- Latest articles

उनके पास ज्यादा समय नहीं बचा था, लेकिन फादर जॉन हिल्टन ने प्रभि की प्रतिज्ञाओं पर भरोसा करते हुए जीवन जिया, और इस तरह लाखों लोगों को प्रेरित करने और जीवन बदलने में कामयाब हुए।
मेरी जीवन यात्रा बहुत आसान नहीं रही है, लेकिन जिस क्षण से मैंने येशु का अनुगमन करने का फैसला किया, उसके बाद मेरा जीवन कभी भी पहले जैसा नहीं रहा है। मैं अपने सामने प्रभु ख्रीस्त का क्रूस है और मेरे पीछे वह दुनिया है जिसे मैं ने त्याग दिया है, इसलिए मैं दृढ़ता से कह सकता हूं, “पीछे हटने का नाम नहीं लूंगा …”
मेंटोन के बीड्स कॉलेज में अपने स्कूली दिनों के दौरान, मुझे अन्दर से एक मजबूत बुलाहट महसूस हुई। ब्रदर ओवेन जैसे महान गुरुओं ने येशु के प्रति मेरे ह्रदय में प्यार के बीज को अंकुरित और पल्लवित किया। 17 साल की छोटी सी उम्र में, मैं सेक्रेड हार्ट मिशनरीज धर्मं समाज में शामिल हो गया। कैनबरा विश्वविद्यालय में अध्ययन और मेलबर्न में ईशशास्त्र की डिग्री सहित 10 वर्षों के अध्ययन के बाद, मैं अंततः पुरोहित के रूप में अभिषिक्त हुआ।
भाग्य के साथ एक मुलाक़ात
मेरी पहली नियुक्ति पापुआ न्यू गिनी में हुई थी, जहां मुझे साधारण लोगों के बीच रहने का एक व्यावहारिक आधार मिला जिसकी वजह से वर्तमान क्षण में जीने की एक महान भावना का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। बाद में, मुझे धार्मिक विधि का अध्ययन करने के लिए पेरिस भेजा गया। तनाव और सिरदर्द के कारण रोम में डॉक्टरेट की पढ़ाई बाधित हुई और मैं इसे पूरा नहीं कर पाया। और जल्द ही यह स्पष्ट हो गया कि मेरी बुलाहट सेमनरी में पढ़ाने की नहीं है। ऑस्ट्रेलिया वापस आने पर, मैं पल्ली सेवकाई करने लगा और देश भर के कई अलग-अलग राज्यों में 16 पल्लियों का अनुभव मीठा अनुभव पाया। विवाह और पारिवारिक जीवन को पोषित और पुनर्जीवित करनेवाले दो शानदार अभियानों के साथ भागीदारी करने से मेरे अन्दर बड़ी ऊर्जा और स्फूर्ति आई: वे हैं- टीम्स ऑफ अवर लेडी और मैरिज एनकाउंटर।
अपने सेवा कार्य में मैं ने आत्म संतुष्टि का अनुभव किया। जीवन बहुत अच्छा चल रहा था। लेकिन 22 जुलाई 2015 को अचानक सब कुछ बदल गया। यह पूरी तरह से अचानक नहीं था। पिछले छह महीनों से, मैंने कई मौकों पर अपने पेशाब में खून पाया था। लेकिन अब मैं मूत्र विसर्जन कर भी नहीं पा रहा था। आधी रात में, मैं खुद अस्पताल चला गया। कई परीक्षणों के बाद, मुझे एक चौंकाने वाली खबर मिली। मुझे किडनी का कैंसर हो गया है जो अब तक चौथे चरण में पहुंच चुका था। मैं सदमे की स्थिति में था। मैं सामान्य लोगों से कटा हुआ महसूस कर रहा था। डॉक्टर ने मुझे सूचित किया था कि दवा के सेवन करने पर भी, मेरे जीने की उम्मीद केवल साढ़े तीन साल तक थी। मैं अपनी बहन के छोटे-छोटे बच्चों के बारे में सोचता रहा कि मैं इन आकर्षक बच्चों को बढ़ते हुए भविष्य में नहीं देख पाऊँगा।
मुझे प्रातःकाल में ध्यान-मनन करना अच्छा लगता था, लेकिन जब से यह संकट आया, तब से मुझे ध्यान और मनन चिंतन के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा। कुछ दिन बाद, मुझे ध्यान करने का एक आसान तरीका मिल गया। ईश्वर की उपस्थिति के सामने आराम करते हुए, विख्यात कवि डांते से प्रेरणा लेकर मैं ने एक मंत्र दोहराया, “तेरी इच्छा ही मेरी शांति है।” ध्यान-मनन के इस सरल रूप ने मुझे ईश्वर में अपनी शांति और विश्वास बहाल करने में सक्षम बनाया। लेकिन जैसा कि मैं अपने सामान्य दिनचर्या को करने लगा, मुझे यह और अधिक कठिन लगा। ‘मैं ज्यादा दिन तक नहीं रहूंगा …’, इस तरह के विचारों से मैं अक्सर विचलित हो जाता था।
सबसे अच्छी सलाह
तीन महीने के उपचार के बाद, दवा ठीक से काम कर रही है या नहीं, यह देखने के लिए जांच की गयी। परिणाम सकारात्मक थे। अधिकांश हिस्सों में कैंसर की उल्लेखनीय कमी आई थी, और मुझे सलाह दी गई थी कि क्षतिग्रस्त गुर्दे को निकालने के लिए एक सर्जन से परामर्श कर लूं। मुझे एक राहत की अनुभूति हुई, क्योंकि मेरे दिमाग में बराबर यह सवाल उठता था कि क्या दवा वास्तव में काम कर रही है या नहीं। तो यह वाकई बहुत अच्छी खबर थी। ऑपरेशन के बाद, मैं स्वस्थ हो गया और एक पल्ली पुरोहित के रूप में लौट आया।
इस बार, मैं सुसमाचार प्रचार के प्रति अधिक ऊर्जावान महसूस कर रहा था। न जाने कब तक मैं इस काम को कर पाऊंगा, ऐसा सोचकर मैंने अपना सम्पूर्ण ह्रदय उन सारी बातों में लगा दिया जिन्हें मैं ने शुरू किया था। हर छह महीने में, मेरा स्वास्थ्य परीक्षण किया जाता था। शुरुआत में परिणाम अच्छे रहे, लेकिन कुछ समय बाद, मैं जो दवा ले रहा था वह कम असर करने लगी। मेरे फेफड़ों में और मेरी पीठ में कैंसर बढ़ने लगा, जिससे मुझे सियाटिका हो गई और मुझे चक्कर आने लगे। कीमोथेरेपी से मुझे गुजरना पड़ा और एक नया इम्यूनोथेरेपी उपचार शुरू करना पड़ा। यह निराशाजनक था, लेकिन आश्चर्य की बात नहीं थी। कैंसर से पीड़ित कोई भी व्यक्ति जानता है कि हालात बदल जाती हैं। आप एक पल ठीक हैं तो अगले ही पल आपदा आपको जकड ले सकती है।
मेरी एक खूबसूरत मित्र कई सालों से ऑन्कोलॉजी विभाग में नर्स रही है। उसी ने मुझे सबसे अच्छी सलाह दी: जितना हो सके अपने जीवन को सामान्य रूप से जीते रहें। यदि आप कॉफी का आनंद लेते हैं, तो कॉफी लें, या दोस्तों के साथ भोजन कर लें। सामान्य चीजें करते रहें।
मुझे पुरोहित का कार्य करना पसंद था और हमारी पल्ली में हो रही अद्भुत बातें मुझे उत्साहित करती थीं। हालांकि पहले की तुलना में अब जीवन यात्रा आसान नहीं थी, फिर भी मैंने जो भी किया मैं उसे पसंद करता था। मैं हमेशा मिस्सा बलिदान को अर्पित करना और संस्कारों का अनुष्ठान करना पसंद करता था। इन बातों को मैंने अपने जीवन में बहुत मूल्य दे रखा है और मैं इस महान कृपा के लिए ईश्वर का हमेशा आभारी हूं।
क्षितिज से परे
मेरा दृढ़ विश्वास था कि गिरजाघर में आने वाले लोगों की घटती संख्या की समस्या को दूर करने के लिए हमें सक्रिय होकर अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है। अपनी पल्ली में हमने रविवार की आराधना में और अधिक लोगों की भागीदारी हो इसके लिए प्रयास किया। चूँकि मैं कलीसिया की मननशील पक्ष से हमेशा प्यार करता आया था, इसलिए मैं अपनी पल्ली में थोड़ा सा मठवासी भावना लाकर उसे प्रार्थना और शांति से भरपूर मरुस्थल का उद्यान बनाना चाहता था। इसलिए प्रत्येक सोमवार की रात, हमने आनंददायक मननशील संगीत के साथ, मोमबत्ती की रोशनी में मिस्सा बलिदान का आयोजन किया। प्रवचन देने के बजाय, मैंने मनन चिंतन का एक पाठ पढ़ा।
मैट रेडमैन द्वारा गाया गया ग्रैमी विजेता एकल गीत “10,000 कारण” (ब्लेस दि लार्ड) ने मुझे गहराई से स्पर्श किया है। जब भी मैं गीत का तीसरा छंद गाता, भावुक होकर मेरा दम घुट जाता था।
और उस दिन
जब मेरी ताकत विफल हो रही है
अंत निकट आता है
और मेरा समय आ गया है
फिर भी मेरी आत्मा
तेरी स्तुति गाएगी
अंतहीन दस हजार साल
और फिर
सदा सर्वदा के लिए
मुझे यह गीत बहुत ही हृदयस्पर्शी लगा, क्योंकि हम अंततः जो करने की कोशिश कर रहे हैं वह परमेश्वर की स्तुति और येशु के साथ हमारे संबंध को मज़बूत करना है। बीमारी के बावजूद, एक पुरोहित के रूप में यह मेरे जीवन का सबसे रोमांचक समय था। इस स्थिति ने मुझे येशु द्वारा कहे गए शब्दों की याद दिला दी, “मैं इसलिए आया हूं कि वे जीवन प्राप्त करें, और परिपूर्ण जीवन प्राप्त करें।” योहन 10:10
—————————————————————————————————————-
“मेरे पति कैथलिक नहीं हैं और कैथलिक विश्वास के बारे में अभी अभी सीखना शुरू किया है; संयोग से उनकी मुलाक़ात फादर जॉन से हुई। बाद में उन्होंने कहा “मैं येशु नामक व्यक्ति के बारे में जो जानता हूं,… फादर जॉन उसके जैसे ही लगते हैं। यह जानना कि आप मरने वाले हैं और इसके बावजूद आप अपने आप को अधिक से अधिक दूसरों को देना जारी रखते हैं, भले ही आपके आस-पास के लोगों को यह एहसास न हो कि ये आपके अंतिम दिन हैं… यह वाकई अद्भुत है”
- कैटिलिन मैकडॉनेल
फादर जॉन जीवन में अपने लक्ष्य को लेकर बिलकुल स्पष्ट थे। वह एक सर्वगुण संपन्न अगुवा थे और उन्होंने येशु को इस दुनिया में वास्तविक बनाया। मैं अक्सर सोचता था कि अगर वे अपने विश्वास और मूल्यों के मामले में मजबूत नहीं होते तो क्या होता। यह उनके लिए भले ही काफी चुनौतीपूर्ण रहा हो लेकिन हर रविवार जब हम उनसे मिले तो उनमें वही ऊर्जा थी। उनके आस-पास या उनके साथ, या उन पर जो कुछ भी हुआ, लेकिन उनके अन्दर और उनकी चारों तरफ शांति ही विराजती थी। यह हम सब के लिए एक अविश्वसनीय उपहार था।
- डेनिस होइबर्ग
हमें बार बार उन्हें याद दिलाना पड़ता था कि उनकी सीमाएँ थीं, लेकिन इस के बावजूद उनका रफ्तार कभी कम नहीं हुआ। वे एक प्रेरणा थे, क्योंकि यहां एक व्यक्ति है जिसे बताया गया है कि आपके पास सीमित समय है। फिर भी वे अपनी बीमारी से उबरने और उसके बारे में सोचने के बजाय अपने आप को दूसरों को देते रहे।
'
तलाश का हर पल एक साक्षात्कार का पल है। जीवन-परिवर्त्तन के उन पलों को पहचानिए।
संत पापा फ्रांसिस अपने परिपत्र का शुभारम्भ इस पंक्ति से शुरू करते हैं: “सुसमाचार का आनंद उन सभी लोगों के दिल और जीवन को भर देता है जिनका येशु से साक्षात्कार होता है।“ इसके बाद वे बड़ी हिम्मत के साथ आमंत्रण देते हैं: “सभी ख्रीस्तीय, हर जगह, इसी पल, येशु ख्रीस्त के साथ साक्षात्कार के लिए बुलाये गए हैं, नहीं तो उनके साथ साक्षात्कार के लिए येशु को अनुमति देने के लिए वे कम से कम अपने दिल के दरवाजा खुला रखें ….. ।“
“साक्षात्कार” शब्द संत पापा फ्रांसिस के लिए आत्मिक जीवन की एक कुंजी है, और यह शब्द मेरी आनेवाली आत्मिक साधना के मूल विषय के रूप में मुझे प्रकट हुआ।
भटकाव
हमारे समाज में वास्तविक साक्षात्कार को पोषित नहीं किया जाता है। टी. वी. स्क्रीन पर हो रही गतिविधियों में हम डूब जाते हैं, निरर्थक गपशप और कार्यकलाप आपसी साक्षात्कार में बाधा बनते हैं। हम दूसरे व्यक्ति के अन्दर की बातों को समझने के लिए समय नहीं निकाल पाते हैं, बल्कि अक्सर उसके बाहरी बातों के आधार पर उसके बारे में हम फैसला लेते हैं।
मेरे पांच दिवसीय आत्मिक साधना के दौरान मैं ने प्रतिदिन के मनन-चिंतन के लिए आनंद के पांच रहस्यों में से रोज़ एक रहस्य को चुना। प्रात:काल के शारीरिक कसरत के दौरान मैं ने हर रहस्य पर मनन-चिंतन किया और उस रहस्य को एक नया नाम दिया:
– मरियम के साथ महादूत गाब्रियल का साक्षात्कार।
– मरियम का एलिज़ाबेथ, येशु और योहन के साथ साक्षात्कार।
– मरियम और जोसफ के साथ येशु का पहला आमने-सामने साक्षात्कार।
– जब मंदिर में येशु लाये गए, तब शिमोन, फिर अन्ना के साथ साक्षात्कार।
– येशु को खोने और खोजने के बाद मरियम और जोसफ का साक्षात्कार।
जब मेरा मन भटक जाता, तो मैं अपना ध्यान वापस मुख्य साक्षात्कार की ओर केन्द्रित करती।
मेरी आत्मा के भीतर
कभी कभार, मैं जब भजन संहिता और दनिंक प्राथना बोलती हूँ और पूरी तरह ध्यान नहीं दे पाती हूँ, तब मैं इसे पिता के साथ, येशु के साथ, पवित्र आत्मा के साथ, मरियम के साथ, या संतों के साथ एक साक्षात्कार के रूप में फिर से स्थापित करने की कोशिश करती हूं। कभी-कभी, एक मजबूत भटकाव मुझे गुमराह कर दूर ले जाता है। उदाहरण के लिए, यदि मैं किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में सोचती हूँ जिसने मुझे चोट पहुँचाई है, और अनजाने में ही उस आक्रोश को अपने अंदर प्रवेश करने देती हूँ, तो मुझे प्रभु की चंगाई का साक्षात्कार पाने की आवश्यकता है। अक्सर जो बात हमें किसी और के बारे में परेशान करती है, वही बात वास्तव में हमारे अपने बारे में ही कुछ दर्शाती है। इसलिए, हमें खुद से पूछना चाहिए: “इस व्यक्ति के बारे में मेरा गुस्सा या नाराजगी मुझे अपने बारे में क्या बताती है?”
येशु के साथ दोस्ती निभाएं
स्वयं को शुद्ध करने, व्यवस्थित और संगठित करने के मेरे सतत् प्रयासों में, अपने से यह सवाल पूछने से मुझे लाभ मिला है: “क्या यह पुस्तक, कागज, सी.डी., फोटो, वास्तव में बहुत उपयोगी है, या क्या मैं इस का सही उपयोग किए बिना इसे अपने साथ निरंतर ले चली हूँ? अगर मेरा इस के साथ साक्षात्कार नहीं हुआ है, तो क्या मैं इसे छोड़ सकती हूं, इसे बाहर फ़ेंक सकती हूं, या इसका कुछ बेहतर उपयोग कर सकती हूं?”
प्रतिदिन मेरी प्रार्थना है कि वास्तव में येशु से गहराई से मुलाकात की जाए, फिर बाहर जाकर उन लोगों से मुलाकात की जाए जिनमें वह वास्तव में मौजूद हैं। जैसा कि संत पापा फ्राँसिस कहते हैं: हमें “मसीह की मित्रता और उनके संदेश का आनंद लेने के निरंतर नए अनुभव के साथ हमें स्वयं को संपोषित करना चाहिए, …. हमें व्यक्तिगत अनुभव के द्वारा आश्वस्त होने की ज़रुरत है कि येशु को जानना और उसे नहीं जानना दोनों में बहुत अंतर है …..।
हम प्रार्थना करते हैं कि धन्य कुँवारी मरियम हमारी मदद करेगी जैसा उसने किया: “हे माँ मरियम, सुसमाचार की घोषणा करने के लिए हमें अपनी और से ‘हां’ कहने में, और दूसरों की सेवा के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करने में हमारी मदद कर!”
'
जब दुख का पहाड़ आप पर गिरता है…
जैसे ही मेरी बेटी सोने के लिए बिस्तर पर लेटी थी, मैंने उसके मासूम चेहरे को देखा, और मेरा दिल पिघल गया। मैं उसे अपने करीब लायी और उसके माथे को चूमा, और उसी समय मैंने अचानक दिल का दर्द महसूस किया और उसके लिए मैं खूब रोयी। अपने सात वर्षों के छोटे जीवन में, वह कई अस्पतालों में रही, उसने कई स्वास्थ्य चुनौतियों का सामना किया। हम जिस आघात से गुज़रे, वह मेरे दिमाग में ताज़ा था, खासकर उस दिन जब उसकी जांच रिपोर्ट में उसे स्थायी मस्तिष्क क्षति का गंभीर रोग होने की खबर हमें मिली। उसका जीवन किस तरह आनंद विहीन होगा, ऐसा सोचते हुए मेरा दिल टूट गया। मैं सोचती थी कि मैं भावनात्मक रूप से बहुत मजबूत थी, लेकिन मैं मज़बूत नहीं थी।
स्विस-अमेरिकी मनोचिकित्सक, एलिजाबेथ कुबलर-रॉस के अनुसार, दुःख के 5 चरण हैं: इनकार, क्रोध, सौदेबाजी, अवसाद और स्वीकृति।
दुःख के प्रति हमारी पहली प्रतिक्रिया इनकार है। जो घटना हुई, उसके सदमे में, हम नई वास्तविकता को स्वीकार नहीं करना चाहते हैं।
दूसरा चरण क्रोध है। हम इस असहनीय स्थिति और इसके कारण होनेवाली किसी भी बात पर क्रोधित हो जाते हैं, यहाँ तक कि अपने आस-पास के लोगों के प्रति, या ईश्वर के प्रति बेवजह गुस्सा करते हैं।
जैसे ही हम अपनी नई वास्तविकता से बचना चाहते हैं, हम तीसरे चरण में प्रवेश करते हैं: वह है सौदेबाजी। उदाहरण के लिए, हम संकट और उससे संबंधित दर्द को टालने के लिए ईश्वर के साथ एक गुप्त सौदा करने का प्रयास कर सकते हैं।
चौथा चरण अवसाद है। जैसे-जैसे वास्तविकता धीरे-धीरे सामने आती है, हम अक्सर अपने लिए खेद महसूस करते हैं, सोचते हैं कि हमारे साथ ये सब क्यों होता है। अवसाद की भावना अक्सर स्वयं पर दया और पीड़ित की तरह महसूस करने में होती है।
पांचवें चरण में स्वीकृति आती है, क्योंकि हम दुःख के कारण के बारे में जानते हैं और भविष्य पर ध्यान देना शुरू करते हैं।
अप्रत्याशित आवर्तन
एक बार जब हम अपने दुःख से निपटने के लिए स्वीकृति की अवस्था में पहुँच जाते हैं, तो हम पुन: ऊर्जा प्राप्त करने की स्थिति की ओर बढ़ते हैं। इस चरण में हम अपने आप पर, अपनी भावनाओं पर और अपनी हालात पर पूर्ण नियंत्रण रखते हैं और यह सोचने लगते हैं कि आगे बढ़ने के लिए हमें क्या क्या करना चाहिए।
मेरी बेटी के स्वास्थ्य की हालात में, मैंने इन चारों चरणों से होकर आगे बढ़ी थी और मुझे लगा कि मैं पुन: ऊर्जा पाने की स्थिति में थी: अपने जीवन के लिए ईश्वर की योजना में निरंतर विश्वास और आशा बनाए रखती हुई, प्रत्येक दिन के अनुभवों से प्रेरणा पाती हुई मैं अपनी भावुकताओं को अनुशासन में बनाए रखने में सक्षम हो रही थी। लेकिन हाल ही में मैंने दु:ख और निराशा के अचानक, गंभीर आवर्तन का अनुभव किया। मैं पूरी तरह टूटी और बिखरी हुई महसूस कर रही थी ।
मेरा दिल बेटी के लिए इतना दुखी था कि मैं बस चीखना चाहती थी; “हे ईश्वर, मेरी बच्ची को क्यों ये सब भुगतना पड़ता है? उसे इतना कठिन जीवन क्यों जीना पड़ रहा है? वह भयंकर पीड़ा भोग रही है क्या यह उचित है? आजीवन दूसरों पर निर्भर रहकर उसे अपना जीवन क्यों बिताना पड़ता है? उसके जीवन में उसे इतना संघर्ष क्यों करना पड़ रहा है?” जैसे ही मैंने उसे अपने पास रखा, मैंने अपने आँसू बहने दिए। एक बार फिर, मैं उसके जीवन की कठोर वास्तविकताओं को स्वीकार नहीं कर सकी और मैं सिसकने लगी। रात के वक्त ऐसा लग रहा था कि मैं पुन: इनकार के चरण में पूरी तरह से वापस आ गयी हूँ।
पूरी तस्वीर
हालाँकि, दुःख के इस अचानक दौर में, क्रूस पर टंगे येशु को और उस पीड़ा को, जिसे उसने सहन किया था, याद करते हुए मैंने उसके लिए प्रार्थना की। क्या यह उचित था कि परमेश्वर ने मेरे पापों के लिए अपने पुत्र को मरने के लिए भेजा? नहीं! यह उचित नहीं था कि येशु ने मेरे लिए अपना निर्दोष लहू बहाया। यह उचित नहीं था कि उनका बेरहमी से मज़ाक उड़ाया गया, उनके कपड़े उतारे गए, उन पर कोड़े मारे गए, वे पीटे गए और उन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया। परम पिता परमेश्वर ने क्रूस पर निंदा और क्रूस मरण के दर्दनाक दृश्य देखकर उसे सहा, सिर्फ मेरे प्यार के लिए। जब मैं अपनी बच्ची को पीड़ित होती देखती हूं तो मेरा दिल दुखता है, उसी तरह पिता का दिल दुखी हो गया येशु की पीड़ा को देखकर। उसने इसे सहन किया ताकि मुझे स्वीकार किया जा सके, क्षमा किया जा सके और प्यार किया जा सके।
ईश्वर वास्तव में मेरे दर्द का ख्याल करता है और मैं कैसा महसूस करता हूं इसे वह समझता है। इस अंतर्दृष्टि ने जेनी के लिए प्रभु की जो भी सर्वोच्च योजनायेन हैं, उन सारी योजनाओं को प्रभु के सम्मुख समर्पण करने में उसने मुझे सक्षम बनाया, यह जानते हुए कि वह उससे भी अधिक मुझसे प्यार करता है। हालाँकि मेरे पास सभी उत्तर नहीं हैं, और मैं केवल आधी तस्वीर देख सकती हूँ, लेकिन जो उसके जीवन की पूरी तस्वीर देखता है, मैं उसे जानती हूँ। मुझे बस उस पर अपना विश्वास और भरोसा रखने की जरूरत है।
प्रभु के प्रेम से सांत्वना पाकर आखिरकार मैं सो गयी। मैं नई आशा के साथ जाग उठी। वह मुझे प्रत्येक दिन के लिए पर्याप्त अनुग्रह देता है। मैं समय-समय पर भावनात्मक रूप से टूट जाती हूं, लेकिन ईश्वर की दया मुझे आगे बढ़ा देती है। मुझे आशा देने के लिए वह मेरे साथ है, और मुझे विश्वास है कि मैं हमेशा उसकी महिमा के प्रकाश में अपने दर्द और पीड़ा को देखकर पुन: ऊर्जा प्राप्त कर लूंगी!
मैं प्रार्थना करती हूं कि आप भी अपने जीवन के सबसे दर्दनाक और अनिश्चितता के क्षणों में प्रभु परमेश्वर की ताकत और आश्वासन पाएं, ताकि आप उसकी गहरी और स्थायी आशा का अनुभव कर सकें। जब आप कमजोर हों, तो वह आपके बोझ को उठाने में आपकी मदद करे और अपनी महिमा के प्रकाश में आपके दुखों को देखे। जब भी आपके विचारों में “क्यों प्रभु मुझे….?” ऐसा प्रश्न प्रवेश करता है, तो प्रभु आपके हृदय को अपनी प्रेममयी दया के लिए खोल दे, क्योंकि वह आपके साथ बड़ा भार लेकर चलता है।
“सांझ को भले ही रोना पड़े, भोर में आनंद-ही-आनन्द है।” स्तोत्र ग्रन्थ 30:6
'
क्या बड़े सपने देखने में कोई अदृश्य खतरा है? यदि फिलहाल के मूक, सूक्ष्म और वीर कर्तव्य हमसे चूक नहीं जाते हैं, तो कोई खतरा नहीं।
अक्सर हमारे लिए परमेश्वर की इच्छा उसके बहुत ही सामान्य स्वभाव के कारण हमारी नज़रों से ओझल रहती है। मुझे इस सच्चाई का अनुभव कुछ हफ्ते पहले फिर से हुआ।
पिछले साल जब मेरी बुजुर्ग माँ मेरे साथ रहने लगी, तब उनकी प्राथमिक ज़रूरतों की देखभाल करने की ज़िम्मेदारी मैं संभालने लगी, तब यह स्पष्ट हो गया कि माँ अब अपने बलबूते जीने में असमर्थ हैं। वह न केवल शारीरिक रूप से, बल्कि भावुकता के मामले में भी नाजुक है। उसकी दिनचर्या में कोई भी बदलाव उसे भावनात्मक रूप से परेशान कर सकता है।
मेरे साथ आकर रहने केलिए उन्हें अपने राज्य से दूसरे राज्य आकर रहना पडा, इसलिए उन्हें मेरे घर के नए माहौल को अपनाने में कुछ हफ्ते लग गए। कुछ महीनों बाद परिस्थितियां ऐसी बदल गई की हमें एक नए घर में स्थानांतरित होना पड़ा। माँ को यह बताने में मुझे बड़ा डर सताने लगा, क्योंकि मैं जानती थी कि इससे माँ को फिर से नए स्थान से उखाड़े जाने की चिंता और दुविधा होगी। मैं माँ को यह सूचना देने के कार्य को टालती रही, जितने दिन मैं उसे टाल सकती थी, लेकिन अन्ततोगत्वा मुझे उन्हें बताना ही पड़ा।
लेकिन हमारी उम्मीद से बिलकुल उलटा, माँ ने यह खबर पाकर बड़ा ऊधम मचाया। वह रोने लगी, डरने लगी, और बहुत ज्यादा चिंतित रहने लगी। उन्हें दूसरी चीज़ों पर मन लगाने के लिए और खुश रखने केलिए मैं ने अपने पुराने सारे हथकंडे अपनाए, लेकिन कोई तरकीब काम नहीं आया। घर बदलने के कुछ दिन पूर्व, मैं माँ को नए घर दिखाने ले गई। उन्हें वह घर पसंद आया, फिर भी बदलाव को लेकर चिंतित रहने लगी।
नयी जगह देखकर लौटने के बाद मुझे लगा कि माँ की इच्छा के अनुरूप उस दिन के बाकी घंटे भी मुझे उन्हीं के साथ बिताना होगा। वह टी.वी. में फिल्म देखना पसंद करती है, लेकिन फिल्म के मामले में हम दोनों की रूचि अलग अलग है, इसलिए अक्सर मैं किसी एक चैनल को चालू करके छोड़ देती हूँ ताकि माँ अकेले बैठकर उसे देख लें। लेकिन इस बार मैं जान बूझकर उनके साथ फिल्म देखने की इच्छा लेकर उनके बगल में बैठ गई, यह जानते हुए कि इससे इस अफरातफरी के बीच में उन्हें कुछ तसल्ली मिलेगी।
फिल्म तो मुझे बेकार और उबाऊ लगी, लेकिन मुझे पता था कि माँ के बगल में मेरी शारीरिक रूप से उपस्थिति के कारण माँ को हिम्मत और भरोसा प्राप्त हो रहे थे। मुझे बहुत सारे अन्य कार्य निपटाने थे और मैं उन सारे कामों को कर लेती, लेकिन मैं अपने दिल में महसूस कर रही थी कि मेरी माँ के बगल में बैठना ही मेरे लिए इस समय ईश्वर की योजना थी। इसलिए मैं ईश्वर की इच्छा को स्वीकार करने और प्रार्थाना के द्वारा इसे ईश्वर को अर्पित करने का प्रयास करने लगी। मैं ने उन सारे लोगों के लिए प्रार्थना की, जो अपने जीवन में ईश्वर की योजना को ढूँढने के लिए संघर्ष कर रहे थे, जो अकेलापन या तिरस्कार का अनुभव कर रहे थे, जिन्होंने ईश्वर के प्रेम को अब तक अनुभव नहीं किया था, हमारी दुनिया में दुःख पीड़ा भोगने वाले, ऐसे उन तमाम लोगों के लिए भी मैं प्रार्थना करने लगी। जैसे जैसे फिल्म आगे बढ़ रही थी, बेसब्र और चिंतित होने के बजाय मैं शांत और प्रसन्न थी, क्योंकि मुझे पता था कि फिलवक्त मेरे लिए ईश्वर की योजना के ह्रदय में मैं थी।
बाद में इस बात पर मनन करते हुए मैं ने अनुभव किया कि हमारे आसपास के बहुत सारे मामूली कार्यों की आकृति में इश्वर की इच्छा छिपी हुई है। मैडोना हाउस की संस्थापिका और प्रभु की दासी धन्य कैथरीन डोहर्टी ने इसे “फिलहाल का कर्त्तव्य” नाम दिया है। उन्होंने कहा: “मेरे सम्पूर्ण बचपन और जवानी की आरंभ की दशा में मैं इस बात से प्रेरित थी कि फिलहाल का कर्त्तव्य ही मेरा कर्त्तव्य है जिसे ईश्वर ने मुझे दिया है। बाद में भी मैं यही विशवास करती थी कि ईश्वर द्वारा दिया हुआ ‘फिलहाल का कर्त्तव्य’ ही मेरा कर्त्तव्य है। फिलहाल के कर्त्तव्य के द्वारा ईश्वर हमसे बात करता है। चूँकि फिलवक्त का यह कर्त्तव्य ही परमपिता ईश्वर की इच्छा है, इसलिए हमें अपना सर्वस्व इस केलिए दे देना चाहिए। जब हम फिलवक्त का कर्त्तव्य पूरा कर लेते हैं, तब हमें निश्चिंत होना चाहिए कि हम सत्य में जी रहे हैं, और इसलिए हम प्रेम में जी रहे हैं और इसलिए प्रभु ख्रीस्त में …… (“ग्रेस इन एवेरी सीजन, मैडोना हॉउस प्रकाशन, 2001)।
जैसे मैं ने अपने अतिव्यस्त कार्यों की सूचि को नज़रंदाज़ करके अपनी माँ के सबसे प्रिय कार्य को उसके साथ बैठकर किया, तो इसके द्वारा माँ को उस दिन तसल्ली मिली और उसे आश्वासन दिया गया। मुझे भी तसल्ली मिली कि प्रभु मेरे इस छोटी भेंट से आनंदित है।
जैसे आप अपने नए दिन का और उस दिन के बहुत सारे कार्यों का सामना करने जा रहे हैं, चाहे वे कार्य कितने ही बोझिल, बोरियत से भरे और उबाऊ काम हो, एक निर्णय लीजिये कि आप अपने ह्रदय को ईश्वर के साथ जोड़ेंगे और उस कार्य को, उस दिन किसी प्रकार की बड़ी ज़रूरत में पड़े व्यक्ति केलिए अर्पित करेंगे। उसके बाद जिस फिलवक्त कार्य के लिए आप बुलाये गए हैं उसी कार्य को कीजिये, इस बात को ध्यान में रखते हुए कि हमारे प्रतिदिन के साधारण कार्यों को ले कर उन्हें कृपाओं की असामान्य स्रोत में, और दुनिया के परिवर्तन के लिए बदलने की क्षमता ईश्वर रखता है।
'
क्या नई तकनीकियां आपकी चेतना को आकार दे रही है? यदि हां, तो पुनर्विचार करने का समय आ गया है।
सयुक्त राज्य अमेरिका में हाल ही में साइबर हमला हुआ, जिसके कारण गैस की कमी, घबराहट में अनावश्यक खरीददारी, और खाद्य पदार्थ की कमी के बारे में लोगों की चिंताएँ बढ़ गयीं। इस से एक सीख लोगों को मिली कि हम अपने आधुनिक समाज में कार्य करने के लिए प्रौद्योगिकी पर निर्भर हैं। इस तरह की निर्भरता ने नई और अनोखी मानसिक, मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक चुनौतियों को जन्म दिया है। हमारा कीमती समय टी.वी. के परदे के सामने हमारे समाचार, मनोरंजन, और भावनात्मक और बौद्धिक उत्तेजना की तलाश में व्यतीत होते हैं। लेकिन जब हम अपने डिजिटल उपकरणों और प्रौद्योगिकी के माध्यम से जीवन की राह में आगे बढ़ते हैं, तो हमें यह नहीं पता होता है कि ये सारे उपकरण हमारी चेतना को कैसे आकार दे रहे हैं।
इस तरह की निर्भरता एक बुनियादी सवाल उठाती है: क्या तकनीक, जो बौद्धिकता का विस्तार है, हमारी चेतना का निर्माण करती है; क्या यह जीवन के प्रति हमारा प्राथमिक नजरिया बन गया है? आज बहुत से लोग बिना हिचके “हाँ” में जवाब देंगे। कई लोगों के लिए, “देखने” का एकमात्र तरीका बुद्धिमत्ता और तर्क ही है। लेकिन कुरिन्थियों के नाम संत पौलुस का दूसरा पत्र एक गूढ़ कथन के माध्यम से एक अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है जो कि ख्रीस्तीय जीवन का सार प्रस्तुत करता है: “… हम आँखों देखी बातों पर नहीं, बल्कि विश्वास पर चलते हैं” (5:7)।
एक शक्तिशाली अंतर्दृष्टि
ख्रीस्तीय के रूप में, हम अपनी शारीरिक इंद्रियों के माध्यम से दुनिया को देखते हैं, और हम उस संवेदिक तथ्यों की व्याख्या अपने तर्कसंगत व्याख्यात्मक चश्मे के द्वारा करते हैं जैसे कि गैर-विश्वासी करते हैं। लेकिन हमारा प्राथमिक नजरिया हमें शरीर या बौद्धिक तर्क से नहीं दिया जाता है, यह विश्वास द्वारा दिया जाता है। आस्था का या विश्वास का मतलब भोलापन, अंधविश्वास या अनभिज्ञता नहीं है। हमें अपने क्रोमबुक्स, आइ-पैड और स्मार्टफ़ोन को काली कोठरी में रखने की ज़रूरत नहीं है। विश्वास के माध्यम से हम अपनी संवेदिक धारणाओं और तर्कसंगत निष्कर्षों को ईश्वर और अन्य लोगों के साथ अपने संबंधों के साथ एकीकृत करते हैं। येशुसमाजी कवि जेराल्ड मैनली हॉपकिंस की कविता है: “ईश्वर की भव्यता और महानता से यह दुनिया भरी हुई है।” इन सार्थक शब्दों को हम अपने विश्वास के द्वारा समझ सकते हैं।
धारणा और बुद्धि, अर्थात आंखों देखी बातों पर चलना, अच्छा और आवश्यक है; वास्तव में, हम वहीं से शुरू करते हैं। लेकिन ख्रीस्तीय होने के नाते हम मुख्य रूप से विश्वास पर चलते हैं। इसका मतलब है कि हम अपने सामान्य अनुभव के भीतर ईश्वर और ईश्वर की गति के प्रति चौकस हैं। वर्त्तमान समय के आध्यात्मिक लेखक पाउला डी आर्सी इस सत्य को इस तरह समझाते हैं, “ईश्वर हमारी जीवनशैली के प्रछन्न वेश को अपनाकर हमारे पास आता है।” और यह प्रत्यक्ष दृष्टि या तर्कसंगत अंतर्दृष्टि का विषय नहीं हो सकता। ईश्वर की भव्यता से परिपूर्ण जीवन को देखने और समझने के लिए या यह समझने के लिए कि हमें ईश्वर की तलाश करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि ईश्वर हमारे जीवन के ताने-बाने में है, इस के लिए विश्वास की ज़रुरत है। यह विश्वास, तर्क और बुद्धिमता का विरोध किये बिना उसके परे जाता है।
कार्य से लापता?
बड़ी तादाद में लोगों को बहुत दर्द और नुकसान से पीड़ित करनेवाली महामारी के निर्वासन से चुपके से निकलते हुए, हम पूछ सकते हैं कि इन सब में ईश्वर कहाँ थे? ईश्वर का मंशा क्या है? आमतौर पर, बुद्धि की आंखें उत्तर नहीं देख सकतीं। लेकिन हम केवल आँखों देखी बातों से नहीं, विश्वास से चलते हैं। ईश्वर जो कर रहा है वह धीरे-धीरे होता है और भारी विपरीत प्रमाणों के सामने होता है। ईश्वर हमेशा कार्य कर रहा है! वह कभी भी कार्य से लापता नहीं है! छोटी सी छोटी शुरुआत से ही परमेश्वर के उद्देश्यों की सिद्धि आ सकती है। हम इसे नबी एज़ेकिएल से जानते हैं जिन्होंने इस्राएल के महान सार्वभौमिक भाग्य के बारे में गाया था। निर्वासन के दौरान इस्राएलियों ने सब कुछ खो दिया था, और उसी दौरान नबी ने इसकी भविष्यवाणी की थी!
एजकिएल के पांच सौ साल बाद, येशु ने भी यही बात कही है। संत मारकुस के अनुसार सुसमाचार में हम सुनते हैं, “ईश्वर का राज्य उस मनुष्य के सदृश है, जो भूमि में बीज बोता है। वह रात को सोने जाता है और सुबह उठता है। बीज उगता है और बढ़ता जाता है, हालांकि उसे वह पता नहीं कि यह कैसे हो रहा है” (4:26-27)।
आश्चर्यचकित होने के लिए तैयार हो जाएँ
ईश्वर काम कर रहा है, लेकिन हम इसे अपनी साधारण आंखों से नहीं देख सकते हैं; हम इसे अपनी सामान्य क्षमता से नहीं समझ सकते हैं; ऐसा कोई ऐप भी नहीं है जो हमें इस समझदारी तक जोड़ सकेगा। ईश्वर अपने काम पर सक्रिय है और हम नहीं जानते कि कैसे। यह ठीक है। हम आँखों देखी, नहीं विश्वास पर चलते हैं।
यही कारण है कि मारकुस के सुसमाचार में, येशु यह भी कहते हैं कि परमेश्वर का राज्य राई के दाने की तरह है – पृथ्वी के सभी बीजों में सबसे छोटा, लेकिन बोये जाने के बाद, वह उगता है और बढ़ते बढ़ते वह सब पौधों में सबसे बड़ा हो जाता है, इसलिए कि “आकाश के पंछी उसकी छाया में बसेरा कर सकते हैं” (4:32)। ईश्वर के अप्रत्याशित स्वरूप के इस तर्क में प्रवेश करना और अपने जीवन में उसकी रहस्यमय उपस्थिति को स्वीकार करना हमारे लिए आसान नहीं है। लेकिन अनिश्चितता, मृत्यु, और सांस्कृतिक/राजनीतिक विभाजन के इस समय पर विशेष रूप से ईश्वर हमें विश्वास पर चलने के लिए प्रोत्साहित करता है जो हमारी अपनी योजनाओं, गणनाओं और पूर्वानुमानों से परे है। ईश्वर हमेशा कार्य कर रहा है और वह हमेशा हमें आश्चर्यचकित करेगा। राई के बीज का दृष्टान्त हमें आमंत्रित करता है कि हम अपने दिलों को व्यक्तिगत स्तर पर और समुदाय के लिए ईश्वर की योजनाओं के लिए अर्थात उन अपार आश्चर्यपूर्ण बातों के लिए के लिए खोल कर रखें।
यह महत्वपूर्ण है कि हम अपने पारिवारिक स्तर पर, पल्ली स्तर पर, राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्तर पर सभी रिश्तों में ईश्वर और पड़ोसी से प्यार करने की महान आज्ञाओं को जीने के उन छोटे और बड़े अवसरों पर ध्यान दें। इसका मतलब है कि हम टेलीविजन और सोशल मीडिया पर इतनी प्रचलित विभाजनकारी बयानबाजी से दूर रहें, जिसके कारण हम अपनी बहनों और भाइयों को सिर्फ उपभोग की वस्तुओं जैसा मानने लगते हैं। चूँकि हम विश्वास से चलते हैं न कि आँखों देखी बातों से, इसलिए हम प्रेम की गतिशीलता में, दूसरों का स्वागत करने और उन के प्रति दया दिखाने में सक्रिय हो जाएँ।
कभी हार न मानें
कलीसिया के मिशन की प्रामाणिकता, जो कि पुनर्जीवित और महिमान्वित ख्रीस्त का मिशन है, कार्यक्रमों या सफल परिणामों के माध्यम से नहीं आता है, लेकिन मसीह येशु में और येशु के माध्यम से निरंतर आगे बढ़ने से, और उसके साथ साहसपूर्वक चलने से, और हमारे पिता की इच्छा हमेशा फल देगी ऐसा अटूट विश्वास करने से होता है। हम इसकी घोषणा करते हुए आगे बढ़ते हैं कि येशु प्रभु हैं, न कि कैसर या उनके उत्तराधिकारी। हम समझते हैं और स्वीकार करते हैं कि हम अपने प्यारे स्वर्गीय पिता के हाथों में एक छोटा राई हैं और पिता हमारे माध्यम से ईश्वर के राज्य को यहाँ स्थापित करने लिए कार्य कर सकता है।
'
चिलचिलाती दोपहर में वह सड़क पर चल पड़ी। अनाथालय में बच्चों के पेट भरने के लिए कुछ नहीं बचा था, इसलिए वह भीख मांगने चल पड़ी। पास की एक चाय की दुकान पर पहुंचने पर, उसने अपने असहाय बच्चों को कुछ देने के लिए दुकानदार से निवेदन करते हुए अपना हाथ बढ़ाया।
दूकानदार ने उसकी हथेली में थूक दिया। बिना किसी हिचकिचाहट के, उसने धीरे से अपनी साड़ी के पल्लू से अपना हाथ पोंछा और दूसरे हाथ को आगे बढ़ाया। वह और भी धीमी आवाज में बोली, “आपने मुझे जो दिया है उसके लिए मैं आपकी आभारी हूं। मैं आपसे विनती करता हूं कि मेरे इस हाथ पर न थूकें, बल्कि मेरे बच्चों के लिए कुछ दें। ”
दूकानदार उसकी विनम्रता देखकर स्तब्ध रह गया। उसने उससे क्षमा मांगी और इस घटना ने उसके अंदर एक जबरदस्त बदलाव ला दिया। तब से, वह दूकानदार उस महिला के अनाथालय में बच्चों के कल्याण के लिए एक उदार दानदाता बन गया। नीली बॉर्डर वाली सफेद साड़ी पहनी वह महिला कलकत्ता की मदर तेरेसा थीं।
कलकत्ता की संत तेरेसा के अनुसार विनम्रता सभी गुणों की जननी है। उन्होंने हमें सिखाया कि “यदि आप विनम्र हैं तो कुछ भी आपको प्रभावित नहीं करेगा, न ही प्रशंसा और न ही अपमान, क्योंकि आप जानते हैं कि आप क्या हैं। यदि आपको दोष दिया जाता है तो आप निराश नहीं होंगे। यदि वे आपको संत कहते हैं, तो आप अपने आप को ऊँचे आसन पर नहीं बिठाएँगे।”
आज विनम्रता को अक्सर गलत समझा जाता है। कुछ इसे स्वयम को नीचा देखने के रूप में लेते हैं। लेकिन कई संतों ने माना कि नम्रता स्वयं के बजाय ईश्वर पर निर्भर होकर अच्छे आत्म-सम्मान को हथियाने का तरीका है।
क्या मदर तेरेसा आत्मसम्मान की कमी से पीड़ित थीं? बिलकूल नही। अन्यथा, वह 1993 में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन, उपराष्ट्रपति अल गोर और उन दोनों की पत्नियों के सामने राष्ट्रीय प्रार्थना दिवस पर आयोजित ब्रेकफास्ट के दौरान गर्भपात के खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं कर पाती।
अक्सर हम स्वयं पर भरोसा करते हैं, और यही परमेश्वर के निकट बढ़ने में सबसे बड़ा अवरोध बन जाता है। नम्रता के गुण को धारण करने के द्वारा, मदर तेरेसा परमेश्वर के और अधिक निकट होती गई और संत पौलुस की इस घोषणा का एक जीवित अवतार बन गई, “जो मुझे शक्ति प्रदान करता है, उस मसीह के बल पर मैं सब कुछ कर सकता हूं” (फिलिप्पियों 4:13)।
'
एक सौम्य और दयालु महिला के रूप में, मेरी झू-वू को उनके अनुकरणीय विश्वास के लिए सम्मानित किया गया था। वह चार बच्चों की माँ थी और 1800 के दशक के मध्य में अपने पति झू डियानशुआन के साथ रहती थी, जो चीन के हेबेई प्रांत के झुजियाहे गांव में एक ग्रामीण नेता थे।
जब बॉक्सर विद्रोह छिड़ गया और ईसाई और विदेशी मिशनरियों की हत्या कर दी गई, तो छोटे से झुजियाहे गाँव ने पड़ोसी गाँवों से लगभग 3000 कैथलिक शरणार्थियों को अपने यहाँ शरण दी। पल्ली पुरोहित, फादर लियोन इग्नेस मैंगिन, और उनके येशु संघी साथी, फादर पॉल डेन ने उस परेशानी के समय में पूरे दिन दैनिक मिस्सा बलिदान चढाने की पेशकश की और लोगों के पाप स्वीकार को सूना। 17 जुलाई को बॉक्सर सेना और शाही सेना के लगभग 4,500 सैनिकों ने गांव पर हमला किया। झू डियानशुआन ने गांव की रक्षा के लिए लगभग 1000 पुरुषों को इकट्ठा किया और युद्ध में उनका नेतृत्व किया। वे दो दिनों तक बहादुरी से लड़े लेकिन जिस तोप पर झू और साथियों ने कब्जा कर लिया था, वह गलती से गोलियां दागने लगा, और झू की मृत्यु हो गई। गाँव के कुछ सक्षम लोग उस दहशत में गांव से भाग गए।
तीसरे दिन, सैनिकों ने गाँव में प्रवेश किया और सैकड़ों महिलाओं और बच्चों को मार डाला। लगभग 1000 कैथलिकों ने पहले ही चर्च में शरण ले ली थी, जहां पुरोहितों ने उन्हें सामूहिक पाप क्षमा की आशिष दी और उन्हें अंतिम मिस्सा बलिदान के लिए तैयार किया। हालांकि मेरी झू-वू अपने पति के लिए शोक मना रही थी, फिर भी वह शांत रही और वहां एकत्रित लोगों को ईश्वर पर भरोसा करने और धन्य कुँवारी मरियम से प्रार्थना करने के लिए प्रोत्साहित कर रही थी। जब सैनिकों ने अंततः चर्च का दरवाजा तोड़ दिया और अंधाधुंध ढंग से गोलीबारी शुरू कर दी, तो मेरी झू-वू अद्भुत साहस के साथ उठी: उसने फादर मैंगिन को बचाने के लिए उनके सामने अपने हाथ फैलाकर अपने शरीर का ढाल बनाकर खड़ी रही। तुरंत ही, उसे एक गोली लगी और वह वेदी पर गिर गई। बॉक्सर्स ने फिर चर्च को घेर लिया और बचे लोगों को मारने के लिए चर्च में आग लगा दी, चर्च की छत आखिरकार गिर गई और फादर्स मैंगिन और डेन की जलकर मौत हो गई।
अपनी अंतिम सांस तक, मेरी झू-वू ने साथी विश्वासियों के विश्वास को मजबूत करना जारी रखा और उनके साहस को बढ़ाया। उसके वचनों ने उन्हें अपने डर पर काबू पाने और शहादत को स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया। मेरी झू-वू के शक्तिशाली नेतृत्व के कारण, झुजियाहे गांव में धर्मत्याग करनेवालों की संख्या सिर्फ दो थी। 1955 में, संत पापा पायस बारहवें ने दोनों येशुसंघी पुरोहितों और कई अन्य शहीदों के साथ, मेरी झू-वू को भी धन्य घोषित किया; वे सभी सन् 2000 में संत पापा जॉन पॉल द्वितीय द्वारा संत घोषित किए गए।
'
क्या आप विश्वास करते हैं कि ईश्वर अभी यहां उपस्थित हैं?
“अपने दैनिक जीवन के कार्यों पर हर समय चौकस रहो, और यह निश्चित रूप से जान लो कि ईश्वर सबको हर जगह देखता है।” ये वचन, संत बेनेदिक्त के नियम के अध्याय चार से लिए गए हैं। और यह संत बेनेदिक्ट के मूलभूत सिद्धांतों में से एक को उपयुक्त रूप से दर्शाती है: हमें हमेशा ईश्वर की उपस्थिति के बारे में जागरूक रहना चाहिए। यह ज्ञान कि ईश्वर की दृष्टि हम पर निरंतर बनी रहती है, हमें प्रलोभन में भी डाल सकता है या फिर हमारे लिए ताकत का सबसे बड़ा स्रोत बन कर हमें ईश्वर के उस पूर्ण प्रेम की याद दिला सकता है जो ईश्वर अपने द्वारा रचित सारे प्राणियों से करते हैं।
इस बात की निश्चिन्तता, कि कोई भी कार्य हमारे सृष्टिकर्ता के ध्यान से नहीं बचता है, हमें अपने व्यवहार पर ध्यान देने और अधिकता या निष्क्रियता की ओर हमारे स्वाभाविक झुकाव को रोकने में हमारी मदद करती है। इसके द्वारा हम अपने लक्ष्यों को ईश्वर की महिमा की ओर निर्देशित करने की प्रेरणा प्राप्त करते हैं। ईश्वर की चौकस निगाहों के संरक्षण में, हम मदिरा पान, अत्याधिक सोने और सुबह की प्रार्थना को छोड़ देने की आदतों से धीरे धीरे छुटकारा प्राप्त कर सकते हैं।
एक अदभुत प्रस्ताव
हमारे धर्मार्थ के कार्य स्वर्ग के खज़ानों जैसे बहुमूल्य हैं, लेकिन कभी-कभी हम अपने स्वार्थ के द्वारा ही उन्हें दूषित कर बैठते हैं। संत मत्ती के सुसमाचार में येशु की दी गई चेतावनी को याद रखें जो इस प्रकार है: “सावधान रहो, लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए अपने धर्म कार्यों का प्रदर्शन ना करो; नहीं तो तुम अपने स्वर्गिक पिता के पुरस्कार से वंचित रह जाओगे (6:1)। संत बेनेदिक्त के नियम की प्रस्तावना हमें सिखाती है कि हम अपने उद्देश्यों को कैसे शुद्ध कर सकते हैं: “जब भी आप कोई अच्छा काम शुरू करते हैं, तो उसे पूरा करने के लिए सबसे विनम्र प्रार्थना के साथ [ईश्वर] से प्रार्थना करें।” छोटे से छोटे कार्यों की शुरुआत से पहले प्रार्थना करना न केवल ईश्वर को अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए हमारे कार्यों का उपयोग करने की अनुमति देता है बल्कि हमें याद दिलाता है कि हम जो कुछ भी करते हैं उसमें ईश्वर हमारे साथ है।
बेनेदिक्त का मानना था कि “ईश्वरीय उपस्थिति हर जगह है, और ईश्वर की आंखें हर जगह उपस्थित अच्छाई और बुराई देखती हैं” (नियम, अध्याय 19)। चूंकि हमें हमेशा अपने निर्माता की संगति में खुद की कल्पना करनी चाहिए, बेनेदिक्त हमें उसी अध्याय में चुनौती देता हुए कहते हैं “इस पर विचार करें कि हमें ईश्वर की उपस्थिति में कैसे व्यवहार करना चाहिए।” यह कितना विस्मयकारी प्रस्ताव है!
फिर भी क्या हम वास्तव में विश्वास करते हैं कि ईश्वर अभी यहां हमारे साथ हैं? सच बात तो यह है कि, हालांकि हम विश्वास के माध्यम से यकीन करते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापी है, फिर भी हम इस बात को आसानी से भूल जाते हैं, खासकर तब जब हम दैनिक जीवन की दौड़भाग के बीच में फंस जाते हैं। मन मोहने वाले सूर्यास्त को देखते समय ईश्वर की उपस्थिति की गहराई को अनुभव करना, उस पर यकीन करना आसान है, लेकिन जब हम घर का कचरा बाहर निकाल रहे होते हैं तो ईश्वर की शक्ति और उपस्थिति को महसूस करना बहुत कठिन होता है।
अभ्यास पूर्णता की सीढ़ी है
ईश्वर की सर्वव्यापिता बस एक धार्मिक अवधारणा नहीं है जिसे हमें स्वीकार करने की कोशिश करनी है, बल्कि यह एक आदत है जिसे हमें दिन रात सींचना है। ईश्वर की उपस्थिति के बारे में लगातार जागरूक रहना और उसके अनुसार कार्य करने को ‘स्मरण’ के रूप में जाना जाता है। यह एक अर्जित स्वभाव है जिसे पाने में कई संतों को – शायद संत बेनेदिक्त को भी वर्षों तक अभ्यास करना पड़ा!
इस तरह के स्मरण को बढ़ावा देने का एक तरीका यह है, कि हम हर दिन खुद से पूछें कि ईश्वर ने आज दिन भर में हमारे लिए अपने प्रेम को कैसे प्रकट किया। जब हम उन असंख्य तरीकों को याद करेंगे जिनमें ईश्वर ने हमें अपनी कोमल देखभाल और दया दिखाई, तो हमारा हृदय खुद-ब-खुद ही धन्यवाद और प्रशंसा से भर जाएगा, जो बदले में हमारे मन और हृदय में ईश्वर के लिए गहरा प्रेम उत्पन्न करेगा। धीरे धीरे करके आखिर में, हमारे सृष्टिकर्ता को विचारों, शब्दों और कार्यों में महिमा देना हमारे लिए स्वाभाविक सा हो जाएगा।
कभी कभी हम में से सबसे ज्ञानी, सबसे समझदार लोग भी जीवन के दु:ख तकलीफों का सामना करते समय ईश्वर को याद रखना भूल जाते हैं। लेकिन वास्तविकता तो यह है कि भय और भ्रम के समय में जब हमें ईश्वर हमसे दूर दिखाई देता है, वह असल में हमसे पहले से भी कहीं ज़्यादा नज़दीक होते हैं, और हमें और अधिक अपने करीब लाने के लिए हमारी “अग्नि परीक्षा” ले रहे होते हैं। इसीलिए, संत याकूब हमें प्रोत्साहित करते हुए कहते हैं कि “मेरे भाइयो और बहनो! जब आप लोगों को अनेक प्रकार की विपत्तियों का सामना करना पड़ें, तब अपने को धन्य समझिये। आप जानते हैं कि आपके विश्वास का इस प्रकार का परीक्षण धैर्य उत्पन्न करता है” (1:2-3)। और हालांकि चाहे हम परीक्षाओं के समय विशेष रूप से धन्य या आनंदित महसूस नहीं कर रहे हों, फिर भी हमारे सामने जो भी संकट हो, उसका सामना करने का प्रयास करना ही एक बहुमूल्य बात है। क्योंकि बस यह विश्वास कि ईश्वर हमारे साथ है हमें तुरंत राहत प्रदान कर सकता है।
दुगुना आनंद
पवित्र शास्त्र हमें निस्संदेह हो कर बताता है कि ईश्वर हमें कभी अकेला नहीं छोड़ता, खासकर तब जब हम पर मुसीबत के बादल छाए हों। भजन संख्या 91 में, ईश्वर हमें अपने सेवक के माध्यम से आश्वासन देते हैं कि जब हम ईश्वर को पुकारेंगे तब ईश्वर हमें उत्तर देते हुए कहेंगे: “मैं तुम्हारे साथ हूं। मैं संकट में [तुम्हारा] साथ दूंगा और [तुम्हारा] उद्धार कर [तुम्हें] महिमान्वित करूंगा” (15)।
भजन संख्या 22 से उद्धृत येशु के मार्मिक शब्दों को कौन भूल सकता है जब क्रूस पर लटके हुए येशु ने पुकारा: “मेरे ईश्वर, मेरे ईश्वर, तू ने मुझे क्यों त्याग दिया?” (2). फिर भी वही भजन एक आशावादी वचन के साथ समाप्त होता है जिसे बहुतों ने कभी नहीं सुना है: “क्योंकि उस ने दीन हीन का तिरस्कार नहीं किया, उसे उसकी दुर्गति से घृणा नहीं हुई, उसने उस से अपना मुख नहीं छिपाया और उसने उसकी पुकार पर ध्यान दिया।” (25)। वास्तव में, भजन का अंतिम भाग हमारे लिए परमेश्वर की स्तुति करने का निमंत्रण है!
अपनी गिरफ्तारी से कुछ घंटे पहले, येशु ने अपने शिष्यों के सामने यह भविष्यवाणी की थी कि वे उनका साथ छोड़ देंगे। पर फिर उन्होंने यह भी घोषित किया, “फिर भी मैं अकेला नहीं हूं; पिता मेरे साथ है” (योहन 16:32)। और पिता ईश्वर के पास उद्ग्रहित होने से पहले, येशु ने सबसे एक वादा किया, “देखो, मैं संसार के अंत तक सदा तुम्हारे साथ हूँ” (मत्ती 28:20)।
दुःख, परिश्रम, चिंताएँ, परेशानियां, कमज़ोरियाँ, विरोध, डांट, अपमान – सब धैर्यपूर्वक सहन किया जा सकता है और हमारे द्वारा अपनाया भी किया जा सकता है अगर हम येशु पर अपनी नज़रें टिकाए रखते हैं, जो कि इम्मानुएल है, अर्थात, ईश्वर हमारे साथ है (मत्ती 1:23)।
जब हमें पता होता है कि जिससे हम प्यार करते हैं, वह हमारे चारों ओर होता है – हमारे आगे, हमारे पीछे, हमारे ऊपर, हमारे नीचे, हमारे बगल में – तब बीते समय के पछतावे और भविष्य की चिंताएं शक्तिहीन हो जाती हैं। सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी पिता की स्वीकृति के तहत, वर्तमान क्षण में येशु के साथ बिताया हुआ जीवन, दुगुने आनंद से भरा होता है।
“उपयुक्त समय में मैंने तुम्हारी प्रार्थना सुनी; उद्धार के दिन मैंने तुम्हारी सहायता की।” (2 कुरिंथियों 6:2)।
'
पिछले एक साल में मेरी ज़िंदगी बहुत छोटी और सादी हो गई, क्योंकि कोरोना महामारी की वजह से पूरे विश्व में नाकाबंदी, लॉकडाउन और तरह तरह की बंदिशें लागू हो गई थीं। काफी महीनों तक इन परिस्थितियों से जूझने और इनकी आदि होने के बाद, मेरे जीवन में फिर से एक बड़ा बदलाव आया, जब मेरी बूढ़ी मां मेरे साथ रहने आईं और मुझे उनकी देखरेख की सारी ज़िम्मेदारी उठानी पड़ी। इस नए बदलाव की वजह से मेरी ज़िंदगी और भी बंध गई। मेरी पहले ही छोटी हो चुकी दुनिया, अब और सिकुड़ गई थी, और मेरे लिए यह सब संभालना आसान नहीं था।
लेकिन इस घुटन में भी, मुझे अपनी बूढ़ी मां की सेवा कर के एक अद्भुत आनंद और शांति का अनुभव हो रहा था। क्योंकि हम दोनो के लिए यह जीवन का एक नया भाग था, जिसे मैंने खुली बाहों से स्वीकारा और गले लगाया था।
हम जीवन में कई मौसमों से गुज़रते हैं, जिनकी अपनी चुनौतियां, अपने क्रूस, अपनी खुशियां और अपनी ताल होती है। कभी कभी हम किसी एक मौसम की मार झेलते हैं क्योंकि हम से जो कहा जाता है, हम उसके अनुरूप कार्य नही करना चाहते हैं। हमें गुस्सा आ जाता है और हम नाराज़ हो जाते हैं। लेकिन अगर हम अपने मन में विश्वास रखें कि ईश्वर हमारे साथ हैं और वे हमारे आसपास की परिस्थितियों के द्वारा हमारा मार्गदर्शन करते हैं, हमें परिवर्तित करते हैं, और हमसे प्यार करते हैं, तब हमें हमारे जीवन का मौसम सुंदर, अर्थपूर्ण और शांतिमय लगने लगता है।
मैं मानती हूं कि यह सब आसान नही है। अभी हाल ही में, मेरी मां की हालत दो हफ्तों तक खराब रही। दो हफ्तों तक मां की देखभाल और डॉक्टरों के चक्कर काटते काटते मैं बुरी तरह थक गई और निराश हो गई। पर फिर एक दिन मैं आधे मन से अपनी दोस्त से बात कर रही थी जहां उसने मुझे गुलाब के पौधों के बारे में बताते हुए कहा, “गुलाब के पौधों की खूब छंटाई किया करो, क्योंकि तुम जितनी बार टहनी को काटोगी, पौधे में उतने ही ज़्यादा फूल खिलेंगे।”
दोस्त की यह बात मेरे मन में गूंजने लगी। मुझे याद आया कि बाइबिल में येशु छंटाई के बारे में कहते है, “मैं सच्ची दाखलता हूं और मेरा पिता बागवान है। वह उस डाली को, जो मुझ में नहीं फलती, काट देता है और उस डाली को, जो फलती है, छांटता है, जिससे वह और भी अधिक फल उत्पन्न करे” (योहन 15:1-2)। मेरी इच्छा ईश्वर के लिए एक फलदार जीवन जीने की है। लेकिन इसका मतलब यह है कि मेरे अंदर की कुछ बातों को छंटाई से गुज़रना पड़ेगा – जैसे लालच, अधीरता, परोपकार की कमी, आदि।
ईश्वर हमारी छंटाई किस प्रकार करेगा? अक्सर ईश्वर हमारे जीवन की परिस्थितियों के माध्यम से हमारी कटाई छंटाई करता है। जो बातें जो हमें चिढ़ाती हैं, परेशान करती हैं, या हमें सुकून से जीने नहीं देतीं, वे बातें अक्सर वही तेज़ धार होती हैं जिससे ईश्वर हमारी कटाई छंटाई करता है। और फिर यही छंटाई आगे चल कर हमारी प्रगति की नींव बनती है।
समय के गुजरने के साथ मैंने सीखा है कि जब मैं वर्तमान मौसम और उसकी मांगों से नाराज़ रहने लगती हूं तब मेरा दिल दुख और कड़वाहट से भर जाता है। लेकिन जब मैं वर्तमान के बहाव के साथ बहने लगती हूं और आज में जीने लगती हूं, यह जानते हुए कि ईश्वर मेरे साथ हैं, तब मेरे अंदर एक सौम्य और सशक्त शांति का आगमन होता है और मेरा हृदय फिर से स्थिर हो पाता है।
इन सब बातों पर मनन चिंतन करने के बाद मैंने स्टोर रूम से पौधों की छंटाई करने वाली कैंची निकाली और अपने बगीचे में लगे गुलाब के पौधे में से एक गुलाब काट कर अलग किया। फिर मैंने उसे एक मेज़ पर लगाया और अब इस गुलाब की महक से मैं खुद को याद दिला रही हूं कि हर परीक्षा और परेशानी के माध्यम से ईश्वर मेरे जीवन को और भी फलदाई बना सकते हैं। और मुझे आशा है कि भविष्य में मैं इन फलों को उन लोगों के साथ बांट पाऊंगी जिन्हें इसकी ज़रूरत है।
'
अक्सर लोग ऐसी हरकतें करते हैं जो हमें परेशान कर देती हैं। लेकिन अगर हमारा दिल पवित्रता की ओर अग्रसर है, तो हम इन हरकतों से उपजी हमारी कुंठाओ को आध्यात्मिक प्रगति के अवसरों में बदल सकते हैं।
काफी लंबे समय तक जहां सिस्टर थेरेस मनन चिंतन के लिए बैठती थी, वह जगह एक ऐसी चंचल सिस्टर के बगल में थी जो हमेशा या तो अपनी रोज़री से या किसी ना किसी चीज़ से खेलती, कुछ आवाज़ निकलती रहती थी। सिस्टर थेरेस ऐसी बेवजह की आवाज़ों को लेकर बड़ी संवेदनशील थी और इस परिस्थिति में उनके लिए मनन चिंतन पर ध्यान केंद्रित करना बहुत मुश्किल हो जाता था। हालांकि सिस्टर थेरेस यह समझती थी कि बाकी लोग उनकी तरह संवेदनशील नही हैं, फिर भी कभी कभी उनका मन होता था कि पलट कर उस सिस्टर को इतनी कड़ी निगाहों से देखूं कि वह सिस्टर फिर कभी इस तरह की आवाज़ निकालने की गलती ना करे।
पर इन सब के बीच, दिल ही दिल में सिस्टर थेरेस जानती थी कि उनके लिए धैर्य मन से सब सह जाना ही सही था। क्योंकि ऐसा करने से वह ईश्वर के प्रेम के अनुरूप कार्य करेंगी और उस सिस्टर को तकलीफ भी नही पहुंचाएंगी। इसीलिए वह चुपचाप ध्यान लगाने की कोशिश करने लगी, अपनी ज़बान को काबू में करने की कोशिश करने लगी, पर इसकी वजह से पसीना छूट जाता था, और इस वजह से उन्हें घुटन और सांस लेने में तकलीफ होने लगती थी। उनके मनन चिंतन का समय उनके लिए अनकही पीड़ा का समय बन गया। लेकिन समय के साथ थेरेस इस पीड़ा को शांति और आनंद के साथ सहने लगीं, और उन्हें अपने आसपास की छोटी छोटी आवाज़ों की आदत लगने लगी। पहले वह इन आवाज़ों को ना सुनने की कोशिश करती थीं, जो कि उनके लिए नामुमकिन था, पर अब वे उन्हें ऐसे सुनने लगीं जैसे वे कोई मधुर संगीत हो। अब उनकी “शांति की प्रार्थना” “संगीत रूपी बलिदान” में परिवर्तित हो चुकी थी जिसे वे रोज़ ईश्वर को चढ़ाया करती थी।
अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में हम ना जाने कितनी सारी परेशानियों का सामना करते हैं। ये सारी परेशानियां हमारे लिए धैर्य को अपनाने के वे अवसर हैं, जिन्हें हम बार बार छोड़ते जाते हैं। इन अवसरों में हम अपने गुस्से और पसंद नापसंद को प्रकट करने के बजाए अपने अंदर उदारता, समझदारी और धैर्य को जागृत करने की कोशिश कर सकते हैं। इस प्रकार धैर्य परोपकार का कार्य बन जाता है और हमारे अंदर परिवर्तन लाता है। हम सब विश्वास की इस यात्रा में सहभागी हैं, जहां हम हर नए मोड़ पर येशु को उस ईश्वर के रूप में पाते हैं जिसका दिल हमारे लिए धैर्य से भरा हुआ है।
'
क्या आप आंतरिक शांति ढूंढ रहे हैं? आइए आत्मिक चंगाई प्राप्त करने के कुछ कारगर तरीकों के बारे में बात करते हैं।
अंधियारे में से
एक शीतल शाम की बात है, गिरजाघर बिलकुल शांतिमग्न था, इस शांति के बीच एक पुरोहित की मधुर आवाज़ सुनाई दे रही थी। दर्जन भर स्त्रियां उस पुरोहित के साथ ध्यान में लीन थीं। हालांकि वह ईस्टर का समय था, फिर भी वहां क्रूस पर चर्चा हो रही थी।
“क्रूस हमें पीड़ित और दुर्बल नहीं बनाता,” पुरोहित ने आश्वासन दिया, और फिर उन्होंने वेदी के ऊपर टंगे क्रूस की ओर इशारा करते हुए कहा, “क्रूस हमें संत बनाता है!”
फिर पुरोहित ने अपने कथन को समझाते हुए कहा, “ईश्वर पर विश्वास का यह मतलब नहीं है कि हमारा जीवन कभी अंधकार में नहीं पड़ेगा। विश्वास ही वह रोशनी है जो अंधियारे भरे रास्तों में हमारा मार्गदर्शन करती है।”
हमारे लिए यह भूल जाना कितना आसान है कि क्रूस हमारे लिए आंतरिक चंगाई प्राप्त करने का रास्ता बन सकती है। “अपना क्रूस उठा कर मेरे पीछे हो लो”, इस वचन से हम लोग परिचित हैं: लेकिन कई बार हम यह समझ बैठते हैं कि इस का मतलब होगा अपनी पीड़ा को नज़रंदाज़ करना। इसी गलतफहमी की वजह से हम मुक्ति की असल क्षमता के असर से वंचित रह जाते हैं।
खुद को दुर्बल समझना और खुद के लिए दया भावना रखना आत्मिक चंगाई के मार्ग में रोड़े अटकाने के बराबर है। इसकी जगह हमें मसीह का अनुकरण करना चाहिए जो हमारे लिए दुर्बल बनाए गए।
एक जीवनभर की यात्रा
“तूने हमें खुद के लिए बनाया है हे ईश्वर, और हमारा दिल तब तक अशान्त रहेगा जब तक यह आप में अनंत विश्राम नहीं पा लेता।” हिप्पो के संत अगस्तीन के ये प्रसिद्ध वचन बहुत प्रभावशाली हैं, क्योंकि ये हमें ईश्वर को जानने, प्रेम करने और ईश्वर की सेवा करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। खुद को परिपूर्ण महसूस करने के लिए हमें एक अर्थपूर्ण जीवन जीने की आवश्यकता है।
और हालांकि हम अपने पूरे दिल से ईश्वर को जानना, उनसे प्रेम करना और उनकी सेवा करना चाहते हैं फिर भी हम मनुष्य हैं इसीलिए धर्मग्रंथ कहता है: “आत्मा तो तत्पर है, परंतु शरीर दुर्बल है” (मत्ती 26:41)।
जो सिलसिला आदम और हेवा के आदिपाप से शुरू हुआ, वह पाप कामवासना के साए में आज भी जिंदा है और पनप रहा है – मानव स्वरूप का वही हिस्सा जो पाप के लालच की ओर खिंचा चला जाता है। ख्रीस्तीय विश्वास के द्वारा मिला नया जीवन मानव प्रकृति में मौजूद दुर्बलता को दूर नहीं करता, और ना ही वह कामवासना की ओर हमारे रुझान को कम करता है। ताकि बपतिस्मा के बाद ये दुर्बलताएं ख्रीस्तीयों में रह कर विश्वासियों के संघर्ष और अंततः विजय का मार्ग सुसज्जित करें। (कैथलिक चर्च की धर्मशिक्षा 1426)।
इसे आसान शब्दों में कहना चाहता हूँ: हालांकि बपतिस्मा द्वारा हमारी आत्मा से आदिपाप के दाग़ धुल जाते हैं, फिर भी हम पाप की ओर आकर्षित होने की क्षमता रखते हैं। पाप की ओर यह आकर्षण जीवनभर हमारे साथ रहेगा, लेकिन ईश्वर की कृपा के द्वारा हम पवित्रता में प्रगति कर सकते हैं। उसकी इच्छा के प्रति हमारा स्वेच्छा से समर्पण करना – हमारा ईश्वर के व्यक्तित्व के अनुसार आचरण करना – प्रत्येक आत्मा का अंतिम लक्ष्य है। साफ शब्दों में कहूं तो आंतरिक चंगाई और आध्यात्मिक स्वास्थ्य एक सिक्के के दो पहलू हैं। अगर हम सच्ची और अनंत आंतरिक चंगाई प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें पवित्रता में बढ़ना होगा, लेकिन यह सब एक रात में हासिल नहीं किया जा सकता।
मैं कैसे उसे छू सकता हूं?
मत्ती के सुसमाचार में हम पढ़ते है – “वे पार उतर कर गेनेसरेत पहुंचे। वहां के लोगों ने येशु को पहचान लिया और आसपास के सब गांवों में इसकी खबर फैला दी। वे सब रोगियों को येशु के पास ले आकार उन से अनुनय-विनय करते थे कि वे उन्हें अपने कपडे का पल्ला भर छूने दें। जितनों ने उनका स्पर्श किया, वे सब-के-सब अच्छे हो गए।“ (मत्ती 14:34-36)
जितनों ने उनका स्पर्श किया, ने उनका स्पर्श किया, वे सब-के-सब अच्छे हो गए: उन लोगों ने कितनी बड़ी आशीष को अनुभव किया। लेकिन हमारा क्या? हमारा जन्म येशु के दिनों में नहीं हुआ कि हम भी भीड़ में शामिल हो कर, लड़ झगड़ कर ईश्वर के वस्त्र का सिरा भर छू कर आंतरिक चंगाई प्राप्त कर लें।
हालांकि कैथलिक चर्च की धर्मशिक्षा हमें बताती है कि “सात संस्कारों के माध्यम से येशु आज भी हमें छू कर चंगाई दिलाने का प्रयत्न करते हैं।” (कैथलिक चर्च की धर्मशिक्षा 1504)
येशु संस्कारों के द्वारा हमारे समीप आते हैं: देखा जाए तो यह एक बहुत बड़ी आशीष भी है और एक निरंतर आशा भी। खासकर पापस्वीकार संस्कार और परमप्रसाद संस्कार अपने आप में हमें चंगा करने के लिए ईश्वर की चाह के अद्भुत उदाहरण हैं।
पापस्वीकार द्वारा : पापस्वीकार संस्कार का पूरा सामर्थ्य इस बात में है कि यह ईश्वर की कृपा को पुनःस्थापित करता है और हमें ईश्वर के साथ एक अटूट मित्रता के संबंध में जोड़ता है। इस प्रकार ईश्वर के साथ हमारा पुनर्मिलन कराना ही इस संस्कार का उद्देश्य और प्रभाव है। जो लोग पछतावे भरे हृदय और धार्मिक दृष्टिकोण के साथ पापस्वीकार संस्कार में भाग लेते हैं, उनके लिए यह पुनर्मिलाप तन मन की शांति और बड़ी आध्यात्मिक सांत्वना ले कर आता है। सच है कि ईश्वर के साथ सुलह कराने वाला यह संस्कार एक प्रकार के आध्यात्मिक पुनरुत्थान को जन्म देता है, जो कि ईश्वर की संतानों के जीवन में सम्मान और आशीर्वाद के द्वार को खोल देता है, जिसमें से सबसे बड़ी आशीष है ईश्वर के साथ हमारी मित्रता। (कैथलिक चर्च की धर्मशिक्षा -1468)
यूखरिस्त के बार बार दर्शन एक ऐसा सौभाग्य है जो हमारे लिए उन आलौकिक लाभों के द्वार खोल देता है, जो इस दुनिया से परे हैं। “पवित्र परमप्रसाद हमें पाप से अलग करता है।” (कैथलिक चर्च की धर्मशिक्षा 1393)। जिस प्रकार शारीरिक पोषण खोई हुई ताकत लौटाता है, उसी प्रकार यूखरिस्त हमारे अंदर की दान भावना को मज़बूत करता है, वही दान भावना जो रोज़मर्रा की दौड़भाग में कमज़ोर हो जाती है, क्योंकि दान भावना हमारे लघु पापों को धो डालती है।” (कैथलिक चर्च की धर्मशिक्षा 1394) यूखरिस्त हमारे अंदर जिस दान भावना को प्रज्वलित करता है, उसी के द्वारा यूखरिस्त हमें भविष्य में घातक महापाप करने से बचाता है। “जितना हम स्वयं के साथ येशु के जीवन को साझा करते हैं, और जितना हम उसकी मित्रता में बढ़ते जाते हैं, उतना ही हमारे लिए घातक महापाप करना मुश्किल होता जाता है।” (कैथलिक चर्च की धर्मशिक्षा -1395)
देर आए दुरुस्त आए
ज़ेली मार्टिन जो कि लिस्यू की संत तेरेसा की मां थी। वह सन 2015 में अपने पति लुइस के साथ संत घोषित की गईं। यह कामकाजी, लेस यानि जालीदार कपड़ा बनाने वाली स्त्री यह अच्छी तरह जानती थी कि आंतरिक चंगाई प्राप्त करने के लिए कितना परिश्रम और कितनी मेहनत लगती है।
उनकी यह रचना बहुत विख्यात है: मैं संत बनना चाहती हूं, लेकिन मैं जानती हूं कि यह आसान बात नहीं है। मानो मुझे बहुत सारी लकड़ियां काटनी है, पर यह लकड़ियां पत्थर समान हैं। मुझे कई सालों पहले यह पहल करनी चाहिए थी, तब जब यह कार्य मेरे लिए इतना मुश्किल नहीं था। पर वो कहते हैं ना, देर आए दुरुस्त आए।
इनकी इस सांसारिक यात्रा का अंत उनकी अल्पायु में मृत्यु के माध्यम से हुआ। उन्होंने स्तन कैंसर की वजह से अपनी जान गंवाई, और उस वक्त तेरेसा सिर्फ चार साल की थीं। ज़ेली यह समझती थीं कि उन्हें येशु के दुखभोग का अनुकरण करना है, इसीलिए उन्होंने अपने क्रूस ढोए और सफलतापूर्वक उन लकड़ियों को भी काटा जो उनके लिए पत्थर समान थीं। इसी परिश्रम के फलस्वरूप उनके परिवार में अनेक लोगों ने धार्मिक बुलाहट और संत की उपाधि प्राप्त की।
हम सब को अलग अलग प्रकार की “लकड़ी” काटने के लिए दी गई है। देखा जाए तो हम सब की आंतरिक चंगाई की यात्रा अलग अलग होगी, हालांकि हम सब ईश्वर के स्वरूप और पसंद के अनुसार बनाए गए हैं, फिर भी हम सब अपने आप में अनोखे हैं, और हमारी ताकतें, कमज़ोरियां और व्यक्तिगत अनुभव अलग हैं।
इन सब बातों के बावजूद वह कैथलिक कलीसिया जिसे संत पेत्रुस को सौंपा गया था, वह आंतरिक चंगाई और आध्यात्मिक स्वास्थ्य का खज़ाना है। फिर भी, हमें कलीसिया के माध्यम से येशु तक पहुंचने की पहल करनी है। और उनके कपड़े के सिरे को मज़बूती से पकड़ कर इस बात का निश्चय करना है कि जब कभी हम पाप से आकर्षित हो कर धर्म के मार्ग से भटक जाएंगे, तब तब हमें येशु के कपड़े के सिरे को मज़बूती से पकड़ने की कोशिश करनी है।
सच्ची आंतरिक चंगाई तभी मुमकिन है जब हमारे पास यीशु को छूने का विश्वास हो, उसे और उसके क्रूस को गले लगाने का साहस हो, कि हम अपने व्यक्तिगत जीवन में छुटकारा दिलाने वाली क्रूस की पीड़ा पर भरोसा रखें। हमें परमप्रसाद और यूखरिस्त की आराधना को सबसे ज़्यादा अहमियत देनी चाहिए और उस अनंत ईश्वर में अपनी आध्यात्मिक और भावनात्मक परिपूर्णता को खोजना चाहिए।
संत पापा जॉन पॉल द्वितीय उन प्रारंभिक लोगों में से थे, जिन्होंने यह समझा कि सच्ची आंतरिक चंगाई सिर्फ ईश्वर की ओर से आती है। इसी वजह से उन्होंने अपना ज़्यादा से ज़्यादा समय विश्वासी जनों को ख्रीस्त से जुड़े रहने के लिए प्रेरित करने में लगाया। और उन्होंने लोगों से आग्रह किया कि वे “नई सदी में संत बनने का साहस करें।”
'