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अक्टूबर 27, 2021 315 0 बिशप रॉबर्ट बैरन, USA
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क्या पीड़ा हमारे विश्वास को हिला सकती है?

इंग्लैंड के प्रमुख क्रिश्चियन रेडियो ने एक सर्वेक्षण कराया जहां उन्होंने इस बात की जांच करने की कोशिश की, कि कोरोना महामारी ने धार्मिक विश्वास और पूजा पाठ को किस तरह प्रभावित किया। इस सर्वेक्षण में तीन बातों का पता चला – पहली बात यह कि सड़सठ प्रतिशत लोग जो कि खुद को धार्मिक समझते हैं उनके ईश्वर पर विश्वास को इस महामारी ने चुनौती दी। एक चौथाई लोगों ने यह कहा कि इस महामारी ने उनके मन में मौत का डर पैदा कर दिया। और एक तिहाई लोगों ने यह माना कि उनका आध्यात्मिक जीवन कोरोना के कारण बुरी तरह प्रभावित हुआ। जस्टिन ब्रायरली, जो कि लोकप्रिय कार्यक्रम “अनबिलीवेबल” (अविश्वसनीय) की मेज़बानी करते हैं, उन्होंने यह टिप्पणी की कि उन्हें इस बात ने प्रभावित किया कि किस तरह कोरोना की वजह से अनेक लोगों को ईश्वर के प्रेम पर विश्वास करने में मुश्किल हुई। मैं भी इसी विषय पर बात करना चाहता हूं।

यह सच है कि मैं कुछ हद तक इस समस्या को समझ पा रहा हूं। ईश्वर पर विश्वास करने के बीच जो सबसे बड़ी बाधा है, वह है मानव पीड़ा और खासकर तब, जब हम मासूमों पर अत्याचार होते देखते हैं। नास्तिक लोग हमेशा धार्मिक लोगों से यह सवाल करते हैं कि, “कोई एक प्रेममय ईश्वर पर विश्वास क्यों और कैसे करे, जब दुनिया में विध्वंस, नरसंहार, प्रलय, विश्वयुद्ध और महामारी से हजारों, लाखों लोगों ने अपनी जान गंवाई है।” पर मैं यह भी स्वीकारूंगा कि एक तरह से, मुझे यह बहस बेबुनियाद लगती है, और बाइबिल पर आधारित शिक्षा के आधार पर और ख्रीस्तीय धर्म की शिक्षाओं को औरों को पढ़ानेवाले एक कैथलिक बिशप की हैसियत से मैं कहता हूं कि यह बहस बेबुनियाद है: क्योंकि मुझे नहीं लगता कि कोई भी व्यक्ति जो पवित्रशास्त्र को ध्यान से पढ़ता है, वह आसानी से इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है कि एक प्रेमपूर्ण परमेश्वर में विश्वास रखने का मतलब किसी भी तरह से मानव पीड़ा को झुठलाना नहीं है।

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि ईश्वर नूह से प्रेम रखते थे, पर फिर भी उन्होंने नूह को उस जल प्रलय में जूझने दिया, जिस प्रलय ने पृथ्वी के लगभग सारे जीव जंतुओं का नाश कर डाला। इस बात पर कोई शक नहीं है कि ईश्वर अब्राहम से बहुत प्यार करते थे, फिर भी ईश्वर उससे अपने इकलौते बेटे इसहाक की बलि चढ़ाने को कहते हैं। देखा जाए तो बाइबिल के इतिहास में शायद ईश्वर ने मूसा से सबसे ज़्यादा प्रेम रखा, फिर भी मूसा को प्रतिज्ञात देश में कदम रखने की इजाज़त नहीं मिली। दाऊद ईश्वर की आंखों का तारा समझा जाता था, दाऊद की मधुर आवाज़ इज़राइल की शान थी, फिर भी ईश्वर ने दाऊद को उसके बुरे कर्मों और उसकी बुरी नीयत के लिए दंडित किया। यिरमियाह को खास तौर पर ईश्वर ने अपने दिव्य वचन का प्रचार करने के लिए चुना था, फिर भी वह अस्वीकृत और निष्कासित किया गया था। इज़राइल देश ईश्वर की चुनी हुई प्रजा है, वह देश ईश्वर का प्रतिज्ञात देश है, फिर भी ईश्वर ने कई बार इज़राइल को गुलाम होने दिया है, इज़राइल ने सदियों से कई युद्ध, कई त्रासदियां झेली हैं। और तो और, ईश्वर ने अपने इकलौते पुत्र को मानव उद्धार के लिए क्रूस पर बलि चढ़ने दिया।

इसी तरह वह बात, जो आज विश्वासियों और गैर-विश्वासियों दोनों के लिए कुछ दर्जे तक असंगत है, वह यह है कि बाइबल के लेखकों ने एक प्रेमपूर्ण परमेश्वर के अस्तित्व को मानव पीड़ा से कभी जोड़ कर नहीं देखा। बाइबिल दोनों ही बातों को झुठलाती नहीं है, फर्क बस इतना है कि वह इन दोनों बातों को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा नहीं करती। बल्कि बाइबिल इन दोनों बातों की सराहना करती है और इन सब बातों को जीवन के रहस्य के रूप में देखती है, कि ईश्वर की योजनाएं कितनी भिन्न और कितनी गहरी होती हैं। उदाहरण के तौर पर, कभी कभी बाइबिल के लेखकों ने मानव पीड़ा को पापी लोगों पर भेजी हुई ईश्वर की सज़ा के रूप में देखा। कभी कभी मानव पीड़ा के द्वारा ईश्वर ने अपनी प्रजा का शुद्धीकरण किया। कभी कभी मानव पीड़ा ने भविष्य में आने वाली आशिषों के द्वार खोले। पर बाइबिल के लेखकों ने यह भी माना कि ज़्यादातर परिस्थितियों में हमें इस बात का ज़रा सा भी अंदाज़ा नहीं होता कि मानव पीड़ा ईश्वर की योजना में क्या भूमिका निभा रही होती है। और ऐसा इसलिए है, क्योंकि हमारी सीमित सोच और सीमित ऐतिहासिक जानकारी ईश्वर के उस असीमित मन को समझने के काबिल ही नहीं, जो इस ब्रम्हांड का सृष्टिकर्ता और संचालक है। देखा जाए तो अय्यूब का ग्रंथ इन्हीं सारी बातों की चर्चा करता है। जब अय्यूब अपनी दुख तकलीफों के लिए ईश्वर को दोषी ठहराता है, तब ईश्वर एक लंबे प्रवचन के द्वारा अय्यूब को जवाब देता है। यह प्रवचन पूरे बाइबिल में ईश्वर का सबसे लंबा प्रवचन है और इसमें ईश्वर अय्यूब को याद दिलाता है कि ईश्वर के कितने ही ऐसे कार्य हैं जिनका मकसद समझने में मनुष्य जाति असमर्थ है। “तुम कहां थे जब मैंने पृथ्वी की नींव रखी…”

एक बार फिर से, बाइबिल के लेखकों को चाहे मानव पीड़ा के पीछे का मकसद समझ आया या नही आया, फिर भी किसी भी लेखक ने कभी भी यह कहने की कोशिश नहीं की, कि अगर मानव जाति पीड़ा में हैं तो इसका मतलब यह है कि ईश्वर हमसे प्यार नहीं करते। इन लेखकों ने शिकायतें की, शोक मनाया पर यह सब उन्होंने ईश्वर की उपस्थिति में किया, क्योंकि उनका ईश्वर और उसके अनंत प्रेम पर गहरा विश्वास था। मुझे इस बात पर भी कोई शक नहीं है कि आजकल कई लोग ऐसा सोचते हैं कि मानव पीड़ा लोगों को ईश्वर पर विश्वास करने से रोकती है। पर मेरा मानना है कि ऐसा इसीलिए है क्योंकि आजकल के धार्मिक अगुवे, लोगों को धर्मग्रंथ की सही और सशक्त शिक्षा देने में असमर्थ रहे हैं। क्योंकि अगर आपको मानव पीड़ा का दुख ईश्वर के प्रेम से दूर करता है, तो इसका सीधा मतलब यह है कि आपने कभी बाइबिल में उपस्थित ईश्वर पर विश्वास ही नहीं किया।

मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मेरा मकसद मानव पीड़ा को नकारना या छोटा दिखाना नहीं है। ना ही मैं उस मानसिक तनाव को झुठलाने की कोशिश कर रहा हूं जो मानव पीड़ा से उपजती है। मेरा मकसद सिर्फ लोगों को ईश्वर के रहस्य की गहराई की ओर आने के लिए प्रेरित करना है। जिस प्रकार याकुब ने रात भर स्वर्गदूत से कुश्ती लड़ी, उसी प्रकार हमें भी अपने विश्वास को कमज़ोर होने देने की जगह ईश्वर के साथ संघर्ष करना चाहिए। हमें अपनी दुख तकलीफों को ईश्वर के दिव्य प्रेम से दूर जाने का ज़रिया नहीं बनने देना चाहिए। पर हमें उसे जीवन के एक अभिन्न और अकल्पनिक भाग के रूप में देखना चाहिए। यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि अय्यूब की तरह हम ईश्वर के सामने धरना दे कर अपनी बात रखने की कोशिश करें। पर अगर हम ऐसा करते है तो फिर हमें अय्यूब की ही तरह ईश्वर के प्रवचन को सुनने और अपनाने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।

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बिशप रॉबर्ट बैरन

बिशप रॉबर्ट बैरन लेख मूल रूप से wordonfire.org पर प्रकाशित हुआ था। अनुमति के साथ पुनर्मुद्रित।

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