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जुलाई 27, 2021 1354 0 Reshma Thomas, India
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स्वर्ग एक सच्चाई है

बच्चों को इस विश्वास में बढ़ाना कोई आसान काम नहीं है।

क्योंकि जो इसकी कोशिश करते हैं उनकी राहें अचरज से भरी पड़ी हैं।

बढ़ती ख़ुशी

“बच्चे मेरे जीवन में अपनी खुशियां और अपने गीत ले कर आते है।

कब मैं उन की जैसी बन पाऊंगी ? मुझे उनके संग गुनगुनाने सिखा दे |”

जब भी मैं “जीवित झरने बहता जा” गीत के इन बोलों को गुनगुनाती थी, मेरा दिल खुद मेरे अपने बच्चे को पाने की आशीष के लिए तड़प उठता था। मैं अपने माता पिता की इकलौती संतान हूं, और बचपन से ही मेरा बच्चों के प्रति एक अलग खिंचाव था। बच्चों के बीच रहना मुझे सबसे ज़्यादा ख़ुशी देता था। यहां तक कि मैंने शादी ही इसीलिए की ताकि मैं मां बन सकूं।

मुझे याद है कि उन दिनों जब मैं डायरी लिखा करती थी तो मैं उसमे उन सब गानों के नाम और उन सारी संतों की कहानियों के नाम लिखा करती थी जिसे मैं अपनी होने वाली संतानों को सुनाना चाहती थी। और इसी तरह मैं सोचा करती थी कि मैं अपने बच्चों को धार्मिकता में बड़ा करूंगी। मैं उन्हें येशु और मां मरियम को दिल से प्रेम करना सिखाऊंगी, इसी उत्साह में मैंने शादी से पहले ही बच्चों की बाइबल भी खरीद ली। मेरा दिल इन्हीं सारी बातों से भरा हुआ था इसीलिए अपनी गर्भावस्था की शुरुआत से ही मैंने अपने बच्चे को प्रार्थना, ईश्वर की स्तुति और अनेक क्रूस के चिन्हों से घेरे रखा। जब मुझे बिस्तर पर पूर्ण विश्राम दिया गया, तब मैंने अपनी प्रार्थनाओं को दुगना कर दिया। मुझे तो इस बात का अंदाज़ा भी नहीं था कि ईश्वर ने मेरे बच्चे को सत्ताइसवें हफ्ते में ही दुनिया में लाने की योजना बनाई थी। जब मैंने पहली बार अपनी बच्ची को अपनी गोद में लिया तब मेरा दिल ईश्वर की स्तुति से भर गया। और हालांकि हमें उसे पैंतालीस दिन तक अस्पताल में रखना पड़ा, फिर भी ईश्वर ने हमें एक बेटी का तोहफा दिया था इस बात से मेरा दिल फूला नहीं समा रहा था।

मैं हर रोज़ अपनी बेटी अन्ना से येशु के बारे में बात किया करती थी। और हालांकि मुझे बस कुछ ही देर उससे मिलने दिया जाता था फिर भी जहां तक हो सके मैं उसके शरीर के किसी कोने पर क्रूस का चिन्ह बना दिया करती थी, और उससे कहती थी कि वह अकेली नहीं है क्योंकि मां मरियम और येशु हमेशा उसके साथ हैं। कभी कभी जब मैं उसके लिए कोई भजन गुनगुनाती थी तो पास ही खड़ी नर्सें भी साथ में गाने लगती थीं और पूरा कमरा ईश्वर की स्तुति से भर जाता था। आखिर में जब मुझे अपनी बेटी को घर ले जाने की इजाज़त मिली तो मेरी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था।

आंसुओं के द्वारा

अन्ना के जन्म के तीन महीने बाद हमें पता चला कि अन्ना बाकी बच्चों की तरह एक आम ज़िन्दगी नहीं जी पाएगी। शारीरिक विकलांगता के साथ साथ वह मानसिक रूप से भी कमज़ोर थी। डॉक्टरों का कहना था कि उसके जन्म के समय ऑक्सीजन की कमी की वजह से उसका दिमाग सिकुड़ गया था। इन सब के बीच भी मैंने उसे प्रार्थना और भजन से घेरे रखा। और ईश्वर की कृपा से इतनी तकलीफों के बीच भी मेरी बच्ची के चेहरे पर एक दैविक ख़ुशी थी। जब भी मैं उसके सामने पवित्र माला विनती कहती थी वह रोना बंद करके मुस्कुराने लगती थी। उस वक्त ऐसा लगता था जैसे हम फरिश्तों के बीच हैं जो हमारे साथ प्रार्थना कर रहे हैं। मैं उसे संतों की कहानियां सुनाती सुनाती थकती ही नहीं थी, मुझे इस बात की फ़िक्र नहीं थी कि मेरी बच्ची को कुछ समझ आ भी रहा है या नहीं। कुछ दिन ऐसे भी गुज़रते थे जब मैं माला विनती कहते हुए रो पड़ती थी, क्योंकि मुझे नहीं पता था कि मेरी नन्ही अन्ना कभी मेरे साथ रोज़री कहने लायक हो पाएगी या नहीं।

अन्ना के जन्म को चार साल गुज़र चुके थे, इस बीच मेरा तीन बार गर्भपात हो चुका था। डॉक्टरों का कहना था कि मैं कभी स्वस्थ बच्चों को जन्म नहीं दे पाऊंगी और यह बात मुझे अंदर तक तोड़ रही थी। मुझे कहा गया की बस कोई चमत्कार ही इसे बदल सकता है और ईश्वर की असीम कृपा और प्रेम ने मुझे वह चमत्कार दिया इसा और आरिक के रूप में। मेरे ये दो फरिश्ते दो सालों के अंतराल में पैदा हुए। मेरी अन्ना छह साल की हो चुकी थी जब ईश्वर ने उसे एक भाई और बहन का तोहफा दिया।

इसा और आरिक के साथ भी मैं वैसे ही प्रार्थना किया करती थी जिस तरह मैं अन्ना के साथ प्रार्थना किया करती थी। पर इनके साथ मुझे ना जाने क्यों एक खालीपन सा महसूस होता था। जब मैं आरिक के सर पर हाथ रखने या क्रूस का चिन्ह बनाने की कोशिश करती थी तो वह ना जाने क्यों डर के मारे भाग जाता था। जबकि इसा बस अविश्वास भरी नज़रों से मुझे घूरा करती थी।

मुझे बड़ी कठिनाइयों के बाद यह समझ आया कि अपने बच्चों को अपने विश्वास में बड़ा करना कोई आसान काम नहीं है!

आपको लग रहा होगा कि मेरा अपने बच्चों की धार्मिकता की चिंता करना, वह भी तब जब वे महज़ दो साल या पांच महीने के हैं किसी मज़ाक से कम नहीं है। पर मैं मज़ाक नहीं कर रही हूं, उस वक्त मैं सच में यह सोचने लगी थी कि “क्या मैं कुछ ग़लत कर रही हूं? क्या मेरे बच्चे ईश्वर के नज़दीक जाने के बजाय ईश्वर से दूर जा रहे हैं? क्या मैं ईश्वर के प्रेम को उन पर ज़बरदस्ती थोप रही हूं?”

मेरा दिल जैसे रुक सा गया

एक शाम की बात है, मैं इन्हीं सवालों में उलझी हुई थी। इसा पास ही में एक झूमाझूमी पर बैठकर डोल रही थी, इसी बीच आरिक बिस्तर पर चढ़ा, उसने बिस्तर से लगे धर्मग्रन्थ के वचन के उद्धरण पर (मढवाकर दीवार पर टांग दिया गया था) अपना हाथ फेरा और फिर उसी हाथ से इसा के होठों को छू लिया। तभी मुझे समझ आया कि आरिक सब समझता है! मैं हर रोज़ आरिक को येशु के पवित्र हृदय की तस्वीर के सामने लाया करती थी, फिर मैं तस्वीर को छू कर उसके होठों को उन्हीं हाथों से छुआ करती थी। मुझे समझ आया कि इस समय आरिक बस मेरी नकल नहीं उतार रहा था, बल्कि जब वह दीवार को छू रहा था तब उस पवित्र वचन के उद्धरण पर हाथ लगने पर उसे समझ आया कि उसने कुछ पवित्र छुआ है। इस बात का अहसास होते ही मुझे नबी यिर्मियाह 15:16 की यह बातें याद आई:

तेरी वाणी मुझे प्राप्त हुई

और मैं उसे तुरंत निगल गया।

वह मेरे लिए आनंद और उल्लास का विषय थी;

क्योंकि तूने मुझे अपनाया,

विश्व मण्डल के प्रभु ईश्वर!

इस घटना ने मुझे यह सिखाया कि मुझे अपने बच्चों पर अपने विश्वास को थोपने की ज़रूरत नहीं है। बल्कि मेरे बच्चे ही मुझे नए सिरे से ईश्वर से प्रेम करना सिखाएंगे।

जब मेरे बच्चे मेरा ध्यान अपनी ओर करने के लिए इतनी ज़ोर ज़ोर से रोते हैं कि मैं उनके सामने से हिल भी नहीं पाती, तब मुझे याद आते हैं वे पल जब मैंने अपनी प्रार्थनाओं द्वारा ईश्वर का ध्यान अपनी ओर किया। और तब मैं खुद से यह सवाल करती हूं “क्या मैं उसी तरह ईश्वर के नज़दीक रहने की कोशिश करती हूं जिस तरह मेरे बच्चे हर वक्त मेरे नज़दीक रहने की ज़िद करते है?”

जब मैं अपने बेटे को किसी बात के लिए डांट लगाती हूं तो वह तुरंत मुझ से लिपट कर सुलह करने की कोशिश करता है। लेकिन जब मैं कोई गलती करती हूं, कोई ग़लत बात कहती हूं तब मुझे ईश्वर की ओर मुड़ने और उनसे माफी मांग कर सुलह करने में कितना वक्त लगता है? ईश्वर भी हमें कभी कभी डांट लगाते हैं और हमारे उन्हें गले लगाने और उनसे सुलह करने का इंतज़ार करते हैं।

और अगर मैं अपने बच्चों से इतना प्यार करती हूं जब कि वे रोज़ ही कोई ना कोई शरारत, कोई ग़लती करते हैं, तो सोचो ईश्वर हमारी गलतियों के बावजूद हमसे कितना ज़्यादा प्यार करता होगा।”

आंखों की चमक

एक बार जब मैं टी.वी. पर आराधना का लाइव कार्यक्रम में भाग ले रही थी, तब मैंने देखा कि आरिक ने भी अपने दोनों हाथ उठाए और इसा भी भजन सुन कर झूमने लगी। तब मुझे अहसास हुआ कि हमारे बच्चे हमारे विश्वास की अभिव्यक्ति की नकल करते हैं। चाहे मैं उन्हें येशु या संतों की अनेक कहानियां सुनाऊं, उनका ध्यान सिर्फ और सिर्फ मेरे कार्यों पर रहता है। क्या मैं येशु की तरह विनम्र और सौम्य हूं? क्या मैं येशु की तरह उन सब से प्रेम रखती हूं जो शायद मुझसे प्रेम नहीं रखते? जैसे जैसे बच्चे बड़े होते हैं, बच्चे हमारे कर्मों को हमारी बातों से ज़्यादा देखते और याद करते हैं।

मैं तब सबसे ज़्यादा अचंभे में पड़ जाती हूं जब नन्ही अन्ना पवित्र मिस्सा बलिदान सुनने चली आती है। वह हमेशा इतनी शांत रहती है। मिस्सा बलिदान के वक्त उसकी सारी शरारतें, उसकी तेज़ आवाज़, सब थम सी जाती है। वह बिल्कुल मौन रह कर ईश्वर की आराधना करती है। और जब पुरोहित कहते हैं “और हम भी सब दूतों और संतों के साथ मिल कर युगानुयुग तेरा स्तुतिगान करते हुए निरंतर एक स्वर से कहते हैं: पवित्र पवित्र पवित्र, हे स्वर्ग और पृथ्वी के परमेश्वर” तब अन्ना की आंखे ऐसे बड़ी हो जाती हैं जैसे वह उड़ते स्वर्गदूतों को देख पा रही हो। वह इतनी खुश और उत्साहित हो जाती है कि अगर कोई उसे उस समय देखेगा तो यह यकीन कर बैठेगा कि स्वर्ग सच में होता है। अन्ना के इसी उत्साह ने मुझे भी यकीन दिलाया कि स्वर्गदूत और संत हमारे आसपास ही रहते हैं और वे हमारे साथ ही मिस्सा बलिदान में भाग लेते हैं।

मेरे बच्चे मुझे हर समय येशु की बातों की याद दिलाते हैं “जब तक तुम खुद को इन बच्चों जेसे नहीं बना लेते, तुम स्वर्गराज में प्रवेश नहीं करोगे”। तो आइए हम सादगी और बच्चों जैसे विश्वास के साथ अपनी प्रार्थनाएं भेजें और मुझे यकीन है कि वे बादलों को चीर कर स्वर्ग पहुंच जाएंगी।

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Reshma Thomas

Reshma Thomas is a wife and mother of four wonderful children. She finds great joy in doing little works for Jesus, and making known his merciful love revealed through her life-experiences. She lives with her family in Kerala, India.

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