- Latest articles
1000 से कम शब्दों में असली कामयाबी का मार्ग पढ़ें !
हम आशा,शांति और आनंद का जीवन जीने के लिए बुलाये गए हैं। संत पापा जॉन पॉल द्वितीय ने एक बार घोषणा की थी कि, “सच्चे अर्थों में,आनंद ख्रीस्तीय संदेश का मुख्य आधार है। मेरी इच्छा है कि ख्रीस्तीय संदेश उन सभी के लिए आनंद लाएं जो इस केलिए अपने दिल खोलते हैं … विश्वास हमारे आनंद का स्रोत है।”
यदि आप अपने आप से पूछते हैं “क्या मेरा जीवन आनंद की घोषणा करता है? क्या मेरा विश्वास मेरे आनंद का स्रोत है?” तो आपका जवाब क्या होगा?
अगर हम ईमानदार हैं, तो हमें यह कहना होगा कि जीवन की परिस्थितियाँ अक्सर खुशी से जीने के तरीके में रुकावट पैदा करती हैं। और हाल के दिनों में निश्चित रूप से हालात अनुकूल नहीं रही हैं – महामारी ने हम में से प्रत्येक को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया है।
सकारात्मक और आशावान बने रहना मुश्किल हो सकता है। हमारे आसपास की परिस्थितियों से भी अधिक, कुछ और भी है जो हमारे आनंद को चुरा लेता है: हम स्वयं । नाखुशी का एक मुख्य स्रोत हमारे अपने नकारात्मक विचारों और आत्म-धारणाओं से आता है।
हम सभी ईश्वर की संतान हैं – अनमोल और प्रिय। लेकिन अक्सर हम इस सत्य को भूल जाते हैं और खुद को दुनिया के मानकों के हिसाब से नापने लगते हैं। उन मानकों में से एक है कामयाबी। हम शायद अपनी जवानी से ही उस नाप की छड़ी से खुद को मापते रहे हैं। हमें बचपन से बार-बार कहा गया है कि हमें एक अच्छी नौकरी हासिल करनी है, कमाई करनी है, शादी करनी है। और जो भी करना है उसमे बहुत अच्छा होना है, कामयाब होना है! ऐसा लगता है कि यही एक ऐसा सन्देश है जो हमारी चारों तरफ गूंजता है – जिसकी वजह से कहीं ना कहीं हमारे अंदर असंतुष्टि की भावना उत्पन्न करती है, हम अपने आप को अपर्याप्त महसूस करते हैं ।
हमें हर चीज़ को बाहर से ही समझने के लिए प्रेरित किया जाता है। हम लोगों को उनकी उपलब्धियों के लिए सराहते हैं, ना की उनके कोशिशों के लिए। हमें सिखाया जाता है कि सिर्फ निष्कर्ष का मूल्य है।
हम इस तरह के सांचे में ढाले गए हैं कि हम आभास या दिखावे के आधार पर सब कुछ आंकते हैं। हम लोगों की उपलब्धियों पर उनकी सराहना करते हैं, उनकी मेहनत के लिए नहीं। हमें बताया गया है कि सिर्फ परिणाम मायना रखता है। इसीलिए हम उन बातों को नजरंदाज कर देते हैं जो कि असल में मायने रखती हैं।
ईश्वर ने इसराएल के लोगों पर होनेवाले आसन्न संकट के बारे में चेतावनी देने के लिए नबी यिरमियाह को बुलाया था। लेकिन नबी के अपने शब्दों से हमें उनकी असफलता का पता चलता है: “मैं किन को संबोधित कर उन्हें चेतावनी दूं, जिससे वे सुनें? उनके कान बहरे हैं। वे सुन नहीं सकते। वे प्रभु की वाणी को फटकार समझते हैं और उसे सुनना नहीं चाहते” (यिरमियाह 6:10)। लोगों ने यिरमियाह को सुनने से इनकार कर दिया और इसराएल के नेताओं ने नबी को अस्वीकार कर दिया। उसने जो चेतावनी दी थी, वैसा ही हुआ और इस्राएल देश को बहुत सी पीडाएं भुगतना पड़ा।
यदि हम इसे एक दुनियावी दृष्टिकोण से देखें, तो यिरमियाह के सारे कार्य कोई मायने नहीं रखते हैं। हालाँकि, उन्होंने अपार विरोध के बावजूद भी उल्लेखनीय विश्वास को प्रकट किया। वे ईश्वर की इच्छा के प्रति आज्ञाकारी थे और इसी कारण उन्हें सफलता मिली।
अब, आइये हम आधुनिक समय की एक मिसाल को देखें। संत मदर तेरेसा का कथन विख्यात है, “ईश्वर ने मुझे सफल होने के लिए नहीं बुलाया है; उसने मुझे ईमानदार बनने के लिए बुलाया है।” क्या वर्तमान दुनियावी तरीके के विरुद्ध इस से किसी और बेहतर वाक्य की कल्पना आप कर सकते हैं?
मुझे लगता है कि ज्यादातर लोग इस बात से सहमत होंगे कि मदर तेरेसा ने एक सार्थक और सराहनीय जीवन जीया। किसने उसके जीवन को सार्थक और सराहनीय बनाया? मदर तेरेसा के ही शब्द हमें इसका जवाब देते हैं। अपने काम में सफल होने की कोशिश करने के बजाय, उन्होंने बस वही किया जिसे जो ईश्वर उनसे करवाना चाहते थे। उनका ध्यान खुद पर ना हो कर ईश्वर पर था। यह बात उनकी छू जाने वाली दयालुता से ज़ाहिर होती हैं क्योंकि वे गरीब से गरीब और कमज़ोर से कमज़ोर इंसान में ईश्वर को देखती थीं।
नबी यिरमियाह और मदर तेरेसा के साक्ष्य हमें एक महत्वपूर्ण समझ देते हैं: “जिस दृष्टि से मनुष्य देखता है, उस दृष्टि से मैं (ईश्वर) नहीं देखता। मनुष्य व्यक्ति के बाहरी रूप – रंग को देखता है, पर मैं (ईश्वर) उसके हृदय को देखता हूं।” (1 सामुएल 16:7)
तो आइए हम दुनिया के मापदंडों से भयभीत और परेशान न हों और सफलता के लिए कोशिश न करें। अगर हम ईश्वर के नज़दीक रहेंगे और अपने पूरे दिल से उसकी सेवा करेंगे, तो वह निश्चय ही हमारी कोशिशों को अनुग्रहीत करेगा। हालांकि ईश्वर के प्रति विश्वासपूर्ण रहने की अपनी चुनौतियां हैं। इन चुनौतियां को पार करने के लिए ढेर सारा धैर्य और सहनशीलता चाहिए, लेकिन हम जानते हैं कि इसका पुरस्कार महान है।
यह सच है कि हमारे लिए दूसरों से खुद की तुलना ना करना थोड़ा मुश्किल है और दुनियाई सफलता के मापदंडों के पीछे ना भागना भी मुश्किल है। लेकिन सफलता की यह भागदौड़ हमें दुखी और व्याकुल कर देती है, क्योंकि कहीं ना कहीं, कोई ना कोई हमसे ज़्यादा बेहतर, ज्ञानी, और सफल होगा। लेकिन सच्चाई यह है कि जिस नज़रिए से दुनिया हमें देखती है उसी नज़रिए से ईश्वर हमें नहीं देखते। ईश्वर हमारे हृदय को देखते हैं। और आखिर में ईश्वर के मन में हमारी छवि किस प्रकार की है, यही सबसे महत्वपूर्ण बात है।
'“क्या आप कई चीज़ों को लेकर व्याकुल और चिंतित हैं? तो फिर यह लेख आपके लिए है।”
वह सप्ताह मेरे लिए मानसिक रूप से बड़ा भारी था। जब भी मैं प्रार्थना के समय ध्यान लगाने की कोशिश करती थी मेरा मन जैसे दहाड़ने लगता था। आज लगातार दूसरा दिन था जब मैंने बैठ कर येशु को उन सारी शारीरिक तकलीफों का हिसाब दिया जो कि मुझे परेशान कर रही थी। मैंने उन्हें बताया कि कैसे कोरोना महामारी का कहर खतम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। मुझे कई चिंताएं थी। कई लोगों से मेरे संबंध ठीक नहीं चल रहे थे, मैं एक लेखन कार्य से जुड़ी थी जिसमें प्रगति नहीं हो पा रही थी जिसकी वजह से मैं काफी निराश चल रही थी। “मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं चारों तरफ से दुश्मनों से घिरी हुई हूं”। मैंने अपने आंसुओं को पोछते हुए येशु से कहा। फिर मैंने दैनिक वचन खोला (लूकस 10:38-42) और वचन पढ़ते पढ़ते मैं रुक गई। हां मैं भी मार्था की तरह अनेक चिंताओं और परेशानियों में डूबी हुई थी।
मुझे इस बात का भी अहसास था कि येशु मेरी परिस्थिति बदलना चाहते थे, पर कैसे? ऐसा सोचते ही मेरे मन में दो शब्द स्पष्ट रूप से गूंज उठे: “मज़बूत बनो।” यह सुनते ही मुझे ईश्वर का इशारा समझ में आ गया। पिछले ही सप्ताह मैंने संत तेरेसा की आध्यात्मिक मज़बूती के ऊपर एक प्रवचन सुना था। “तेरेसा”, मैंने प्रार्थना की, “तुम आध्यात्मिक रूप से कितनी मज़बूत थी जब तुमने अपने जीवन के अंत में बड़ी ही भयंकर यातना झेली, मेरे लिए प्रार्थना करो। मेरी मदद करो।”
धीरे धीरे मुझे समझ आने लगा की किस प्रकार येशु मुझे मज़बूत बनाना चाहते थे। मुझे समझ आया कि मुझे दो बातों पर ध्यान केंद्रित करने की ज़रूरत थी।
1. येशु पर विश्वास करना
2. निराशा को नकारना
येशु पर विश्वास
मुझे अपनी परेशानियों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय येशु पर विश्वास करने की ज़रूरत थी। मुझे खुद को याद दिलाने की ज़रूरत थी कि येशु हमेशा मेरा भला चाहते हैं। इसीलिए मैं ईश्वर की इच्छा पर भरोसा रखूंगी और ईश्वर को अपनी इच्छाओं के अनुसार निर्देशित नहीं करूंगी। मार्था ने दो ऐसी गलतियां की जिसने येशु के ऊपर उसके विश्वास को कमज़ोर किया। उसने येशु से ध्यान हटा कर मरियम पर ज़्यादा ध्यान लगाया। और फिर अपनी परेशानियों के हल के रूप में उसने येशु से कहा कि मरियम को उठ कर उसकी मदद करनी चाहिए।
निराशा को नकारना
मुझे यह समझना चाहिए कि निराशा दुश्मन का एक हथियार है। निराशा शैतान से आती है, ना कि येशु से। कभी कभी मेरा मन करता है कि मैं बैठ कर खुद को जी भर के कोस लूं। लेकिन यह करने के बजाय, खुद पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, खुद की कमियों पर ध्यान देने के बजाय, मैं येशु पर ध्यान केंद्रित करूंगी और उसी पर विश्वास करूंगी।
इन सब बातों के अनुसार अपना जीवन जीने के लिए मैंने अपने किचन टेबल पर एक कार्ड चिपका दिया है (जहां पर हर समय मेरी नज़र पड़ ही जाती है) जिस पर ये शब्द लिखे हैं: मज़बूत बनो
“येशु, संत तेरेसा, संत मार्था, विश्वास करने में, निराशा से दूर रहने में, मज़बूत बनने में मेरी मदद कीजिये। मेरे लिए प्रार्थना कीजिए!”
येशु मैं आप पर भरोसा रखती हूं!
'कुछ कीमती वस्तु आपके भीतर है!
लोग कहते हैं कि जीवन में केवल दो निश्चित चीजें हैं: मृत्यु और कर। लेकिन निर्माण उद्योग में अपना कामकाजी जीवन बिताने के बाद और दवा के कारोबार में खूब पैसा कमानेवालों से वाकिफ होने के बाद, मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि उपरोक्त कथन केवल आधा सच है। मृत्यु निश्चित रूप से हम सभी का इंतजार कर रही है,हालांकि हम में से ज्यादातर लोग, मजबूर नहीं किये जाते, तो शायद ही कभी इसके बारे में सोचते हैं। हम अपने नश्वर,भौतिक या लौकिक शरीर पर ध्यान केंद्रित करते हैं और अपनी शाश्वत आत्माओं के बारे में भूल जाते हैं। लेकिन अनंत जीवन एक वास्तविकता है और अब यह तय करने का समय है कि हम अपने अनंत जीवन को कहां बिताना चाहते हैं।
कुछ साल पहले, मुझे कलकत्ता (कोलकाता) में मदर तेरेसा के मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी के बेसहारे, बीमार और मरणासन्न लोगों के आश्रय स्थल में सेवा करने का सौभाग्य और आशीर्वाद मिला। मदर तेरेसा ने कहा,‘जानवरों की तरह जीवन बिताने वाले उन लोगों के लिए स्वर्गदूतों की तरह खूबसूरत मौत की कृपा यहाँ मिलती है।’ भारत की अपनी पहली यात्रा के दौरान मुझे ऐसी मौत का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त हुआ।
जिस रात को मदर तेरेसा की उत्तराधिकारी मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी की अध्यक्षा सिस्टर निर्मला के देहांत की खबर मिली, उस समय मैं उनके धर्मसंघी भाइयों के साथ रह रहा था। ब्रदर लोगों का सम्पूर्ण समुदाय शोक में था और जैसे ही मैंने प्रार्थना की, मुझे लगा कि रात का आसमान बदल गया है, मानो स्वर्ग इस पवित्र और विश्वस्त महिला को प्राप्त करने के लिए खुल रहा हो। आश्चर्य इस बात की है कि मुझे लगा कि स्वर्ग का खुलना सिर्फ सिस्टर निर्मला के लिए नहीं था, बल्कि किसी और के लिए भी था जो जल्द ही मरने वाला था। मैंने अपनी आत्मा में महसूस किया कि जहां मैं सेवा दे रहा था, उस आश्रम में अगले दिन किसी की मौत होने वाली है। मैंने इसे अपनी डायरी में भी लिखा था। उस रात, मैं सो नहीं पाया।
अगली सुबह पवित्र मिस्सा में भाग लेने और आश्रम में प्रवेश करने पर जो प्रार्थना होती है, उसे भी करने के बाद,मैं तुरंत ही सबसे गंभीर रूप से बीमार दो पुरुषों के पास गया, चूँकि मुझे यह सुनिश्चित करना था कि वे अभी भी जीवित थे। शुक्र है,कि वे दोनों जीवित थे। मैंने हमेशा की तरह अपने सेवा कार्य की ड्यूटी में लग गया। लेकिन जल्द ही बहनों में से एक ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझ से पूछा कि क्या तुम प्रार्थना करना जानते हो। मैंने उनसे कहा कि मैं जानता हूँ।
वे मुझे एक ऐसे व्यक्ति के पास ले गई, जिसके बारे में उन्हें मालूम था कि वह अभी ज्यादा देर ज़िंदा नहीं रहेगा और उन्होंने मुझसे कहा कि मैं उस आदमी के लिए प्रार्थना करूँ। मैं उस आदमी के बिस्तर पर बैठा और उसके दिल पर हाथ रखकर प्रार्थना करने लगा। उसकी आँखें छत की तरफ ही थीं और मुझे लगा कि उसने पूरी तरह से हार मान ली है। उसका वजन इतना कम हो गया था कि उसका चेहरा बिलकुल दुबला पतला और उसके गाल खोखले हो गए थे। उसकी आँखें इस कदर धँसी हुई थीं कि उसके आँसू उसकी आँखों के कोनों में जमा हो गए और उसके गालों तक नहीं आ पा रहे थे। मेरा दिल दुखने लगा। जैसे जैसे मैं प्रार्थना कर रहा था, मैं ने देखा कि उसकी प्रत्येक धीमी सांस के साथ उसके सीने पर रखा मेरा हाथ भी ऊपर नीचे हो रहा था, जिसकी गति शनै: शनै: धीमी, और धीमी होती जा रही थी। उसकी जान धीरे धीरे समाप्ति की ओर थी। परेशान होकर, मैं ईश्वर से कुछ क्रोध भरे सवाल पूछने लगा: क्या इस आदमी का कोई परिवार है, और अगर है तो वे लोग कहाँ हैं? वे यहाँ क्यों नहीं हैं? क्या वे जानते हैं कि इस आदमी का इस समय क्या हाल है? क्या वे इसकी परवाह करते हैं? कोई ऐसा है जो इसकी परवाह करता है?
अपनी प्रार्थना के दौरान, मुझे मृत्यु की देवी, काली को समर्पित बगल के हिंदू मंदिर से आने वाले ढोल की आवाज़ सुनायी दी। ढोल के लयबद्ध स्वर लगातार बढ़ता गया। मुझे लगा कि इस आदमी की आत्मा के लिए एक उग्र युद्ध लड़ा जा रहा है। जैसे मैंने उसे आखिरी सांस लेते हुए देखा, वैसे ही मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं और मैं रोने लगा।
लेकिन जब मैंने अपनी आँखों को फिर से खोला, तो मुझे अचानक मेरे क्रोध भरे सवालों के जवाब मिल गए। मुझे पता ही नहीं चला कि मेरे साथ दो बहनें, एक धर्म बन्धु और एक अन्य स्वयंसेवक भी उस मृतक की शैया के आसपास एकत्र हुए थे। वे चुपचाप खड़े होकर प्रार्थना कर रहे थे। क्या किसी ने परवाह की? बेशक, उन सबों ने परवाह की! उसका परिवार कहाँ था? उसका परिवार वहीं उसी जगह था और उसके लिए प्रार्थना कर रहा था – ईश्वर का परिवार! मैं आँसू बहाकर रोने लगा, इस पश्चाताप के साथ कि मैंने ईश्वर से कैसे सवाल किया था; लेकिन मेरा ह्रदय ईश्वर की असीम भलाई और दया के बारे में सोचकर विस्मय और कृतज्ञता से भर गया। मैं अपनी मृत्यु के समय के लिए इससे अधिक कोई विशेष निवेदन नहीं कर सकता था कि इसी तरह प्रेमपूर्वक मेरी मुक्ति के लिए प्रार्थना करने वाले लोगों से लोगों से मैं घिरा रहूँ। जैसे ही मैंने फिर से प्रार्थना करने के लिए अपनी आँखें बंद कर लीं, मैंने देखा कि मृत व्यक्ति की एक छवि शानदार सफेद कपड़े पहकर, येशु की ओर बढ़ रही थी। येशु की बाहें खुली हुई थीं, क्योंकि वह उस व्यक्ति की प्रतीक्षा कर रहा था और फिर येशु ने बड़े प्यार से उसका आलिंगन किया। यह सुंदर अति लुभावना दृश्य था।
लेकिन ईश्वर मेरे दिल में और अधिक रोशनी डालना चाह रहा था। मेरे हाथ अभी भी मृत व्यक्ति की छाती पर थे, मैंने अपनी आँखें खोलीं और पास के बिस्तर में एक व्यक्ति को देखा जिसने कपडे में ही मल-मूत्र त्याग दिया था । किसी और ने उस पर ध्यान नहीं दिया था, इसलिए मुझे ही एक निर्णय लेना था: मैं एक ऐसे व्यक्ति के लिए प्रार्थना करना जारी रखूँ जिसके बारे में मुझे पता है कि वह अब येशु के पास पहुँच चुका है, या मैं उठकर इस दूसरे व्यक्ति की गरिमा को बहाल करने में मदद करूं। यह एक आसान विकल्प था। मैं सीधे खड़ा हो गया और बिस्तर पर पड़े उस आदमी को साफ किया और उसे नए कपड़े पहनाये। मैंने अपने दिल में एक धीमी आवाज़ सुनी, ‘जीवन आगे बढ़ता है।’
येशु के साथ चलने वालों को पता है कि मौत से डरने की ज़रूरत नहीं है। वास्तव में, मौत हम ख्रीस्तीयों को उत्साहित करना चाहिए: संत पौलुस इसे दृढ़ता से कहते हैं: ‘मुझे दृढ विश्वास है कि न तो मरण या जीवन, न स्वर्गदूत या नरकदूत, न वर्तमान या भविष्य, न आकाश या पाताल की कोई शक्ति और न समस्त सृष्टि में कोई या कुछ हमें ईश्वर के उस प्रेम से वंचित कर सकता है, जो हमें हमारे प्रभु येशु मसीह द्वारा मिला है’(रोमियों 8: 38-39)।
हां, जीवन आगे बढ़ता रहता है, लेकिन हम में से प्रत्येक के लिए एक दिन यह भी समाप्त हो जाएगा। यहां हमारा समय कम है, और अनंतता लम्बी है। इसलिए, संत पौलुस के साथ हम भी “पीछे की बातें भुलाकर (इसके बजाय) और आगे की बातों पर दृष्टि लगाकर बड़ी उत्सुकता से अपने लक्ष्य की ओर दौडूँ ताकि स्वर्ग में वह पुरस्कार प्राप्त कर सकूं, जिसके लिए ईश्वर ने हमें येशु मसीह में बुलाया है’(फिलिप्पियों 3:14)।
'क्या आप किसी प्रियजन के नुकसान पर शोक मना रहे हैं ? यहाँ एक माँ के हृदयस्पर्शी गवाही है कि किस तरह उसने अंधेरी घाटी में भी आशा पाई।
हमें प्रभु ने आशीर्वाद स्वरूप दो बेटे दिए। बड़ा बेटा डेविड के सुन्दर सुनहरे बाल थे। हमारा छोटा बेटा क्रिस के काले बाल थे। गर्मियों के महीनों में जब डेविड धूप में बाहर निकलता था तब उसके सुनहरे बाल हल्के होकर और सुन्दर हो जाते थे । हमारे बेटे ही हमारे जीवन का आनंद थे।
जब डेविड सत्रह वर्ष का था, तब विधान ने हमें एक विनाशकारी और घोर भयानक झटका दिया। एक भयावह कार दुर्घटना ने उसे और एक दोस्त को मार डाला। हमारे दिल लाखों टुकड़ों में बिखर गए। हम हफ्तों तक सदमे में थे। चार लोगों का हमारा परिवार अचानक तीन लोगों का परिवार बना दिया गया था, क्योंकि एक को हमसे क्रूरता के साथ छीन लिया गया। मेरे पति, मैं और हमारा 15 साल का बेटा क्रिस एक-दूसरे से और अपने दोस्तों से डटे रहे और साथ साथ हम अपने विश्वास पर अड़े रहे। इस दर्द को एक दिन में एक बार में झेलना संभव नहीं था, मुझे इसे मिनट-मिनट और घंटे-घंटे के हिसाब से झेलना था। मुझे लगा कि यह दर्द कभी हमारा पीछा नहीं छोड़ेगा।
जब जब मैं डेविड की कब्र पर जाती थी, मुझे उसके चले जाने के गहरे सदमे से कुछ राहत मिलती थी। मैं हफ्ते में कम से कम एक बार उसकी कब्र पर जाती। हमारे छोटे शहर में कब्रिस्तान को खूबसूरत रखा जाता है। सुन्दर घास और पेड़ इसके शांत वातावरण को और अधिक सुन्दर बनाते हैं। एक गोलाकार पथ कब्रिस्तान की ओर ले चलता है। आप किसी भी सुविधाजनक स्थान से किसी को भी कब्रिस्तान के अन्दर प्रवेश करते हुए या निकलते हुए देख सकते हैं।
एक दिन, जैसे ही मैं अपने बेटे की कब्र के पास घास पर बैठी थी, मेरे चेहरे से आंसू बहने लगे। मैं उसके भाई क्रिस के बारे में बहुत चिंतित थी, जो बड़ी मुश्किल से अपने इकलौते भाई की कमी का सामना कर रहा था। अपने दिल के दर्द को उतारने के बाद, मैंने अपनी आँखों से आँसू पोंछे और कब्रिस्तान की चारों ओर देखा। बहुत सुनहरे बालों वाला, एक सफेद टैंक टॉप पहना हुआ एक बालक, कब्रिस्तान की चारों ओर साइकिल चला रहा था। वह अपनी बाइक इतनी सहजता और आसानी से चला रहा था कि मैं अचंभित थी। मैं इस बात पर अचंभित थी कि कोई बच्चा कब्रिस्तान में साइकिल क्यों चला रहा होगा? एक पल के लिए, मैंने अपने बेटे की कब्र पर नज़र डाली, फिर मुड़कर पीछे देखा, लेकिन साइकिल चलानेवाला सुनहरा बालों वाला लड़का मेरी आँखों के सामने से ओझल हो गया था। मैं उसे इधर-उधर खोजती रही, लेकिन वह जा चुका था। मैं ने अपनी आत्मा की गहराई से समझ ली कि यह मेरा बेटा डेविड था। उस लड़के ने जो सफेद टैंक टॉप पहना था, वह उसी तरह का था जैसा डेविड अक्सर पहना करता था। ऐसा लगा कि उस दिन डेविड कब्रिस्तान में मुझसे मिलने आया था, मुझे दिलासा देने के लिए और मुझे बताने के लिए कि वह शांति में है।
आज तक, मैं उस अनूठे भेंट की व्याख्या नहीं कर पाती, लेकिन पवित्र आत्मा ने उस स्मृति को मेरे दिल पर हमेशा के लिए अंकित किया है। मैं विश्वास करती हूँ कि ईश्वर ने मुझे यह भरोसा दिलाने के लिए यह स्वर्गीय भेंट दी कि मैं अकेले शोक नहीं मना रही हूं। येशु मेरे साथ रोता है और पवित्र आत्मा मेरे आँसू पोंछता है, हर दिन हर पल। “ईश्वर हमारा आश्रय और सामर्थ्य है, वह संकट में सदा हमारा सहचर है।” (भजन 46:1)।
इस रहस्यमय मिलन के बाद, मेरा भारी बोझ कुछ हद तक हल्का हो गया। भले ही हमारे डेविड को गुज़रे कई साल बीत चुके हैं, लेकिन हमारे दिलों में अपने बेटे को खोने का दुख बरकरार है। दुख की कोई समय सीमा नहीं है। यह समय के साथ कम हो जाता है, लेकिन माता और पिता हमेशा के लिए शोक करते हैं। मुझे इस उम्मीद में सुकून मिलता है कि अपने दुलार बेटे से एक दिन फिर से हमारी मुलाक़ात होगी।
जब त्रासदी और मौत एक परिवार पर हमला करती है, तो परिवार का हर सदस्य दु:ख से अभिभूत हो जाता है। हानि का सामना करना चुनौतीपूर्ण है,और यह अनुभव हमें गहरी,अंधेरी घाटियों में ले चलती है; लेकिन ईश्वर का प्यार और उसकी अद्भुत कृपा हमारे जीवन में फिर से धूप की किरणों को और आशा को जगा सकती है।
“चाहे पहाड़ टल जाएँ और पहाड़ियां डाँवाडोल हो जाएँ, फिर भी तेरे प्रति मेरा अगाध प्रेम नहीं टलेगा और तेरे लिए मेरा शांति विधान नहीं डाँवाडोल होगा।” यह तुझ पर तरस खानेवाले प्रभु का कथन है।” (इसायाह 54:10)
'प्र – दुनिया में इतना मतभेद देखने पर मेरा दिल दुखी हो जाता है। चाहे वह नस्लों के बीच का मतभेद हो, राजनीतिक दुश्मनी हो या कलीसिया के भीतर के भेदभाव और फूट हो, आज हमारी संस्कृति में घृणा, फूट और क्रोध के अलावा कुछ भी नहीं है। एक कैथलिक के रूप में, अपनी इस विभाजित दुनिया में, सद्भाव और चंगाई लाने के लिए मैं अपनी भूमिका कैसे निभा सकता हूं?
उ – काइन’ और हाबील के समय से ही, फूट और घृणा दुष्ट शक्ति के प्राथमिक उपकरण रहे हैं। मेरा मानना है कि आज, सोशल मीडिया के माध्यम से और उन मुद्दों के साथ जिनके बारे में लोग दृढ़ता से महसूस करते हैं,हम अपनी दुनिया के भीतर दुश्मनी का एक अभूतपूर्व दौर से गुज़र रहे हैं। लेकिन हमारा कैथलिक विश्वास हमें एक बेहतर रास्ता दिखा सकता है!
सबसे पहले, हमें उस मूलभूत सत्य को याद रखना होगा कि प्रत्येक मनुष्य ईश्वर की प्रतिछाया में सृष्ट किया गया है – जिसमें हमारे दुश्मन भी शामिल हैं। जैसा कि मदर तेरेसा ने एक बार कहा था, “हम भूल गए हैं कि हम एक दूसरे के हैं।” वह अलग नस्ल या अलग राजनीतिक दल का व्यक्ति, वह व्यक्ति जिस के साथ हम फेसबुक पर बहस कर रहे हैं या जो हमारी चार दीवारी या बाड़ के उस पार खड़ा है, वह ईश्वर की प्रिय संतान है जिसके लिए येशु ने अपनी जान दे दी। लोगों पर ठप्पा लगा देना और उन्हें खारिज करना हमारे लिए आसान है। हम कहते हैं – “ओह,वह इतना अनाड़ी है कि फलाने पर आसानी से विश्वास कर लेता है” या “वह इतनी दुष्ट है कि फलाने उम्मीदवार का समर्थन करती है” – लेकिन ऐसी टिप्पणियाँ उनकी महान गरिमा को खारिज करता है। हमारे विरोधियों में संत बनने की क्षमता है, और हम जैसे हैं, वैसे वे भी ईश्वर की दया और प्रेम के लाभार्थी हैं।
आधुनिक दुनिया की बड़ी त्रुटियों में से एक यह उक्ति है कि किसी से प्यार करने के लिए, हमें हमेशा उनकी हर बात से सहमत होना चाहिए। यह बिलकुल गलत है! हम ऐसे लोगों से भी प्यार कर सकते हैं जिनके पास हमसे अलग राजनीतिक दृष्टिकोण, लैंगिक पसंद या धर्म मीमांसा संबधित उलटा दृष्टिकोण हैं। वास्तव में, हमें उनसे प्यार करना ही चाहिए। एक तर्क में जीत पाने से अधिक महत्त्वपूर्ण है किसी की आत्मा को मसीह के लिए जीत पाना। और किसी आत्मा को जीतने का एकमात्र तरीका प्रेम ही है। जैसा कि संत पापा संत जॉन पॉल द्वितीय ने एक बार कहा था, “मनुष्य के प्रति एकमात्र उचित प्रतिक्रिया सिर्फ प्रेम है।”
हमारे विरोधियों के प्रति प्रेम कई रूप लेता है। हम उनके लिए दया के ठोस कार्य करने की कोशिश करते हैं – यदि वे गर्मी के दिनों विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, और इसलिए वे प्यासे हैं, तो हम उन्हें पीने के लिए पानी देते हैं, भले ही हम उनके प्रदर्शन के मुद्दे से सहमत न हों। हम यह सुनिश्चित करते हैं कि उनके साथ हमारा संवाद सम्मानजनक हो और उनके साथ अपशब्द भरे संवाद न करने (विशेष रूप से तब जब हम उन्हें ऑनलाइन जवाब दें) के बजाय मुद्दों पर ही सीमित रहने के निर्णय पर हम अडिग रहें। हम उनके लिए प्रार्थना करते हैं – उनके मन परिवर्तन के लिए, उनकी आतंरिक चंगाई के लिए, उनके पवित्रीकरण के लिए, और उन पर भौतिक आशीर्वाद के लिए। हम सही मायने में उनकी स्थिति को खारिज करने के बजाय उसे समझने की कोशिश करें। यहां तक कि जो लोग मानते हैं कि हमारी त्रुटियां भी दोनों तरफ सामान्य हैं – हम उस सामान्य आधार की तलाश करें, इसकी पुष्टि करें और उन्हें सच्चाई तक ले जाने के लिए इस पर कार्य करें। कभी-कभी दुश्मन के प्रति हमारे प्यार को उन्हें बड़े प्रेम से मसीह के सत्य की भेंट देकर दिखाया जा सकता है। इसके अलावा, कभी कभार हम स्वयं गलत हो सकते हैं। अपनी गलती को पहचानने की पर्याप्त विनम्रता हममें होनी चाहिए। इस लिए हमें दूसरों की अंतर्दृष्टि और अनुभव से सीखने की ज़रूरत है।
अंत में, मुझे लगता है कि वेबसाइटों और समाचार लेखों से बचना बहुत ज़रूरी है। क्योंकि वे जानबूझकर भड़काऊ स्वभाव के होते हैं। कई समाचार एजंसियां और सोशल मीडिया साइट्स लोगों के आक्रोश और गुस्से को उत्तेजित कराके ही अपना धंधा चलाते हैं। लेकिन ईश्वर चाहता है कि ख्रीस्तीय लोग शांति और प्रेम से भरे रहें! इसलिए उन वेबसाइटों या लेखों या लेखकों से बचें, जो केवल रेटिंग या वेबसाइट क्लिक के लिए विवाद को भड़काने की कोशिश करते हैं।
संत पौलुस रोमी 12 में हमें एक अच्छी नसीहत देते हैं: “बुराई के बदले बुराई नहीं करें। जहाँ तक हो सके, अपनी ओर से सबों के साथ मेलमिलाप बनाये रखें। यदि आपका शत्रु भूखा है, तो उसे खिलाएँ; और यदि वह प्यासा है, तो उसे पिलायें; क्योंकि ऐसा करने से , आप उसके सिर पर जलते अंगारों का ढेर लगायेंगे। आप लोग बुराई से हार न मानें, बल्कि भलाई द्वारा बुरे पर विजय प्राप्त करें।”
केवल सच्चे ख्रीस्तीय प्रेम, जिसे शब्दों और कर्मों में क्रियान्वित किया जाए, हमारी संस्कृति और हमारी दुनिया में फूट और मनभेद को ठीक कर सकता है।
'अब समय है अपने डर से लड़ने का
एक और कोरोना रविवार की बात है, मैं परिवार के साथ ऑनलाइन मिस्सा में भाग ले रहा था। कोरोना की इस महामारी के बीचों बीच भी मैं यह देख सकता था कि पवित्र आत्मा हम सब को ऑनलाइन मिस्सा और शक्तिशाली प्रवचनों के द्वारा प्रेरित कर रहा था। इन सब के बावजूद, अपनी दुर्बलताओं की वजह से मैं यह देख सकता था कि मिस्सा में भाग लेते समय मेरा ध्यान और मेरी श्रद्धा समय के साथ कम होती जा रही थी। मिस्सा आगे बढ़ रहा था और अब पुरोहित उनके सामने कम संख्या में उपस्थित लोगों को परम प्रसाद बांट रहे थे। एक तरफ मुझे दुख हो रहा था कि मैं परम प्रसाद ग्रहण नहीं कर पा रहा था। वहीँ दूसरी ओर मैं खुद को यह समझा रहा था कि बाहर ना जाना और घर में रहना इस वक्त सबसे समझदारी का काम था।
मेरी पत्नी भी बच्चों को संभालते संभालते मेरे साथ ऑनलाइन मिस्सा में भाग ले रही थी। मेरी पत्नी अस्पताल में काम करती है, इसीलिए उसे कोरोना काल में बरती जाने वाली सारी सावधानियों और लापरवाहियों का अच्छी तरह से खयाल था। उसने तुरंत ही ध्यान दिया कि पुरोहित मिस्सा के दौरान कुछ लोगों को परम प्रसाद देने से पहले अपने हाथों को सैनिटाइज करना भूल गए थे। यह जानने के बाद मुझे बुरा लगा कि मैं उन लोगों की समझ पर सवाल कर रहा था जो इस महामारी में भी मिस्सा सुनने गए हुए थे। और हालांकि मुझे इस बात का अहसास था कि घर बैठ कर मिस्सा सुनना ही इस महामारी काल के लिए सही है, फिर भी चर्च जा कर मिस्सा सुनने के लिए मेरे कान तरस गए थे। इसीलिए अपनी समझ के खिलाफ जा कर मैंने चर्च में मिस्सा सुनने के लिए अर्जी डाली। अपने इस फैसले की वजह से मुझे अपने परिवार को बड़ी मुश्किल से मनाना पड़ा।
फिर अगले रविवार, डर और चिंता से घिरे हुए मैं मिस्सा सुनने के लिए निकला। हर जगह यह बताया जा रहा था कि कोरोना बूढ़े लोगों के लिए जानलेवा है, फिर भी मिस्सा में उपस्थित आधे से ज़्यादा लोग बूढ़े थे। मैं बिल्कुल स्वस्थ था और तीस वर्ष का था, इस कम उम्र को देखा जाए तो कोरोना से ज़्यादा खतरा भी नहीं था। फिर भी मुझे चर्च जाने में डर लग रहा था। कभी कभी मैं ख्वाब देखा करता था कि मैं निडर हो कर अपना विश्वास उसी तरह प्रदर्शित कर रहा हूं जिस प्रकार ईसाई संतों ने उत्पीड़न करने वालों के सामने अपना विश्वास प्रकट किया था। और अब जब मेरे विश्वास की इतनी छोटी सी परीक्षा ली गई थी, तब मैंने इतनी आसानी से हार मान ली थी।
मुझे याद है वे सारे दिन, जब मैं राशन और बाकी ज़रूरत के सामान लेने गया था। मैंने उन सारी चीज़ों को अपने आध्यात्मिक भोजन से ज़्यादा महत्व दिया था। मुझे याद है वह हर लम्हा जब मैंने यह सच्चे दिल से विश्वास किया था कि येशु मसीह परम प्रसाद में उपस्थित हैं और परम प्रसाद के द्वारा कई चमत्कार होते हैं। इन सब के बावजूद, मैं कई महीनों तक चर्च जाने से डरता रहा और बाकी लोगों की बुद्धि पर सवाल करता रहा। लेकिन ईश्वर ने मुझे अहसास दिलाया कि मैं कितना डरपोक बन रहा था। मेरे सपने सिर्फ सपने बन कर रह गए थे और मैं अब अपने इरादों के बिखर जाने पर शोक मना रहा था।
मुझे अहसास हुआ कि एक साल घर पर बिताने के बावजूद मुझे अब भी व्यक्तिगत प्रार्थना के लिए समय नही मिल रहा था और मेरे परिवार में भी सामूहिक प्रार्थना कम हुई थी। हम सब दिनभर काम और घर की साफ सफाई या टीवी देखने में अपना समय बर्बाद कर रहे थे। बचा हुआ समय फिल्म देखने में निकल जाता था।
मेरा ध्यान कोरोना महामारी के पहले के दिनों की ओर गया। मैं अच्छी तरह से प्रार्थना किया करता था, मैं एक पवित्र जीवन जीने की कोशिश किया करता था और रविवार के मिस्सा बलिदान में भाग लेने के लिए उत्साहित रहता था। तभी मुझे अहसास हुआ कि मेरे जीवन में पवित्रता और प्रार्थना मिस्सा में भाग लेने की वजह से ही थी। लूकस 17:33 बार बार मेरे मन में आ रहा था: “जो अपना प्राण सुरक्षित रखने का प्रयत्न करेगा, वह उसे खो देगा, और जो उसे खो देगा वह उसे जीवित रखेगा।“
क्योंकि मैं औरों से ज़्यादा दुर्बल हूं, मुझे यह समझ आया है कि मेरा अनंत जीवन पवित्र मिस्सा में सम्मिलित होने और अधिक से अधिक बार परम प्रसाद ग्रहण करने पर आश्रित है। उस दिन जब मैंने परम प्रसाद ग्रहण किया, वह दिन मेरे लिए बहुत खास था। क्योंकि मैं कई दिनों से अपने आध्यात्मिक भोजन को पाने के लिए भूखा था। मुझे अभी भी कोरोना महामारी से डर लगता है क्योंकि मुझे अपने को संभालना है। लेकिन अब मैं अपने विश्वास को कार्य में ला कर सर्वशक्तिमान, दयालु, प्रेममय ईश्वर पर विश्वास करते हुए हफ्ते में कम से कम एक बार अपना आध्यात्मिक भोजन ग्रहण करता हूं।
'आध्यात्मिक लेखक और कवि जॉन ओ डोनोहुए ने लिखा है, “जब आप अपनी आत्मा से सुनते हैं तभी आप सृष्टि की धुन और ताल से जुड़ पाते हैं।” (अनम कारा – केल्टिक दुनिया का आध्यात्मिक ज्ञान)।
एक पीढ़ी भर के समय के लिए ईश्वर की चुनी हुई प्रजा ने सिर्फ ईश्वर की खामोशी को सुना और जाना था। सामुएल के ग्रंथ में हम पढ़ते हैं कि ईश्वर की चुनी हुई प्रजा को ईश्वर का वचन सुनाई देना बंद हो गया था: “उन दिनों में प्रभु का वचन दुर्लभ था” (1 सामुएल 3:1)। लोग ईश्वर से बात करते थे, उनकी स्तुति करते थे, उनसे विनती करते थे, उनसे मिन्नतें करते थे, रोते गिड़गिड़ाते थे लेकिन उन्हें कोई जवाब नहीं मिलता था। लेकिन फिर एक रात, एक आवाज़ ने सामुएल को चौंका दिया।
उस वक्त सामुएल सोचता है कि वह पुकार एली की है जो कि शिलोह का महापुरोहित था। सामुएल को लगा कि एली को किसी चीज़ की ज़रूरत होगी इसीलिए वह एली के पास जाता है लेकिन एली उसे सो जाने को कहता है। जब सामुएल को वह आवाज़ दोबारा सुनाई देती है तब एली को लगने लगता है कि आज ही वह रात है जब ईश्वर वर्षों का मौन तोड़ कर इसराएल को पुनः मार्गदर्शित करने लगेंगे। इसके बाद एली सामुएल से कहते हैं ” यदि वह तुझे फिर बुलाएगा तो तू यह कहना: “प्रभु, बोल; तेरा सेवक सुन रहा हूं।” (1 सामुएल 3:9)
सीबीएस संवाददाता और 60 मिनट के मेजबान डैन रादर ने एक बार कोलकत्ता की संत मदर तेरेसा से उनके आध्यात्मिक जीवन के बारे में सवाल करते हुए पूछा, “जब आप ईश्वर से प्रार्थना करती हैं तो उनसे क्या कहती हैं?” उन्होंने जवाब दिया “मैं कुछ नही कहती हूं बस सुनती हूं।” ऐसा जवाब सुन कर हैरानी में रादर ने आगे सवाल किया “तो फिर ईश्वर आपसे प्रार्थना के समय क्या कहते हैं?” मदर तेरेसा ने कुछ पल सोच विचार करने के बाद कहा “ईश्वर कुछ कहते नहीं हैं, वे बस सुनते हैं।” कल्पना करिए कि तेरेसा और ईश्वर आमने सामने बैठे हैं, चुपचाप, एक साथ सन्नाटे को सुनते हुए।
क्या हम सन्नाटे में स्थिर रह सकते हैं? क्या हमारा मन व्याकुल हो कर ईश्वर की उपस्थिति पर सवाल करने लगता है? या फिर हम यह सोचने लगते हैं कि ईश्वर हमारी बात सुन भी रहा है या नही? उसे हमारी कदर है भी या नही? अपने आध्यात्मिक निर्देशक को लिखे एक खत में मदर तेरेसा ने ईश्वर की उपस्थिति से जुड़े अपने संदेहों को प्रकट करते हुए लिखा है “मुझे मेरी आत्मा में एक दर्द महसूस होता है, कुछ खोने का दर्द, ईश्वर के ना होने का दर्द।” वे आगे लिखती हैं “अगर मैं कभी संत बन पाऊंगी तो ज़रूर ‘अंधकार की संत’ कहलाऊंगी।”
कभी कभी प्रार्थना का मतलब है अंधियारी रात में बड़े धैर्य के साथ ईश्वर की आवाज़ को सुनना। लेकिन अब सवाल यह उठता है: क्या हम भी उसी तरह ईश्वर की वाणी सुनने को तैयार हैं जैसे सामुएल ने ईश्वर को भरोसा दिलाया था कि वह तैयार है? “सुनने का मतलब है ईश्वर की ओर अपने दिल को मोड़ना, इस भरोसे के साथ कि उसकी आत्मा बाकी सब संभाल लेगी।
प्रार्थना ज़ोर ज़बरदस्ती से नही की जा सकती। अगर हमें ईश्वर की उपस्थिति में जाने की ज़रूरत महसूस होती है तो वह ईश्वर की तरफ से मिला इशारा है। ईश्वर के इस इशारे के जवाब में हमें एक पवित्र जगह बनानी चाहिए, जहां हम दुनिया के जंजालों से दूर ईश्वर की उपस्थिति की ओर ध्यान लगा सकें। प्रार्थना ईश्वर की ओर से दिया गया एक तोहफा है और अगर हम ईश्वर के सानिध्य में शामिल होते हैं तो वह हमें यह तोहफा प्रदान करेगा।
अब सवाल यह उठता है कि हम ईश्वर की इस उपस्थिति तक पहुंचे कैसे? इसके लिए हमें वही करना है जो सामुएल ने किया, यानी हमें सुनना है। मिसाल के तौर पर हमें लेक्शियो दिविना से शुरुआत करनी चाहिए जो कि पवित्र बाइबिल को पढ़ने का एक तरीका है जिससे हम ईश्वर की वाणी को और गहराई से सुन सकते हैं। इस विधि में हम पवित्र वचन को पढ़ते हैं, उसे समझते हैं, उसे अपने जीवन में इस्तेमाल करते हैं और इन सब बातों की चर्चा करते हैं। इसके बाद हम शांत बैठते हैं और बिना कुछ कहे ईश्वर की उपस्थिति में स्थिर और संतुष्ट हो कर बैठते हैं।
हममें से कइयों के लिए यह स्थिरता लाना थोड़ा मुश्किल होता है, क्योंकि जिस दुनिया में हम रहते हैं वह दौड़भाग वाली दुनिया है जो कि एक तेज़ जीवनशैली को प्रोत्साहित करती है। येशु संघी ईश शास्त्री कार्ल राहनर ने कहा है, “हम सब आध्यात्मिक जीवन जीने के लिए बुलाए गए हैं, अगर हम आध्यात्मिक नहीं बन पाएंगे तो हम खुद का सर्वनाश कर डालेंगे।” प्रार्थना आखिर में स्थिरता की ओर ही मुड़ती है। मां मरियम ने अपने जीवन द्वारा हमें यही सीख दी है, क्योंकि मसीह की मां के रूप में वे लगातार ईश्वर की बातों पर मनन चिंतन करती रहीं। खामोशी हमारे दिल की उन गहराइयों को खोलती हैं जहां हम अपनी वास्तविक भावनाओं को देख पाते हैं और उनकी जड़ों को समझ पाते हैं। इन्हीं सब के द्वारा ईश्वर हमसे बात करते हैं और हमारे सबसे गहरी इच्छाएं और डर हमारे सामने रखते हैं। फिर ईश्वर हमें मौका देते हैं कि हम ईश्वर के सानिध्य में आ कर और अपने दुख व डर ईश्वर को समर्पित कर सकें।
ईश्वर को सुनने के लिए एक किस्म का समर्पण चाहिए। ऐसा समर्पण लाने के लिए हमें सबसे पहले हमारा ध्यान खुद से हटा कर ईश्वर को अपने ध्यान का केंद्र बनाना चाहिए। जब हम अपने जीवन से नियंत्रण हटाते हैं तब ही हम ईश्वर को सुनना शुरू करते हैं। लेकिन यह समर्पण इतना आसान नही होता, क्योंकि जब ईश्वर हमारे जीवन को नियंत्रित करना शुरू करते हैं तब वे हमें जीवन जीने के नए तरीकों से परिचित कराते हैं। जब हम ईश्वर को नियंत्रण देते हैं तब हम ईश्वर के वचन की सच्चाई की ओर अपना विश्वास प्रकट करते हैं। हम यह घोषित करते हैं कि ईश्वर अपने वादे पूरे करते हैं और विश्वास के योग्य हैं। हम यह भी घोषित करते हैं कि हम विश्वास करते हैं कि ईश्वर हमारी खामोशी में खुद को उंडेल देगा और हमें अपनी आत्मा से भर देगा।
आइए हम सामुएल के इस बुलावे को थोड़ा बढ़ाएं जो इस प्रकार है: “प्रभु, बोल; मैं तेरा सेवक, सुन रहा हूं।” और जब ईश्वर हमसे बात करें तब हम मां मरियम के उन्हीं वचनों के साथ तैयार रहें जिसे उन्होंने काना के विवाह में सम्मिलित होने पर कहा था “वह तुम लोगों से जो कुछ कहे वही करना।” यही हमारी परीक्षा है, यही उसका मूल्य है, यही वह रोमांचक यात्रा है जो हमें ईश्वर के रहस्य की ओर ले जाती है।
'तन्हाई के इस समय को एक नए और प्रभावशाली तरीके से बिताने की कोशिश
हम में से कई लोगों के लिए प्यार के दो बोल और मिलने जुलने के छोटे छोटे मौके बहुत ज़रूरी होते हैं। किसी के आमने सामने बैठ कर, उनकी आंखे पढ़ पाने से हमारी आत्मा को जो खुशी, जो अपनेपन का अहसास होता है उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है। इसलिए वैश्विक महामारी के इस दौर में अपनेपन के इस अकाल ने हमें गहरी क्षति पहुंचाई है। इस बात को याद रखते हुए दिन काटना, कि हमें अपने प्रियजनों से मिलने की आज़ादी नहीं है, यह एक ऐसा क्रूस है जो हम सब ने बड़ी कठिनाई के साथ ढोया है।
इस वैश्विक महामारी ने हमारी आज़ादी में बाधा डाल कर चारों ओर अकेलेपन, बेबसी और निराशा की भावनाओं को बढ़ावा दिया।
वह समय मुझे याद है, जब मैंने तीन साल के अंदर तीन बच्चों को जन्म दिया था। उस समय मुझे ऐसा लगा था जैसे मेरी व्यक्तिगत आज़ादी कहीं खो गई हो। मेरा सारा समय और सारा ध्यान बच्चों का हो कर रह गया था। मुझे ऐसा लगने लगा था कि मैं घर में कैद हो कर रह गई हूं, क्योंकि मेरे लिए पास की दुकान तक जा पाना भी असंभव हो गया था। सारे बच्चों को कार में बिठाना, एक सूटकेस जितने बड़े डाइपर बैग को साथ ले चलना, आते जाते वक्त सारे बच्चों की ज़रूरतों का खयाल रखना, यह सब मेरे लिए काफी मुश्किल हो रहा था। छोटे से छोटे काम के लिए भी बाहर जाना मुझे शारीरिक और मानसिक रूप से बुरी तरह थकावट दे रहा था। अगर मुझे किसी सम्मेलन में जाना होता था, और उस शाम बच्चों का खयाल रखने के लिए कोई राज़ी नहीं होता था तो मुझे अपना जाने का कार्यक्रम कैंसल करना पड़ता था। बाहर जाने के अनगिनत मौकों को बार बार मना करने की वजह से ही मुझे ऐसा लगने लगा था कि मेरी आज़ादी मुझसे छीन ली गई है।
लेकिन यही तो प्रेम है।
प्रेम एक ऐसा बंधन है जहां आप दूसरों की खुशी के लिए खुद की आज़ादी से समझौता करने को तैयार हो जाते हैं। प्रेम में आप खुद को समर्पित करते हैं, और खुद को समर्पित करने का मतलब है दूसरों की खातिर खुद की आज़ादी से समझौता करना। – जॉन पॉल द्वितीय, (प्रेम और ज़िम्मेदारी)
इस महामारी काल में हम में से कई लोग यही बाधा महसूस कर रहे हैं। वे खुद को बंधा बंधा सा, चारदीवारी में कैद, बिल्कुल अकेला महसूस कर रहे हैं। कई लोग अपने प्रियजनों से मिलना जुलना छोड़ चुके हैं, ताकि वे अपने दोस्तों, रिश्तेदारों को सुरक्षित रख सकें। प्रेम हमसे ऐसे बलिदान कराता है।
लेकिन अकेलेपन के इस समय को भी थोड़ी सूझबूझ के साथ प्रभावशाली तरीके से काटा जा सकता है।
स्वतंत्रता में बाधा को नकारात्मक और अप्रिय दृष्टि से देखा जा सकता है, लेकिन प्रेम इसे एक सकारात्मकता, खुशी और रचनात्मकता की बात बना देता है। हमारी आज़ादी प्रेम पर न्योछावर होने के लिए बनी है। – जॉन पॉल द्वितीय (प्रेम और ज़िम्मेदारी)
जब अपने बच्चों की खातिर मैंने अपनी आज़ादी से समझौता किया था, तब मैंने अपना ज़्यादा से ज़्यादा समय आध्यात्मिक किताबें पढ़ने और गहन मनन चिंतन करने में लगाया, क्योंकि बाहर ना जा पाने के कारण मेरे पास काफी खाली समय बच जाता था। मैं रोज़री के सारे भेद बोला करती थी। मैं बच्चों को संभालते वक्त, घर की साफ सफाई करते वक्त और खाना पकाते वक्त प्रार्थनाएं बोलती रहती थी। मेरे लिए यह सब एक बड़ा बदलाव था, मेरी पूरी ज़िंदगी बदल चुकी थी। लेकिन यही बदलाव मेरी ज़िंदगी का सबसे आध्यात्मिक समय बन के उभरा।
इसीलिए मैं यह विश्वास करती हूं कि इस वक्त कई आध्यात्मिक लड़ाइयां लड़ी जा रही हैं और जीती भी जा रही हैं। क्योंकि जिन लोगों ने अपनी आज़ादी खोई हैं वे घर में कैद रह कर या अस्पतालों की चारदीवारी के बीच से लगातार प्रार्थना और मध्यस्थता कर रहे हैं। कई शांत कोनों में, समाज के दायरों से परे, रोज़री, प्रार्थना, निवेदन, लगातार ईश्वर तक पहुंचाए जा रहे हैं। जो लोग घरों में अकेले कैद हैं और जो लोग शारीरिक बाधाओं से जूझ रहे हैं, वे एक तरह से अपने व्यक्तिगत मठ में जी रहे हैं। उनकी ये सीमित ज़िंदगी उन्हें उनकी दुनिया को प्रार्थना के भंडारघर में बदलने का मौका दे सकती है। और इस वक्त हमारी दुनिया को प्रार्थना के भंडारघरों की बहुत आवश्यकता है।
'असीसी के संत फ्रांसिस को एक समय कोढियों से बहुत भय और घृणा थी। उन्होंने कबूल किया कि कोढ़ी की झलक पाने से ही उनके मन में इतनी घृणा पैदा होती थी कि वे उन कोढियों की बस्ती के पास से गुजरने से कतराते थे। अगर वे अपनी यात्रा के दौरान गलती से किसी कोढ़ी की एक झलक पा लें या किसी कुष्ठरोग आश्रम से गुजरते हैं, तो वे अपना मुंह दूसरी तरफ घुमा देते थे और अपनी नाक बंद कर लेते थे।
जैसे-जैसे फ्रांसिस अपने विश्वास में और अधिक गहरे होते गए और उन्होंने अपने सामान दूसरों को प्यार करने की मसीह की नसीहत स्वीकार कर ली, वे अपने इस रवैये पर शर्मिंदा हो गए। एक दिन जब फ्रांसिस घोड़े पर सवार होकर यात्रा कर रहे थे, अचानक कुष्ठ रोग से पीड़ित एक आदमी उसके सामने सड़क पार कर रहा था। फ्रांसिस ने आतंकित भय और घृणा की अपनी भावनाओं पर काबू पा लिया और, बजाय दूर भागने का, वे अपने घोड़े के ऊपर से नीचे कूदे, कोढ़ी को चूमे और उसके हाथ में कुछ पैसे दे दिए।
लेकिन जब फ्रांसिस ने फिर से घोड़े पर सवार होकर पीछे मुड़कर देखा, तो उन्हें कहीं भी कोढ़ी नहीं दिखाई दिया। बढती उत्तेजना के साथ, उन्होंने महसूस किया कि मैं ने जिसे चूमा था, वह येशु है। कुछ धन जुटाने के बाद, वे कोढ़ी अस्पताल के पास गए और वहां उपस्थित हर एक कोढ़ी को भिक्षा दे दी, और श्रद्धा के साथ उन कोढियों में से एक एक के हाथ का चुंबन किया। पहले किसी कोढ़ी की दृष्टि या स्पर्श जो उनके लिए अरुचिकर लग रहा था – वह अब मिठास में परिवर्तित हो गया। बाद में फ्रांसिस ने लिखा, “जब मैं पाप में था, कोढ़ियों की मात्र झलक पाने से मेरा जी मचलता था; लेकिन तब परमेश्वर ने स्वयं मुझे उनकी संगति में पहुंचाया, और मेरे अन्दर उन पर करुणा उमड़ पड़ी। जब मैं उनसे परिचित हो गया, तो जिसके कारण मेरा जी मचलता था, वह मेरे लिए आध्यात्मिक और भौतिक सांत्वना का स्रोत बन गया। ” आज हम अक्सर अपने आस-पास ऐसे लोगों को देखते हैं जो आध्यात्मिक कोढ़ से त्रस्त हैं। ज़्यादातर हम उनसे दूर रहने की कोशिश करते हैं, लेकिन हम यह महसूस करने में नाकाम रहते हैं कि यह कोढ़ की बीमारी हमारे दिल में भी है। इसलिए दूसरों पर उंगली उठाने और इशारा करने के बजाय, अपने मन की विकलांगता और दिल की कठोरता पर मुक्ति पावें। यद्यपि हम टूटे हुए और जख्मी हैं, पहले स्थान
'आप शायद उस शतपति से परिचित हैं जिसने क्रूस पर लटके येशु के बगल में भाला भोंका था। कुछ परंपराओं और किंवदंतियों के अनुसार,उस सैनिक का नाम लोंजिनुस था, एक ऐसा नाम जो निकोदेमुस के गैर प्रामाणिक सुसमाचार में पहली बार उभरा था । इस सैनिक का नाम प्रामाणिक सुसमाचारों में दर्ज नहीं है।
किंवदंतियों के अनुसार, इस से पूर्व हुए युद्धों में लोंजिनुस बुरी तरह घायल हुआ था इसलिए उस के साथी सैनिक उसके अंधापन के लिए उसके साथ मजाक किया करते थे। जिस वक्त उसने प्रभु के बगल में छेद किया, खून का बौछार उसकी आँखों में पड़ा। तुरंत उसकी दृष्टि बहाल हुई। संत मारकुस के सुसमाचार में हम उसे सुनते हैं,”वास्तव में, यह परमेश्वर का बेटा था!”
किंवदंतियाँ यह भी बताती है कि लोंजिनुस ने सेना छोड़ दी,प्रेरितों से आध्यात्मिक सलाह ली और कप्पादोचिया में एक मठवासी सन्यासी बन गया। वहां वह अपने ख्रीस्तीय विश्वास के लिए गिरफ्तार किया गया,उसके दांतों को बाहर निकाला गया और उसकी जीभ काट दी गई। हालांकि,लोंजिनुस ने चमत्कारिक ढंग से साफ़ साफ बोलना जारी रखा और राज्यपाल की उपस्थिति में कई मूर्तियों को नष्ट करने में कामयाब रहा। मूर्तियों से निकली दुष्ट शक्तियों ने राज्यपाल को अंधा बना दिया था। लोंजिनुस ने राज्यपाल की दृष्टि चमत्कारिक रूप से कैसे बहाल की थी, इसके बारे में बताया जाता है कि उसका का सिर काट दिया गया, उसी समय उसके गर्दन से निकले खून के कुछ बूँद राज्यपाल की आँखों पर पडी और राज्यपाल तुरंत चंगा हो गया। संत लोंजिनुस कलीसिया के पहले शहीदों में से एक है। ख्रीस्त प्रभु से जुड़े कई अवशेषों में से एक लोंजिनुस का भाला भी है और इसे रोम में संत पेत्रुस के महागिरजाघर की मुख्य वेदी के ऊपर के चार स्तंभों में से एक में पाया जा सकता है।
'क्रिस्टोफर गिरजाघर में बैठकर अपने पिता का इंतजार कर रहा था| पिता ने उसे लेने का वादा किया था। वह अपने धर्म शिक्षा के शिक्षक की बातों पर सोच रहा था। शिक्षक ने कक्षा में ब्लैक मास और शैतान के उपासकों के बारे में बताया था। शैतान के ये उपासक येशु के साथ दुर्व्यवहार करते हैं और पवित्र संस्कार की रोटी या ओस्तिया को अपमानित करते हैं। उसने पहले कभी भी ब्लैक मास के बारे में नहीं सुना था और येशु के लिए उसके ह्रदय में बड़े दुःख का अनुभव हुआ।
अपने निर्दोष सोच विचार में, क्रिस्टोफर ने एक रणनीति बनाने की कोशिश की। अचानक एक छिपकली ने उसका ध्यान आकर्षित किया| भूरे रंग का एक चित्तीदार पक्षी छिपकली का शिकार करने के प्रयास में लगा था। उस पक्षी को विचलित करने के लिए छिपकली ने स्वयं अपनी पूंछ को विच्छिन्न कर दिया और उसे त्याग दिया। क्रिस्टोफर ने देखा कि कटी हुई पूंछ उलट पलट कर तड़प रही थी और भूरे रंग के पक्षी ने पूंछ को उठा लिया, यह महसूस किए बिना कि छिपकली वास्तव में वहां से भाग चुकी थी।
इसे देखते हुए क्रिस्टोफर ने सोचा, ‘अगर येशु पवित्र संस्कार से बाहर निकल आवें तो अच्छा होगा न? छिपकली की तरह अगर येशु शैतान के उपासकों से बच सके तो बढ़िया होगा न ? येशु को पवित्र संस्कार में अपनी उपस्थिति को त्याग देना चाहिए ताकि उसे दुःख और अपमान झेलना न पडे। यदि येशु ने अपनी उपस्थिति पवित्र संस्कार में से अलग कर दिया, तो प्रतिष्ठित रोटी साधारण रोटी बन जाएगी। इस तरह, शैतान उपासक, या जो लोग ब्लैक मास में भाग लेते हैं, वे येशु को अपमानित करने में सफल नहीं होंगे।‘ दोपहर बाद, जब उनके पिताजी उसे लेने आए, तो क्रिस्टोफर ने पिताजी को येशु के लिए अपनी इस नई योजना को विस्तार से और बड़ी तत्परता के साथ बताया। “पापा, येशु पवित्र संस्कार से क्यों नहीं निकल आ सकते? इस तरह, उसे दुःख झेलना नहीं पड़ेगा, ठीक है न?” क्रिस्टोफर ने पूछा।
एक पल के लिए, उसके पिता चुप थे। यह एक विचित्र प्रश्न था और उसके पिता ने इसके बारे में पहले कभी नहीं सोचा था। उसके पिता ने आखिरकार कहा। “मेरे बेटे, यीशु पवित्र संस्कार को त्यागकर बाहर निकल नहीं सकते, क्योंकि वह अपने वचन में और अपने वादे में पक्के हैं। जब पुरोहित पवित्र संस्कार को प्रतिष्ठित करते हैं, तो वे येशु के शब्दों का उपयोग करते हैं। येशुकहते हैं: ‘यह मेरा शरीर है जो तुम्हारे पापों की क्षमा के लिए अर्पित है’,इन शब्दों के द्वारा उसने हमसे एक वादा किया है।वह अपने वादे से कभी पीछे नहीं हटेगा। इसलिए, मानव जाति के लिए, वह किसी भी अपमान को सहने के लिए तैयार है। येशु ने दो हज़ार साल पहले मानव जाति को बचाने के लिए कलवारी पर पीड़ा भोगते हुए अपनी जान दे दी। वह अभी भी पीड़ा भोग रहे हैं।” क्या हमें एहसास है कि येशु हमारे पाप, अज्ञानता और अपमानपूर्ण व्यवहार के कारण पवित्र संस्कार में कितनी पीड़ा भोग रहे हैं? आइए हम ब्लैक मास में भाग लेने वाले लोगों के लिए और अन्य सभी पापियों के मन परिवर्तन के लिए प्रार्थना करें । हम संपूर्ण मानव जाति के लिए प्रार्थना करें कि सभी लोग पवित्र संस्कार में येशु का सम्मान और प्यार करें।
'