल्ड द्वारा रचित एक प्रार्थना दी थी। इसे “समर्पण की प्रार्थना” कहते हैं। मुझे यकीन था कि ईश्वर ने मुझे उस विशेष प्रार्थना के द्वारा एक जीवन रेखा दी थी, जिसमें निम्नलिखित पंक्तियाँ थीं जिन्हें मैंने बार-बार दोहराया था।
तू जो कुछ कर सकता है, उसके लिए तुझे धन्यवाद;
मैं सब कुछ के लिए तैयार हूं, मुझे सब कुछ स्वीकार्य है।
मुझ में केवल तेरी ही इच्छा पूरी हो,
और तेरे सभी प्राणियों मे भी,
इससे अधिक मेरी कोई कामना नहीं है प्रभु।
मैंने पाया कि परित्याग की यह मुद्रा मध्यस्थता का एक शक्तिशाली उपकरण हो सकती है – अनिवार्य रूप से यह परमेश्वर के हृदय की कुंजी है। जब हम परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने की अपनी इच्छा को प्रकट करते हैं—और उस इच्छा को पहचानने में हमारी कठिनाइयों को स्वीकार करते हैं — तब परमेश्वर हर कदम पर हमारा मार्गदर्शन करेगा। यह एक निष्क्रिय “खुदाई” या आध्यात्मिक गतिरोध नहीं है, बल्कि येशु में एक बच्चे जैसा भरोसा है, जिसे एक महान पुराने गीत में, “सब कुछ अच्छी तरह से करता है”, ऐसे शब्दों में वर्णित किया गया है।
मैं ने देखा है कि सभी विश्वासियों की आत्मिक माँ, मरियम के सन्दर्भ में यह बात विशेष रूप से सही है। एक नए कैथलिक के रूप में, मुझे मरियम के साथ अपने रिश्ते को बढाने में दिलचस्पी नहीं थी, क्योंकि मैंने हमेशा ईश्वर से सीधे प्रार्थना की थी। लेकिन जब मैं अविवाहित थी, कैथलिक धर्म में दृढीकरण संस्कार प्राप्त करने के कुछ ही समय बाद, एक मित्र ने मुझे एक चमत्कारी पदक दिया था और मुझे जब भी अकेलापन महसूस हुआ तब “मरियम को इसके बारे में बताने” के लिए उस मित्र ने प्रोत्साहित किया। मैं हाल ही में नए स्थान पर आयी थी, और नयी जगह, नए दोस्तों की संगति के लिए प्रार्थना कर रही थी, तब जल्द ही मुझे एक अप्रत्याशित तरीके से मेरी प्रार्थनाओं का उत्तर मिला। लगातार तीन सप्ताह, मैंने मरियम से प्रार्थना की, कि वह किसी को मेरे साथ मिस्सा बलिदान में साथ बैठने के लिए भेज दे और लगातार तीन सप्ताह एक नए नए अजनबी लोग मेरे बगल में बैठे, जिनसे मेरी पहचान बनी। उस समय से, मैं मरियम को एक ऐसा व्यक्ति मानने लगी जो मेरी मानवीय जरूरतों और कमजोरियों को समझती है, और जब मेरे पास ईश्वर को अर्पित करने के लिए अपने शब्द नहीं होते हैं, तब वह मेरे लिए प्रार्थना करती है।
सब केलिए तीन प्रार्थनायें
जैसे-जैसे मेरे बच्चे बड़े हो गए (दोनों छोटे बच्चों को गोद लेने में हम सफल हो गए थे, जबकि उनकी बड़ी बहन को दूसरे परिवार ने गोद लिया था) और जैसे वे तीनों ने युवावस्था में प्रवेश किया, मैं ने उनके लिए प्रार्थना करने का तरीका बदला है … लेकिन कभी-कभी मैं किसी विशेष स्थिति के लिए प्रार्थना कैसे करूं ऐसी पशोपेश महसूस करती हूं। जब ऐसा होता है, तो तीन प्रार्थनाएँ होती हैं, जो परमेश्वर के हृदय की कुंजी को बदल सकती हैं। वे तीनों प्रार्थनाएं मेरे दिमाग को साफ करने में मेरी मदद करती हैं, और एक नए तरीके से पवित्र आत्मा को मेरे दिल में आमंत्रित करती हैं:
प्रभु, तुझे धन्यवाद
सबसे बुरे दिनों में भी, ईश्वर हमारे साथ इतने उदार हैं। हमारे लिए और हमारे परिवारों के लिए उनकी उदारता और सुरक्षा को स्वीकार करने पर, हमें सांसारिक बातों और छोटी छोटी क्षुद्र बातों से ऊपर उठने में यह स्वीकृति मदद करती है और परमेश्वर हमें क्या बताना चाहता है, यह सुनने में भी यह स्वीकृति मदद करती है। स्तोत्र ग्रन्थ को खोलने और स्तोत्रकार के साथ प्रार्थना करने से, मेरे दिल पर दबाव डाल रही उन बातों के नाम लेकर बताने में मुझे मदद मिलती है।
प्रभु मुझे क्षमा कर
सबसे अच्छे दिनों में भी, वैसी परिस्थिति की ज़रुरत के अनुसार मैं उतनी कृपापूर्ण व्यवहार नहीं करती जितनी की आवश्यकता होती है। अपनी कमियों को स्वीकार करने से उन लोगों को क्षमा करना आसान हो जाता है, जो हमें परेशान करते हैं या हमें चोट पहुँचाते हैं। मेरी एक दोस्त बुद्धिमानी से “नौ कष्टप्रद बातों की नवरोज़ी” प्रार्थना करती है ताकि उसकी दैनिक झुंझलाहट को मज़बूत विश्वास के अवसरों में बदल दिया जा सके।
प्रभु मेरी मदद कर
ऐसा कहा जाता है कि “ईश्वर योग्य या गुणवान व्यक्ति को नहीं बुलाता, बल्कि बुलाए गए को योग्य और गुणवान बनाता है।” जब परमेश्वर हमसे हमारे विश्वास (या हमारे पालन-पोषण के कौशल) को नए तरीकों से विकसित करने के लिए कहता है, यदि हम इसकी मांग उससे करें, तो इस काम को अच्छी तरह से करने के क्षमता और ज्ञान वह हमें प्रदान करता है। हो सकता है कि हम आगे स्वयं बढ़ने और इसे अपने दम पर संभालने के प्रलोभन में पड़ जाएँ, लेकिन अगर हम प्रत्येक कार्य को परमेश्वर को सौंप दें, तो वह हमें दिखाएगा कि उन सभी कार्यों को प्यार से कैसे संभालना है।
'जब मेरे पति घर से काम करने लगे, और हमें दिन के 24 घंटे एक साथ गुज़ारने पड़े, मैंने खुद को फिर से किसी ज्वालामुखी की तरह गुस्से से लाल होता महसूस किया जो कि किसी भी वक्त फूटने ही वाला था …
यह साल 2020 का वसंत था और कोविड-19 पूरे देश और दुनिया के अधिकांश हिस्सों में फैल चुका था। हम सब “सामाजिक दूरी,” और “घर पर रहने” जैसी नई जीवन शैली को अपना रहे थे। इसके चलते दूसरों से जुड़े रहने के लिए हम टेक्नोलॉजी के दायरों में बंधे थे। इसीलिए मेरी एक दोस्त ने मुझे और बाकी कुछ दोस्तों को एक ऑनलाइन बाइबल अध्ययन में उसके साथ जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया। इसमें हम एक वीडियो के अनुभागों को देखने और उससे जुड़े बाइबल के कुछ हिस्सों को पढ़ने के बाद, अपने विचारों और टिप्पणियों को एक दूसरे को लिख कर भेजा करते थे।
अध्ययन के पहले अध्याय में मुझे “सहनशीलता” शब्द मिला। कई सालों से धर्म ग्रन्थ की छात्रा होने के बावजूद, मैंने महसूस किया कि यह शब्द तो मेरी ज़िंदगी का हिस्सा नहीं था! ऐसा नहीं है कि यह शब्द मेरे लिए अनदेखा सा था, क्योंकि मैंने इसे पूरी बाइबल में देखा था, लेकिन मुझे हमेशा सहनशीलता शब्द इतिहास में गुम किसी प्राचीन काल के लिए बेहतर अनुकूल लगता था। लेखक ने इस गुण को खुद की शक्तियों को नियंत्रित करने की क्षमता के रूप में वर्णित किया, भले ही किसी के पास अपनी शक्ति का उपयोग करने का अधिकार हो, क्योंकि औरों की भलाई अक्सर खुद की इच्छाओं की पूर्ति से बढ़कर होती है। उसने व्याख्या करने के लिए एक रूपक का इस्तेमाल करते हुए कहा: कल्पना कीजिए कि ईश्वर के पास दो हाथ हैं, दोनों शक्तिशाली हैं। कभी कभी अपनी शक्ति का प्रयोग करने के लिए जब अपने दाहिने हाथ को फैलाते हैं, तो वे अपने बाएं हाथ का उपयोग दूसरे हाथ को वापस खींचने के लिए करते हैं, ताकि उनकी शक्ति हद से ज़्यादा ना निकले।
मैंने अपने इन विचारों को अपने साथियों के साथ साझा किया। एक प्रतिभागी ने जवाब दिया कि “ईश्वर मुझे संघर्ष करने देता है ताकि मैं अपने अंदर ईश्वर के हृदय के प्रति एक गहरी समझ और एक गहरा संबंध स्थापित कर सकूं।” मैंने इसे अपने जीवन में साल दर साल इस बात को बार-बार देखा है। जिन 40 वर्षों को मैंने स्वास्थ्य सेवा में काम करते हुए बिताया, वे मेरे लिए उन 40 वर्षों के समान लगने लगे, जो इस्राएलियों ने रेगिस्तान में सफर करते हुए बिताए। हमने बड़बड़ाते और शिकायत करते हुए अपनी व्यक्तिगत यात्रा को चिह्नित किया है फिर भी प्रभु ने मेरी और इस्राएलियों की जरूरतों को पूरा करना जारी रखा और हमें आज्ञाकारिता सिखाई, जिसके परिणाम स्वरूप हमें धैर्य मिला, जो कि “आत्मा के फलों” में से एक है।
समय के साथ, धैर्य एक आदत बन गई है, और मैं अब शायद ही कभी मौखिक रूप से जलन या गुस्सा व्यक्त करती हूँ – कम से कम घर के बाहर तो मैं ऐसा कर पाती हूं! और हालांकि मैंने अपने घर के अंदर भी अपने गुस्से को नियंत्रित करने की दिशा में प्रगति की थी, मुझे फिर भी ऐसा महसूस होता रहा कि मेरा घर वह स्थान हैं जहां क्रोध रूपी दूतों ने मुझे परेशान करने के लिए डेरा जमाया हुआ है। और हालाँकि मुझे आशीर्वाद स्वरूप एक अच्छा और प्यार करने वाला पति मिला था, फिर भी घर से काम करने की इस नई बाधा ने मुझे 24 घंटे उसके आसपास रहने के लिए मजबूर कर दिया था, जो कि मेरे लिए आसान नहीं था।
जैसे-जैसे हफ्ते बीतते गए, मैंने खुद को एक बार फिर से किसी ज्वालामुखी की तरह गुस्से से लाल होता महसूस किया जो कि किसी भी वक्त फूटने ही वाला था। मैंने इस इच्छा को दबाने की कोशिश की, लेकिन जब सौवीं बार डैन ने बर्फ के टुकड़ों से भरा चाय का एक पूरा गिलास, कोने की मेज पर गिरा दिया, तो मेरा गुस्सा फूट पड़ा और मैं गुस्से से लाल हो कर तौलिया लेने के लिए दौड़ी। बाद में जब मैंने माफी मांगी, तो मुझे याद आया कि मेरे पति ने बिग सिस्टर्स संगठन के एक प्रतिनिधि से जो कहा था, जब एक स्वयंसेवक के रूप में मेरी उपयुक्तता का निर्धारण करने के लिए उन्होंने मेरे पति को मेरे बारे में बात करने के लिए बुलाया था। उनकी लंबी बातचीत के बारे में मेरी जिज्ञासा को शांत करते हुए मेरे पति ने मुझे बताया कि उन्होंने मेरे बारे में यह कहा था, “मैंने तुम्हारे बारे में बहुत सारी अच्छी बातें कही हैं। और जब उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मुझे लगा कि तुम एक धैर्य रखने वाली इंसान हो, तो मैंने उनसे कहा कि तुम बहुत धैर्यवान हो… मेरे अलावा सबके साथ!” इस बात पर जब हम दोनों एक साथ हँसे, तो हम दोनों ने मेरे पति की कही बातों में मौजूद सच्चाई को पहचानते हुए महसूस किया कि धैर्य के क्षेत्र में, ईश्वर ने अभी तक मेरी प्रार्थना को पूरी तरह सुना नहीं था।
रिटायर होने के बाद से मैंने रोज सुबह आस-पड़ोस में घूमने का रूटीन अपना लिया था। यह व्यायाम मेरे विचारों को एकाग्र रखता था और इसके द्वारा मैं हर दिन अपना हृदय प्रभु के सामने उण्डेलती थी। मैं अपनी अधीरता को स्वीकार करती थी, क्षमा मांगती थी, अपने पति के अच्छे गुणों को गिना करती थी, और उनके लिए परमेश्वर को धन्यवाद दिया करती थी। लेकिन जो मैं नहीं कर पाती थी वह सहनशीलता का अभ्यास था! मेरा जीवन किसी भी रूप से सहनशीलता की परिभाषा के अनुरूप नहीं था। एक सुबह, मेरे पति के घर से काम करने के एक और निराशाजनक दिन के बाद, मैंने प्रार्थना करते हुए अपने संघर्ष को ईश्वर के सामने रखा। “प्रभु, मैंने हर तरह से कोशिश की है कि मैं इसके बारे में प्रार्थना कर सकूं। मैं अपने जीवन में तेरे कार्य के प्रति समर्पण करती हूँ; मुझे सबके साथ, यहाँ तक कि मेरे पति के साथ भी, एक सच्चा धैर्यवान व्यक्ति बना दीजिए। मैं जो कुछ कर सकती हूं मैंने किया है; अब मैं तुझ से विनती करती हूं कि तू मुझ में वह कीजिए जो मैं अपने आप नहीं कर सकती।”
जैसे ही दिन समाप्त हुआ, मेरी नज़र कोने की मेज पर रखी भक्ति की किताबों के ढेर पर पड़ी। शायद छठी या सातवीं किताबों में से एक ने अपनी ओर मेरा ध्यान खींचा। मैंने इसे काफी दिनों से नहीं खोला था, और अब तो मुझे यह भी याद नहीं था कि इसका शीर्षक क्या था। फिर भी, मैं इसके प्रति आकर्षित थी। इसका शीर्षक था ‘बाइबल के उपदेश’ और इसे जर्मन धर्मशास्त्री कार्ल राह्नर ने लिखा था। मैंने वह अंक खोला जहाँ पर बुकमार्क लगा हुआ था और उस पन्ने पर लिखे शीर्षक को देख कर मुझे हंसी आ गई, क्योंकि उसमे लिखा था: “अगर तुम उसका साथ निभा सकते हो तो मैं भी तुम्हारा साथ निभा सकता हूं।”
फादर राह्नर ने 1 पेत्रुस 3:8-9 का उदाहरण दिया जो कि इस प्रकार है: “अंत में यह: आप सब के सब एक मत, सहानुभूतिशील, भ्रातृप्रेमी, दयालु तथा विनम्र बनें। आप बुराई के बदले बुराई ना करें और गाली के बदले गाली नहीं बल्कि आशीर्वाद दें। ऐसा ही करने के लिए आप बुलाए गए हैं, जिससे आप विरासत के रूप में आशीर्वाद प्राप्त कर सकें।” मैंने उसके बाद का प्रवचन पढ़ा जो कि इस प्रकार है:
“इस सद्भाव और सहमति का अर्थ यह है कि हमें प्रार्थना में एकजुट होना चाहिए। निःसंदेह संत पेत्रुस का पत्र लोगों के साथ रहने के सामान्य स्वभाव को दर्शाता है।” यह विचारधारा काफी स्पष्ट है। हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि हम कैसे एक-दूसरे के लिए एक प्रलोभन हैं।” (मैं एक क्षण के लिए रुकी … फादर राह्नर को कैसे पता चला कि मेरे घर में क्या चल रहा है?!) “हम एक दूसरे से इतने अलग हैं: हमारे पास अलग-अलग अनुभव हैं, हम अलग-अलग स्वभाव के हैं, अलग-अलग जगहों से हैं, हम अलग-अलग परिवारों से आते हैं, हमारे पास अलग-अलग प्रतिभाएं और अलग-अलग काम हैं- इस प्रकार यह आश्चर्य की बात नहीं है कि हम सभी के लिए एक विचारधारा का होना मुश्किल है। हमारे अलग-अलग विचार हैं और हम एक-दूसरे को अपूर्ण रूप से समझते हैं। और अन्य लोगों से इतने अलग होने के कारण हम लोगों पर किस प्रकार से अच्छी तरह से भरोसा कर सकते हैं? हम जो हैं, हम क्या सोचते हैं, हम क्या करते हैं, हम जो महसूस करते हैं, उससे अनजाने में ही हम खुद को और दूसरों को थका देते हैं। आपसी सद्भाव और समझ, एक मन का होना, हमारे लिए कठिन है। अब हम केवल एक साथ रह सकते हैं और एक दूसरे का साथ सहन कर सकते हैं, एक दूसरे के बोझ को सहन कर सकते हैं। अगर हम एक मन होने की पूरी कोशिश करते हैं, अगर हम आत्म-विस्मृत और आत्मनिर्भर हैं, अगर हम सही होने पर भी अपनी ज़बान पर काबू रख सकते हैं , “(अब मुझे यकीन हो चला था कि यह पुरोहित बीते हफ्तों में हमारे घर की खिड़की से मुझे देख रहा था!) ”अगर हम दूसरे इंसान को उसका जीवन जीने दे सकते हैं और उसे उसका हक दे सकते हैं, अगर हम जल्दबाजी में निर्णय लेने से बचते हैं और धैर्य रखते हैं।” (यह शब्द फिर से मेरे सामने था!) ”तब यह संभव है, कम से कम किसी न किसी तरीके से, कि हम एक मन के हो सकते हैं। हम शायद सहानुभूति प्राप्त नहीं कर पाएं, लेकिन हम मसीही सहनशीलता में एक मन के हो सकते हैं, “(सहनशीलता!!! वह शब्द जिस की ना मैंने कभी जांच की थी, ना कभी उस पर विचार किया था!) ”और एक दूसरे का बोझ उठा सकते हैं। इसका मतलब यह है कि मैं उस बोझ को उठा सकती हूं जो बाकी लोग सिर्फ अपनी उपस्थिति द्वारा मुझ पर डालते हैं, क्योंकि अब मैं जानती हूं कि मैं भी अपने कार्यों द्वारा दूसरों पर बोझ बनती हूं। ”
मुझे पहले से ही पता था कि मैं अपने अलावा किसी और को नहीं बदल सकती, और उस काम में भी मैं अभी तक नाकाम ही रही थी! इसीलिए अपने संघर्षों को इतनी स्पष्ट रूप से लिखा हुआ देख कर मुझे अपनी उलझन आसान होती नज़र आई, जैसे किसी ने पहेली के सारे टुकड़ों को मेरे लिए जोड़ दिया हो। डैन ने हमेशा मेरी कमजोरियों के बावजूद मुझे यह दिखाने के लिए कड़ी मेहनत की है कि वे मुझसे कितना प्यार करते हैं। उन्होंने मेरे लिए प्रेम के नियम को जिया है। मैंने धर्म ग्रन्थ में “सहनशीलता” के संदर्भ लेख खोजने के लिए ऑनलाइन जांच की। पता चला, संस्कृति और समय के आधार पर शब्द के अलग-अलग अनुवाद किए गए थे, जब मैंने उन सब को संकलित किया तब मुझे जो जवाब मिले वे इस प्रकार थे – धीरज, धैर्य जो सहन करता है, महान-हृदय, यहां तक कि “हालात के साथ रहने की इच्छा विकसित करना”। डैन के प्रति मेरी प्रतिक्रिया मुझे “धीरज” की तरह महसूस हुई, जबकि उसकी प्रतिक्रिया जो मेरे लिए थी वह “महान-हृदय” की तरह लगी। हमने एक ही गुण को अवतरित करने के अलग अलग तरीके खोजे थे।
मुझे सहनशीलता की वह परिभाषा याद आई जो मैंने बाइबल-अध्ययन के वीडियो में सुनी थी: खुद की शक्तियों को नियंत्रित करने की क्षमता, भले ही किसी के पास अपनी शक्ति का उपयोग करने का अधिकार हो, क्योंकि औरों की भलाई अक्सर खुद की इच्छाओं की पूर्ति से बढ़कर होती है। यह वही सबक था जो मैंने भौतिक चिकित्सा के अभ्यास के वर्षों के दौरान सीखा था – शांत प्रतिक्रियायें समय के साथ ज़्यादा असर दिखाती हैं। यह समझने के लिए समय निकाले बिना कि रोगी के उपचार के प्रति प्रतिरोध क्या है, कोई प्रगति प्राप्त नहीं की जा सकती। जब एक बार मेरे मरीज़ यह समझ जाते थे कि मैं उनकी समस्या को समझ चुकी हूं, फिर मेरे मरीजों का परिवर्तन शुरू हो जाता था। और उनकी प्रगति मेरे इस अतिरिक्त प्रयास का मूल्य चुका देती थी।
अब मैं यह समझने लगी कि ईश्वर मुझसे अपनी शक्ति को वापस लेने के लिए कह रहे थे – फिर चाहे वह मेरे शब्द हों या मेरे विचार – क्योंकि यह सब हमारी शादी की भलाई के लिए ज़रूरी था। इतने समय से मैं “राहत मांग रही थी;” लेकिन मैं यह देख सकने में असमर्थ थी कि वह मदद कैसे आएगी। यह उस व्यक्ति का बोझ उठाने से होना था, जिसे मैंने अच्छे समय में और बुरे में, मेरे जीवन के सभी दिनों में प्यार और सम्मान देने का वादा किया था, जैसा वादा उसने मुझसे किया था। मैं सहनशीलता का अभ्यास कैसे करूंगी? अपने पति की एक तस्वीर को देखते हुए, मुझे पता था: नमूना मेरी आंखों के सामने ही था।
'अपनी चिंताओं को दूर भगाने का एक तरीका यहां बताया जा रहा है …
प्रत्येक दिन, हमें अपनी मानसिकता को और हृदय को भी बदलने का अवसर मिलता है। मैं प्रार्थना करने के लिए दृढ़ता से वकालत करती हूं, लेकिन यह हमेशा मेरे व्यवहार में परिणत नहीं होता है। बहुतों की तरह, मैं प्रार्थना करने के बजाय चिंता करने की प्रवृत्ति रखती हूँ, ‘अगर… तो क्या होगा’ की सोच में फँसी रहती हूँ। बार-बार, मुझे अपनी मानसिकता को बदलने का सबक सीखने की जरूरत है, जो बदले में मेरा ह्रदय परिवर्तित कर देता है। येशु ने हमें चिंता न करने के लिए प्रोत्साहित किया, और इसलिए प्रतिदिन मैं अपनी चिंताओं को प्रार्थनाओं में बदलने का प्रयास कर रही हूं और इस तरह उन चिंताओं को मुझसे दूर जाने देती हूं।
वर्ष 2021 के अधिकांश समय में एक लोकप्रिय कैथलिक सम्मेलन में भाग लेने के लिए मैं ने कुछ पैसे की बचत की। लेकिन खर्च मेरी अपेक्षा से अधिक लग रहा था। मैं वर्षों से इस सम्मेलन में भाग लेना चाहती थी और उम्मीद नहीं थी कि यह अवसर इसी वर्ष आयेगा। एक दम्पंती, दोनें जो मेरे करीबी दोस्त हैं, और मेरे जीवन में प्रभावशाली रहे हैं, उन्होंने मुझे यह बताने के लिए फोन किया कि वे भी इस साल इस सम्मेलन में भाग लेंगे और मुझे इसमें शामिल होने के लिए दृढ़ता से प्रोत्साहित किया। उनके बोलने के तरीके में कुछ ऐसी शक्ति थी, जिससे मुझे लगा कि पवित्र आत्मा मुझे इस केलिए कुरेद रहा है। फोन पर उस बातचीत के बाद, मैं निःसंदेह जान गयी थी कि मेरे लिए उस सम्मेलन में इसी वर्ष भाग लेना बहुत ज़रूरी है। उस कर्यक्रम में भागीदारी के बारे में सोचकर मुझे अपार खुशी और उम्मीद का अनुभव हुआ।
जैसे-जैसे सम्मेलन में भाग लेने से संबंधित लागत बढ़ती जा रही थी, मैंने देखा कि मैं चिंता जाल फंसी जा रही थी। ईश्वर ने हमेशा कैसे कैसे मेरी ज़रूरतों को पूरा किया है, यह याद रखने के बजाय, मुझे इस बात की चिंता थी कि क्या मेरे पास उचित समय पर आवश्यक धन होगा।
एक दिन, मुझे प्रेरणा मिली कि मैं चिंता करना छोड़ दूं और सभी अच्छे उपहारों के दाता ईश्वर की ओर मुड़ जाऊं! जैसे ही चिंता प्रार्थना में बदल गई, मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई। मुझे याद आया कि परमेश्वर विश्वासयोग्य है, और परमेश्वर स्वयं यह सुनिश्चित करेगा कि मेरे पास उस कार्यक्रम में भाग लेने केलिए पर्याप्त धन हो जाएगा। मैंने प्रार्थना की, “हे स्वर्गीय पिता, तू ने मुझे जो भी अवसर दिया है, उन सभी अवसरों के लिए तुझे धन्यवाद। कृपया सम्मेलन में भाग लेने केलिए मेरी जरूरतों को तू पूरा कर। तू हमेशा अपनी पूर्णता के तरीके से मेरी ज़रूरतों को पूरा करता है, उसके लिए धन्यवाद।”
मेरी चिंताओं से अवगत हो जाना, बल्ब की रोशनी जैसा हो गया है। अँधेरे में बल्ब का स्विच ऑन किया जाता है, और वह रोशानी बिखेरता है और उसी तरह जब चिंता का अन्धेरा छा जाता है, तुरंत मैं अपनी चिंताओं को प्रार्थनाओं में बदलने का ध्यान रखती हूँ। मेरा मन और दिल शांत हो जाते हैं। मुझे याद है कि मेरे स्वर्गीय पिता ने मेरे जीवन के हर क्षेत्र में लगातार मेरी ज़रूरतों की पूर्ती की है। वह मेरी चिंता के इस क्षेत्र में मेरा भरण-पोषण क्यों नहीं करेगा? अब, मैं अपने जीवन के हर क्षेत्र में, अपनी चिंताओं को प्रार्थना में बदलने की आदत विकसित करने के लिए दैनिक प्रयास करती हूं और इस तरह मेरी चिंताओं को दूर कर देती हूं।
ईश्वर ने अद्भुत तरीके से मेरे लिए ज़रूरी धन उपलब्ध कराया और सम्मेलन में भाग लेने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। हालांकि जिस दिन मुझे जाना था, उस दिन सुबह एक बर्फीले तूफान के कारण मुझे अपनी उड़ान रद्द करने का खतरा खडा हो गया। अंततोगत्वा ईश्वर की ही जीत हुई और मैं सम्मलेन स्थल पर समय पर और सुरक्षित पहुंच गयी। अति सुंदर तरीके से सजाया गया सम्मेलन स्थल और अपने आरामदायक होटल के कमरे को देखकर मैं आश्चर्य चकित थी। मुझे यह भी पता चला कि मैंने सम्मलेन के अपने खर्चों के लिए जरूरत से ज्यादा पैसा जुटाया था! मैं क्यों परेशान थी? परमेश्वर पिता ने वही किया, जो वह हमेशा सबसे अच्छे ढंग से करता है, और उसने अपनी इस संतान की जरूरतों को पूरा किया है। मैं इस अनुभव के लिए ईश्वर की आभारी हूँ, और एक बार फिर से चिंता करने के बजाय, अपने मन को ईश्वर की ओर मोड़ने की सीख देने के लिए आभारी हूं। जैसे हम अपने विचार बदलते हैं, वैसे ही हम अपना जीवन बदलते हैं। जैसे-जैसे हम अपने दिलों को नकारात्मकता के बजाय ईश्वर की ओर मोड़ते हैं, हम और अधिक ईश्वर के जैसे हो जाते हैं। यदि हम लगातार अपनी चिंताओं को प्रार्थनाओं में बदलते रहेंगे, तो हमारी चिंताएं और उत्कंठायें कितनी कम होंगी, और हम अपने स्वर्गीय पिता के प्रति कितने अधिक आभारी होंगे? अगर हम अपनी चिंताओं को दूर कर दें तो जीवन कितना अधिक शांतिपूर्ण होगा? धन्यवाद, स्वर्गीय पिता, कि केवल एक प्रार्थना करने से तेरे और हमरे बीच की दूरी मिट जाती है!
'क्या आप इस चालीसा काल में परिवर्तन लाने वाले किसी अनुभव की तलाश कर रहे हैं? अगर हां, तो यह लेख आपके लिए है
जब हम नए साल को मनाने के लिए इकट्ठा हुए थे, तब एक दोस्त ने मज़ाक में यह सवाल पूछा, “चालीसा काल के संकल्प नए साल की शुरुआत में लिए गए संकल्पों की तरह अधूरे क्यों रह जाते हैं?” ऑस्ट्रेलिया में हम सब नए साल का स्वागत स्वादिष्ट खाने और स्विमिंग पूल के पास आराम करते हुए बिताते हैं। उस दिन जब हम रात के खाने के बाद आराम कर रहे थे, और मच्छरों को दूर भगा रहे थे, तब किसी वजह से हम बड़ी गहरी और आध्यात्मिक बातें करने लगे।
इन्हीं सब के बीच मेरी दोस्त के किए सवाल का जवाब यह निकला: “क्योंकि हम अपनी हार को दूसरों के साथ साझा करने और उसे अपनाने से डरते हैं!” देखा जाए तो हमारे कैथलिक समाज में ऐसी सोच रखना आम बात है, लेकिन एक पुरानी कहावत है ना, कि मज़ाक मज़ाक में इंसान गहरे सच कह डालता है।
हम पापियों के लिए चालीसा काल एक मुश्किल भरा समय हो सकता है। नए साल के संकल्पों की ही तरह, हम चालीसा काल भी उसी उत्साह के साथ शुरू करते हैं, यह सोच कर कि इस साल हम चालीसा काल को बड़ी श्रद्धा के साथ बिताएंगे। हमारे इरादे अच्छे होते हैं लेकिन हम अक्सर आलस को आने देते हैं, या कुछ दिन बाद ही हार मान लेते हैं।
लेकिन चालीसा काल अभी खत्म नहीं हुआ है, और हमारे पास अब भी चालीसा काल के प्रयासों को ठीक करने के लिए समय है, चाहे हमारे प्रयास अभी तक कितने भी निराशाजनक क्यों ना रहे हों।
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अपूर्ण रहें
हालांकि मेरी दोस्त की बातें सिर्फ एक मज़ाक थी फिर भी ईश्वर द्वारा पकड़े जाने से हमें कोई डर नहीं होना चाहिए। ईश्वर हमारी तरह हमें अपनी असफलताओं के आधार पर चिन्हित नहीं करते हैं। और ना ही वे हमें कमतर समझ कर हमें खुद को पुनः समर्पित करने की मांग करते हैं। क्योंकि ईश्वर की कृपा अनंत है।
सच बात तो यह है कि कलवारी के रास्ते पर चलते हुए बार बार गिरना तो नियति है — क्या हम क्रूस रास्ता की प्रार्थना बोलते वक्त प्रभु के बार बार गिरने पर मनन चिंतन नहीं करते हैं? हां यह बात सच है कि प्रभु के गिरने में और हमारे पापों में गिरने में ज़मीन आसमान का फर्क है, पर वह अहसास, वह पीड़ा तो हम भी महसूस करते हैं।
ईश्वर इस बात की उम्मीद नहीं रखते कि हम अपने चालीसा काल के संकल्पों को पूर्णता के साथ पूरा कर पाएंगे। वे तो बस इन तपस्याओं का इस्तेमाल करते हैं हमारे जीवन में पवित्रता, नम्रता और ईश्वरीय इच्छा की स्वीकृति को बढ़ाने के लिए। वे जानते हैं कि हम अपने आप में परिपूर्ण नहीं हैं, इसलिए वे हमारी मदद करते हैं ताकि हम बेहतर बन सकें और ईश्वर की तरह बन सकें।
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ज़िम्मेदार बनें
एक बार जब हम अपने पापी स्वभाव और इसकी अपूर्ण प्रवृत्ति को स्वीकार कर लेते हैं, तो फिर खुद को जवाबदेह ठहराना हमारे लिए चालीसा काल का लाभ उठाने का एक उपयोगी साधन है। ऐसा करने के सबसे सरल तरीका यह है कि हम हर दिन के अंत में रात को अपने अंतकरण की जांच के माध्यम से अपनी आध्यात्मिक प्रगति का मूल्यांकन करते रहें।
अपने अंतकरण की जांच ध्यान करने की वह प्रक्रिया है जहाँ हम अपने आप को प्रार्थनापूर्वक परमेश्वर की उपस्थिति में रखते हैं और अपने विचारों की जाँच करते हैं। हम अपने आप से इस तरह के सवाल पूछ सकते हैं: क्या मैंने आज अपना चालिसा काल के संकल्पों का पालन किया? क्या मैंने इन संकल्पों को खुश हो कर या अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर पूरा किया?
हो सकता है कि कभी कभी हमें उन सवालों के जो जवाब मिले वे संतोषजनक ना हों, लेकिन इसी परेशानी को हल करने के लिए हमें अगले कदम की मदद लेनी चाहिए।
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विनम्र रहें
अपनी अंतरात्मा की जांच परख करने के बाद, और चालीसा काल में अनेक प्रयास करने के बाद, अपनी अपेक्षाओं पर खरा उतरने की असफलता के लिए, हम परमेश्वर से क्षमा मांग सकते हैं। साथ ही साथ हम कल फिर से प्रयास करने का संकल्प लेने के लिए परमेश्वर की सहायता मांग सकते हैं।
यहाँ याद रखने वाली महत्वपूर्ण बात यह है: कि ‘ईश्वर की मदद से’ हम सब कुछ कर सकते हैं। हमें केवल खुद के बलबूते पर चालीसा काल की तपस्या को पूरा करने की ज़रूरत नहीं है। पवित्रता में बढ़ने और परमेश्वर की इच्छा के प्रति आज्ञाकारी बने रहने का मतलब वास्तव में यह समझना है कि ईश्वर हमारे लिए क्या चाहता है और इसके बाद ईश्वर को हमारी सहायता करने की अनुमति देना है।
यह समझना और स्वीकार करना कि हमें ईश्वर की सहायता की आवश्यकता है अक्सर हमारे लिए थोड़ा सा मुश्किल होता है। हम नियंत्रण में रहना पसंद करते हैं। लेकिन, यदि हम अपनी पवित्रता के बारे में गंभीर हैं, तो हमें यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि हम नियंत्रण में नहीं हैं और हमें परमेश्वर की योजना पर भरोसा करते की ज़रूरत हैं।
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विचारशील बनें
संत मत्ती के सुसमाचार में, येशु विशेष रूप से उस स्वभाव और दृष्टिकोण के बारे में बात करते हैं जो हमें उपवास और तपस्या करने के लिए अपनाना चाहिए: “और जब तुम उपवास करते हो, तब ढोंगियों की तरह मुंह उदास बना कर उपवास नहीं करो। क्योंकि वे अपना मुंह मलिन बना लेते हैं, जिससे लोग यह समझें कि वे उपवास कर रहे हैं। मैं तुम से सच कहता हूं, कि वे अपना पुरस्कार पा चुके हैं। जब तुम उपवास करते हो, तो अपने सिर पर तेल लगाकर अपना मुंह धो लो, जिससे लोगों को नहीं, केवल तुम्हारे पिता को, जो अदृश्य है, यह दिखाई दे कि तुम उपवास कर रहे हो।” (मत्ती 6:16-18)
छिपे हुए बलिदान वे होते हैं जिनके लिए अक्सर हमें सबसे ज़्यादा मेहनत करनी पड़ती हैं – इसके साथ ही साथ – यही बलिदान हमें सबसे ज़्यादा आध्यात्मिक फल प्रदान करते हैं। क्योंकि अगर केवल ईश्वर ही आपके जीवन में झांक कर देख पाते हैं कि बिना चीनी की कॉफी पीने से, या अपने खाने में नमक कम डालने से, या प्रार्थना में अधिक समय बिताने के लिए 15 मिनट पहले उठने से आपको कितना फर्क पड़ता है, तो इससे बड़ी आध्यात्मिक जीत और क्या होगी।
जब हम दूसरों से शिकायत करते हैं या चालीसा काल की कठिनाइयों के लिए सहानुभूति मांगते हैं, तो हम ईश्वर से प्राप्त किए हुए बलिदानों और तपस्याओं पर पानी फेर देते हैं।
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रूपांतरित हो जाइए
रोमियों को लिखे अपने पत्र में, संत पौलुस ने उन्हें और हमें समझाया, कि हमें इस दुनिया के अनुसार खुद को बांधना नहीं चाहिए। उनके शब्द इस बात की सही अभिव्यक्ति हैं कि चालीसा काल आपके लिए क्या बन सकता है, यदि आप इस समय को दृढ़ता से स्वीकार करेंगे, और ईश्वर के नज़दीक बढ़ने का प्रयास करेंगे:
“इसलिए, भाइयो और बहनो, मैं परमेश्वर के नाम पर अनुरोध करता हूं कि आप जीवंत, पवित्र तथा सब कुछ नई दृष्टि से देखें और अपना स्वभाव बदल लें। इस प्रकार आप जान जाएंगे कि परमेश्वर क्या चाहता है और उसकी दृष्टि में क्या भला, सुग्राह्य तथा सर्वोत्तम है। (रोमियों 12:1-2)
'पिछले सप्ताह मुझे जॉर्डन पीटर्सन, जोनाथन पगेओ और जॉन वेर्वाके के साथ एक ज़ूम साक्षात्कार में बैठने का सुन्दर अवसर मिला था। टोरंटो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर पीटर्सन से शायद आप परिचित होंगे, जो आज की संस्कृति में सबसे प्रभावी व्यक्तित्व हैं। पगेओ एक कलाकार हैं, जो ऑर्थोडॉक्स क्रिश्चियन परम्परा में काम कर रहे मूर्तीविद्या विशेषज्ञ हैं और वेर्वाके टोरंटो विश्वविद्यालय में संज्ञानात्मक मनोविज्ञान के प्राध्यापक हैं। सोशल मीडिया में इन तीनों भद्र पुरुषों की शक्तिशाली उपस्थिति बनी रहती है। हमारी बातचीत ऐसे विषय पर थी, जो हम चारों के लिए महत्वपूर्ण था – हमारी संस्कृति के लिए, विशेषकर युवा वर्ग के लिए सार्थकता का संकट। संवाद को शुरू करने के लिए प्रोफेसर पीटर्सन ने हम में से हर एक से ‘सार्थकता’, और विशेषकर ‘धार्मिक सार्थकता’ की परिभाषा देने के लिए कहा। जब मेरा मौक़ा आया, मैं ने कहा: सार्थक जीवन जीने का मतलब है, मूल्य को लक्ष्य में रखकर उद्देश्यपूर्ण रिश्ता जोड़ना; और धार्मिक रूप से सार्थक जीवन का मतलब है: परम मूल्य या परम सत्य के साथ उद्देश्यपूर्ण रिश्ते को निभाना।
दीत्रीच वोन हिल्देब्रांड की शिक्षा से प्रेरणा लेकर, मैं ने यह तर्क दिया कि ज्ञान मीमांसा, नैतिकता और कलात्मकता जैसे कुछ ख़ास मूल्य दुनिया में दिखाई देते हैं, और ये हम लोगों को अपनी छोटी दुनिया से बाहर निकाल लाते हैं, और उन मूल्यों का सम्मान करने और अपने अपने जीवन के साथ उन्हें एकीकृत करने में प्रेरणा देते हैं। इसलिए, गणित और दार्शनिक सत्य मन को मोह या छल लेते हैं, और तलाश की यात्रा करने केलिए हमें प्रेरित करते हैं; परम्परा और इतिहास के संतों और वीरों की जीवन कथा में उजागर हुए नैतिक सत्य की खोज में हम निकल पड़ते हैं, जो मन को अनुकरणात्मक कार्य केलिए प्रेरित करते हैं; और इसी तरह कलात्मक सुन्दरता के लिए – शांत अर्थपूर्ण मनन चिंतन का जीवन, बीथवन जैसे संगीतकारों का उत्तम संगीत, महान चित्रकारों की अनूठी कलाकृतियों – जो अपने सफ़र की राह में पड़ाव के लिए हमें रोकते हैं, और अद्भुत दृष्टि से इन बातों पर मनन करने के लिए मजबूर करते हैं, और परिणाम स्वरूप, नयी रचना या सृष्टि करने केलिए हमें अवसर देते हैं। इस तरह लगातार मूल्यों की खोज का जीवन जीने केलिए एक अनुशासनात्मक जीवन ज़रूरी है, ताकि हमारा जीवन सही दिशा में सार्थक बन जाए।
अब, मैंने जारी रखा, बोधगम्य आत्मा का अनुमान है कि इन मूल्यों का एक उत्कृष्ट स्रोत है: एक सर्वोच्च या बिना शर्त अच्छाई, सत्य और सौंदर्य। पूरी तरह से सार्थक जीवन वह है जो अंततः उस वास्तविकता को समर्पित हो। इस लिए, प्लेटो ने कहा कि सभी विशेष वस्तुओं से परे, “अच्छाई के रूप” की खोज करना ही दार्शनिक उद्यम का चरम बिंदु है; अरस्तू ने कहा कि सर्वोत्तम उद्गम या सर्वप्रमुख प्रवर्तक के बारे में मनन चिंतन करना सर्वोच्च जीवन का हिस्सा है; और बाइबिल कहती है कि हम अपने प्रभु परमेश्वर को अपने सारे प्राण, अपनी सारी बुद्धि, अपनी सारी शक्ति से प्रेम करें। थॉमस एक्विनास को प्रतिध्वनित करते हुए जॉर्डन पीटर्सन ने इसे इस प्रकार व्यक्त किया: मनोशक्ति का प्रत्येक विशेष कार्य कुछ मूल्य, अर्थात कुछ ठोस अच्छाई पर आधारित होता है। लेकिन वह मूल्य एक उच्च मूल्य या मूल्यों के समूह में निवास करता है, जो आगे चलकर और भी ऊँचे और उत्तम मूल्य में निवास बनाता है। उन्होंने कहा कि अंततः अपने सभी अधीनस्थ अच्छाइयों को निर्धारित और व्यवस्थित करने वाले कुछ सर्वोच्च भलाई को हम खोज पा लेते हैं ।
यद्यपि हमने विषय को अलग-अलग तरीकों से और अपनी विशेषज्ञता के विभिन्न क्षेत्रों के अनुसार व्यक्त किया, हम चारों इस निष्कर्ष पर पहुँच गए कि “ज्ञान परंपरा”, जिसने शास्त्रीय रूप से इन सत्यों को प्रस्तुत किया और समर्थन किया, वह आज की संस्कृति के सामने एक रोड़ा बनकर खड़ी है, और सार्थकता के संकट को बढाने में यह रोड़ा काम कर रहा है। बहुत से तथ्यों ने मिलकर इस संकट को बढ़ावा दिया है, लेकिन हम लोगों ने विशेष रूप से दो कारणों पर जोर दिया: वैज्ञानिकता और मूल्य की भाषा का उत्तर-आधुनिक संदेह। सभी वैध ज्ञान को ज्ञान के वैज्ञानिक रूप में सीमित रखना वैज्ञानिकता है। यह वैज्ञानिकता मूल्य के दावों को प्रभावी रूप से गैर-गंभीर मानती है, उसे केवल व्यक्तिपरक मानती है और भावनाओं की अभिव्यक्ति मानती है लेकिन वस्तुनिष्ठ सत्य नहीं मानती। वैज्ञानिकता के इस न्यूनीकरणवाद ने आज बहुत सारे युवा लोगों के दिमाग में एक भ्रम पैदा किया है; वह भ्रम यह दावा करता है कि सत्य और मूल्य सिर्फ उसके निर्माताओं केलिए, या एक भ्रष्ट संस्थागत अधिरचना को बनाए रखने के लिए, उन लोगों की शक्ति को बढ़ाने के लिए एक प्रच्छन्न प्रयास है। तद्नुसार, इन अभिकथनों के मिथकों को तोड़ना होगा, उनका विनाश करके उन्हें विखंडित करना होगा। मूल्यों के क्षेत्र पर इस सांस्कृतिक हमले के साथ साथ, मूल्यों को एक ठोस और सम्मोहक तरीके से प्रस्तुत करने में, विशेषकर वर्त्तमान संस्कृति के कई महान संस्थानों और विशेष रूप से धार्मिक संस्थानों की विफलता हमने देखा है। बहुत बार, समकालीन धर्म, सतही राजनीतिक पैरवी या सांस्कृतिक पर्यावरण के पूर्वाग्रहों की एक भयावह प्रतिध्वनि में बदल गया है।
तो, एक सार्थक जीवन जीने के लिए हमें किस बात की आवश्यकता है? मैंने कहा कि मेरे दृष्टिकोण से, हमें महान कैथलिक विद्वानों की आवश्यकता है, जो हमारी बौद्धिक परंपरा को अच्छी तरह समझते हैं और जो इसमें विश्वास करते हैं, जो इस विशवास के नाम पर लज्जित नहीं होते हैं – और जो धर्मनिरपेक्षता के साथ सम्मानजनक, लेकिन आलोचनात्मक बातचीत में प्रवेश करने के लिए तैयार हैं। हमें महान कैथलिक कलाकारों की आवश्यकता है, जो डांते, शेक्सपियर, माइकल एंजेलो, मोज़ार्ट, हॉपकिंस और चेस्टरटन का सम्मान करते हैं, और जो कैथलिक संवेदनशीलता से प्रेरित होकर कला के नयी रचनाओं का निर्माण करने के लिए तत्पर हैं। और सबसे बढ़कर, हमें महान कैथलिक संतों की आवश्यकता है, जो अपने आदर्श जीवन द्वारा हमारे लिए नमूना बनकर हमें दिखाएँगे कि सर्वोच्च भलाई के उद्देश्यपूर्ण संबंध बनाकर हमें किस तरह जीवन जीना है। व्यर्थता के रेगिस्तान के निर्माण का दोषी यह आधुनिकता की संस्कृति ही है, क्योंकि इस आधुनिक संस्कृति में आज बहुत से लोग भटक रहे हैं। लेकिन हम धार्मिक ज्योति के रखवालों को भी अपनी विफलताओं को स्वीकार करते हुए अपनी जिम्मेदारी लेनी चाहिए, और अपने कर्त्तव्यों को निभाने का संकल्प लेना चाहिए।
आजकल, जब तक लोगों को, मूल्यों के साथ, और विशेषकर सर्वोच्च मूल्य के साथ संबंध जोड़ने के मार्ग दिखानेवाले आदर्श सलाहकार और परामर्शदाता नहीं मिल जाते, तब तक उनका इस मार्ग में प्रवेश होना संभव होगा।
'जागने, उजागर होने और तेजस्वी बनने का वक्त आ गया है।
संत पापा जॉन पॉल द्वितीय ने हम सब को यह उपदेश दिया था कि हम अपने दिल के दरवाज़े येशु के लिए खोल दें। ईश्वर की उपस्थिति में हमारे जीवन की पूर्णता को अनुभव करने केलिए संत पापा हमारा आह्वान करते हैं। लेकिन आज की दुनिया में, अपने जीवन में ईश्वर की उपस्थिति की बात कहना अटपटा सा लगता है। बाइबिल ईश्वर को मुक्तिदाता यानी, गुलामी से हमें आज़ाद करनेवाला मानती है, परन्तु दुनिया इस बिम्ब को इससे बिलकुल भिन्न, ईश्वर को हमारी आजादी, मनमौजी, सुख, और उम्मीद के खिलाफ कार्य करनेवाला मानती है। लेकिन इस तरह की बातें करना तो सत्यता के तथ्यों से बिलकुल अदूर रहकर बात करना जैसा है।
पूरी तरह मानव बनने और पूरी तरह जीवन का आनंद लेने का मतलब है, हमारे जीवन में ईश्वर की उपस्थिति का होना। जब ईश्वर हमारे जीवन में निवास करता है, तब हम उसकी उपस्थिति के फलों को अनुभव करते हैं, शांति, प्रेम, आनंद, सौम्यता, और दयालुता के फल – ये सब फल हमें बेहतर और जिंदादिल इंसान बनाते हैं।
जीवन जीने का तरीका
येशु ने कहा, “मैं इसलिए आया हूँ कि तुम्हें जीवन मिले, और प्रचुर मात्रा में मिले”। मुझे बहुत सारे नौजवानों की ज़िंदगी में उनका हमसफ़र बनने का अवसर मिला, और अक्सर मैं ने देखा है कि वे अपने जीवन में बहुत से दबावों का अनुभव करते हैं। कॉलेज में एडमिशन लेने और नौकरी पाने के लिए वे दिन रात मेहनत करते हैं। अपने जीवन को जीने के लिए उनके पास समय ही नहीं रहता है। ज़िन्दगी सिर्फ चीज़ें हासिल करने और चीज़ों को बरकरार रखने की प्रक्रिया बन जाती है। ज़िंदगी कहीं और जगह पहुँचने की एक दौड़ बन जाती है। यह तरीका आपके लिए ज़िन्दगी जीने का तरीका नहीं हो सकता है।
आपको सही ढंग से ज़िन्दगी जीने के लिए अपनी ज़िन्दगी में, ईश्वर को बुलाना होगा, और आप के असली व्यक्तित्व को पूर्ण रूप से जीने में मदद के लिए ईश्वर को अवसर देना होगा। ईश्वर ने हमें पूर्ण मानव बनने के लिए सृष्ट किया है, और हमारी मानवता पर उसे आनंद मिलता है। येशु हमारी टूटी और बिखरी हुई दुनिया में, पापियों और रोगियों से भरी हुई दुनिया में आये, जिसे ईश्वर की ज़रूरत है, जिसे प्यार, शांति और ख़ुशी की ज़रूरत है। और सच्चाई यह है कि हमारे जीवन में ईश्वर नहीं है तो हम इन चीज़ों को हासिल नहीं कर सकते हैं। ईश्वर के बिना अपने जीवन के बारे में सोचना मेरे लिए असंभव है।
एक अप्रतीक्षित बुलावा
एक बार एक महिला ने मुझसे संपर्क करके यह अनुरोध किया कि अस्पताल में पड़े उसके पति के साथ मैं कुछ समय गुज़ारूँ। उसका नाम पीटर था। उस महिला को इस बात का डर था कि जब पीटर के रोग की जांच परिणामों को उसे बताया जाएगा और उसे पता चलेगा कि उसकी ज़िन्दगी के बहुत कम महीने बचे हैं, तो उसकी प्रतिक्रिया किस तरह की होगी।
मैं पीटर के साथ कुछ वक्त गुज़ारने के लिए अस्पताल गया। जब हम दोनों बैठकर प्रार्थना कर रहे थे, तब डॉक्टर ने कमरे में प्रवेश किया। डॉक्टर ने उस दुखभरे सन्देश को सुनाया और वहां बस सन्नाटा छाया रहा। मैं ने बहुत प्रार्थना की थी कि इस वक्त ईश्वर हमारे साथ रहे। पीटर ने मेरी ओर देखा और मुझसे पूछा: “फादर, क्या इस में ईश्वर नहीं है?”
“ज़रूर, वह इस में ज़रूर है”, मैं ने कहा।
उसने कहा, “तब ठीक है, यदि ईश्वर इसमें है, तो मैं इसका सामना कर सकता हूँ।” जब येशु मानव बना, उसने मानव के सुख, दुःख और पीडाओं का अनुभव किया। हम जिन मुश्किल भरे रास्तों पर चलते हैं, उन सारी मुश्किलों से येशु भी गुज़रे। हम चाहे जहां भी जाएँ, येशु हमारे आगे आगे चलते रहते हैं। पीटर ने यह समझ लिया। उसे मालूम था, कि येशु उसके साथ हमसफ़र बनकर चल रहे हैं। चाहे उसे जो भी दुःख तकलीफों से होकर जाना पड़े, चाहे वह मौत भी हो, येशु उसके साथ रहेंगे। येशु उसकी दुःख पीडाओं को समझ लेंगे, क्योंकि येशु ने स्वयं गेद्सेमनी बाग में घोर दुःख संकट का सामना किया था।
बड़ा परिवर्त्तन
पीटर ने मुझे बताया कि वह अपने जीवन के आखिरी महीनों और आखिरी सप्ताहों को येशु के साथ, अपनी पत्नी और अपने बच्चों के साथ बितायेंगे। ऐसा लग रहा था कि जब मौत के साथ उसका सामना हो रहा था, तब वह अपने जीवन की सच्चाई का भी आमना सामना कर रहा था। येशु उसके साथ साथ हैं, इसे अनुभव करते हुए उसने कहा, “मैं इस जीवन को जी सकता हूँ, मैं इस बीमारी को जी सकता हूँ, मैं इसके उपचार को भी जी सकता हूँ, मैं अपने परिवार के साथ भी जी सकता हूँ।”
उस दिन पीटर की पत्नी के साथ मैं ने उसके कमरे में प्रवेश किया, इस चिंता के साथ कि हम उसकी मदद किस तरह कर पाएंगे। लेकिन अन्ततोगत्वा जीवन जीने में, उसे संपोषित करने में, और जहां कहीं येशु हैं वहां जीवन की पूर्णता है, यह जानने के तरीके को दिखाने में पीटर ने हमारी मदद की। हमारे जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे येशु स्पर्श नहीं कर सकता है। ऐसी सब जगह, जहां कहीं हम जाते हैं, हमारे प्रलोभन और कमजोरियों में भी, येशु हमारे साथ चलते हैं, क्योंकि येशु इन सब जगहों में स्वयं थे। जब आप चुपचाप बैठकर सोचते हैं, “क्या कोई मेरी चिंता को समझ रहा है? क्या कोई मेरे आंसुओं को देख पा रहा है? क्या कोई वास्तव में मुझे और मेरे जीवन में मैं क्या पाना चाहता हूँ, इसे समझ पा रहा है?” तो यकीन मानिये कि आपको समझने वाला और आपकी परवाह करनेवाला कोई अवश्य है।
आनंदित रहने के लिए हमारी सृष्टि हुई है
आपके आंसू व्यर्थ नहीं जाते; आपका दुःख भुलाया नहीं जाता। उत्पत्ति ग्रन्थ में एक महान कथन है: आदम की सृष्टि करने के बाद, ईश्वर ने कहा, “अकेला रहना मनुष्य के लिए अच्छा नहीं।” (उत्पत्ति 2:18)। आदम के लिए एक साथी को ढूँढने की ज़रुरत के बारे में ईश्वर बात कर रहा था। लेकिन मुझे लगता है कि ईश्वर कुछ और गहरी और गंभीर बात के विषय में बात कर रहा था। वह हमारे अपने जीवन में ईश्वर की उपस्थिति की ज़रूरत पर बात कर रहा था। ईश्वर आपके जीवन में रहना चाहता है, और यह अच्छा नहीं है कि पुरुष या स्त्री या बच्चा अकेला रहे। हम सभी सहभागिता और एकात्मकता के लिए सृष्ट किये गए हैं। हम दोस्ती के लिए सृष्ट किये गए हैं। हम जीवन का आनंद अनुभव करने के लिए सृष्ट किये गए हैं।
आविला की संत तेरेसा ने नरक का एक दर्शन देखा जिसमें कुछ लोग कारागार के अपने निजी तन्हाई के कमरों में अकेले बैठे हैं, उनकी पीठ दरवाजे की ओर है, और उनका सर उनकी हथेलियों में डूबे हुए हैं, जो अपने बारे में बहुत ही दुखी होकर चिंतित दिखाई दे रहे हैं। ईश्वर ने हमारी सृष्टि तन्हाई के लिए या दुखी होने के लिए नहीं की है। उसने हमारी सृष्टि इसलिए की है कि हम एक दूसरे के साथ और ईश्वर के साथ सहभागिता में रहें। हम पूर्ण रूप से मानव तब बनते हैं जब हम प्रेम का अनुभव करते हैं। पहाड़ की चोटी तक या समुद्र के सबसे निचले तह तक तीर्थयात्रा करने से हम ईश्वर को नहीं पाते हैं। हमें अपनी ही आत्माओं में, अपने ही ह्रदयों में, उसे ढूंढना होगा। और जब हम उसे वहां पायेंगे, तब हम समझ पायेंगे कि वह आनंद, शान्ति के फल देने के लिए आये हैं। येशु हमारे जीवन के ठीक बीच में खड़े होने केलिए आते हैं। वह हमारे टूटन और बिखराव में, हमारी ज़रूरतों में, हमारी गरीबी में आते हैं। हमें बस यह कहना है,
“हे प्रभु, मैं जहां भी हूँ, और मेरी ज़िन्दगी में जो भी हो रहा है, उस स्थिति में मैं चाहता हूँ कि तू मेरे साथ रहे। तेरी उपस्थिति और पवित्र आत्मा की शक्ति मुझ में हो इस केलिए मैं निवेदन करता हूँ, ताकि मेरा जीवन फलदायक हो जाये। मैं जीवन को पूरा का पूरा जीना चाहता हूँ। क्योंकि तू मेरे लिए जीवन की पूर्णता ही चाहता है। आमेन।”
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फादर जॉन हैरिस ओ.पी. डोमिनिकन धर्मसमाज के आयरिश प्रांत के प्रांतीय अध्यक्ष हैं। यह लेख उनके द्वारा शालोम वर्ल्ड प्रोग्राम “9 पी.एम्. सीरीज़” में साझा की गयी प्रेरणादायक शिक्षाओं पर आधारित है। इस एपिसोड को देखने केलिए देखें : shalomworld.org/episode/what-makes-us-fully-alive-fr-john-harris-op
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