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क्या आप आलस्य, उदासीनता और बोरियत से जूझ रहे हैं? आपकी आत्मा की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए यहां सात आध्यात्मिक टीकाकरण दिए जा रहे हैं
आमतौर पर हम शैतान को अंधेरे और रात से जोड़ते हैं। लेकिन इस से भी बुरा एक दुश्मन है: जब सूर्य अपने चरम पर होता है तब वह घात करता है, हम पारंपरिक रूप से इसे ‘दोपहर का शैतान’ कहते हैं। आप दिन की शुरुआत बड़े उत्साह और जुनून के साथ करते हैं, लेकिन जैसे ही दोपहर करीब होता है आप अपना उत्साह और जोश खो देते हैं। यह शारीरिक थकान नहीं है, बल्कि आत्मा का संकुचन है।
रेगिस्तान के भिक्षुओं ने इसे असीडिया कहा, जिसका अर्थ है उदासीनता, या परवाह न करना या जागरूकता की कमी। इस दोष को आलस्य के रूप में भी जाना जाता है, जो सात घातक पापों में से एक है, जो अपने आप में हानिकारक नहीं है, बल्कि अन्य बुराइयों और दोषों के लिए दरवाज़ा खोल देता है। ईश्वर से मिलन होने के बाद आत्माएँ पूरे जूनून के साथ आध्यात्मिक यात्रा पर निकल पड़ती है। लेकिन उसी भावना में बने रहना आसान नहीं है। कुछ हफ्तों या महीनों के बाद, आलस्य या कुछ करने की ऊर्जा की कमी आत्मा को घेर लेती है। उदासीनता की यह स्थिति, आत्मा में निराशा और उबाउपन एवं आध्यात्मिक शून्यता द्वारा प्रदर्शित होती है।
असीडिया को आध्यात्मिक अवसाद के रूप में वर्णित किया जा सकता है। इस अवस्था में कोई भी गतिविधि सुखद नहीं हो सकती है। आलस्य जीवन के सभी चरणों में लोगों को डराता है। यह अनेक बुराइयों का कारण है। जाहिर है कि, यह हमें उद्धार पाने से रोकता है। इवाग्रीस पोंटिकस कहते हैं कि दोपहर का दानव “सभी राक्षसों में सबसे अधिक अत्याचारी” है। यह दमनकारी है, क्योंकि यह हमारे मन में यह बात डालता है कि धार्मिक आस्था या तपस्वी जीवन का अभ्यास बहुत कठिन है। वह यह बताता है कि नियमित रूप से प्रार्थना या धार्मिक अभ्यास करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ईश्वर की सेवा करने के कई तरीके हैं।
यह मानसिकता सभी आध्यात्मिक आनंद को छीन लेती है, और देह से मिलने वाले सुख को सबसे बड़ी प्रेरणा बना देता है। इस दानव की चालों में से एक चाल यह सुनिश्चित करना है कि व्यक्ति को यह एहसास न हो कि वह पीड़ित हैं, आध्यात्मिक कार्यों के लिए एक अरुचि पैदा करना, एक व्यक्ति को सांसारिक सुखों पर इतना निर्भर कर देना कि, इस हद तक कि उसमें भी उसका आनंद नष्ट हो जाय। क्लैरवा के बर्नार्ड इसे किसी की आत्मा की नपुंसकता, सूखापन और बंजरता बोलते हैं जो स्तोत्र भजन के गायन के मधुर शहद को भी कडुवा बना देता है, और रात्री जागरण को निरर्थक पीड़ा में बदल देता है।
असीडिया के प्रलोभन
अपने आप से और दूसरों से प्यार करने की क्षमता को असीडिया ख़तम कर देता है। यह आत्मा को उदासीन बनाता है। पवित्र वचन उनके बारे में कहता है: “मैं तुम्हारे आचरण से परिचित हूँ। तुम न तो ठंडे हो और न गर्म। कितना अच्छा होता कि तुम ठंडे या गर्म होते! लेकिन न तो तुम गर्म हो और न ठंडे, बल्कि कुनकुने हो, इसलिए मैं तुमको अपने मुख से उगल दूंगा” (प्रकाशना-ग्रन्थ 3:15-16)। आप यह कैसे जान पायेंगे कि आप दोपहर के शैतान के दमन के अधीन हैं या नहीं? अपने जीवन की जांच करें और देखें कि क्या आप इन निम्नलिखित संघर्षों का सामना कर रहे हैं?
एक प्रमुख संकेत काम को टालना है। टालने का मतलब यह नहीं है कि आप कुछ नहीं कर रहे हैं। हो सकता है कि आप सब कुछ कर रहे हों सिवाय उस एक चीज़ के जिसे आप करने वाले थे। क्या आप में यह आदत हैं?
आलस्य के तीन रूप हैं: अपने आप को अनावश्यक चीजों में व्यस्त रखना, व्याकुलता और आध्यात्मिक उदासी या अवसाद। आलस्य की भावना से पीड़ित व्यक्ति किसी एक चीज़ पर ध्यान केन्द्रित किए बिना बहुत सारी चीज़ों को अपने कार्य में शामिल करता है। वे एक वस्तु से दूसरी वस्तु पर डोलते रहते हैं। ऐसे समय में शांति और स्थिरता हासिल करना बहुत मुश्किल है। ईश्वर की वाणी न सुनने से आत्मा खोखली हो जाती है। व्याकुलता ध्यान और स्मरण शक्ति को बाधित करती है, जिससे प्रार्थना और आध्यात्मिक अभ्यास कम हो जाते हैं। यह थकान सब कुछ स्थगित करने की ओर ले जाती है। आंतरिक खोखलापन और थकान का यह अनुभव आध्यात्मिक अवसाद का कारण बनता है। अन्दर एक छुपा हुआ गुस्सा रहता है। इस वेदना से पीड़ित व्यक्ति को, व्यक्तिगत रूप से स्वयं कुछ रचनात्मक कार्य किए बिना, सभी की आलोचना करने का मन करता है।
प्याज के लिए तरसना
अस्थिरता इस बुराई का एक और संकेत है – अपनी बुलाहट पर ध्यान केंद्रित करने में असमर्थता। अपना क्षेत्र या इलाका, कार्य, स्थिति, संस्था, धार्मिक मठ, जीवनसाथी या दोस्तों को बदलने की अत्यधिक इच्छा अस्थिरता के लक्षण हो सकते हैं। गपशप सुनना, व्यर्थ के वाद-विवाद और झगड़ों में भाग लेना और हर बात की शिकायत करना इस असीदिया भावना के कुछ रूप हैं। जब लोग इसके अधीन होते हैं, तो वो शरारती बच्चों की तरह व्यवहार करते हैं: जैसे ही एक इच्छा पूरी होती है, वे कुछ और चीज़ की चाह करने लगते हैं। उन्होंने एक किताब पढ़ना शुरू करते ही दूसरी किताब पर कूद पड़ते हैं, फिर सेल फोन पर, लेकिन कभी भी कोई काम खत्म नहीं करते। इस स्तर पर, किसी को ऐसा लग सकता है कि विश्वास या धर्म भी किसी काम का नहीं है। दिशा खोना अंततः एक आत्मा को भयानक संदेह और भ्रम में ले जाता है।
तीसरा लक्षण है अतिशयोक्तिपूर्ण शारीरिक अभिरुचिः लंबे समय के लिए दुखदायी और अप्रिय चीजों के साथ रहने में असमर्थ होना। आत्मा का दु:ख व्यक्ति को सुख के वैकल्पिक स्रोतों की तलाश करने के लिए प्रेरित करता है, फिर अन्य चीजों की की ओर ले जाता है जो ख़ुशी देती हैं। संत थॉमस एक्विनस ने एक बार कहा था: “जो लोग आध्यात्मिक सुखों में आनंद नहीं पाते हैं, वे शरीर के सुखों का सहारा लेते हैं।” जब आध्यात्मिक आनंद गायब हो जाता है, तो एक आत्मा अपने आप सांसारिक सुखों या शरीर की असमान्य भूख की ओर मुड़ जाता है, छोड़ दिए गए पापों को याद करता है और त्यागी हुई चीज़ की “मिस्र के प्याज” की लालसा करता है (गणना ग्रन्थ 11: 5)। कोई व्यक्ति जो प्रभु के द्वारा प्रदान किये गए स्वर्गीय मन्ना की ओर निहारने में असफल रहता है, वह निश्चित रूप से “दुनिया के प्याज” के लिए तरसना शुरू कर देगा।
एक कुनकुनी आत्मा का एक और संकेत एक ठंडा और कड़ा दिल हो सकता है। ऐसी आत्मा के बारे में पवित्र ग्रन्थ कहता है: “आलसी कहता है, सिंह बाहर खड़ा है, सिंह गलियों में विचरता है। जिस तरह किवाड़ अपने कब्ज़े पर घूमता, उसी तरह आलसी अपने पलंग पर करवट बदलता है। आलसी थाली में हाथ डालता तो है, किन्तु वह उसे मुंह तक उठाने में उसे थकान आती है।” (सूक्ति-ग्रन्थ 26:13-15)। फिर से, यह कहता है, “थोड़ी देर तक सोना, थोड़ी देर झपकी लेना और हाथ पर हाथ रखकर थोड़ी देर आराम करना” (सूक्ति-ग्रन्थ 6:10)। राजा दाऊद के पतन को याद करें। जब सेनाएं युद्ध के मैदान में थीं, तो सेना के अधिकारी अपने छोटे हितों की तलाश में महल में ही रह गया था। वह वहां नहीं था जहां उसे होना चाहिए था। आलस्य उसे वासना की ओर, और बाद में और भी जघन्य पापों की ओर ले गया। बिना उद्देश्य का एक भी दिन आत्मा को बुरी इच्छाओं का शिकार होने के लिए और अधिक प्रवण बना देता है। बाद में, दाऊद ने अफसोस के साथ लिखा “न अन्धकार में फैलने वाली महामारी से और न दोपहर को चलने वाले घातक लू से” (स्तोत्र-ग्रन्थ 91:6)।
असीडिया पर काबू पायें
इवाग्रियस पोंटिकस, जॉन कैसियन और उनके जैसे अन्य मरुस्थल के श्रेष्ठ आचार्यों ने दोपहर के शैतान का मुकाबला करने के कई तरीके सुझाए हैं। आइए उनमें से सात का अन्वेषण करें:
1. आँसुओं में ईश्वर की ओर मुड़ें: वास्तविक आँसू उद्धारकर्ता को पाने की इच्छा की ईमानदारी को दर्शाते हैं। वे परमेश्वर की सहायता के लिए आंतरिक इच्छा की बाहरी अभिव्यक्ति हैं। असीडिया पर काबू पाने के लिए प्रभु की कृपा जरूरी है।
2. अपनी आत्मा से बात करना सीखें: अपने आप को उन आशीषों की याद दिलाते रहें जो आपको पहले ही मिल चुके हैं। आप प्रभु को उनके सभी अच्छाइयों के लिए धन्यवाद देकर अपनी आत्मा को प्रेरित कर सकते हैं। जब आप प्रभु को धन्यवाद देते हैं, तो आप आत्मा के उत्थान का अनुभव करते हैं। स्तोत्र-ग्रन्थ में, दाऊद कहते है: “मेरी आत्मा तुम उदास क्यों हो? क्यों आह भारती हो? ईश्वर पर भरोसा रखो। मैं फिर उसका धन्यवाद करूँगा। वह मेरा मुक्तिदाता और मेरा इश्वर है ” (स्तोत्र-ग्रन्थ 42:5)। “मेरी आत्मा! प्रभु को धन्य कहो और उसका एक भी वरदान कभी मत भुलाओ” (स्तोत्र-ग्रन्थ 103:2)। यह दानव से लड़ने की असफल-सुरक्षित युक्ति है। मैंने व्यक्तिगत रूप से, इस दृष्टिकोण को बहुत शक्तिशाली पाया है।
3. दृढ़ता अच्छे काम करने की अधिक इच्छा की ओर ले जाती है: इच्छा कार्य करने केलिए प्रेरणा देती है। आत्मा के आध्यात्मिक आलस्य को दूर करने के लिए निरंतर इच्छा की आवश्यकता होती है। अति क्रियाशीलता आपको पवित्र नहीं बनाएगी। हमारे साइबर युग में, दिखावे के रिश्तों, सोशल मीडिया की लत और दिल और शरीर की शुद्धता के वास्तविक खतरों में कोई भी आसानी से पड़ सकता है। आत्मा की बोरियत और अंतरात्मा की नीरसता एक व्यक्ति में हर किसी की तरह जीने की इच्छा पैदा करती है, पारगमन को निहारने का अनुग्रह खो देती है। हमें शांति और एकांत का अभ्यास करना सीखना चाहिए। इसके लिए हमें जानबूझकर कुछ पल प्रार्थना और ध्यान में बिताना चाहिए। मैं इसे करने के लिए दो सरल लेकिन गहन तरीके सुझाता हूं:
(क) आत्मा को चार्ज करने के लिए कुछ ‘तीर प्रार्थना’ फेंकें। “येशु, मैं तुझ पर भरोसा करता हूँ” जैसे छोटी प्रार्थना करें। या, “हे प्रभु, मेरी सहायता के लिए आ।” या “येशु मेरी मदद कर।” या आप लगातार ‘येशु प्रार्थना’ कह सकते हैं: “हे प्रभु येशु, दाऊद के पुत्र, मुझ पापी पर दया कर।”
(ख) आत्म-समर्पण की नवरोज़ी प्रार्थना करें: “हे येशु, मैं खुद को तेरे सामने समर्पित करता हूं, मेरी हर बात का तू ध्यान रख।”
आप इन छोटी-छोटी प्रार्थनाओं को बार-बार बोल सकते हैं, यहाँ तक कि दात्तुवन करते हुए, नहाते हुए, खाना बनाते हुए, गाड़ी चलाते हुए भी। यह प्रभु की उपस्थिति को विकसित करने में मदद करेगा।
4. पापस्वीकार संस्कार के लिए जाएं: आध्यात्मिक रूप से कुनकुनी आत्मा पाप स्वीकार करने से कतराती है। लेकिन, आपको इसे बार-बार करना चाहिए। यह वास्तव में आपके आध्यात्मिक जीवन में दुबारा चालु करने का बटन है जो आपको पटरी पर वापस ला सकता है। हो सकता है कि आप बार-बार एक ही पाप को स्वीकार कर रहे हों, और वर्षों से एक ही तपस्या कर रहे हों! बस इसे एक बार में करें। मेलमिलाप संस्कार के पुरोहित के साथ अपनी आध्यात्मिक स्थिति साझा करें। आपको अद्भुत कृपा प्राप्त होगी।
5. पवित्र बातों से घिरे रहें: संतों के बारे में पढ़ें। अच्छी प्रेरणा देने वाली मसीही फिल्में देखें। मिशनरियों और मिशन की चुनौतीपूर्ण कहानियाँ सुनें। प्रतिदिन पवित्र ग्रन्थ का एक छोटा अंश पढ़ें; शुरुवात करने केलिए आप स्तोत्र-ग्रन्थ की पुस्तक को पढ़ सकते हैं।
6. पवित्र आत्मा की भक्ति: पवित्र त्रित्व का तीसरा व्यक्ति हमारा सहायक है। हाँ, हमें मदद चाहिए। प्रार्थना करें: “हे पवित्र आत्मा, मेरे हृदय को अपने प्रेम से भर दे। हे पवित्र आत्मा, मेरे खालीपन को अपने जीवन से भर दे।”
7. मृत्यु पर ध्यान: इवाग्रियस आत्म-प्रेम को सभी पापों की जड़ मानते थे। मृत्यु पर मनन करने से, हम स्वयं को याद दिलाते हैं कि “हम मिट्टी हैं, और मिट्टी ही में फिर मिल जाएंगे।” संत बेनेदिक्त ने हमें यह नियम सिखाया है: ‘अपनी आंखों के सामने रोजाना मौत को रखना। मृत्यु-चिंतन बुरे विचारों में पड़ने के लिए नहीं है, बल्कि हमें सतर्क करने और अधिक लगन से मिशन के लिए खुद को प्रतिबद्ध करने के लिए है।
‘दोपहर के शैतान’ को हराने में आत्मा को मदद करने केलिए ये सात तरीके हैं। वे आपकी आत्मा की आध्यात्मिक प्रतिरक्षा को बढ़ाने के लिए आध्यात्मिक टीकाकरण की तरह हैं। जो हर आत्मा में प्रभु केलिए प्यास लगाता है, प्रभु केलिए प्यास को बुझानेवाला भी वही है।
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प्रश्न– ऐसा क्यों है कि केवल पुरुष ही पुरोहित बन पाते हैं? क्या यह महिलाओं के साथ भेदभाव नहीं है?
उत्तर– एक शरीर में कई अंग होते हैं, जिनमें से प्रत्येक की एक अलग भूमिका होती है। कान पैर नहीं हो सकता, न आंख हाथ बनने की इच्छा कर सकती है। पूरे शरीर को अच्छी तरह से काम करने के लिए, प्रत्येक भाग की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
इसी तरह ख्रीस्त के शरीर अर्थात कलीसिया की भी कई अलग-अलग और सुंदर-सुन्दर पूरक भूमिकाएं हैं! प्रत्येक व्यक्ति की बुलाहट पुरोहित बनने के लिए नहीं है, परन्तु संत बनने की बुलाहट उन सभी के लिए है चाहे वे किसी भी प्रकार की बुलाहट में हो।
पुरोहिताई जीवन कई कारणों से पुरुषों के लिए आरक्षित किया गया है। पहला, येशु ने स्वयं अपने प्रेरितों के रूप में केवल पुरुषों को चुना। जैसा कि कुछ लोग दावा करते है, यह केवल उस समय की संस्कृति के कारण नहीं है। येशु ने अक्सर महिलाओं के साथ अपने संबंधों में उस समय के सांस्कृतिक मानदंडों को तोड़ा — उन्होंने सामरी महिला के साथ खुशनुमा माहौल में बातें की, उन्होंने अपने दिल में महिलाओं का स्वागत किया, उनके पुनरुथान की सबसे पहले गवाह महिलाएं ही थी। येशु ने महिलाओं के साथ समान व्यवहार करते हुए उन्हें एक उल्लेखनीय गरिमा और सम्मान प्रदान किया – लेकिन उन्होंने, उन्हें प्रेरित की अनूठी भूमिका के लिए नहीं चुना। यहाँ तक कि उनकी अपनी माँ मरियम, जो अन्य सभी प्रेरितों की तुलना में पवित्र और अधिक वफादार थीं, उसे भी प्रेरित के रूप में नहीं चुना। प्रेरित ही पहले धर्माचार्य या बिशप थे, और सभी पुरोहित और धर्माचार्य लोग प्रेरितों में अपनी आध्यात्मिक वंशावली का पता लगा सकते हैं।
एक दूसरा कारण है, जब एक पुरोहित संस्कारों का अनुष्ठान करता है, तब वह मसीह के व्यक्तित्व को धारण करके उपस्थित रहता है। एक पुरोहित यह नहीं कहता है, “यह ख्रीस्त का शरीर है” – बल्कि वह कहता है, “यह मेरा शरीर है”। वह यह नहीं कहता है कि “ख्रीस्त तुम्हारे पाप क्षमा करते हैं” बल्कि यह कहता हैं, “मैं तुम्हारे पाप क्षमा करता हूँ।” एक पुरोहित के रूप में, इन वचनों को अपने ऊपर लागू करने में मुझे अयोग्यता एवं भय महसूस होता है! लेकिन जैसा कि पुरोहित मसीह के व्यक्तित्व में उपस्थित रहता है, वह स्वयं को अपनी दुल्हन कलीसिया को समर्पित कर देता है, इसलिए यह उचित है कि पुरोहित एक पुरुष ही हो।
एक अंतिम कारण सृष्टि के क्रम में है। हम देखते हैं कि परमेश्वर पहले चट्टानों, तारों और अन्य निर्जीव वस्तुओं की रचना करता है। यह कोई बड़ी बात नहीं। तब परमेश्वर पेड़-पौधों की सृष्टि करता है — इस तरह जीवन आया! तब परमेश्वर जानवरों की रचना करता है – चलता-फिरता और सचेत जीवन आया! तब परमेश्वर मनुष्य की रचना करता है – वह जीवन जो उसके प्रतिरूप और सदृश्य है! लेकिन ईश्वर का कार्य अभी समाप्त नहीं हुआ है। उसकी सृष्टि का चरम बिन्दु स्त्री है – ईश्वर की सुंदरता, कोमलता और प्रेम का पूर्ण प्रतिबिम्ब! केवल एक स्त्री ही जीवन को उत्पन्न कर सकती है जैसा परमेश्वर करता है; एक महिला संबंधपरक होने के लिए बनाई गई है, क्योंकि ईश्वर रिश्ते को प्यार करता है। अतः हम यह कह सकते है कि स्त्री ईश्वर की रचना का शिखर है।
पुरोहिताई जीवन की बुलाहट सेवा और भेड़ों के लिए अपना जीवन देने पर केन्द्रित है। इसलिए महिलाओं द्वारा पुरुषों की सेवा करना उचित नहीं होगा, बल्कि पुरुषों द्वारा महिलाओं की सेवा करना उचित होगा। पुरुषों को दूसरों की हिफाज़त करने और साधन प्रदान करने के लिए बनाया गया है – पुरोहिताई जीवन एक ऐसा तरीका है जिसमें वह उस बुलाहट को जीता है, क्योंकि वह बुराई से आत्माओं की रक्षा और सुरक्षा करता है, और संस्कारों के माध्यम से कलीसिया की आवश्यकताओं की पूर्ती करता है। एक पुरोहित को उसके जिम्मे में सौंपी गई आत्माओं की भलाई के लिए उसे अपना जीवन देने को भी तैयार रहना चाहिए!
यह सोच आधुनिक समय की एक भूल है कि नेतृत्व शक्ति और दमन के समान है। हम देखते हैं कि अक्सर लोग आदिपाप के कारण, नेतृत्व की भूमिकाओं का दुरुपयोग करते हैं, लेकिन ईश्वर के राज्य में नेतृत्व करने का मतलब सेवा करना होता है। अतः हम यह कह सकते हैं कि पुरोहिताई जीवन बलिदान के लिए है, यहां तक कि यह क्रूसित येशु का अनुकरण करने की बुलाहट है। यह पुरुषों के लिए एक विशिष्ट भूमिका है।
इसका यह मतलब नहीं है कि महिलाएँ कलीसिया में दूसरे दर्जे की नागरिक हैं! बल्कि उनकी भी बुलाहट बराबर है, लेकिन अलग है। कई वीर महिलाओं ने शहीदों, संत कुंवारियों, समर्पित धर्म संघियों, मिशनरियों, अगुओं के रूप में – एक विशिष्ट स्त्रैण रूप में – आध्यात्मिक जीवन को धारण करते हुए, रिश्तों को पोषित करते हुए, स्वयं को दुल्हे मसीह के साथ एक होते हुए मसीह के लिए अपना जीवन दिया है।
कलीसिया में विभिन्न प्रकार की विभिन्न पूरक बुलाहटों का होना कितनी सुन्दर बात है!
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रोज़री माला को देख, घबराया सीरियल किलर
कुख्यात सीरियल किलर टेड बंडी के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। लेकिन यहाँ उसके बारे में एक नयी कहानी है जो अब व्यापक रूप से लोगों का ध्यान आकर्षित कर रही है। और यह रोज़री माला की चमत्कारी ताकत का शक्तिशाली साक्ष्य देता है।
15 जनवरी, 1978 को फ्लोरिडा स्टेट यूनिवर्सिटी के ची ओमेगा सोरोरिटी आवास में रहने वाले दो कॉलेज छात्रों की जान लेने के बाद, बंडी ने और लोगों को शिकार बनाने के लिए घर की तलाशी शुरू की। हाथ में बल्ला लेकर बंडी अपने अगले शिकार के कमरे में पहुँचा, लेकिन अचानक वहीं खड़ा रहा। फिर वह तुरंत बल्ला गिराकर भाग गया।
पुलिस जानना चाहती थी कि यह लड़की हमले से कैसे बच गयी — बंडी उस लड़की के कमरे में घुसने के बाद क्यों रुका और क्यों भाग गया? पुलिस से बात करने के लिए वह लड़की राजी हो गई, लेकिन एक शर्त पर – कि वह तब ही बात करेगी जब कमरे में कोई फादर हो। इसलिए, अधिकारियों ने पास के गिरजाघर में फ़ोन किया। हालांकि उस रात फादर विलियम केर (बाद में जो मोंसिनियर विलियम केर बन गए) की ड्यूटी नहीं थी, उसके बावजूद वे जल्द से घटनास्थल पर पहुंचे।
उस भयभीत लड़की ने फादर को उस वादे के बारे में बताया जो उसने अपनी दादी से तब किया था जब वह कॉलेज की पढ़ाई शुरू करने के लिए घर से निकली थी — हर रात, चाहे वह कितनी भी देर से सोने क्यों न जाए, वह धन्य माँ की सुरक्षा मांगने के लिए रोज़री करेगी, सही में, हर रात, भले ही वह कुछ भेदों के बाद ही सो जाए। और वास्तव में, उस रात भी यही हुआ था। जब बंडी ने उसके कमरे में प्रवेश किया, तब गहरी नींद में होते हुए भी उसने अपने हाथों में माला को पकड़ा हुआ था। वह धीरे से जगी और उसने देखा कि बल्ले को पकडे एक आदमी उसके ऊपर खड़ा है। बिना सोचे-समझे उसने अपने हाथ खोल दिए और उसने बंडी को रोज़री माला दिखाई। बंडी ने माला की मोतियों को देखा और वह तुरंत भाग गया।
फादर विलियम को कुछ सप्ताह बाद देर रात एक फोन आया। इस बार भी वे ड्यूटी पर नहीं थे। इस बार फोन करने वाला पास की जेल का वार्डन था। बंडी को अभी-अभी पकड़ा गया था और उसने एक फादर से बात करने की अनुमति मांगी थी। फादर विलियम ने उस रात बंडी से मुलाकात की। बंडी को मृत्युदंड दिए जाने की रात तक उनके पास नियमित फोन आते रहे। उसने फादर को हर एक सहायता के लिए धन्यवाद भी दिया।
बंडी ने कबूल किया कि उसने अपने जीवनकाल में तीस से अधिक हत्याएं की थीं। लेकिन एक जीवन, एक युवा लड़की का जीवन जिसने अपनी दादी से रोज़री माला जपने का वादा किया था, वह जीवन उसने नहीं लिया। क्या उसकी जान इसलिए बची क्योंकि उसके हाथ में माला की मोतियाँ थीं? बंडी ने कभी यह उत्तर नहीं दिया। लेकिन हम सुनिश्चित भाव से कह सकते हैं कि रोज़री में शक्ति है, हम कह सकते हैं कि माँ मरियम की आँचल में हम शरण ले सकते हैं। मसीह के जीवन, मृत्यु और पुनरुत्थान के रहस्यों पर चिंतन और प्रार्थना करके आध्यात्मिक विकास और उपजीवन प्राप्त किया जा सकता है।
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आप यह जानते हों या नहीं, जब आप सत्य की तलाश करते हैं, तो आप ईश्वर की तलाश में होते हैं
बचपन में जब मैं नौ साल का था, गर्मी के मौसम में एक दिन कुछ दोस्तों के साथ घूमने गया। मेरा एक दोस्त, जो हमसे कुछ साल बड़ा था, अपने साथ एयर राइफल लाया था। जैसे ही हम एक कब्रिस्तान से गुजरे, उसने चर्च की छत के ऊपर एक पक्षी की ओर इशारा किया और पूछा “क्या तुम्हें लगता है कि तुम इसे मार सकते हो?“ बिना किसी विचार के, मैंने बंदूक उठाई, लोड की और सीधा निशाना लगाया। जैसे ही मैंने ट्रिगर दबाया, मेरे अन्दर आतंक सा छा गया। इससे पहले कि गोली बंदूक से निकलती, मुझे पता था कि मैं इस जीवित प्राणी को मारने जा रहा हूँ जो मेरे कारण मर जाएगा। जैसे ही मैंने पक्षी को ज़मीन पर गिरते हुए देखा, मुझे उदासी और ग्लानि का अनुभव हुआ, और भ्रम की स्थिति मेरे अंदर छा गई। मैंने सवाल किया कि मैंने ऐसा क्यों किया, लेकिन मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मुझे नहीं पता था कि मैंने इस दुष्ट कर्म को करने केलिए क्यूँ राज़ी हुआ। मैं स्वयं को तुच्छ और पापी कह रहा था। हर बार की तरह, मैंने इस घटना को भी अपने अंदर दबा ली और जल्द ही इसके बारे में भूल गया।
उस पुरानी त्रासदी की चोट
मेरे तीस साल के होने से पूर्व, मैं जिस महिला के साथ रिश्ते में था वह गर्भवती हो गई। यह बात हमने गुप्त रखी। मुझे वैसे भी किसी से समर्थन या सलाह की उम्मीद नहीं थी, और यह कोई बड़ी बात भी नहीं थी। मैंने खुद को विश्वास दिलाया कि मैं ‘उचित काम’ कर रहा हूँ। मैंने प्रेमिका को यह आश्वस्त करते हुए कहा कि मैं उसके किसी भी फैसले का समर्थन करूंगा, चाहे बच्चे को पालना हो या गर्भपात कराना हो। कई कारणों से हमने गर्भावस्था को समाप्त करने का निर्णय लिया। इस निर्णय पर पहुँचने में मुझे जिस बात ने ज्यादा प्रोत्साहन दिया वह इस देश में गर्भपात की वैधता और बड़ी संख्या में गर्भपात होने की वजह थी। यह निर्णय इतना भी बुरा कैसे हो सकता है? विडंबना तो देखिये, मेरे खुद के बच्चों की परवरिश करना ही मेरे जीवन का सबसे बड़ा सपना था।
हमने गर्भपात चिकित्सालय में ऑपरेशन के लिए समय निर्धारित कर लिया। वहाँ जाना, मेरे लिए केमिस्ट से एक नुस्खा लेने समान, सिर्फ साधारण यात्रा की तरह लगा; इतना ही नहीं, मैं इस निर्णय के परिमाण और प्रभाव से बेखबर होकर आराम से गाड़ी में इंतजार कर रहा था। जब मेरी प्रेमिका चिकित्सालय से बाहर आई तो मैंने तुरंत उसमें बदलाव देखा। उसका चेहरा बहुत मुरझाया हुआ था। मैंने अपने-आप को दुबारा नौ साल के लड़के के रूप में और उस पक्षी को मारते हुए उन भावनाओं को महसूस किया। हम चुपचाप घर गए और इसके बारे में हमने बात ही नहीं की। लेकिन हम दोनों जानते थे कि उस दिन हममें कुछ बदलाव आ गया था, कुछ भयंकर, कुछ अन्धकार पूर्ण त्रासदी जैसी।
आज़ादी
दो साल बाद, मुझ पर एक ऐसे अपराध का आरोप लगाया गया जिसे मैंने किया ही नहीं था और मुकदमे की प्रतीक्षा करने के लिए मैनचेस्टर के एच.एम.पी. में (अनोखे अपरादों का कारागार) में रखा गया। मैं दिल से ईश्वर से बात करने लगा और जीवन में पहली बार पूरे विश्वास के साथ रोज़री भी करने लगा। कुछ दिन बाद, मैं अपने जीवन की समीक्षा करने लगा और पाए गए आशीषों और साथ ही साथ अपने बहुत से पापों को भी देखा।
जब मैं गर्भपात के पाप पर पहुँचा, तब अपने जीवन में पहली बार मैंने स्पष्ट रूप से महसूस किया कि यह गर्भ में पल रहा एक असली जीवित बच्चा था, और वह मेरा अपना बच्चा था। अपने ही बच्चे का जीवन समाप्त करने के फैसले का एहसास होते ही, मेरा दिल टूट गया, और उस जेल की कोठरी में घुटनों के बल रोते हुए मैंने खुद से कहा, ‘मैं माफ़ी का हक़दार नहीं हूँ।’
लेकिन उसी क्षण, येशु मेरे पास आया और उसने मुझे क्षमा कर दिया जिससे मुझे वहीं पता चल गया कि वह मेरे पापों के लिए मरा था। मैं तुरन्त उसके प्रेम, दया और अनुग्रह से भर गया। पहली बार मैं अपने जीवन को समझा। मैं मृत्यु के योग्य था परन्तु जीवन उससे पाया जिसने कहा था – ‘मैं जीवन हूँ’ (योहन 14:6)। चाहे हमारे पाप कितने भी बड़े क्यों न हों, मैंने महसूस किया है कि ईश्वर का प्रेम असीम है (योहन 3:16-17)!
एक मुलाकात
हाल ही में, लंदन के एक रेलवे स्टेशन पर अपनी ट्रेन की प्रतीक्षा करते हुए, मैंने चुपचाप येशु से किसी ऐसे व्यक्ति से मिलवाने की प्रार्थना की, जिसके साथ बैठकर मैं प्रभु के बारे में साझा कर सकूँ। जब मैंने अपनी सीट ली, मैंने पाया कि मेरे सामने दो महिलाएं हैं । थोड़ी देर बाद हम बात करने लगे और उनमें से एक ने मेरे विश्वास के बारे में पूछा और यह भी कि क्या मैं हमेशा से विश्वासी रहा हूँ। मैंने गर्भपात सहित अपने कुछ अतीत को साझा किया, और समझाया कि जिस क्षण मुझे एहसास हुआ कि मैंने अपने बच्चे की जान ली, मैं क्रूस पर चढ़ाए गए मसीह के साथ आमने-सामने आया, और उसने मुझे क्षमा और मुक्त कर दिया।
उनका सुखद मिजाज तुरंत बदल गया। मैंने जाने-अनजाने में उनमें से एक महिला को निराश कर दिया जिसके कारण वह मुझ पर चिल्लाने लगी। मैंने उन्हें याद दिलाया कि उन्होंने ही मुझसे मेरी गवाही की मांग की थी इसलिए मैं केवल उनके सवाल का जवाब दे रहा था। दुर्भाग्य से, उनको समझाने की कोशिश व्यर्थ साबित हुई। वह चिल्लाई “गर्भ में बच्चा नहीं है!” दूसरी महिला ने सहमति में सिर हिलाया। मैं धैर्य से बैठा रहा और फिर उनसे पूछा कि गर्भ में जो है उसे “बच्चा” क्या बनाता है। एक ने उत्तर दिया “डी एन ए,” और दूसरे ने सहमति व्यक्त की। मैंने उन्हें बताया कि बच्चे के गर्भ में आते ही ‘डी एन ए’ मौजूद होता है और लिंग और आंखों का रंग पहले से ही तय हो जाता है। फिर से, वे मुझ पर इस हद तक चिल्लाए कि उनमें से एक काँपने लगी। अजीब सी शांति के बाद, मैंने कहा कि मुझे बहुत अफ़सोस हुआ कि वह इतनी परेशान हो गई। मुझे पता चला कि इस महिला ने कई साल पहले गर्भपात करवाया था और स्पष्ट रूप से अभी भी उस घाव को लेकर जी रही थी। जब वह उतरने के लिए खड़ी हुई, तो हमने हाथ मिलाया और मैंने उसे अपनी प्रार्थनाओं का आश्वासन दिया।
अबाध
गर्भ में एक निर्दोष जीवन को समाप्त करने जैसी त्रासदी पूर्ण घटना के बारे में आज बहुत ही कम बात की जाती है, और जब बात होती भी है तो हम सही जानकारी के बजाय बहुत गलत सूचना और यहाँ तक कि अत्याधिक झूठ भी सुनते हैं। किसी बच्चे का गर्भपात कराना कोई पल-भर का निर्णय नहीं है। इसका स्थायी नकारात्मक प्रभाव होटा है। ‘प्रो-चोइस’ आन्दोलन के लोग जोर देते हैं कि “यह माँ का शरीर है, इसलिए यह उनकी पसंद है।” लेकिन यह माँ के शरीर और पसंद से कहीं अधिक है। गर्भ में एक छोटा, चमत्कारी जीवन पनप रहा है। गर्भपात हुए एक बच्चे के पिता के रूप में, मेरी उपचार प्रक्रिया चल रही है… यह जारी है और शायद कभी खत्म भी न हो।
ईश्वर को धन्यवाद क्योंकि जो लोग सत्य की तलाश करते हैं वे इसे पा सकते हैं, बर्शते वे केवल अपने दिल खोल लें। और जब वे ‘सत्य’ को जानेंगे, तो ‘सत्य उन्हें स्वतंत्र बना देगा’ (योहन 8:31-32)।
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सत्य को खोजने की कोशिश करते समय यह एक अनवरत गाथा है, लेकिन एक त्वरित नवीनीकरण भी है जब सत्य स्वयं आपको खोज लेता है
संत पिता बेनेदिक्त सोलहवें से एक बार पूछा गया कि अगर वे कभी खुद को एकांत टापू पर फंसा हुआ पाते हैं तो वे अपने साथ कौन सी किताब रखना चाहेंगे। उन्होंने बाइबिल के साथ-साथ संत अगस्टीन की किताब ‘कन्फेशंस’ को चुना। कुछ लोगों को यह विकल्प आश्चर्यजनक लगा होगा, लेकिन मैं इससे सहमत हूँ। चौथी या पाँचवीं बार यह पुस्तक को पढ़ने के बाद मैं स्वयं को उस किताब में मग्न होते हुए पाया। पुस्तक का पहला भाग विशेष रूप से आकर्षक है, जहां उनके परिवर्तन की कहानी लिखी गयी है।
संत तेरेसा द्वारा लिखित ‘द स्टोरी ऑफ़ ए सोल’ की तरह यह पुस्तक कई बार पढ़ने के बाद एक बार फिर अत्यंत परिचित लगती है, फिर भी यह किताब हर बार किसी तरह नई रोशनी से भरी हुई लगती है। संत अगस्टीन हमें यह सिखाता है कि हम ऐसे किस चीज़ की खोज में जाएँ जो आध्यात्मिक विकास के लिए आधार बनाती है, अर्थात हम ‘आत्म-ज्ञान की प्राप्ति’ की खोज करें। अगस्टीन ईश्वर के अनुग्रह के कार्य के सूत्र का पता लगाता है, साथ ही साथ अपने स्वयं के पापीपन को, अपनी शुरुआती यादों से लेकर अपने परिवर्तन के समय तक की तथा उसके आगे तक की सच्चाई का पता लगाता है। यहाँ तक कि वह अपनी यादों से भी पीछे चला जाता है और लिखता है कि दूसरों ने उसे अपने बचपन के बारे में क्या बताया था। बचपन में सोते समय हंसने की आदत के बारे में उसका यह विवरण विशेष रूप से मजेदार और प्यारा लगता है।
इसे चौथी या पांचवी बार पढ़ने के बाद, मैं कुछ चिंतन कर रहा हूँ जिसे इस छोटे से लेख में आपके साथ साझा करना चाहता हूँ। इसका संबंध उस पर अपनी युवावस्था के मित्रों के प्रभाव के बारे में है। अपने बच्चों के मित्रों के विषय में माता-पिता काफ़ी सतर्क नहीं हो पाते। हममें से बहुत से लोग, अपने पथभ्रष्ट साथियों के कारण और उनके द्वारा दिए गए प्रलोभन के कारण, अपनी युवावस्था में जो कुछ थोड़ा सा सद्गुण था, उससे दूर हो गए हैं। अगस्टीन भी इससे भिन्न नहीं था। चौथी शताब्दी की जीवन शैली आश्चर्यजनक रूप से हमारे समय की जीवन शैली के समान प्रतीत होती है।
नाशपाती और दोस्त
नाशपाती की चोरी वाली अगस्टीन का प्रसिद्ध वाकया इस बात को अच्छी तरह दर्शाता है। भले ही उसके घर पर बेहतर नाशपाती थी और वह भूखा नहीं था, वह किसी और के बाग से चोरी करने के फैसले के पीछे के तथ्य का पता करने के लिए अपनी स्मृति की जांच करता है। अधिकांश नाशपाती तो फेंककर सूअरों को दी गईं। वह उस समय पूरी तरह से जानता था कि वह जो कर रहां है वह अनुचित और अन्याय पूर्ण है। क्या उसने बुराई करने के लिए यूँ ही बुराई की? फिर भी, हमारा हृदय आमतौर पर इस तरह से प्रवृत्त नहीं होता है। हमारे अन्दर आमतौर पर पाप कुछ अच्छाई की विकृति है। इस मामले में, यह पाप बाग के मालिकों के आक्रोश पर विचार करते हुए एक प्रकार का उग्र सौहार्द और दोस्तों के समूह की उपहासपूर्ण खुशी के कारण किया गया था।
यह सब विकृत दोस्ती की वजह से थी। अगस्टीन ने ऐसा कभी अकेले नहीं किया होता, बल्कि केवल इसलिए क्योंकि उसके साथियों ने उसे प्रेरित किया था। वह अपने दोस्तों को प्रभावित करके उन्हें खुश करने और उनकी नासमझ शरारतों में हिस्सा लेने के लिए बेताब था। मित्रता ईश्वर के महान उपहारों में से एक है, परन्तु पाप से विकृत हुई मित्रता के विनाशकारी प्रभाव हो सकते हैं। संत का वाक् पटु विलाप इसके खतरे को बेपर्दा करता है, “हे मित्रता, सब अमित्र! तू आत्मा का अनोखा मोहक और प्रलोभक है, जो आनंद और प्रचंडता के आवेगों से शरारत के लिए भूखा है, जो अपने स्वयं के लाभ या बदले की इच्छा के बिना दूसरे के नुकसान की लालसा रखता है – ताकि जब वे कहें, “चलो चलें, चलो कुछ करते हैं,” हमें बेशर्म न होने पर शर्म आती है। (कन्फेशंस, पुस्तक II, 9)।
कैद
पाप से संबंधित एक समान प्रतिमान है जो अगस्टीन की आत्मा के लिए घातक जहर बन जाएगा और जो उसके अनन्त विनाश का कारण बन सकता था। उस मित्रता के कारण वासना के पाप ने भी उसके दिल को जकड़ लिया जिसे वह मानव जीवन की “तूफानी संगति” कहता है। अपनी किशोरावस्था के दौरान उसके मित्रों में कामुकता को लेकर एक दुसरे से आगे निकलना मानो रिवाज बन गया था। वे अपने कारनामों की शेखी करते और एक दूसरे को प्रभावित करने के लिए अपनी अनैतिकता के वास्तविक पैमाने को भी बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते थे। अब उन्हें केवल एक ही चीज़ पर शर्म आती थी, वह थी मासूमियत और ब्रह्मचर्य। जब अगस्टीन सोलह साल का था, तब उसकी धार्मिक माँ ने उसे व्यभिचार से बचने और अन्य पुरुषों की पत्नियों से दूर रहने की सख्त चेतावनी दी थी। वह बाद में अपनी माँ की नसीहतों को अहंकारी तरीके से खारिज करने के बारे में लिखेगा, “ये मुझे स्त्रियों की युक्तियाँ जेसी दिखाई देती थीं, जिनका पालन करने में मैं लज्जित होता। प्रभु, ये युक्तियाँ तेरी ओर से थीं, मैं यह नहीं जान पा रहा था” (कन्फेशंस पुस्तक II, 3)। शारीरिक सुख की वासना के एक या दो पापों से जो शुरू हुआ, वह जल्द ही एक आदत बन गयी, और दुख की बात है कि अगस्टीन के लिए, यह बुरी आदत बाद में एक आवश्यकता की तरह लगने लगी। अपने दोस्तों के सामने शेखी बघारने और उनकी स्वीकृति पाने के लिए शुरू की गयी बुरी आदतों ने आखिरकार उसकी इच्छा को जकड़ लिया और उसके जीवन पर कब्ज़ा कर दिया। दूसरों को प्रभावित करने की व्यर्थ लालसा के द्वारा, वासना के दानव ने उसकी आत्मा के सिंहासन कक्ष में प्रवेश कर लिया था।
सत्य की चाह
उन्नीस साल की उम्र में “सिसरो” को पढ़ने के बाद, बौद्धिक खोज की कृपा प्राप्त अगस्टीन के दिल में ज्ञान की खोज करने की इच्छा जागृत हुई। इस आवेशपूर्ण खोज उसे बुराई की समस्या पर लंबे समय तक विचार करने के लिए दर्शनशास्त्र और ज्ञानवाद की विभिन्न शाखाओं के अध्ययन की ओर ले गयी। इस दौरान, यह यात्रा उस यौन अनैतिकता के समानांतर चलती रही जिसने उसके जीवन को अपनी चपेट में ले लिया था। ऊपर की ओर निहारकर उसका मन प्रकाश पाने के लिए टटोल रहा था, लेकिन उसकी इच्छा अभी भी पाप की कीचड़ में धँसी हुई थी। इस यात्रा का अंत लगभग बत्तीस वर्ष की आयु में हुआ, जब उसके भीतर दोनों प्रवृत्तियाँ हिंसक रूप से आपस में टकराईं। यह संघर्ष अब उसके अनन्त भाग्य का निर्धारण करेगा – और क्या वह मसीहियों की आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रकाश बन जाएगा या बस उग्र आंतरिक नरक में समाप्त होनेवाले अंधेरे में गायब हो जाएगा?
महान संत अम्ब्रोस के उपदेशों को सुनकर और संत पौलुस के पत्रों को पढ़ने के बाद, उसके मन में कोई और संदेह नहीं हो सकता था कि केवल कैथलिक चर्च में ही उसे वह सत्य मिलेगा जिसकी उसने हमेशा तलाश की थी। अब उसे यह स्पष्ट हो गया था कि येशु मसीह उसके दिल की सच्ची अभिलाषा थी, फिर भी जिस वासना ने उसके दिल को पाप की कैद में बंद कर दिया था, वह उस वासना की जंजीरों को तोड़ने के लिए शक्तिहीन था। वह सत्य के सामने इतना ईमानदार था कि वह यह सोच भी नहीं सकता था कि गंभीर पाप के बदले में मरने की इच्छा किये बिना वह कभी भी मसीही जीवन में आ सकता है।
युद्ध और मुक्ति
उसकी आत्मा के लिए युद्ध का फैसला करने वाली वह अंतिम लड़ाई तब हुई जब उसने अपने दोस्तों के साथ कुछ उत्साही रोमियों के बारे में चर्चा की। उन रोमियों ने मसीह का अनुसरण करने के लिए सब कुछ पीछे छोड़ दिया था। (अब अच्छे मित्रों की उपस्थिति जवानी की गलतियों को सही करने लगी थी।) संतों के उदाहरण का पालन करने की पवित्र इच्छा ने अगस्टीन को जकड़ लिया, फिर भी वासना के प्रति लगाव के कारण पवित्रता में आने में असमर्थ होने से, भावुक होकर, वह घर से भागकर बाहर बगीचे में आया। एकांत की जगह की तलाश में, उसने पश्चाताप और आंतरिक निराशा के आँसुओं को अंततः स्वतंत्र रूप से बहने दिया। वे शुद्धीकरण के आंसू साबित होने वाले थे।
आखिर वह क्षण आ ही गया जब वह सब कुछ त्यागने के लिए तैयार हो गया। उसने पाप पर से अपनी पकड़ को हमेशा के लिए छुड़ाने का निर्णय लिया। जैसे ही इस पवित्र आध्यात्मिक अभिलाषा ने शारीरिक सुख के लिए उसकी अत्यधिक इच्छा पर काबू पाया, उसने एक बच्चे की आवाज को बार-बार गाते हुए सुना, “लो और पढ़ो।” उसने शिशुओं के होठों पर रखी गयी सर्वशक्तिमान ईश्वर की आज्ञा के रूप में इसकी व्याख्या की। संत पौलुस के पत्रों की पुस्तक जिसे उसने घर के अन्दर मेज पर छोड़ दिया था, उसे लेने के लिए, वापस घर के अन्दर की ओर भागते हुए उसने खुद से कहा कि वह अपने जीवन के लिए ईश्वर की इच्छा की अभिव्यक्ति के रूप में जो भी शब्द पहले देखेगा, उसे स्वीकार करेगा। उसने पत्र की पुस्तक को खोला तो यह पढ़ा, “हम दिन के योग्य सदाचरण करें। हम रंगरलियों और नशेबाजी, व्यभिचार और भोगविलास, झगड़े और ईर्ष्या से दूर रहें। आप लोग प्रभु येशु मसीह को धारण करें और शरीर की वासनाएं तृप्त करने का विचार छोड़ दें।” (रोमियों 13:13-14)
विजय
बाइबिल के इन शब्दों के साथ उनकी आत्मा में अलौकिक प्रकाश का संचार हुआ। वास्तव में पहली बार, उद्धार पाने की अभिलाषा के कुछ ही क्षणों के बाद, उसका उद्धार आ चुका था। जिन जंजीरों ने उसकी इच्छा को इतने लंबे समय तक जकड़ रखा था, उसे उस जुनून भरी वासना के प्रचंड आधिपत्य के अधीन कर लिया था, वह मुक्तिदाता येशु मसीह की कृपा से टुकड़े-टुकड़े हो गई थी। उसकी तड़पती हुई आत्मा को तुरंत आनंद, शांति और ईश्वर की संतानों की स्वतंत्रता में प्रवेश करने की अनुमति मिल गई। पूरी कलीसिया के लिए वह महत्वपूर्ण घड़ी थी क्योंकि जो व्यक्ति किसी समय युवावस्था में दुर्भाग्यपूर्ण संगत के चलते वासना का गुलाम था, उस व्यक्ति की मृत्यु हो गई थी, और अब तक के सबसे प्रभावशाली संतों में से एक को अचानक जीवन प्राप्त हो रहा था।
वर्षों बाद पीछे देखते हुए, संत अगस्टीन को यह विश्वास करना कठिन लग रहा था कि वह कभी ऐसी तुच्छ बातों केलिए प्रभु से और मसीह में दी जाने वाली परमानंद की खुशी से स्वयं को दूर रखने की अनुमति कैसे दे सकता था। पहले वह एक ऐसे व्यक्ति की तरह था जो बेकार के गहनों से बुरी तरह चिपका हुआ था, जबकि उसके सामने बेशकीमती खजाना रखा हुआ था। उस दिन जो हुआ उसके स्मरणीय महत्व के बारे में बताते हुए प्रोटेस्टेंट विद्वान आर.सी. स्प्राउल ने सभी ईसाइयों की आम सहमति को सारांशित किया, “यदि कोई महान है जो कलीसिया के इतिहास में उस व्यक्ति के रूप में खड़ा है, जिसके कंधों पर धर्मशास्त्र का पूरा इतिहास खड़ा है, तो वह एक ही आदमी है जिसका नाम औरेलियस अगस्टीन, यानि संत अगस्टीन है।
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हमारे वर्तमान सांस्कृतिक इंद्रजाल, जिसमें हम अपनी आवाज़ें ढूंढते हैं, अपना एजेंडा निर्धारित करते हैं, चीजों को अपनी दृष्टि की रोशनी के अनुसार करते हैं, इस के बारे पवित्र बाइबल क्या कहती है? (वैसे, आज ऐसा रवैया हावी है या नहीं, यदि इस पर आपको संदेह है, तो मैं आपको कोई भी फिल्म व्यावहारिक रूप से देखने, किसी भी लोकप्रिय गीत को व्यावहारिक रूप से सुनने, या किसी के नवीनतम ब्लॉग या फेसबुक पोस्टिंग को व्यावहारिक रूप से पढ़ने के लिए आमंत्रित करता हूं)। क्या बाइबिल जीवन के प्रति इस अहं-नाटकीय दृष्टिकोण के पक्ष में है या उसके विरुद्ध है? मेरा सुझाव है कि हम न्यायकर्ताओं की पुस्तक के आखिरी हिस्से को देखें, तो आप को वहाँ वर्त्तमान ज़माने के खूंखार हत्यारों को भी शर्मसार करने के लिए पर्याप्त हत्या, तबाही और कुप्रथाओं से चिह्नित पाठ पढने को मिलेगा।
हमें बताया गया है कि इस्राएल के अंतिम न्यायकर्ता शिमशोन की मृत्यु के बाद, इस्राएली जनजातियाँ बिखराव के शिकार हो गईं और एक दूसरे के खिलाफ़ हिंसा को प्रकट करना शुरू कर दिया। ऐसी कहानियों से भरी इस न्यायकर्त्ताओं की पुस्तक में, सबसे उल्लेखनीय और स्पष्ट रूप से पीड़ित करने वाली कहानी, गिबआ में हुए अत्याचार, बड़ी चिंताजनक घटना है। उत्तर में एफ्रेम के एक आदमी के बारे में हम सुनते हैं, जिसने दक्षिण में बेथलेहेम से अपने लिए एक रखैल (उप पत्नी) ले ली थी। जब वह महिला भाग निकली और बेथलेहम में अपने घर लौटी, तो वह व्यक्ति उसके पीछे आया और उसे वापस अपने कब्जे में ले लिया। तब वह उसके संग गिबआ नगर में आया। हमें बताया गया है कि जिस तरह की कुख्यात बदनाम घटना के बारे में हम उत्पत्ति ग्रन्थ में पढ़ते हैं, वही गिबआ में उस रात को हुआ। शहर के “बदमाशों” ने घर को घेर लिया। भीड़ ने उस घर के मालिक से चिल्लाकर कहा: “उस पुरुष को, जो तुम्हारे घर में आया है, उसे बाहर निकालो, ताकि हम उसका भोग करें।” उस घर के मालिक ने, स्तब्ध करनेवाले नैतिक पतन के साथ, यह उत्तर दिया, “यह कुकर्म मत करो। वह मेरा अतिथि है। इसके बजाय, मैं अपनी कुंवारी बेटी और इस आदमी की रखैल को बाहर निकाल दूंगा। उन्हें अपमानित करें या जो चाहें करें; परन्तु उस आदमी के विरुद्ध ऐसा कुकर्म मत करो।” उस पर, उस आदमी ने ही अपनी रखैल को उनके हवाले कर दिया, और वे बदमाश उस महिला को बाहर ले गए, और हमें निष्ठुरता से बताया जाता है कि उन पुरुषों ने “उसके साथ बलात्कार किया और पूरी रात, सबेरे तक उसके साथ दुष्कर्म किया।”
उस महिला की पीड़ा और अपमान के प्रति पूरी तरह से उदासीन, एफ्रेम वासी उस आदमी ने अगली सुबह उसे अपने गधे पर लादा और एफ्रेम की ओर यात्रा शुरू की। जब वह घर पहुंचा, तो उस ने एक छुरी ली, और उस स्त्री के अंग अंग को बारह टुकड़े कर डाले, और फिर उस ने सम्पूर्ण इस्राएल देश भर में भेज दिया। क्या जब उसने उस सुबह उसे पाया था, तब तक वह मर चुकी थी? क्या वह रास्ते में मर गई? क्या उसी ने उसे मार डाला? हमें बताया नहीं गया है, और यही बात कथा की भयावहता को बढ़ाता है। जब इस्राएल की जाति में यह भयानक सन्देश सुनाया गया, तब अगुओं ने एक सेना इकट्ठी की, और गिबआ नगर पर चढ़ाई की, और परिणामस्वरूप वहां की प्रजा का संहार हो गया।
अब, मैं इस भयानक कहानी क्यों दुहरा रहा हूँ? यद्यपि सर्वश्रेष्ठ कहानी पद की प्राप्ति पाने के लिए बहुत सी कहानियों के बीच काफी प्रतिस्पर्धा है, तब भी मेरा मानना है कि यह भीषण और क्रूर प्रसंग बाइबल में वर्णित मानव व्यवहार के निम्नतम नमूनों का प्रतिनिधित्व करता है। इन दिनों हमारी वर्त्तमान संस्कृति में क्रूरता, कच्ची शारीरिक हिंसा, मानवीय गरिमा की घोर अवहेलना, यौन अनैतिकता, बलात्कार, सबसे बुरे प्रकार के यौन शोषण के साथ सहयोग, हत्या, विकृति और नरसंहार की अनगिनत घटनाएं हो रही हैं। विषय से हटकर कहना चाहूँगा कि मुझे तब हंसी आती है, जब कुछ ईसाई मुख्य रूप से मेरी आलोचना करते हैं, क्योंकि मैं ऐसी फिल्मों की सिफारिश करता हूँ जिनमें हिंसा और अनैतिकता स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होती है। मैं पूछना चाहूँगा: “क्या उन्होंने कभी बाइबिल पढ़ी भी है?” यदि फिल्म में बाइबिल को ईमानदारी से चित्रित किया जाता, तो फिल्म को “केवल बालिगों के लिए” वाला सर्टिफिकेट प्राप्त होता। पवित्र ग्रन्थ बाइबिल के महान गुणों में से एक यह है कि वह इंसानों के बारे में तथा असंख्य तरीकों से हम गलत हो जाते हैं, हजारों बुरे रास्ते जिन पर हम चलते हैं, इन सबके बारे में बाइबिल बड़ी क्रूरता के साथ और ईमानदारी के साथ पूरा विवरण देती है।
बाइबिल का एक और गुण यह है कि इसके लेखक ठीक-ठीक जानते हैं कि यह सारी गड़बड़ी कहाँ से आती है। न्यायकर्त्ताओं की पुस्तक स्पष्ट रूप से इंगित करती है कि वह जिस नैतिक अराजकता का वर्णन करती है वह लोगों के बीच नैतिक नेतृत्व के गायब होने का परिणाम है। जब न्यायाधीश कमज़ोर पड़ गए, तो लोगों के बीच कानून को नहीं पढ़ाया गया और लागू नहीं किया गया, और इसलिए लोग भयावह कुकर्म के व्यवहार में भटक गए। पतवार रहित और बिना कप्तान के, जहाज बस चट्टानों से टकराता है। न्यायकर्त्ताओं की पुस्तक की अंतिम पंक्ति आध्यात्मिक स्थिति का सार प्रस्तुत करती है: “उन दिनों इस्राएल में कोई राजा नहीं था; सब ने वही किया जो उनकी दृष्टि में सही था।” मैं इसे अनिवार्य रूप से राजनीतिक अर्थों में राजाओं के समर्थन के रूप में नहीं, बल्कि नैतिक अर्थों में नेतृत्व के रूप में व्याख्या करूंगा। एक स्वस्थ समाज को ऐसे नेताओं की आवश्यकता होती है – राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक आदि – जो वस्तुनिष्ठ नैतिक मूल्य की गहरी भावना से अनुप्राणित हों, जो केवल व्यक्तिपरक स्वार्थ से ऊपर उठे हों। धर्मग्रंथ के सभी लेखक जानते थे कि जिस प्रकार के स्वार्थभरे अधिकार जो आज प्रदर्शित किए जा रहे हैं, अर्थात किसी के अपने निजी विशेषाधिकारों का कड़ा दावा, किसी भी मानव समुदाय के लिए बुनियादी तौर पर छिछोरा है और नैतिक रूप से विनाशकारी है। यही कारण है कि बाइबिल के नायक कभी वे नहीं होते जो “स्वयं को ढूंढते हैं”, बल्कि वे जो परमेश्वर की आवाज पर ध्यान देते हैं और उस मिशन के प्रति आज्ञाकारी रहते हैं जो परमेश्वर ने उन्हें दिया है। ध्यान रहे, जैसा कि अक्सर होता है, बाइबिल हमारा ध्यान आकर्षित करने के लिए अतिशयोक्ति और अतिकथन का उपयोग करती है, ठीक उसी तरह जैसे फ़्लेनरी ओ’कॉनर अपनी भयानक कहानियों में नियोजित करती थी। तो न्यायकर्त्ताओं में प्रदर्शित लगभग अत्यंत भयावह हिंसा हमारे जैसे समाज के लिए एक चेतावनी के रूप में है जो तेजी से अपने नैतिक मूल्यों को खो रहा है: आप अभी तक उस जगह नहीं पहुंचे होंगे, लेकिन आप जिस सड़क पर चल रहे हैं, वह मार्ग आपको उसी जगह ले जा रहा है। अगली बार जब आप यह सोचने लगें कि दुनिया इतनी अनिश्चितता की स्थिति में क्यों है, तो न्यायकर्त्ताओं की पुस्तक की अंतिम पंक्तियों पर विचार करें: “सब ने वही किया जो उनकी दृष्टि में सही था।”
'बहुत वर्षों तक मैं लोलुपता से जूझती रही, अपने अधिक खाने की आदत के पीछे मूल कारण का मुझे एहसास ही नहीं हुआ।
कल, जब मैं मिस्सा में जाने के लिए तैयार हो रही थी, मैं अधिक खाने की इच्छा के विरुद्ध अपनी निरंतर संघर्ष के बारे में सोच रही थी। हालांकि कोई औसत व्यक्ति की नज़र में, मैं अधिक वजन वाली नहीं दीखती हूँ, लेकिन मुझे पता है कि मुझे जितना खाना चाहिए उससे अधिक खाती हूं। मैं भूखी न होने पर भी खाती हूं, सिर्फ इसलिए कि खाना उपलब्ध है और मैं उससे ललचा जाती हूं। मेरे पति के तैयार होने से पहले, मैं मिस्सा केलिए कपडे पहन कर तैयार हो गयी थी, इसलिए मैंने संत यूदा के प्रति भक्ति की प्रार्थना पुस्तक खोल ली। इस पुस्तक का उपयोग मैं हर रात की प्रार्थना के लिए करती हूं। मैं यह देखने लगी कि क्या इसमें सुबह की प्रार्थना भी है। जैसे ही मैंने पन्ने पलटे, मुझे व्यसनों के लिए यानी बुरी आदतों से छुटकारा पाने केलिए एक प्रार्थना मिली, जिस पर मैंने पहले कभी ध्यान नहीं दिया था। जैसे ही मैं प्रार्थना बोली, मैंने ईश्वर से, विशेष रूप से मेरे खाने की लत को ठीक करने के लिए कहा। हालाँकि मैंने बरसों से ज़्यादा खाने की इच्छा पर काबू पाने की कोशिश की थी, लेकिन मेरे सारे प्रयास विफल हो गए थे।
दुष्टात्मा से छुटकारा
मिस्सा बलिदान में, मारकुस 1:21-28 से सुसमाचार पढ़ा गया। मैंने अपने आप से कहा, “जिस तरह येशु इस आदमी से बुरी आत्मा को निकाल सकते हैं, इस पेटूपन की दुष्टात्मा को वे मुझ से निकाल सकते हैं, क्योंकि दुष्टात्मा इसी लत के माध्यम से ही मेरे जीवन पर अभी भी पकड़ रख रहा है।” मुझे लगा कि परमेश्वर मुझे आश्वस्त कर रहा है कि वह लोलुपता की इस दुष्टात्मा को मुझ से निकाल सकता है और निकाल देगा। पुरोहित के प्रवचन से मेरी भावनाओं को और बल मिला।
अपने प्रवचन में, उन्होंने कई प्रकार की बुरी आत्माओं को सूचीबद्ध किया जिनसे हमें छुटकारा चाहिए, जैसे क्रोध, अवसाद, ड्रग्स और शराब। वे पुरोहित स्वयं खाने की लत से सबसे ज्यादा जूझ रहे थे। उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने चालीस पाउंड का वजन घटा लिया, लेकिन फिर तीस पाउंड तुरंत बढ़ गया। उन्होंने आगे कहा कि चाहे उन्होंने खुद को रोकने की कितनी भी कोशिश की हो, वे हमेशा अधिक खाने के प्रलोभन में पड़ जाते हैं, इस प्रकार लोलुपता का पाप करते हैं। उन्होंने जो कुछ भी वर्णित किया वह सीधे मुझसे संबंधित था। उन्होंने हमें आश्वस्त किया कि येशु हमें मुक्त करने के लिए आये और मर गए, इसलिए हम आशा नहीं छोड़ सकते, चाहे हम कितना भी निराशाजनक महसूस करें, क्योंकि हमें हमेशा अपने साथ आशा बनाई रखनी चाहिए। येशु हमें आशा देते हैं क्योंकि उन्होंने मृत्यु पर विजय प्राप्त की और फिर से जी उठे। हम इस प्रकार जीत का दावा कर सकते हैं क्योंकि येशु ने हमारे जीवन में पाप की शक्ति को हरा दिया है। हमें बस इस पर भरोसा करने की जरूरत है कि येशु अपने समय में हमारे बचाव में आएंगे।
जब हमें यह महसूस करने में कठिनाई होती हैं कि हम पारमेश्वर की सहायता के बिना कुछ नहीं कर सकते, तो वह कभी-कभी हमें ऐसी स्थिति में रहने की अनुमति देता है जहाँ हम असहाय महसूस करते हैं। आज सुबह, मेरी प्रात:कालीन प्रार्थना के दौरान, मैंने शांति पाने के विषय पर चिंतन को पढ़ने के लिए अपनी दैनिक मनन चिंतन की पुस्तक खोली। शांति पाने के लिए हमें परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होना चाहिए। जब हम परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होते हैं, तो हम अधिक प्रभावी ढंग से दूसरों की मदद कर सकते हैं, और उन्हें प्रभु की ओर ले जा सकते हैं।
अगर मैं पूर्ण हूं तो मैं किसी और की मदद कैसे कर सकती हूं? अगर मैंने संघर्ष नहीं किया है तो क्या मैं किसी और के संघर्षों को समझ सकती हूँ? जब मैं लोलुपता जैसे पाप के विरुद्ध संघर्ष करती हूँ, तो मेरी लड़ाई व्यर्थ नहीं जाती। यह एक उद्देश्य के लिए है। ईश्वर हमें कठिनाइयों का अनुभव करने की अनुमति देता है ताकि हम दूसरों के साथ सहानुभूति रख सकें और उनकी मदद कर सकें और यह महसूस कर सकें कि हम किसी और से बेहतर नहीं हैं। हम सभी को एक दूसरे की जरूरत है, और हम सभी को ईश्वर की जरूरत है।
अजीब सम्बन्ध
संत पौलुस ने इस बात को प्रदर्शित किया जब उन्होंने दावा किया कि “शरीर में एक कांटा” उन्हें “घमंड न करने” के लिए चुभा दिया गया था और मसीह ने उनसे कहा था कि “दुर्बलता में सामर्थ्य प्रकट होती है”। इसलिए पौलुस कहते हैं “मैं अपनी दुर्बलताओं पर गौरव करता हूँ जिससे मसीह की सामर्थ्य मुझ पर छाया रहे।” (2 कुरिन्थी 12:7-10)
धर्म ग्रन्थ का यह अंश मुझे सिखाता है कि खाने की मेरी लत से जूझना मुझे विनम्र बनाए रखने के लिए है। मैं किसी से श्रेष्ठ महसूस नहीं कर सकती क्योंकि मैं भी हर किसी की तरह प्रलोभन पर काबू पाने के लिए संघर्ष करती हूं, चाहे वे ईश्वर में विश्वास करें या नहीं। हालाँकि, जब हम ईश्वर में विश्वास करते हैं, तो संघर्ष आसान हो जाता है क्योंकि हम युद्ध को जारी रखने में एक उद्देश्य देखते हैं। बहुत से लोग विभिन्न कारणों से व्यसनों और अन्य समस्याओं से जूझते हैं, जिनमें से पाप का परिणाम एक कारण हो सकता है। हालाँकि, जब कोई व्यक्ति ईश्वर का आस्तिक और सच्चा अनुयायी होता है, तो वह पहचानता है कि उसकी समस्याएं अच्छे के लिए हैं न कि सजा के रूप में। रोमी 8:28 में हमें शिक्षा मिलती है कि “जो लोग ईश्वर को प्यार करते हैं और उसके विधान के अनुसार बुलाये गए हैं, ईश्वर उनके कल्याण केलिए सभी बातों में उनकी सहायता करता है।” सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जो कोई ईश्वर की योजना के अनुसार बुलाए गए हैं, यह उन सभी के लिए एक बड़ी वास्तविकता है। इस सत्य को जानने के बाद समस्याओं, व्यसनों और कष्टों को दंड के रूप में नहीं, बल्कि लंबे समय में हमारी भलाई के लिए कार्य करने वाले आशीर्वाद के रूप में देखने की अंतर्दृष्टि हमें मिलती है। जब परमेश्वर अपने उद्देश्य के अनुसार किसी व्यक्ति को बुलाता है, तो वह व्यक्ति इस पुकार से पूरी तरह वाकिफ होता है, इसलिए वह अपने जीवन में अच्छे और बुरे को परमेश्वर की इच्छा के रूप में स्वीकार करता है।
मैंने याद करने की कोशिश की कि भोजन के प्रति मेरी आसक्ति कब शुरू हुई थी। तब मुझे पता चला कि खाने की मेरी लत तब शुरू हुई जब मैंने अपने ही एक रिश्तेदार से ड्रग्स और शराब की लत के बारे में उसका सामना किया था और उसकी निंदा की थी। इस एहसास से मैं लज्जित हो गयी।
मैं अब यह जान सकती हूँ कि जिस समय मैंने गुस्से में अपने रिश्तेदार की निंदा की थी, उसी समय से मेरे अन्दर धीरे-धीरे खाने के प्रति आसक्ति बढ़ रही थी। अंततः, निंदा और क्षमा की कमी मेरे व्यसन के स्रोत थे। प्रभु को मेरे अपने व्यसन के द्वारा मुझे विनम्र बनाकर बताना पड़ा कि हम सब कमजोर हैं। हम सभी व्यसनों और प्रलोभनों का सामना करते हैं और उनसे कई रूपों में संघर्ष करते हैं। अपने अभिमान में, मैंने सोचा कि मैं अपने दम पर प्रलोभनों को दूर करने के लिए काफी मजबूत हूं, लेकिन अपनी लोलुपता के शिकार होने पर, मैंने पाया कि मैं मज़बूत नहीं थी। आठ साल बाद, मैं अभी भी अपने भोजन की लत और लोलुपता के इस पाप से उबरने के लिए संघर्ष कर रही हूं।
अगर हम किसी भी तरह से अपने को दूसरों से श्रेष्ठ मानते हैं तो ईश्वर अपने कार्य केलिए हमारा उपयोग नहीं कर पाता। जिन्हें हमारी जरूरत है, उन लोगों के स्तर तक नीचे आने के लिए हमें विनम्र होना चाहिए, ताकि जहां वे हैं, वहां हम उनकी मदद कर सकें। दूसरों को उनकी कमजोरियों के लिए दोष लगाने से बचने के लिए, हमें उनके लिए प्रार्थना करनी चाहिए, मदद करनी चाहिए और अपने संघर्षों को उनके प्रति भेंट करना चाहिए। क्या यही कारण नहीं है कि परमेश्वर पापियों और हमें पीड़ा पहुँचाने वालों को हमारे मार्ग में रख देता है? हर बार जब हम किसी से मुलाक़ात करते हैं, तो ईश्वर का चेहरा उन्हें दिखाने का अवसर हमें प्राप्त होता है, इसलिए वे हमारे रास्ते में आने पर, हम उन्हें अधिक आहत या टूटे या बिखरे हुए न बनाकर बेहतर स्थिति में ले आवें। लूकस 6:37 में, येशु ने चेतावनी दी है, “किसी को दोष न दो, और तुम्हारे विरुद्ध दोष नहीं लगाया जाएगा। निंदा करना बंद करो और तुम्हारी निंदा नहीं की जाएगी। क्षमा करो और तुम्हें भी क्षमा दी जाएगी।”
'उस छोटी सी, धीमी सी आवाज को सुनें …
फुसफुसाहट अप्रत्याशित रूप से आती है। किसी पुस्तक में पाए गए या किसी मित्र या वक्ता से सुने गए वे शांत और धीमी आवाज़ या वचन जो हमारे जीवन के मार्ग में सही समय पर सुनाई देते हैं – एक ऐसे क्षण पर जब हमारे दिल उन्हें नए या अनोखे तरीके से सुनने के लिए तैयार रहते हैं। यह बिजली की चमक की तरह होता है, जो अचानक आसमान के नीचे के परिदृश्य को रोशन कर देता है।
इस तरह के एक वाक्यांश ने हाल ही में मेरा ध्यान आकर्षित किया, “जब आप दोष लगाने की इच्छा को जिज्ञासा से बदल देते हैं, तो सब कुछ बदल जाता है।” हम्म…मैं इस वाक्य पर विचार करने के लिए रुक गयी। मुझे लगा कि इस वाक्य में दम है! मैंने वर्षों से नकारात्मक विचारों को सकारात्मक पुष्टि और धर्मग्रन्थ के विभिन्न पाठों के बल पर बदलने का अभ्यास किया था, और इसके परिणामस्वरूप सोचने का एक नया तरीका सामने आया था। मुझे लग रहा था कि नकारात्मकता की ओर एक आनुवंशिक प्रवृत्ति है। जैसे जैसे मैं उम्र में बड़ी होती जा रही थी, वैसे वैसे मैंने अपने माता-पिता में यह प्रवृत्ति देखी थी, और वह प्रवृत्ति मुझमें समा गई थी, लेकिन मैं वैसा नहीं बनना चाहती थी। परिणामस्वरूप, मैंने अपने अन्दर आशावादी मित्रों के प्रति आकर्षण महसूस किया! वे मेरे पूर्व अनुभवों से भिन्न, कुछ अलग सोच रखते थे, और मैं उनके इस प्रकार की सोच पर आधारित व्यवहार के प्रति आकर्षित हुई! दूसरों में जो अच्छा था उसकी तलाश करना मेरा उद्देश्य था, लेकिन यह कठिन परिस्थितियों के बीच भी सकारात्मकता की तलाश में परिणत हुआ।
जो कोई भी इस धरती पर कुछ समय तक रहा है, वह जानता है कि जीवन बाधाओं और चुनौतियों से भरा है। योहन के सुसमाचार में येशु इस सत्य को प्रकट करते हैं: “मैं ने ये बातें तुम से इसलिये कही हैं, कि तुम मुझ में शान्ति प्राप्त करें। इस दुनिया में तुम्हें समस्याएं तो झेलनी ही होंगी। लेकिन दिल थाम लो! मैने संसार पर काबू पा लिया है।” हम देखते हैं कि येशु के ये वचन हेलेन केलर जैसे लोगों में सच साबित हुए हैं। एक बीमारी ने हेलेन कलर को बचपन में ही बहरी और अंधी बना ली, इस के बावजूद, यह साबित करने में सक्षम थी कि “यद्यपि यह संसार दुखों से भरा है, यह संसार उस पर काबू पाने वालों से भी भरा हुआ है। तब मेरा आशावाद बुराई की अनुपस्थिति पर नहीं टिका हुआ है, बल्कि अच्छाई की प्रधानता में एक सुखद विश्वास और हमेशा अच्छाई के साथ सहयोग करने के इच्छुक प्रयास पर टिका हुआ है, ताकि यह अच्छाई ही प्रबल हो। मैं उस शक्ति को बढ़ाने की कोशिश करती हूं जिसे ईश्वर ने मुझे हर चीज और हर किसी में सर्वश्रेष्ठ को देखने और अपने जीवन का सबसे अच्छा हिस्सा बनाने के लिए दी है।”
समय के आगे बढ़ने पर, मेरे प्रयासों और ईश्वर की कृपा के परिणामस्वरूप, प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद जिन बातों के लिए मुझे आभारी होना चाहिए, उन बातों पर मेरा ध्यान तुरंत केंद्रित करके कठिनाइयों का जावाब देने के लिए मुझे प्रेरणा मिली। “बदबूदार सोच” में फंसना आसान है! शिकायतों, आलोचनाओं और निंदाओं से दूर, आंतरिक और बाहरी बातचीत को पुनर्निर्देशित करने के लिए इरादे और साहस की आवश्यकता होती है! मैंने पहली बार एक युवती के रूप में ऐसे कुछ शब्द सुने थे जिन पर मैंने अक्सर विचार किया है; वे शब्द हैं: “विचार बोओ, कार्य की फसल काटो। कार्य बोओ, आदत की फसल काटो। आदत बोओ, जीवन शैली की फसल काटो। जीवन शैली बोओ, किस्मत की फसल काटो।”
हम पहले सोचते हैं उसके बाद कार्य करते हैं। जो कार्य हम बार-बार करते हैं वह हमारी आदत बन जाती है। हमारी आदतों में हमारे जीवन जीने का तरीका शामिल होता है। जिस तरह से हम अपना जीवन जीते हैं, समय के साथ हम अपनी पसंद तय करते हैं, वे सब मिलकर हम जो हैं, हमें बनाते हैं। किसी ने ये शब्द कहे थे, लेकिन, सिर्फ इसलिए मुझे इन शब्दों पर विश्वास नहीं हुआ। इस सच्चाई को जानने के लिए किसी की अंत्येष्टि में शामिल होने और मृतक व्यक्ति के बारे में जो बात कही जाती है, उसे ध्यान से सुनने की ही आवश्यकता है! कोई अपना जीवन कैसे जीता है यह निर्धारित करता है कि उन्हें कैसे याद किया जाएगा… दुसरे शब्दों में कहें तो अगर वह व्यक्ति याद किये जाने लायक था तो वह उसके जीने के तरीके पर निर्भर है।
बेशक, अच्छा जीवन जीने के लिए लगातार मनन चिंतन की आवश्यकता होती है, साथ ही साथ परिस्थितियों के अनुसार अनुकूलन करने की इच्छा भी ज़रूरी है। अब मैं ‘दोष लगाने की इच्छा को जिज्ञासा से बदलने’ की नसीहत पर विचार कर रही हूं। मेरे चारों ओर बहुत सारे अवसर हैं! जिस तरह मैं अतीत में नकारात्मक दृष्टिकोण के साथ जीवन नहीं जीना चाहती थी, अब, मैं पड़ोसियों को दोषी के रूप में देखने की आदत नहीं डालना चाहती, ताकि अपने पड़ोसी को अपने समान प्रेम करने केलिए येशु की आज्ञा का पालन करना मेरे लिए आसान हो जाए।
मुझे इस नई प्रतिक्रिया को आज़माने का अवसर तुरंत मिल गया! अगले दिन एक मित्र ने मेरे साथ जो कुछ साझा किया, वह जल्दी से किसी अन्य व्यक्ति को दोषी के रूप में नजरिया रखने की प्रवृत्ति में बदल गया, और बिजली की तरह ही, मैं अपने मित्र के साथ सहमत हुई! लेकिन जैसे ही वह धीमी आवाज़ आई, “यदि तुम दोष लगाने के निर्णय को जिज्ञासा में बदल दोगी, तब सब कुछ बदल जाएगा।” एक पल में, उस व्यक्ति ने ऐसा कार्य क्यों चुना, हमने इस जिज्ञासा का चयन किया। उसके बाद जिस बात पर हम दोनों को दोष लगाना इतना आसान लगा, हमारे दिमाग में आया कि वैसा कार्य करने का उसके पास एक प्रशंसनीय कारण था! यह सच था….जिज्ञासा सब कुछ बदल देती है! और अगर ऐसा नहीं भी होता है, तो यह मुझे बदल सकती है…और यह हमेशा इसी लक्ष्य केलिए ही तो था!
“यदि हम अपने शत्रुओं के गुप्त इतिहास को पढेंगे तो हम पायेंगे कि प्रत्येक मानव के जीवन में दुःख और पीड़ा हैं जो सभी प्रकार की शत्रुता को समाप्त करने के लिए पर्याप्त है।” – हेनरी वड्सवर्थ लॉन्गफेलो
'क्या आप अपने जीवन में मुसीबतों और संघर्षों से परेशान हैं? उन संघर्षों को आशीर्वाद में बदलने के लिए आज ही अपनी सोच बदलें!
क्या याकूब की पुस्तक हमें परीक्षाओं में आनन्दित होने के लिए कहती है? लेकिन क्या यह संभव है, खासकर जब आपको लगता है कि आप एक भंवर में फंस गए हैं और आप के लिए सबसे अच्छा यही होगा कि आप फिर से डूबने से पहले बस एक और सांस लें? क्या यह तीन साल की इस महामारी के दौरान संभव है, क्योंकि इस महामारी ने हममें से कई लोगों को उन तरीकों से चुनौती दी है जिनकी हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी?
पिछले कुछ वर्षों के दौरान ऐसे दिन आए जब मुझे ऐसा लगा जैसे मैं किसी फिल्म को देख रहा हूं। फिल्में हमें बहुत सी चीजें सिखा सकती हैं और वे बेहतरीन फिल्में जो आपको आत्मविश्वास से भरी मुस्कान के साथ हंसाती हैं, उनका अंत अच्छा नहीं होता। उनमें एक अंतर्निहित सच्चाई होती है जो पूरी कहानी में रहती है और वह सच्चाई चढ़ते चढ़ते उत्कर्ष में पहुँच जाती है। इस तरह की फिल्में दर्शक के अंदर एक अकथनीय खींच या टीस पैदा करती हैं जो चिल्लाती है, ‘आप जो देख रहे हैं उससे कहीं और अधिक बातें छिपी है, एक गहरा सच छिपा हुआ है‘।
जब मैं पुराने नियम में अय्यूब की पुस्तक पढ़ता हूं तो मुझे यही लगता है, हालांकि वह कोई फिल्म नहीं है। ‘अय्यूब की परीक्षा हुई, उसने सब कुछ खो दिया और बाद में पहले की तुलना में उसे अधिक वापस मिल गया,’ अगर यह कहानी सच है, तो मैं यही कहूंगा, “नहीं, धन्यवाद, मैं इतनी सारी परीक्षाओं से गुज़रना नहीं चाहता, बस मेरे पास पहले से जो कुछ है बस उतना ही काफी है।”
लेकिन अय्यूब की सभी परीक्षाओं और क्लेशों के बीच कुछ अदृश्य बातें हैं। अय्यूब की कहानी में चल रही यह अदृश्य बात हम सभी के लिए एक शक्तिशाली संसाधन हो सकती है क्योंकि हम कोविड के घटने के दिन देख रहे हैं और जीवन की अन्य चुनौतियों का अनुभव कर रहे हैं।
सब कुछ खो देना
अय्यूब की किताब के पहले वचन में हम देखते हैं कि अय्यूब “निर्दोष और निष्कपट था, ईश्वर पर श्रद्धा रखता था और बुराई से दूर रहता था।” अय्यूब एक अच्छा आदमी था, एक अनुकरणीय व्यक्ति था, और यदि किसी को विपत्ति से बचाया जाना है, तो वह यह अय्यूब ही होना चाहिए। मैं उम्मीद करता था कि चूँकि मैं सही काम कर रहा था, चूँकि मैंने अपना जीवन ईश्वर को समर्पित कर दिया था और उसका अनुसरण करना चाहता था, इसलिए कम से कम कुछ हद तक, मेरे जीवन की राह सुगम और आसान होगी। लेकिन मेरे जीवन के बहुत से अनुभव ऐसे हैं जिस के कारण मेरे दिमाग से इस तरह के विचार को मिटाने में वे अनुभव कामयाब हुए हैं। अय्यूब हमें याद दिलाता है कि परमेश्वर किसी के लिए भी आसान जीवन की गारंटी नहीं देता, उसके दोस्तों को भी नहीं। ईश्वर हमें बस एक बात की गारंटी देता है कि संघर्ष में वह हमारे साथ चलेगा!
अय्यूब सब कुछ खो देता है, और मेरा मतलब है – सब कुछ। अंत में, उसे चर्म रोग होता है, जो कुष्ठ रोग या एक्जिमा जैसा बन जाता है। इन सबके बावजूद वह कभी भी ईश्वर को शाप नहीं देता। ध्यान रहें, अय्यूब के पास प्रेरणा पाने के लिए कोई बाइबल नहीं है। उसके पास केवल वे कहानियां हैं, जो पीढ़ियों से चली आ रही हैं कि परमेश्वर कौन है और परमेश्वर ने कैसे काम किया इत्यादि। किसी बिंदु पर, अय्यूब ने एक निर्णय लिया – वही निर्णय जो हम में से प्रत्येक को लेना चाहिए: क्या हम जिस चीज़ को नहीं देख पाते हैं उस पर विश्वास कर सकते हैं, जिसे हम प्राप्त करते हुए हम देख नहीं पा रहे हैं क्या उसे अस्वीकार नहीं करने का निर्णय ले सकते हैं?
जबरदस्त पीड़ा और नुकसान को सहने के बाद, अय्यूब सोचता है “मेरा जन्म न हुआ होता तो अच्छा होता।“ यह कोई चंचल किशोर का नखरा नहीं था, जैसे किशोर प्रेमी लोग आपसी इश्क के झगड़े और ब्रेक-अप के बाद नखरेपन के साथ सोचते हैं। अय्यूब को अपनी सहन शक्ति के चरम बिंदु के आगे तक धकेल दिया गया था। उसकी सारी दौलत, उसके सारे जानवर, उसकी ज़मीन, इमारतें, नौकर, और सबसे दुखद, उसकी संतान मर गए। और घाव में नमक मलने जैसा, अब उसे चर्म रोग भी हो गया, जो उसे लगातार ढोल की थाप के समान उसके नुकसानों की याद दिलाता है।
सही समय पर
इस बिंदु पर (अध्याय 38), परमेश्वर अंततः अय्यूब को सुधारता है। आप उम्मीद करते होंगे कि सांत्वना देने वाले परमेश्वर के लिए यह एक अच्छा समय होता कि वह अय्यूब को अपने आलिंगन में खींच लेता, या योद्धा राजा की तरह ईश्वर अय्यूब के दुश्मन शैतान पर लात मार कर उसे काबू में लाता। इसके बजाय, परमेश्वर सुधार की बातें कहता है। हमारे लिए इसे समझना मुश्किल हो सकता है, लेकिन अय्यूब को किसी अन्य प्रकार की प्रतिक्रिया की आवश्यकता नहीं थी, उसे सबसे से अधिक परमेश्वर से उस विशेष प्रतिक्रिया की आवश्यकता थी।
मैं इसे आत्म-विश्वास के साथ कैसे कह सकता हूं? क्योंकि ईश्वर हमेशा जानता है कि हमें क्या चाहिए। ईश्वर हमें वह देता है जो हमें विकास, पूर्णता और मुक्ति की ओर ले जाता है – बर्शते हम ऐसा होने देते हैं। हमारा काम यह तय करना है कि क्या हम इस बात पर भरोसा करते हैं कि परमेश्वर जो कर रहा है वह हमारी अपनी भलाई के लिए है।
अय्यूब की कहानी में अंतर्निहित सुंदर सत्य अंत में अध्याय 42 की शुरुआत में सामने आता है, जहां अय्यूब कबूल करता है, “मैंने दूसरों से तेरी चर्चा सुनी थी अब मैं ने तुझे अपनी आँखों से देखा है। इसलिए मैं ने जो कुछ कहा, उस मैं वापस लेता हूँ, अब धूल और राख में बैठकर रोते हुए पश्चात्ताप कर रहा हूँ।”
इस एकल वाक्य में हम अय्यूब की यात्रा की जड़ को पाते हैं। जो हम देख सकते थे उससे कहीं अधिक भाव उसमें है, एक गहरा सत्य जिसे हम समझ सकते थे लेकिन उसका नामकरण नहीं कर सकते, वह अब स्पष्ट हो गया है।
अब तक, अय्यूब ने दूसरों से परमेश्वर के बारे में सुना है। परमेश्वर के बारे में उनका ज्ञान “कही सुनी” बातों के आधार पर था। लेकिन जिस तबाही से वह गुजरा है वह एक ऐसा मार्ग बन गया है जो उसे एकमात्र सच्चे ईश्वर को सीधे अपनी आँखों से देखने की अनुमति देता है।
यदि परमेश्वर आपसे आमने-सामने मिलना चाहता है, यदि वह आपकी कल्पना से अधिक आपके करीब होना चाहता है, तो ऐसा होने के लिए आप क्या क्या परीक्षाएं और मुसीबतें सहने को तैयार होंगे? क्या आप महामारी के इन पिछले तीन वर्षों को परमेश्वर की आराधना की भेंट के रूप में देखने का निर्णय ले सकते हैं? क्या आप अपने जीवन में सभी मुसीबतों, सभी नुकसानों और कठिनाइयों को देख पाते हैं, और उनके माध्यम से काम कर रहे परमेश्वर की रहस्यमय इच्छा को समझ सकते हैं?
अभी एक क्षण लें और अपने जीवन की परीक्षाओं और मुसीबतों को परमेश्वर को आराधना के रूप में अर्पित करें, और फिर उस शांति का अनुभव करें जो शीघ्रता से आपके पास आयेगी!
'प्रश्न – येशु हमें बताते हैं कि हमें स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के लिए “छोटे बच्चों की तरह बनने” की आवश्यकता है, लेकिन संत पौलुस हमें बताते हैं कि हमें परिपक्व मसीही होना चाहिए (इफिसियों 4)। इनमे क्या सही है?
उत्तर – दोनों सही है! लेकिन आइए देखें कि येशु और संत पौलुस का क्या मतलब है, क्योंकि बच्चों और परिपक्व विश्वासियों के गुण अलग-अलग हैं, फिर भी पूरक हैं।
सबसे पहले, बच्चों की सकारात्मक विशेषताएं क्या हैं? वे निर्दोष और शुद्ध हैं, वे उमंग से भरे होते हैं, और वे पूरे दिल से प्यार करते हैं।
क्रिस्टोफर नाम के एक सात वर्षीय लड़के की माँ ने मुझे उस समय के बारे में बताया जब वह अपने बेटे को संत जॉन वियानी की कहानी सुना रही थी। संत जॉन वियानी इतने पवित्र थे कि एक बार शैतान उनके सामने प्रकट हुए और उनसे कहा कि यदि पृथ्वी पर उनके जैसे तीन पवित्र व्यक्ति होते, तो शैतान का राज्य नष्ट हो जाता। यह कहानी सुनकर क्रिस्टोफर रोने लगा। जब उसकी मां ने उससे पूछा कि वह क्यों रो रहा है, तो क्रिस्टोफर ने कहा, “मुझे दु:ख है कि पृथ्वी पर केवल एक ही व्यक्ति पवित्र है। मैं दूसरा बनना चाहता हूँ!” येशु हमसे कहते हैं कि हम बच्चों के इस संपूर्ण-हृदय के प्रेम का अनुकरण करें।
बच्चे अक्सर हंसते हैं, क्योंकि वे खुद को बहुत गंभीरता से नहीं लेते हैं। वे भोले हो सकते हैं, क्योंकि वे संकोची और अभिमानी नहीं हैं। येशु चाहते हैं कि हम संकोच और अभिमान के बिना उसी परित्याग के साथ रहें!
अक्सर, एक छोटा बच्चा मुझे एक बड़ा आलिंगन देगा – भले ही मैं उससे पहले कभी नहीं मिला हो! अपनी मासूमियत और पवित्रता में, बच्चे दूसरों से बिना शर्त प्यार कर सकते हैं। इस तरह का व्यवहार करने के लिए हमें कहा जाता है। बच्चे दूसरों को उनके कपड़ों या रूप-रंग से नहीं आंकते; वे केवल एक संभावित मित्र देखते हैं।
येशु हमसे कहते हैं कि हम बच्चों के समान बन जाएँ। लेकिन हमें बच्चों के समान होने और बचकाने होने के बीच अंतर समझना चाहिए; बचकाने का अर्थ है स्वार्थ, अज्ञानता और चंचलता को प्रदर्शित करना, ये भी बच्चों की विशेषता है।
संत पौलुस हमें बताते हैं कि हमें विश्वास में बच्चे नहीं होना चाहिए, लेकिन मसीह में परिपक्व लोग बनना चाहिए। मसीह में परिपक्व होने का क्या अर्थ है? एक परिपक्व विश्वासी ने कठिनाइयों को झेला है, वह मसीह के साथ गहरी आत्मीयता में चलता है, और उसके पास ज्ञान है।
मैं कार्डिनल कुंग अकादमी नामक एक कैथलिक स्कूल में पढ़ाता हूँ, जिसका नाम कार्डिनल इग्नाशियुस कुंग के नाम पर रखा गया है। कार्डिनल कुंग एक चीनी बिशप थे जिन्हें 1955 में सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा गिरफ्तार किया गया था और 30 से अधिक वर्षों के लिए कैद किया गया था, वे कई वर्ष एकांत कारावास में थे। इतने सारे वर्षों की कैद और यातना के बाद, अधिकारी उन्हें बीजिंग के एक खचाखच भरे स्टेडियम में ले आए, जहाँ उनसे विश्वास को नकारने की मांग की गई थी। इसके बजाय, उन्होंने हज़ारों लोगों के सामने खड़े होकर घोषणा की, “ख्रीस्त राजा अमर रहे!” लोगों ने बड़े प्यार से जवाब दिया, “बिशप कुंग दीर्घायु हों!” इस तरह के नारे से अधिकारी और अधिक क्रोधित हो गए, और उन्होंने बिशप की यातना को अत्यधिक बढ़ा दिया, लेकिन उन्होंने विश्वास को कभी नहीं छोड़ा।
बिशप कुंग एक ऐसा शिष्य है जो कठिन यातनाओं और कष्टों के कठोर क्रूस ढोते हुए आध्यात्मिक परिपक्वता के लिए, तीव्र पीड़ा के माध्यम से दृढ़ रहा। 1986 में अमेरिका जाकर बस जाने के बाद, उन्होंने गवाही दी कि येशु मसीह के साथ उनकी दैनिक, अंतरंग प्रार्थना के कारण ही उन्हें विश्वास में दृढ़ रहने की शक्ति मिली। इन सब यातनाओं के द्वारा वे बिना किसी कड़वाहट या क्रोध के जीवन गुज़ारे, परन्तु प्रज्ञा से ओत-प्रोत रहे।
इसलिए, मसीह का अनुसरण करना बच्चों के उन सुंदर गुणों को प्राप्त करना है – सच्चा, निष्कपट और बेशर्त प्यार; बुदबुदाती खुशी और आश्चर्य; मासूमियत और पवित्रता – और निरंतर प्रयासरत सच्ची दृढ़प्रतिज्ञा, ज्ञान, और प्रभु के साथ दैनिक अंतरंगता, जो विश्वास में परिपक्व लोगों की विशेषता है। आइए, हम बच्चों के समान परिपक्वता के विश्वास को जीते हुए मसीह का अनुसरण करें!
'ब्रह्मांड की उस सबसे बड़ी शक्ति को जानिए जो आपको… और दुनिया के चेहरे को परिवर्तित करने में सक्षम है
2019 में हमारी पल्ली ने गिरजाघर के नवीनीकरण और सुन्दरीकरण पूरा किया जिसमें एक मुलाक़ात स्थान, घुटने टेकने केलिए लकड़ी की पंक्तियाँ, लिफ्ट और स्नानघर शामिल थे, जिस के कारण हमारा गिरजाघर अधिक सुलभ और स्वागत योग्य बन गया। लेकिन नवीनीकरण के तीन साल बाद भी, ऐसा लगता है कि सबसे सबसे परिवर्तनकारी नए कार्य के बारे में कोई भी पल्लीवासी को कोई जानकारी नहीं है: हमारे गिरजाघर के तहखाने में स्थित स्थाई आराधना स्थल।
पृथ्वी पर सबसे अच्छा समय
किशोरों और वयस्कों के लिए बने हमारे नए कक्ष और एक व्यस्त सीढ़ी के बीच एक सुंदर, अंतरंग, अति पवित्र स्थान परम संस्कार की आराधना के लिए अलग रखा गया है। कैथलिकों का मानना है कि परम पवित्र संस्कार में येशु वास्तव में मौजूद है – शरीर, रक्त, आत्मा और दिव्यता के साथ। परम पवित्र संस्कार की आराधना, मिस्सा के बाहर परम संस्कार की हमारी उपासना है। दिन में चौबीस घंटे, सप्ताह में सात दिन कोई भी इस अंतरंग स्थान में प्रवेश कर सकता है, ताकि वेदी पर एक सुंदर मंजूषा में प्रदर्शित पवित्र संस्कार में उपस्थित प्रभु की आराधना में समय बिताया जा सके। कलकत्ता की संत तेरेसा ने एक बार कहा था, “आप येशु के साथ परम पवित्र संस्कार में जो समय बिताते हैं वह आपके द्वारा पृथ्वी पर बिताये जा रहा सबसे अच्छा और उपयुक्त समय है। हर पल जो आप येशु के साथ बिताते हैं, वह उसके साथ आपकी एकात्मता को गहरा कर देगा और आपकी आत्मा को स्वर्ग में हमेशा के लिए और अधिक शानदार और महिमामय बना देगा, और पृथ्वी पर एक चिरस्थायी शांति लाने में मदद करेगा। “पृथ्वी पर चिरस्थायी शांति लाना” कौन ऐसा नहीं करना चाहेगा?! फिर भी, ज्यादातर दिनों में मैं सिर्फ एक बेहतर माँ बनने की कोशिश कर रही हूँ।
एक मजबूत संगति
पिछले एक साल के दौरान, पवित्र संस्कार की आराधना येशु के साथ मेरे रिश्ते का, और मेरे बच्चों के लिए अधिक प्यार के साथ अच्छी माँ बनने के मेरी कोशिस का भी, एक अनिवार्य हिस्सा बन गया है। क्योंकि “मेरा विश्वास इतना परिपूर्ण हो कि मैं पहाड़ों को हटा सकूं, किन्तु यदि मुझ में प्रेम का अभाव है, तो मैं कुछ भी नहीं” (1 कुरीन्थी 13:2)।
जब मैं अपने आप को येशु से दूर महसूस करती हूँ, तब स्थाई आराधना स्थल ही वह स्थान है जहाँ मैं जाती हूँ। यह वह जगह है जहां मैं अपने परिवार के साथ पवित्रता और संतत्व की राह पर चलने के दैनिक संघर्ष को निपटाती हूं। मैंने एक बार एक गिरजाघर के बाहर एक चिन्ह देखा था जिस पर लिखा था, “जैसे तुम हो वैसे आओ; तुम अंदर आकर अपने को बदल सकते हो।” इस तरह मुझे लगता है कि मैं आराधना में जा रही हूँ – विशेष परिधान पहनकर तैयार होने या अन्य किसी विशेष तैयारी करने की कोई आवश्यकता नहीं है। भले ही कुछ समय बीत गया हो, मैं उस आराधनालय में प्रवेश करती हूं और मैं ने जहां से प्रार्थना या मनन चिंतन छोड़ा था वहां से उठाती हूं। मेरी आराधना का समय बहुत कुछ वैसा ही है जैसा मैं उन लोगों के साथ बिताती हूं जिन्हें मैं सबसे ज्यादा प्यार करती हूं। जैसे हमारे जीवन साथी के साथ “डेट की रात” या एक अच्छे दोस्त के साथ लंबी बातचीत करना उन रिश्तों को मजबूत करता है, उसी तरह आराधना के द्वारा ईश्वर के साथ विश्वास का निर्माण होता है। जिस तरह मौन उपस्थिति के साथ हम अपनों के साथ सार्थक समय बिताते हैं, उसी तरह आराधना उस तरह की संगति और साहचर्य विकसित करती है। आराधना में कोई क्या करता है? मेरी कार्यशैली बदलती रहती है। कभी-कभी मैं माला विनती की प्रार्थना करती हूं, कभी-कभी मैं किसी धर्मग्रन्थ के पाठ पर ध्यान करती हूं या अपनी डायरी लिखने में समय बिताती हूं। हम ईश्वर को खोजने के लिए इतना प्रयास करते हैं कि हम ईश्वर को समय ही नहीं देते कि वह हमें खोजें। इसलिए, सबसे अधिक बार, मैं बस अपने आप को प्रभु की उपस्थिति में रखती हूँ और कहती हूँ, “प्रभु, मैं यहाँ हूँ। कृपया मेरा मार्गदर्शन कर।” मैं तब परिस्थितियों को या जीवन के उन “गांठों” को उठाती हूं जिन में मुझे मदद की ज़रुरत है, और जिन लोगों से उस सप्ताह प्रार्थना करने का वादा किया था, उन सारे लोगों के लिए प्रार्थना करती हूँ। आमतौर पर मैं आराधनालय से सशक्त होकर, शांति के साथ, एक नई दिशा और प्रेरणा पाने की भावना के साथ निकल जाती हूँ। हमारे प्रभु के साथ आमने सामने समय बिताना हमारे रिश्ते को और अधिक घनिष्ठ बनाता है। जब आप परिवार के किसी सदस्य को सीढ़ियों से नीचे आते हुए सुनते हैं, तो आप उनके कदमों की आवाज से ही जान जाते हैं कि वह कौन है। परिवार के सदस्यों के साथ जितना समय हम बिताते हैं, उससे ऐसा परिचय मिलता है और हमें उनमें से प्रत्येक को जानने और उसकी सराहना करने की गहरी समझ मिलती है। आराधना ईश्वर के साथ उस तरह के परिचय को बढ़ावा देती है। आप से मेरा अपील है कि आप आराधनालय में जाकर परम पवित्र संस्कार में उपस्थित येशु के साथ समय बिताने पर विचार करें। यदि आप नियमित रूप से मिस्सा में भाग नहीं ले रहे हैं, यदि आपको अपने संघर्ष को प्रभु के चरणों में समर्पित करने की आवश्यकता है, यदि आप अधिक प्यार करने वाले माता या पिता बनना चाहते हैं, या यदि आपको अपने दिन की अराजकता और बदहाली से दूर जाने की आवश्यकता है, – आपकी हालात जो भी हो, कोई फर्क नहीं पड़ता – आप आराधना के पवित्र मौन में कदम रखें, प्रभु की उपस्थिति में आपका हमेशा स्वागत होगा। आराधना में नियमित समय देने से हमें वह आकार देगा जिस अच्छे ईसाई शिष्यों और माता-पिता के रूप में हमारा आकार होना चाहिए। जैसा कि मदर तेरेसा हमें बताती हैं, यह “पृथ्वी पर चिरस्थायी शांति” भी ला सकती है।
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