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अगस्त 20, 2021 1291 0 बिशप रॉबर्ट बैरन, USA
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“प्रभुत्व”, पश्चिम के मूल्य, और ख्रीस्त का क्रूस

लोकप्रिय इतिहासकार टॉम हॉलैंड ने ‘डोमिनियन: हाउ द क्रिश्चियन रेवोल्यूशन रीमेड द वर्ल्ड’ (प्रभुत्व, मसीही क्रांति ने किस प्रकार दुनिया का पुन:सृजन किया) नामक एक असाधारण पुस्तक लिखी है। उपशीर्षक उनके तर्क को सारांशित करता है। लेखक टॉम हॉलैंड धर्मनिरपेक्षतावादी विचारधारा के साथ असहज महसूस करते हैं| उनकी सोच शिक्षा जगत में सर्वोच्च शासन करती है और  ईसाई धर्म को एक खंडित, पुराने धर्म, एक आदिम, पूर्व-वैज्ञानिक युग से जुडा हुआ, तथा  नैतिक और बौद्धिक दोनों की प्रगति के लिए एक अवरोध के रूप में मना जाता है। वास्तव में, उनका तर्क है, ईसाई धर्म पश्चिमी दिमाग का सबसे शक्तिशाली आकार देने वाला रहा है और जारी है, हालांकि इसका प्रभाव इतना व्यापक और इतना गहरा है कि इसे आसानी से अनदेखा किया जाता है।

इसे खुले में लाने के लिए लेखक टॉम होलैंड एक  बहुत ही प्रभावी रणनीति को अपनाते हैं | उनकी सबसे  पहली रणनीति है कि  वे येशु सूली पर चढ़ाए जाने का क्या मतलब है, इसका एक क्रूर यथार्थवादी लेखांकन के माध्यम से परिचित कराते हैं तकि पाठक लोग ईसाई धर्म के बारे में एक नयी समझ विक्सित करें। उस ज़माने के लोगों की कल्पना के मुताबिक़ रोमी क्रूस पर  मौत के घाट उतार दिया जाना सबसे बुरी किस्मत थी। तथ्य यह है कि अंग्रेजी शब्द excruciating “कष्टदायी”, जो सबसे अधिक पीड़ादायक प्रकार के दर्द को दर्शाता है, लातीनी शब्द cruce  (क्रॉस)  से आता है जो काफी हद तक इस तथ्य का खुलासा करता है। लेकिन क्रूस की भयानक शारीरिक पीड़ा से अधिक पीड़ा उससे होनेवाला भयंकर अपमान से थी। नग्न किया जाना, लकड़ी के दो टुकड़ों पर कीलों से ठोंका जाना, कई घंटों या दिनों तक मरने के लिए छोड़ दिया जाना, और राहगीरों के उपहास का शिकार होना, और फिर, मृत्यु के बाद भी, क्रूसित व्यक्ति की लाश को आसमान के पक्षियों और मैदान के जानवरों के द्वारा नोचकर खा जाने के लिए छोड़ देना, ये सारी बातें बड़े अपमानजनक अनुभव को पैदा करनेवाली थीं। इसलिए, आदिम  ईसाइयों  द्वारा  क्रूस पर चढ़ाए गए एक अपराधी को ईश्वर के पुनर्जीवित पुत्र के रूप में घोषित करना, इससे अधिक हास्यपूर्ण, परेशान करने वाला और साथ साथ क्रांतिकारी संदेश नहीं हो सकता था। इसने ईश्वर, मानवता और समाज की सही व्यवस्था के बारे में प्राचीन दुनिया की सभी धारणाओं को उलट दिया। यदि ईश्वर को एक सूली पर चढ़ाए गए व्यक्ति के साथ पहचाना जा सकता है, तो इसका मतलब है कि  मानव परिवार के सबसे छोटे और सबसे भूले हुए सदस्य भी प्रेम के योग्य हैं। और यह सही है कि येशु के प्रारम्भिक अनुयायियों ने न केवल इस सत्य की घोषणा की, बल्कि बेघर, बीमार, नवजात और वृद्धों की देखभाल करके इसे ठोस रूप से उन्होंने जीया और येशु के संदेश को और भी क्रांतिकारी बना दिया।

हालांकि हॉलैंड ने उन बाकी सारे तरीकों पर गौर किया जिनके द्वारा ईसाई दर्शन ने पश्चिमी सभ्यता को प्रभावित किया, फिर भी हॉलैंड ने पाया कि क्रूसित येशु की छवि से निकलने वाली अवधारणा सबसे ज़्यादा प्रभावशाली रही है। हॉलैंड के मुताबिक हम यह अक्सर भूल जाते हैं कि हर व्यक्ति आदर सम्मान के योग्य है, कि सब मनुष्य सामान्य अधिकार और प्रतिष्ठा के धारक हैं, कि करुणामय प्रेम मानव संवेदनाओं में सबसे ज़्यादा सराहनीय भाव है। और यही भाव सदियों से हमारे ईसाई समुदाय का सबसे सरल, सबसे महत्वपूर्ण अंग रहा है, चाहे हम यह माने, या ना माने। इस बात का सबूत हम उन प्राचीन सभ्यताओं में प्राप्त कर सकते हैं, जहां ऐसी संवेदनाएं मौजूद नहीं थी। और आज भी देखें तो ऐसी कई संस्कृतियां हैं जो ईसाइयत से निर्मित नहीं है लेकिन इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता कि वहां भी ख्रीस्तीय भाव सराहे जाते हैं।

हॉलैंड अपनी किताब में ज़्यादातर पश्चिमी इतिहास के उन महत्वपूर्ण अवधियों की बात करते हैं जो क्रूस की अवधारणा के प्रभाव को दर्शाती है। मैं उनके पश्चिमी ज्ञानोदय के अध्ययन पर विशेष ध्यान दूंगा | ज्ञानोदय , जिनके राजनीतिक मूल्य सुसमाचार के अलावा अकल्पनीय हैं, और पीड़ितों और हाशिए पर रहने वाले लोगों की पीड़ा पर केन्द्रित समकालीन विभिन्न “जागृत” आंदोलन एक ऐसी संस्कृति का फल है, जिसके केंद्र पर   दो हजार वर्षों से, एक क्रूस की लकड़ी पर चढ़ाया गया और अन्यायपूर्ण रूप से निंदा किया गया व्यक्ति रहा है।

मुझे वह भाग सबसे प्रिय है जहां हॉलैंड  बीटल्स बैंड के सुप्रसिद्ध गाने “ऑल यू नीड इज लव” की चर्चा करते हैं, जिसे उन्होंने सन 1967 में एबी रोड पर एक बड़ी भीड़ के सामने गाते हुए रिकॉर्ड किया था। उस गाने के भाव ऐसे हैं जिस पर ना तो कैसर अगस्तस, ना चंगेज़ खां और ना ही फ्रेडरिक नीत्शे की सोच विचार मेल खायेगा, बल्कि उस गीत का सार काफी हद तक संत अगस्तीन, संत थॉमस एक्विनस, असिसी के संत फ्रांसिस और प्रेरित संत पौलुस के विचारों से मेल खाता है। कोई चाहे या ना चाहे, ईसाई आंदोलन ने बड़े भारी रूप में पश्चिम की छवि को बदला है और जिस नज़रिए से हम दुनिया को देखते हैं, उसको रूप प्रदान करने में बड़ा योगदान दिया है ।

हॉलैंड की यही बातें उसकी किताब का नब्बे प्रतिशत हिस्सा हैं – जिससे मैं पूरी तरह सहमत भी हूं। वह जिन बातों का दावा करता है वे ना केवल सच हैं, बल्कि वे वर्तमान काल के लिए महत्वपूर्ण हैं। क्योंकि वर्तमान काल में ईसाई धर्म को अक्सर अलग या किनारे रखा जाने लगा है। गौरतलब है कि मेरे लिए, यह पूरी किताब तब पलटती सी मालूम हुई जब आखिर में लेखक ने इस बात को माना कि ना तो वे किसी ईश्वर को मानते हैं, और ना ही पुनरुत्थान में विश्वास रखते हैं। ईसाई विश्वास ने जिन आंदोलनों को जन्म दिया, उन्हें लेखक झुठला नहीं सकते हैं, लेकिन उस विश्वास की पुष्टि करना लेखक के बस में नहीं है। आजकल सामाजिक व्यवस्था को धार्मिक संवेदनाओं से अलग कर के देखना आधुनिक दर्शन शास्त्रियों में बहुत ही प्रचलित तरीका है। इमैनुअल कान्त और थॉमस जेफर्सन जैसे प्रसिद्ध दर्शन शास्त्रियों ने ऐसा किया है। लेकिन यह एक निरर्थक प्रयास है, क्योंकि ख्रीस्तीय मूल्यों को इतिहास से पूरी तरह अलग नहीं किया जा सकता। अगर कोई ईश्वर नहीं है, और येशु मृतकों में से नहीं जी उठे, तो फिर यह कैसे मुमकिन है कि इस दुनिया में हर व्यक्ति अनंत आदर का हकदार है और अनेक अधिकारों से सुशोंभित है? अगर कोई ईश्वर नहीं है और मसीह कभी नहीं जी उठे तो हम क्यों यह नहीं कहते हैं कि अपने क्रूस की शक्ति से कैसर जीत गया? शायद लोग येशु को बस एक धार्मिक शिक्षक और एक साहसी व्यक्ति के रूप में सराहते होंगे, पर अगर वे मर कर कब्र में ही रह गए होते तो आज भी उनका बुरा करने वालों का राज होता, और अपना हक मांगने वालों पर दुनिया हंसा करती।

यह बात इतिहास की किताबों में कैद है, कि जब शुरू शुरू में ईसाइयों ने सुसमाचार का प्रचार करना शुरू किया, तब वे मानव अधिकारों की बात नही कर रहे थे; वे केवल उस येशु की बात कर रहे थे जो पवित्र आत्मा के द्वारा मृतकों में से जिलाए गए थे। वे बस इस बात का प्रचार कर रहे थे कि जिसे कैसर के राज ने मौत दी, उसे ईश्वर ने फिर से जीवित किया। टॉम हॉलैंड अपनी जगह बिल्कुल सही हैं कि पश्चिमी सभ्यता में कई सियासी और सामाजिक बदलाव ख्रीस्त के द्वारा ही आए हैं। पर जिस प्रकार कागज़ के फूल पानी में ज़्यादा देर टिक नहीं सकते, उसी तरह येशु के क्रूस से नहीं निकलने वाले विचार बदलते समय के सामने ज़्यादा समय तक टिक नही पाएंगे।

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बिशप रॉबर्ट बैरन

बिशप रॉबर्ट बैरन लेख मूल रूप से wordonfire.org पर प्रकाशित हुआ था। अनुमति के साथ पुनर्मुद्रित।

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