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अक्सर, दूसरों में गलती ढूँढना आसान होता है, लेकिन असली अपराधी का पता लगाना बहुत मुश्किल होता है।
मैंने अपनी कार के विंडशील्ड वाइपर पर एक पार्किंग टिकट चिपका हुआ पाया। यह ट्रैफ़िक नियम के उल्लंघन का नोटिस था जिसमें सड़क को अवरुद्ध करने के कारण मुझे $287 का जुर्माना भरना था। मैं परेशान हो गया, और मेरा दिमाग खुद को सही ठहराने की कोशिश में उलझा रहा ।
मैं सोचता रहा: “गाड़ी तो सिर्फ़ कुछ इंच की दूरी पर थी! क्या गैरेज बंद नहीं था? ऐसा लग रहा था कि गैरेज का बहुत दिन से इस्तेमाल नहीं हो रहा था। मेरी गाड़ी के सामने कोई और व्यक्ति अपनी गाड़ी को लगाकर गया था, जिससे सड़क का ज़्यादातर हिस्सा अवरुद्ध हो गया था। वहाँ कोई पार्किंग की जगह उपलब्ध नहीं थी, इसलिए मुझे अपनी इच्छित मंज़िल से आधा किलोमीटर दूर पार्क करना पड़ा।”
गिरने से पहले
लेकिन एक मिनट रुकिए! मैं इतने बहाने क्यों बना रहा था? यह स्पष्ट है कि मैंने पार्किंग नियमों का उल्लंघन किया था, और अब मुझे इसके परिणाम भुगतने होंगे। हालाँकि, जब भी मैं कोई गलती करता हूँ, तो खुद को बचाने की कोशिश करना हमेशा मेरी पहली प्रवृत्ति रही है। यह आदत मेरे अंदर गहराई से समाई हुई है। मुझे आश्चर्य है कि इसकी शुरुआत कहाँ से हुई।
खैर, यह हमें अदन की वाटिका में वापस ले चलता है। एक और बहाना? शायद। लेकिन मेरा मानना है कि पहला पाप अवज्ञा या ईश्वर में विश्वास की कमी नहीं था, बल्कि जिम्मेदारी से बचकर बहाना ढूंढना था।
क्यों? जब आदम और हेवा साँप के जाल में फँसे, तो उससे पहले उन्होंने कभी बुराई का अनुभव नहीं किया था और ना ही ज्ञान के फल का स्वाद चखा था। वे केवल ईश्वर को जानते थे, इसलिए वे कैसे पहचान सकते थे कि साँप दुष्ट था और झूठ बोल रहा था? झूठ क्या होता है, क्या उन्हें इसका पता था? क्या हम उनसे साँप पर अविश्वास करने की उम्मीद कर सकते हैं? क्या वे नाग के साथ खेलने की कोशिश कर रहा शिशु की तरह नहीं थे?
हालाँकि, निषिद्ध फल खाने के बाद चीजें बदल गईं। उनकी आँखें खुल गईं, और उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने पाप किया है। फिर भी जब ईश्वर ने उनसे इसके बारे में पूछा, तो आदम ने हेवा को दोषी ठहराया, और हेवा ने साँप को दोषी ठहराया। कोई आश्चर्य नहीं कि हम भी ऐसा ही करते हैं!
एक अनमोल अवसर आपकी प्रतीक्षा कर रहा है
ईसाई धर्म, एक तरह से, सरल है। यह हमारे पापों के लिए जवाबदेह होने के बारे में है। ईश्वर हमसे केवल हमारे गलत कामों की जिम्मेदारी लेने के लिए कहता है।
जब कोई ईसाई पाप में गिर जाता है, तो उसके लिए सबसे उचित कार्य यह होगा कि गलती के लिए वह पूरी जिम्मेदारी लेा, येशु की ओर मुड़े और माफी मांगे। इसके अतिरिक्त, जिम्मेदारी लेने के साथ-साथ गलती को न दोहराने की पूरी कोशिश करने की व्यक्तिगत प्रतिबद्धता भी आती है। येशु स्वयं हमारे पाप अपने ऊपर लेते हैं और अपने बहुमूल्य लहू के द्वारा पापों को धो डालते हैं और इस तरह पिता से हमें पाप क्षमा दिलाते हैं।
कल्पना कीजिए कि आपके परिवार के किसी सदस्य ने कोई गलती की जिसके कारण आपके परिवार को बहुत बड़ा आर्थिक नुकसान हुआ। अगर आपको पता हो कि आपका बैंक नुकसान की भरपाई करने को तैयार है, तो क्या आप उस गलती के लिए एक-दूसरे को दोषी ठहराने में अपना समय बर्बाद करेंगे?
क्या वास्तव में हम मसीह से मिलने वाले अनमोल अवसर को जानते हैं?
आइए हम शैतान के जाल में न फँसें, जो हमेशा दूसरों को दोषी ठहराता है। इसके बजाय, आइए हम सचेत प्रयास करें कि दूसरों पर उँगली न उठाएँ, बल्कि जब हम लड़खड़ाएँ तो येशु की ओर दौड़ें।
'अगर मैं उस अंधकार से नहीं गुज़री होती, तो मैं आज जहाँ हूँ, वहाँ नहीं होती।
मेरे माता-पिता वास्तव में चाहते थे कि उनका भरापूरा परिवार हो। लेकिन मेरी माँ 40 वर्ष की आयु तक गर्भ धारण नहीं कर पाई। मैं उनकी चमत्कारी बच्ची थी। मैं माँ के जन्मदिन पर पैदा हुई थी। माँ एक बच्चा पाने के लिए एक साल से निवेदन करती हुई विशेष नौरोज़ी प्रार्थना (नोवेना) कर रही थी। एक साल की नौरोज़ी प्रार्थना पूरा करने के ठीक उसी दिन मेरा जन्म हुआ था। मेरे जन्म के एक साल बाद प्रभु ने उपहार में एक छोटा भाई भी दिया।
मेरा परिवार नाममात्र कैथलिक था; हम रविवार के मिस्सा बलिदान में जाते थे और पवित्र संस्कार प्राप्त करते थे, लेकिन इससे ज़्यादा कुछ नहीं था। जब मैं लगभग 11 या 12 वर्ष की थी, तो मेरे माता-पिता ने कलीसिया से मुंह मोड़ लिया और मेरे विश्वास-जीवन में अविश्वसनीय रूप से लंबा विराम लग गया।
तड़पती हुई पीड़ा
किशोरावस्था का दौर दबाव से भरा हुआ था, जिनमें से बहुत कुछ मैंने खुद अपने ऊपर थोपा था। मैं खुद की तुलना दूसरी लड़कियों से करती थी; मैं अपनी शक्ल-सूरत से खुश नहीं थी। मैं बहुत ज़्यादा आत्म-चेतन और चिंतित रहती थी। हालाँकि मैं पढ़ाई में अव्वल थी, लेकिन मेरा स्कूली जीवन मेरे लिए मुश्किल का दौर था क्योंकि मैं बहुत महत्वाकांक्षी थी। मैं आगे बढ़ना चाहती थी – लोगों को दिखाना चाहती थी कि मैं सफल और बुद्धिमान हो सकती हूँ। हमारे परिवार के पास ज़्यादा पैसे नहीं थे, इसलिए मैंने सोचा कि मुझे अच्छी पढ़ाई करके और अच्छी नौकरी पाना चाहिए, जिससे सब समस्याओं का समाधान हो जाएगा।
इसके बजाय, मैं और भी उदास होती गई। मैं खेलकूद और जश्न-समारोहों में जाती, लेकिन अगले दिन उठकर मैं खुद को खाली महसूस करती। मेरे कुछ अच्छे दोस्त थे, लेकिन उनके भी अपने संघर्ष थे। मुझे याद है कि मैं उनका साथ देने की कोशिश करती थी और आखिर में मैं सवाल उठाने लगती थी कि मेरे आस-पास के सभी दुखों के पीछे का कारण क्या है। मैं खोई हुई थी, और इस उदासी ने मुझे खुद को दुनिया से अलग करके बंद रहने और खुद में सिमटने पर मजबूर कर दिया।
जब मैं लगभग 15 साल की थी, तो मुझे खुद को नुकसान पहुँचाने की आदत पड़ गई; जैसा कि मुझे बाद में पता चला, उस उम्र में, मेरे पास परिपक्वता नहीं थी या मैं जो महसूस कर रही थी, उसके बारे में बोलने की क्षमता नहीं थी। जैसे-जैसे दबाव बढ़ता गया, मैं कई बार आत्महत्या के विचारों में डूब गयी। एक बार अस्पताल में भर्ती होने के दौरान, डॉक्टरों में से एक ने मुझे बहुत पीड़ा में देखा और पूछा: “क्या तुम ईश्वर में विश्वास करती हो? क्या तुम मृत्यु के बाद के जीवन में विश्वास करती हो?” मुझे लगा कि यह सबसे अजीब सवाल था, लेकिन उस रात, मैं ने इस सवाल को याद करके इस पर विचार किया। तभी मैंने मदद के लिए ईश्वर को पुकारा: “हे ईश्वर, अगर तू मौजूद है, तो कृपया मेरी मदद कर। मैं जीना चाहती हूँ – मैं अपना जीवन अच्छे कामों में बिताना चाहती हूँ, लेकिन मैं खुद से प्यार करने में भी सक्षम नहीं हूँ। मैं जो कुछ भी करती हूँ, उन सबका कोई मतलब नहीं निकाल पाती हूँ, इसलिए मैं उदासी और दुःख में टूटकर बिखर जाती हूँ।”
मदद का हाथ
मैंने माँ मरियम से बात करना शुरू किया, उम्मीद है कि शायद वह मुझे समझ सकें और मेरी मदद कर सकें। कुछ ही समय बाद, मेरी माँ की सहेली ने मुझे मेजुगोरे की तीर्थयात्रा पर जाने के लिए आमंत्रित किया। मैं वास्तव में ऐसा नहीं करना चाहती थी, लेकिन एक नए देश और अच्छे मौसम को देखने की जिज्ञासा के कारण मैंने निमंत्रण स्वीकार कर लिया।
मैं रोज़री माला की प्रार्थना कर रहे लोगों, उपवास करने वाले लोगों, पहाड़ों पर चलने और मिस्सा में जाने वाले लोगों से घिरी हुई थी, मेरा मन उसमे रम नहीं पा रहा था, लेकिन साथ ही, मैं थोड़ी उत्सुक भी थी। यह कैथलिक युवाओं के उत्सव का समय था, और वहाँ लगभग 60,000 युवा लोग थे, जो हर दिन रोज़री माला की प्रार्थना करते हुए मिस्सा और आराधना में भाग ले रहे थे; इसलिए नहीं कि उन्हें मजबूर किया गया था, बल्कि खुशी से, शुद्ध इच्छा से और बड़े लगन के साथ वे भाग ले रहे थे। मैं बड़े आश्चर्य के साथ सोचने लगी कि क्या इन लोगों के अपने सही परिवार हैं, जो उनके लिए विश्वास करने, ताली बजाकर भजनों को गाने, नृत्य करने और यह सब भक्ति के कार्य को करने में वास्तव में उनके लिए आसान बना रहा था। सच कहूँ तो, मैं उन युवाओं जैसी खुशी के लिए तरस रही थी!
जब हम उस तीर्थयात्रा पर थे, तो हमने पास के सेनाकोलो समुदाय में कुछ लड़कियों और लड़कों की गवाही सुनी, और उनकी गवाहियों ने वास्तव में मेरे लिए सब कुछ बदल डाला। 1983 में, एक इतालवी साध्वी ने सेनाकोलो समुदाय की स्थापना की थी ताकि उन युवाओं की मदद की जा सके जिनके जीवन ने गलत मोड़ ले लिया था। अब, यह संगठन दुनिया भर के कई देशों में पाया जा सकता है।
मैंने स्कॉटलैंड की एक लड़की की कहानी सुनी जिसे नशीली दवाओं की समस्या थी; उसने अपनी जान लेने की भी कोशिश की थी। मैंने खुद से कहा: “अगर वह इतनी खुशी से रह सकती है, अगर वह उन सारे दर्द और पीड़ा से बाहर आ सकती है और वास्तव में ईश्वर में विश्वास कर सकती है, तो शायद इसमें मेरे लिए भी ईश्वर की कुछ योजना होगी।”
मेजुगोरे में रहने के दौरान मुझे एक और बड़ी कृपा मिली, वह यह कि मैं कई सालों बाद पहली बार पाप स्वीकार संस्कार के लिए गयी। मुझे नहीं पता था कि क्या उम्मीद करनी है। लेकिन अंत में पाप स्वीकार संस्कार में जाकर मैं ने दूसरों और खुद को चोट पहुँचाने वाली सभी बातों के बारे में ईश्वर के सम्मुख कहा तो मैंने अनुभव किया कि मेरे कंधों से बहुत बड़ा बोझ उतर गया है। मुझे बस शांति महसूस हुई, और मैं एक नई शुरुआत करने के लिए पर्याप्त रूप से स्वच्छ महसूस कर रही थी। मैं वापस आयी और आयरलैंड के एक विश्वविद्यालय में दाखिला लिया, लेकिन मुझे पर्याप्त समर्थन नहीं पाने के कारण, मैं फिर से अस्पताल में आ गयी।
रास्ते की खोज
यह महसूस करते हुए कि मुझे मदद की ज़रूरत है, मैं इटली वापस गयी और सेनाकोलो समुदाय का हिस्सा बन गयी। यह आसान नहीं था। सब कुछ नया था—भाषा, प्रार्थना, अलग-अलग व्यक्तित्व, संस्कृतियाँ—लेकिन इसमें एक सच्चाई थी। कोई भी मुझे किसी बात के लिए मनाने की कोशिश नहीं कर रहा था; हर कोई प्रार्थना, काम और सच्ची दोस्ती में अपना जीवन जी रहा था, और यही उन्हें चंगाई प्रदान कर रहा था। वे शांति और आनंद से जी रहे थे, और यह बनावटी नहीं बल्कि वास्तविक था। मैं हर दिन, पूरे दिन उनके साथ थी—मैंने इसे पूरा का पूरा अनुभव किया, आनंद लिया। मैं यही चाहती थी!
उन दिनों जिस चीज़ ने वास्तव में मेरी मदद की, वह थी आराधना। मुझे नहीं पता कि मैं कितनी बार परम पवित्र संस्कार के सामने रोयी। कोई चिकित्सक मुझसे बात नहीं कर रहा था, कोई भी मुझे कोई दवा देने की कोशिश नहीं कर रहा था, बस ऐसा लग रहा था कि मैं शुद्ध हो रही हूँ। समुदाय में भी, ईश्वर के अलावा कुछ भी खास नहीं था।
मैंने दूसरों की सेवा करना शुरू कर दिया, और इसी ने मुझे अपने अवसाद से बाहर निकलने में मदद की। जब तक मैं अपने आप को, अपने घावों और समस्याओं को देखती रही, मैं खुद को और भी बड़े गड्ढे में धकेलती रही। सामुदायिक जीवन ने मुझे खुद से बाहर आने, दूसरों की ओर देखने और उन्हें आशा देने की कोशिश करने के लिए मजबूर किया, वह आशा जो मुझे मसीह में मिल रही थी। जब अन्य युवा लोग समुदाय में आते थे, युवा लड़कियाँ जिनकी समस्याएँ मेरी जैसी या कभी-कभी उससे भी बदतर होती थीं, तो इससे मुझे बहुत मदद मिली। मैंने उनकी देखभाल की, मैंने एक बड़ी बहन बनने, कभी-कभी एक माँ भी बनने की कोशिश की।
मैंने सोचना शुरू किया कि जब मैं खुद को चोट पहुँचा रही होती या जब मैं दुखी होती, तो मेरी माँ ने मेरे साथ क्या अनुभव किया होगा। अक्सर एक तरह की असहायता की भावना होती है, लेकिन विश्वास के साथ, भले ही आप अपने शब्दों से किसी की मदद न कर सकें, तो भी आप अपने घुटनों पर खड़े होकर प्रार्थना के द्वारा मदद कर सकते हैं। मैंने प्रार्थना के द्वारा बहुत सी लड़कियों में और अपने जीवन में बदलाव देखा है। यह कोई रहस्यपूर्ण बात नहीं है या ऐसा कुछ नहीं है जिसे मैं ईशशास्त्र के आधार पर समझा सकूं, लेकिन माला विनती, अन्य प्रार्थना और संस्कारों के प्रति निष्ठा ने मेरा और कई अन्य लोगों का जीवन बदल दिया है, और इस से हमें जीने की एक नई इच्छा मिली है।
इस ख़ुशी को आगे बढ़ाते हुए
मैं नर्सिंग में अपना करियर बनाने के लिए आयरलैंड लौटी; वास्तव में, करियर से ज़्यादा, मुझे गहराई से लगा कि मैं अपना जीवन इसी तरह बिताना चाहती हूँ। मैं अब युवा लोगों के साथ रह रही हूँ, जिनमें से कुछ मेरी उम्र के जैसे ही हैं – वे आत्म-क्षति, अवसाद, चिंता, मादक द्रव्यों के सेवन या अशुद्धता से जूझ रहे हैं। मुझे लगता है कि उन्हें यह बताना ज़रूरी है कि ईश्वर ने मेरे जीवन में क्या किया, इसलिए कभी-कभी दोपहर के भोजन के दौरान, मैं उनसे कहती हूँ कि अगर मुझे विश्वास न हो कि बीमारी के बाद मृत्यु से ज़्यादा जीवन में कुछ और भी है, तो मैं वास्तव में यह काम नहीं कर पाऊँगी, सभी दुख और दर्द नहीं देख पाऊँगी। लोग अक्सर मुझसे कहते हैं: “ओह, तुम्हारा नाम जॉय है, यह तुम पर बहुत सूट करता है; तुम बहुत खुश और मुस्कुराती रहती हो।” मैं अंदर ही अंदर हँसती हूँ: “काश तुम्हें पता होता कि यह कहाँ से आया है!”
मेरी खुशी दुख से पैदा हुई ख़ुशी है; इसलिए यह सच्ची खुशी है। यह तब भी बनी रहती है जब दर्द होता है। और मैं चाहती हूँ कि युवा लोगों को भी यही खुशी मिले क्योंकि यह सिर्फ़ मेरी ख़ुशी नहीं है, बल्कि यह ईश्वर से मिलने वाली खुशी है, इसलिए हर कोई इसका अनुभव कर सकता है। मैं सिर्फ़ ईश्वर की इस असीम खुशी को बाँटना चाहती हूँ ताकि दूसरे लोग जान सकें कि आप दर्द, दुख और कठिनाइयों से गुज़र सकते हैं और फिर भी हमारे पिता के प्रति आभारी और आनंदित होकर इससे बाहर निकल सकते हैं।
'मेरा पति लाइलाज बीमारी से ग्रसित है, मानो उसे मौत की सज़ा सुनाई गई हो; मैं उसके बिना जीना नहीं चाहती थी, लेकिन उसके दृढ़ विश्वास ने मुझे चौंका दिया।
पाँच साल पहले, जब हमें पता चला कि मेरा पति जानलेवा बीमारी से ग्रसित हैं, उसी समय मेरी दुनिया तबाह हो गई। मैंने जीवन और भविष्य की जो कल्पना की थी, वह एक पल में हमेशा के लिए बिखर गया। यह भयानक और भ्रमित करने वाला था; मैंने कभी भी इतना भयंकर निराशा और असहायता महसूस नहीं की थी। ऐसा लग रहा था जैसे मैं लगातार डर और निराशा की खाई में डूबी हुई थी। अपने जीवन के सबसे बुरे दिनों का सामना करने के लिए मेरे पास सिर्फ़ मेरा विश्वास था जिस पर मैं टिकी हुई थी । अपने मरते हुए पति की देखभाल करने के दिन और एक नया तथा अलग जीवन का सामना करने की तैयारी के दिन मेरे पहले की योजना से बिलकुल भिन्न थे।
क्रिस और मैं किशोरावस्था से ही साथ थे। हम एक दुसरे के सबसे अच्छे दोस्त थे और दुनिया की कोई भी ताकत हमें अलग नहीं कर सकती थी। हम बीस वर्षों से शादीशुदा थे और अपने चार बच्चों की परवरिश खुशी–खुशी कर रहे थे। हमारा जीवन एक आदर्श जीवन की तरह लग रहा था। अब बीमारी ने मेरे पति को मौत की सज़ा सुनाई और मुझे नहीं पता था कि मैं उसके बिना कैसे रह सकती हूँ। सच में, मैं ऐसा बिलकुल नहीं चाहती थी। एक दिन, टूटे हुए पल में, मैंने क्रिस से कहा कि मुझे लगता है कि अगर मुझे आपके बिना जीना पड़ा तो मैं हृदायाघात से मर जाऊंगी। उसकी प्रतिक्रिया उतनी हताश करने वाली नहीं थी। उसने सख्ती से लेकिन सहानुभूतिपूर्वक मुझसे कहा कि तुम्हें तब तक जीना है जब तक ईश्वर तुम्हें अपने यहाँ नहीं बुला लेता; उसने मुझे यह भी कहा कि तुम अपनी ज़िंदगी को बर्बाद नहीं कर सकती| क्योंकि वह जानता था कि उसका अंत होने वाला था। उसने मुझे पूरे विश्वास के साथ आश्वासन दिया कि वह परलोक से मुझ पर और हमारे बच्चों पर नज़र रखेगा।
दुख का दूसरा पहलू
क्रिस को ईश्वर के प्यार और दया पर अटूट विश्वास था। वह इस बात पर आश्वस्त था कि हम हमेशा के लिए अलग नहीं होंगे, इसलिए वह अक्सर यह वाक्यांश दोहराता था: “यह बस थोड़ी देर के लिए है।” यह वाक्यांश हमें लगातार याद दिलाता था कि कोई भी दिल का दर्द हमेशा के लिए नहीं रहता है – और इन शब्दों ने मुझे असीम आशा दी। मेरी आशा है कि ईश्वर हमें इस दौरान मार्गदर्शन करेगा, और मेरी आशा यह भी है कि मैं अगले जीवन में क्रिस के साथ फिर से मिल जाऊँगी। इन अंधकारमय दिनों में, हम रोज़री में माँ मरियम से जुड़े रहे – यही एक भक्ति थी जिससे हम पहले से ही परिचित थे। हम लोग दु:ख के रहस्यों पर अधिक बार मनन करते थे, क्योंकि हमारे प्रभु की पीड़ा और मृत्यु पर विचार करने से हम अपने दुख में उनके करीब आ जाते थे। करुणा की माला विनती एक नई भक्ति थी जिसे हमने अपनी दिनचर्या में शामिल किया। रोज़री की तरह, यह इस बात की विनम्र याद दिलाती थी कि येशु ने हमारे उद्धार के लिए स्वेच्छा से क्या सहा, और किसी तरह इस की तुलना में हमें दिया गया क्रूस कम भारी लगने लगा।
हमने पीड़ा और बलिदान की सुंदरता को और अधिक स्पष्ट रूप से देखना शुरू कर दिया। मैं दिन के हर घंटे मन ही मन छोटी सी प्रार्थना दोहराती : “ओह, येशु के सबसे पवित्र हृदय, मैं तुझ पर अपना पूरा भरोसा रखती हूँ“। जब भी मुझे अनिश्चितता या भय का अहसास होता, तो यह छोटी प्रार्थना मेरे ऊपर शांति की लहर ले आती। इस दौरान, हमारा प्रार्थना जीवन काफी गहरा हो गया और जैसे हम इस दर्दनाक यात्रा को सहन कर रहे हैं, वैसे हमें उम्मीद थी कि हमारे प्रभु क्रिस और हमारे परिवार पर दया करेगा। आज, मुझे उम्मीद है कि क्रिस शांत है, दूसरी तरफ से हम पर नज़र रख रहा है और हमारे लिए मध्यस्थता कर रहा है – जैसा कि उसने वादा किया था।
मेरे नए जीवन के इन अनिश्चित दिनों में, यही आशा मुझे आगे बढ़ने और शक्ति देने में मदद करती है। इस परिस्थिति ने मुझे ईश्वर के अनंत प्रेम और कोमल दया के लिए असीम आभार दिया है। आशा एक जबरदस्त उपहार है; जब हम टूटा हुआ और बिखरा हुआ महसूस करते हैं, तब आशा कभी न बुझने वाली आंतरिक चमक बन जाती है जिस पर हम अपना ध्यान केंद्रित कर पाते हैं । आशा शांत करती है, आशा मजबूत करती है, और आशा ही चंगाई देती है। आशा को थामे रखने के लिए साहस की आवश्यकता होती है।
जैसा कि संत जॉन पॉल द्वितीय ने कहा: “मैं आपसे विनती करता हूँ, कभी भी आशा न छोड़ें। कभी संदेह न करें, कभी थक न जाएँ और कभी निराश न हों। डरिये नहीं।“
'यदि आपको ऐसा लगता है कि आपने जीवन में अपने सारे मूल्य और उद्देश्य खो दिए हैं, तो यह लेख आपके लिए है।
मेरे 40 वर्षों के पुरोहिताई जीवन में, आत्महत्या करने वाले लोगों के अंतिम संस्कार मेरे लिए सबसे कठिन कार्य रहा है। और यह केवल एक सामान्य कथन नहीं है, क्योंकि हाल ही में मैंने अपने ही परिवार में एक युवा व्यक्ति को खो दिया। उसकी आयु केवल 18 वर्ष थी। उसने अपने जीवन की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के कारण आत्महत्या कर ली।
आजकल आत्महत्या की दर बढ़ रही है, और इसके निवारण के उपायों में दवाएँ, मानसिक चिकित्सा और यहाँ तक कि पारिवारिक प्रणाली चिकित्सा भी शामिल हैं। हालांकि, उन कई चीजों में से एक जो अक्सर चर्चा में नहीं आती है, वह है आध्यात्मिक उपाय। अवसाद और आत्महत्या के पीछे एक मुख्य मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक मुद्दा जीवन के आध्यात्मिक अर्थ और उद्देश्य की कमी हो सकती है – यह विश्वास कि हमारे जीवन में आशा और मूल्य है, सबसे अहम् सोच है; इस सोच की कमी खतरनाक है।
एक पिता का प्रेम
हमारे जीवन का लंगर, हमारे पिता परमेश्वर का प्रेम है, जो हमें उन अंधेरे स्थानों से बाहर निकालता है। मैं यह भी तक कहूंगा कि येशु मसीह ने हमें जो उपहार दिए हैं (हे ईश्वर, वे बहुत सारे उपहार हैं), उनमें सबसे अच्छा और सबसे मूल्यवान उपहार है कि येशु ने अपने पिता को हमारा पिता बना दिया।
येशु ने परमेश्वर को एक प्रेममय अभिभावक के रूप में प्रकट किया जो अपने बच्चों से गहरा प्रेम करता है और उनकी परवाह करता है। इस ज्ञान की पुष्टि तीन विशेष तरीकों से होती है:
1. ‘आप कौन हैं’ इसकी पहचान
आपकी नौकरी, आपकी सामाजिक सुरक्षा नंबर, आपका ड्राइवर लाइसेंस नंबर या ‘सिर्फ’ अस्वीकार किए गए कोई प्रेमी, इनमें से कोई भी बात ‘आप कौन है’ इस सवाल का जवाब नहीं हैं। आप परमेश्वर की संतान है- आप परमेश्वर की प्रतिछाया और सादृश्य में बने व्यक्ति हैं। आप वास्तव में उनकी कारीगरी हैं। यही हमारी पहचान है, परमेश्वर में हम यही हैं।
2. परमेश्वर हमें उद्देश्य देता है
परमेश्वर में, हमें एहसास होता है कि हम यहाँ क्यों हैं – हमारे जीवन को जो परमेश्वर ने हमें दिया है, उसमें एक योजना, उद्देश्य और संरचना है। परमेश्वर ने हमें इस दुनिया में – उसे जानने, प्यार करने और उसकी सेवा करने के उद्देश्य के लिए बनाया है
3. आपकी एक नियति है
हमारी नियति इस दुनिया में रहने के लिए नहीं, बल्कि अनंतता में अपने पिता के साथ रहने और उनके अटूट प्यार को प्राप्त करने के लिए है। पिता को प्रेम की रचयिता के रूप में जानने से हमें उस जीवन को प्राप्त करने, उस जीवन को सम्मान देने और जो ईश्वर हमसे चाहता है उस भरपूर जीवन को साझा करने केलिए आमंत्रण मिलता है । यह हमें इस अर्थ में बढ़ने के लिए प्रेरित करता है कि हम कौन हैं – हमारी अच्छाई, विशिष्टता और सुंदरता क्या है इसे जानने के लिए भी ।
पिता का प्रेम एक ठोस प्रेम है: “ईश्वर के प्रेम की पहचान इस में है कि पहले हमने ईश्वर को नहीं, बल्कि ईश्वर ने हमको प्यार किया और हमारे पापों के प्रायश्चित के लिए अपने पुत्र को भेजा।” (1 योहन 4:10)
ईश्वर का प्रेम इस तथ्य पर विचार नहीं करता है कि हम हर दिन परिपूर्ण होते हैं, या हम कभी उदास या निराश नहीं होते हैं। यह तथ्य कि ईश्वर ने हमसे प्रेम किया है और अपने पुत्र को हमारे पापों के लिए बलिदान के रूप में भेजा है, वह एक प्रोत्साहन है जो हमें अवसाद के अंधेरे का मुकाबला करने में मदद कर सकता है। अपने मूल में, ईश्वर दंड देने वाला कोई न्यायाधीश नहीं, बल्कि प्यार करने वाला माता-पिता है। चाहे हमारे आस-पास कोई भी कुछ भी करे, ईश्वर ने हमसे प्यार किया है और हमें प्यार करता है, यह समझ हमें सहारा देती है।
यह वास्तव में हमारी सबसे बड़ी मानवीय आवश्यकता है। हम सब अकेले हैं; हम सभी, कुछ ऐसी चीज़ की खोज और तलाश कर रहे हैं जो यह दुनिया हमें नहीं दे सकती। हर दिन हमारे ईश्वर की प्रेमपूर्ण दृष्टि में शांत बैठें और ईश्वर को आपसे प्रेम करने दें। कल्पना कीजिए कि ईश्वर आपको गले लगा रहा है, आपका पोषण कर रहा है और आपके डर, घबराहट और चिंता को दूर कर रहा है। परमपिता परमेश्वर का प्रेम प्रत्येक कोशिका, मांसपेशी और रक्त की धमनियों में प्रवाहित होने दें। उसी प्रेम को हमारे जीवन से अंधकार और भय को दूर करने दें।
दुनिया कभी भी एक आदर्श स्थान नहीं बन सकती, इसलिए हमें ईश्वर को अपनी आशा से भरने के लिए आमंत्रित करने की आवश्यकता है। यदि आप आज संघर्ष कर रहे हैं, तो किसी मित्र के पास पहुंचें और अपने मित्र को ईश्वर के हाथ और आंखें बनने दें, उन्हें आपको गले लगाने दे और आपसे प्यार करने दे। मेरे 72 वर्षों में कई बार ऐसा हुआ है जब मैं उन दोस्तों के पास पहुंचा हूं जिन्होंने मुझे संभाला, मेरा पालन-पोषण किया और मुझे सिखाया।
अपनी माँ की गोद में बैठे बच्चे जैसे ईश्वर की उपस्थिति में बैठे रहें, और तब तक संतुष्ट बैठे रहें जब तक कि आपका शरीर और मन यह सच्चाई न सीख ले कि आप ईश्वर की एक अनमोल, सुंदर संतान हैं, कि आपके जीवन का अपना एक मूल्य, उद्देश्य, अर्थ और दिशा है। ईश्वर को अपने जीवन में बहने दे।
'जब अयोग्यता के विचार मन में आएं, तो यह आजमायें…
उससे बदबू आ रही थी. उसका गंदा, भूखा शरीर उसकी बर्बाद विरासत की तरह नष्ट हो रहा था। उसे लज्जा ने घेर लिया। उसने सब कुछ खो दिया था – अपनी संपत्ति, अपनी प्रतिष्ठा, अपना परिवार – उसका जीवन टूटकर बिखर गया था। निराशा ने उसे निगल लिया था। फिर, अचानक, उसे अपने पिता का सौम्य चेहरा याद आया। सुलह असंभव लग रही थी, लेकिन अपनी हताशा में, वह “उठ कर अपने पिता के घर की ओर चल पडा। वह दूर ही था कि उसके पिता ने उसे देख लिया, और दया से द्रवित हो उठा। उसने दौड़कर उसे गले लगा लिया और उसका चुम्बन किया। तब पुत्र ने उससे कहा, “पिता जी, मैंने स्वर्ग के विरूद्ध और आपके विरुद्ध पाप किया है; मैं आपका पुत्र कहलाने योग्य नहीं रहा।’… लेकिन पिता ने कहा… ‘मेरा यह पुत्र मर गया था और फिर से जी गया है; वह खो गया था और फिर मिल गया है!’ और वे आनंद मनाने लगे” (लूकस 15:20-24)।
ईश्वर की क्षमा स्वीकार करना कठिन है। अपने पापों को स्वीकार करने का अर्थ है यह स्वीकार करना कि हमें अपने पिता की आवश्यकता है। और जब आप और मैं पिछले अपराधों के कारण अपराधबोध और शर्मिंदगी से जूझ रहे हैं, तो आरोप लगाने वाला शैतान हम पर अपने झूठ से हमला करता है: “तुम प्रेम और क्षमा के योग्य नहीं हो।” लेकिन प्रभु हमें इस झूठ को अस्वीकार करने के लिए कहते हैं!
बपतिस्मा के समय, ईश्वर की संतान के रूप में आपकी पहचान, आपकी आत्मा पर हमेशा के लिए अंकित हो गई। और उड़ाऊ पुत्र की तरह, आप अपनी असली पहचान और योग्यता की खोज करने के लिए बुलाये गए हैं। चाहे आपने कुछ भी किया हो, ईश्वर आपसे प्यार करना कभी नहीं छोड़ते। “जो मेरे पास आता है, मैं उसे कभी नहीं ठुकराऊँगा।” (योहन 6:37)।
आप और मैं कोई अपवाद नहीं हैं! तो, हम ईश्वर की क्षमा को स्वीकार करने के लिए व्यावहारिक कदम कैसे उठा सकते हैं? प्रभु को खोजें, उनकी दया को अपनाएं, और उनकी शक्तिशाली कृपा से बहाल हो जायें।
प्रभु को खोजें
अपने निकटतम गिरजाघर या आराधनालय को ढूंढें और प्रभु से आमने-सामने मुलाक़ात कर ले। ईश्वर से प्रार्थना करें कि वह अपनी दयालु आँखों से, अपने निस्वार्थ प्रेम के माध्यम से स्वयं को देखने और पहचानने में आपकी मदद करे।
इसके बाद, अपनी आत्मा की एक ईमानदार और साहसी सूची बनाएं। बहादुर बनो और मनन चिंतन करते हुए क्रूसित प्रभु येशु को देखो – अपने आप को प्रभु के पास लाओ। हमारे पापों की वास्तविकता को स्वीकार करना कठिन है, लेकिन एक सच्चा, कमजोर हृदय क्षमा का फल प्राप्त करने के लिए तैयार है।
याद रखें, आप ईश्वर की संतान हैं—प्रभु आपको विमुख नहीं करेंगे!
ईश्वर की दया को अपनायें
अपराधबोध और शर्मिंदगी के साथ लड़ना, पानी की सतह के नीचे गेंद को पकड़ने की कोशिश करने जैसा हो सकता है। इसमें बहुत मेहनत लगती है! इसके अलावा, शैतान अक्सर हमें यह विश्वास दिलाता है कि हम ईश्वर के प्रेम और क्षमा के योग्य नहीं हैं। लेकिन क्रूस से, मसीह का रक्त और जल हमें शुद्ध करने, चंगा करने और बचाने के लिए बहता रहा। आप और मैं इस दिव्य दया पर मूल रूप से भरोसा करने के लिए बुलाये गए हैं। यह कहने का प्रयास करें: “मैं ईश्वर की संतान हूँ। येशु मुझसे प्यार करते हैं। मैं क्षमा के योग्य हूँ।” इस सत्य को हर दिन दोहराएँ। इसे ऐसी जगह लिखें, जहां आप अक्सर दृष्टि दौडाते हैं। प्रभु से प्रार्थना करें कि उनकी दया के कोमल आलिंगन में स्वयं को देने में वह आपकी सहायता करें। गेंद को जाने दो और इसे येशु को सौंप दो—ईश्वर के लिए कुछ भी असंभव नहीं है!
बहाल हो जाएँ
पापस्वीकार संस्कार में, हम ईश्वर के उपचार और शक्ति की कृपा से बहाल होते हैं। शैतान के झूठ के विरुद्ध लड़ें और इस शक्तिशाली संस्कार में मसीह से मुलाकात कर लें। यदि आप अपराधबोध या शर्मिंदगी से जूझ रहे हैं तो पुरोहित को बताएं, और जब आप अपने पश्चाताप के कार्य के बारे में बताएं, तो अपने दिल को प्रेरित करने के लिए पवित्र आत्मा को आमंत्रित करें। जैसे ही आप पाप मुक्ति के शब्द सुनते हैं, ईश्वर की असीम दया पर विश्वास करना चुनें: “ईश्वर आपको क्षमा और शांति दे, और मैं आपको पिता, और पुत्र, और पवित्र आत्मा के नाम पर पापक्षमा प्रदान करता हूँ।” अब आप ईश्वर के अनंत प्रेम और क्षमा में बहाल हो गए हैं!
अपनी असफलताओं के बावजूद, मैं हर दिन ईश्वर से उनके प्रेम और क्षमा को स्वीकार करने में मेरी मदद करने के लिए कहता हूं। हो सकता है कि हम उड़ाऊ पुत्र की तरह गिर गए हों, लेकिन आप और मैं अभी भी ईश्वर के बेटे और बेटियाँ हैं, उनके अनंत प्रेम और करुणा के योग्य हैं। ईश्वर आपसे प्रेम करता है, यहीं, इसी क्षण — उसने प्रेम के कारण आपके लिए अपना जीवन त्याग दिया। यह सुसमाचार की परिवर्तनकारी आशा है! इसलिए, ईश्वर की क्षमा को अपनाएं और साहसपूर्वक उसकी दिव्य दया को स्वीकार करने का साहस करें। ईश्वर की अनंत करुणा आपका इंतजार कर रही है! “नहीं डरो, मैंने तुम्हारा उद्धार किया है। मैंने तुमको अपनी प्रजा के रूप में अपनाया है।” (इसायाह 43:1)
'कलकत्ता की सड़कों पर तपती दोपहरी में मेरी मुलाकात एक लड़के से हुई…
प्रार्थना प्रत्येक मसीही के जीवन का एक निर्विवाद, केंद्रीय और महत्वपूर्ण हिस्सा है। हालाँकि, येशु ने दो और चीजों पर जोर दिया जो स्पष्ट रूप से प्रार्थना के साथ-साथ चलती थीं – उपवास और दान (मत्ती 6:1-21)। चालिसे का तपस्याकाल और आगमन काल के दौरान, हम विशेष रूप से उपरोक्त तीनों तपस्वी प्रथाओं के लिए अधिक समय और प्रयास समर्पित करने के लिए बुलाये जाते हैं। ‘अधिक’ महत्वपूर्ण शब्द है. हम जिस भी काल में हों, आमूल-चूल आत्म-त्याग और दान प्रत्येक बपतिस्मा प्राप्त विश्वासी के लिए एक निरंतर आह्वान है। लगभग आठ साल पहले, ईश्वर ने सचमुच इसके बारे में सोचने पर मुझे मजबूर किया।
अप्रत्याशित मुलाकात
2015 में, मुझे भारत के कोलकत्ता में दुनिया भर के सबसे जरूरतमंद भाइयों और बहनों के साथ रहने और उनकी सेवा करने का आजीवन सपना पूरा करने का महान सौभाग्य और आशीर्वाद मिला, जहां गरीबों को न केवल गरीब बल्कि ‘सबसे गरीब’ के रूप में वर्णित किया जाता है। जिस क्षण मैं हवाई जहाज से उतरा, उसी क्षण से ऐसा लगा मानो मेरी रगों में बिजली दौड़ रही हो। संत मदर तेरेसा के धार्मिक समूह, मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी के साथ ईश्वर की सेवा करने का यह अद्भुत अवसर प्राप्त होने पर मुझे अपने दिल में बड़ी कृतज्ञता और प्यार का एहसास हुआ। दिन बड़े थे लेकिन वे विभिन्न गतिविधियों से भरपूर और कृपा से भरे हुए थे। जब मैं वहां था, मेरा एक क्षण भी बर्बाद करने का इरादा नहीं था। प्रत्येक दिन सुबह 5 बजे एक घंटे की प्रार्थना के साथ शुरुआत करने के बाद, पवित्र मिस्सा और नाश्ते के बाद, हम बीमार, निराश्रित और मरणासन्न वयस्कों के लिए बने एक सेवा-आश्रम में सेवा कार्य करने के लिए निकल पड़ते थे। मध्यान्ह भोजन के अवकाश के लिए हम लौटते थे, उस दौरान हल्के भोजन खाने के बाद, जिन धर्मसंघी भाइयों के साथ मैं रह रहा था उनमें से कई ने अपनी बैटरी को रीचार्ज करने के लिए आराम किया, ताकि अपराह्न में और शाम को फिर से उस सेवा-आश्रम जाने के लिए तैयार हो सकें।
एक दिन, घर में आराम करने के बजाय, मैंने अपने परिवार से ईमेल द्वारा संपर्क करने के लिए एक स्थानीय इंटरनेट कैफे खोजने के लिए टहलने का फैसला किया। जैसे ही मैं एक कोने पर मुड़ा, मुझे लगभग सात या आठ साल का एक लड़का मिला। उसके चेहरे पर हताशा, क्रोध, उदासी, चोट और थकान के मिश्रित भाव व्यक्त हो रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे जीवन ने उस पर अपना प्रभाव डालना शुरू कर दिया है। वह अपने कंधे पर बहुत बड़ा पारदर्शी प्लास्टिक बैग ले जा रहा था, इतना बड़ा भारी भरकम बैग मैंने अपने जीवन में पहले कभी नहीं देखा था। इसमें प्लास्टिक की बोतलें और अन्य प्लास्टिक के सामान थे और वह भरा हुआ था।
सड़क किनारे हम दोनों चुपचाप खड़े होकर एक-दूसरे का निरीक्षण कर रहे थे, और उसी समय मेरा दिल टूट गया। तब मेरे मन में विचार आया कि मैं इस लड़के को क्या दे सकता हूँ। जैसे ही मैंने अपनी जेब की ओर हाथ बढ़ाया, मेरा दिल बैठ गया, यह महसूस करते हुए कि मेरे पास इंटरनेट उपयोग करने के लिए केवल थोड़ी सी नकदी थी जो एक पाउंड से भी कम था। उसकी आँखों में देखते हुए, जैसे ही मैंने उसे वह सारा पैसा दे दिया, ऐसा लगा मानो उसका पूरा अस्तित्व बदल रहा है। वह बहुत उत्साहित हो गया और उसके चेहरे पर आभार का भाव था, क्योंकि उसकी खूबसूरत मुस्कान उसके सलौने चेहरे पर चमक ला रही थी। हमने हाथ मिलाया और वह आगे बढ़ गया। जब मैं कलकत्ता की उस गली में खड़ा था, तो मैं आश्चर्यचकित रह गया, क्योंकि मुझे पता था कि सर्वशक्तिमान ईश्वर ने इस मुलाकात के माध्यम से मुझे व्यक्तिगत रूप से जीवन बदलने वाला इतना शक्तिशाली सबक सिखाया था।
आशीर्वाद प्राप्त करना
मुझे लगा कि ईश्वर ने उस पल में मुझे खूबसूरती से सिखाया था कि महत्व हमारे उपहार में नहीं है, जिसे हम ज़रूरतमंद को देते हैं, बल्कि जिस आचरण, इरादा और प्यार के साथ उपहार दिया जाता है, वही महत्वपूर्ण है। संत मदर तेरेसा ने इसे खूबसूरती से संक्षेप में रखते हुए कहा, “हम में से हर एक बड़े और महान काम नहीं कर सकते, लेकिन हम बड़े प्यार से छोटे काम कर सकते हैं।” वास्तव में, संत पौलुस ने कहा है, यदि हम अपना सब कुछ दे देते हैं, लेकिन हम में “प्रेम का अभाव है “, तो इससे हमें कुछ भी लाभ नहीं” (1 कुरिन्थी 13:3)।
येशु देने की सुंदरता का वर्णन करते हैं, कि “दो और तुम्हें भी दिया जाएगा;” दबादबा कर, हिला हिलाकर, भरी हुई, ऊपर उठी हुई, पूरी की पूरी नाप तुम्हारी गोद में दाल दी जायेगी, क्योंकि जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिए नापा जाएगा” (लूकस 6:38)। संत पौलुस हमें यह भी याद दिलाते हैं कि “मनुष्य जो बोता है वही लुनता है” (गलाती 6:7)। हम पाने के लिए नहीं देते हैं, परन्तु जब हम प्रेम में आगे कदम रखते हैं, तब परमेश्वर अपनी अनंत बुद्धि और भलाई में हमें व्यक्तिगत रूप से इस जीवन में और अगले जीवन में भी आशीर्वाद देता है । जैसा कि येशु ने हमें सिखाया, “लेने की अपेक्षा देना अधिक सुखद है” (प्रेरित 20:35)।
'जिंदगी हर किसी पर जोरदार प्रहार करती है, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि कुछ लोग क्यों कभी हारते नहीं हैं?
सऊदी अरब में काम करने वाले प्रत्येक प्रवासी के लिए वार्षिक छुट्टियां वर्ष का मुख्य आकर्षण होती हैं। मैं भी भारत की ओर अपनी वापसी यात्रा का इंतज़ार कर रहा था। यह वार्षिक अवकाश हमेशा क्रिसमस के आसपास होता था।
यात्रा के लिए बस कुछ ही हफ्ते बचे थे, जब मुझे अपने परिवार से एक ईमेल मिला। हमारी एक घनिष्ठ मित्र नैन्सी ने मेरे परिवार को यह कहने के लिए फोन किया था कि येशु मेरी छुट्टियों के लिए विशेष प्रार्थनाएँ माँग रहे हैं। बेशक, मैंने इसे अपनी दैनिक प्रार्थना सूची में शामिल किया।
मेरे अधिकांश प्रवास के दौरान कोई खास असाधारण घटना नहीं हुई। एक एक सप्ताह ज़्यादतर घर में ही तेजी से बीत गए। क्रिसमस आया और परम्परागत उत्साह के साथ मनाया गया। डेढ़ महीने के मौज-मस्ती भरे दिनों के बाद, मेरी छुट्टियों के दिन लगभग ख़त्म हो चुके थे। कुछ भी असाधारण नहीं हुआ और नैंसी का वह संदेश धीरे-धीरे भुला दिया गया।
एक जोरदार मुक्का
अपनी वापसी यात्रा से दो दिन पहले मैंने अपना बैग पैक करने का फैसला किया। सूची में पहला आइटम मेरा पासपोर्ट था, और मैं इसे कहीं भी नहीं ढूंढ पा रहा था! तब एक स्तब्ध कर देने वाला एहसास हुआ: मैं दो दिन बाद की अपनी उड़ान की पुष्टि के लिए उस सुबह इसे ट्रैवल एजेंट के पास ले गया था, और वह पासपोर्ट शायद अभी भी मेरी जींस की जेब में था, जिसे मैं आज सुबह पहना था। हालाँकि, मैंने पहले इस जीन्स को धोने योग्य कपड़ों की टोकरी में फेंक दिया था! और अफ़सोस की बात, मैं ने उस जीन्स को टोकरी में फेंकने के पहले जेब की जांच नहीं की थी।
मैं वॉशिंग मशीन की ओर दौड़ा और ढक्कन खोला। मशीन के अन्दर जींस इधर उधर घूम रही थी। जितनी तेजी से हो सकता था मैंने जींस को बाहर निकाला और अपना हाथ सामने की जेब में डाला; जैसे ही मैंने गीला पासपोर्ट निकाला तो मेरे मन में भय की भावना फैल गई।
अंदर के अधिकांश पन्नों पर लगी सरकारी मुहरें क्षतिग्रस्त हो चुकी थीं। कुछ यात्रा की मुहरें धूमिल हो चुकी थीं और सबसे दु:खद बात यह है कि सऊदी अरब का प्रवेश वीज़ा की स्याही भी धुंधली हो चुकी थी। अब मैं क्या करूं, इसका मुझे कोई अंदाजा नहीं था। एकमात्र अन्य विकल्प नए पासपोर्ट के लिए आवेदन करना और राजधानी शहर में आगमन पर नया प्रवेश वीजा प्राप्त करने का प्रयास करना था। हालाँकि, मेरे पास इसके लिए पर्याप्त समय नहीं बचा था। मेरी नौकरी संकट में थी।
बचाव के लिए तैयार मेरी फ़ौज
मैंने पासपोर्ट को अपने बिस्तर पर खुला रख दिया और इसे सूखने की उम्मीद में छत का पंखा चालू कर दिया। मैंने अपने परिवार के बाकी सदस्यों को सब कुछ बता दिया। हमेशा की तरह, हम एक साथ प्रार्थना में शामिल हुए, उस स्थिति को येशु के हाथों में सौंपा और उनसे मार्गदर्शन मांगा। मैंने नैंसी को भी फोन करके हादसे के बारे में बताया। वह हमारे लिए भी प्रार्थना करने लगी; इससे अधिक हम और कुछ नहीं कर सकते थे।
उस रात को, नैन्सी ने मुझे यह कहने के लिए फोन किया कि येशु ने उससे कहा था कि उनका दूत मुझे रियाद तक ले जाएगा! दो दिन बाद, प्रार्थना में शक्ति पाकर, मैंने अपने परिवार को अलविदा कहा, अपना सामान चेक किया और रियाद की ओर अपनी पहली उड़ान में चढ़ गया।
मुंबई हवाई अड्डे पर जहां मैंने उड़ानें बदलीं, मैं अंतरराष्ट्रीय टर्मिनल पर आव्रजन मंजूरी के लिए लाइन में शामिल हो गया। थोड़ा चिंतित महसूस करते हुए, मैंने अपना पासपोर्ट खोलकर इंतजार किया। शुक्र है, अधिकारी ने बमुश्किल नीचे देखा और फिर बिना सोचे-समझे पन्ने पर मोहर लगाकर मुझे विदा कर दिया!
ईश्वरीय कृपा से भरा हुआ, मैं ने शांति का अनुभव किया। सऊदी अरब में हवाई जहाज के उतरने के बाद, मैंने प्रार्थना करना जारी रखा और अपना सामान उठाया और आव्रजन जांच चौकी पर लंबी लाइनों में से एक में शामिल हो गया। लाइन धीरे-धीरे आगे बढ़ी क्योंकि अधिकारी प्रवेश वीजा पर मुहर लगाने से पहले प्रत्येक पासपोर्ट की सावधानीपूर्वक जांच कर रहे थे। आख़िरकार, मेरी बारी आ गयी। अपने पासपोर्ट का सही पृष्ठ को खोलकर, मैं उनकी ओर आगे बढ़ा। उसी क्षण, एक अन्य अधिकारी आये और इनसे बातचीत करने लगे। जब वे चर्चा में डूबे हुए थे, आव्रजन अधिकारी ने मेरे पासपोर्ट पर प्रवेश वीजा की मोहर लगा दी, और बमुश्किल पन्नों पर नज़र डाली।
मैं रियाद सकुशल वापस आ गया था, अपने रखवाल स्वर्गदूत को धन्यवाद, जिसने बिल्कुल सही समय पर मुझे “आग की भट्टी में से बाहर निकाला था”।
संरक्षक-अभी, तब और हमेशा
निस्संदेह, इस यात्रा ने रखवाल दूत के साथ मेरे रिश्ते को समृद्ध और सुदृढ़ बना दिया। हालाँकि, येशु ने मेरे लिए एक और सबक रेखांकित किया: मेरा मार्गदर्शन और नेतृत्व एक जीवित ईश्वर द्वारा किया जा रहा है जो मेरे रास्ते में आने वाले हर संकट का मुझे पूर्वाभास दिलाता है। उसकी अंगुली पकड़कर चलने से, उसके निर्देशों को सुनने से, और उसका पालन करने से, मैं किसी भी बाधा को संभाल सकता हूं। “यदि तुम सन्मार्ग से दायें या बाएं भटक जाओगे, तो तुम पीछे से यह वाणी अपने कानों में सुनोगे – सच्चा मार्ग यही है, इसी पर चलो” (इसायाह 30:21)।
अगर नैन्सी ईश्वर की आवाज़ नहीं सुन रही होती, और अगर हम निर्देशानुसार प्रार्थना नहीं कर रहे होते, तो शायद मेरा जीवन पटरी से उतर जाता। तब से हर क्रिसमस, तथा अपनी मातृभूमि की ओर मेरी हर यात्रा, ईश्वर की अग्रणी व्यवस्था और सुरक्षात्मक आलिंगन की याद दिलाती है।
'मैंने एक साल पहले अपना आई-फोन खो दिया था। पहले तो ऐसा लगा जैसे शरीर का कोई अंग कट गया हो। मेरे पास तेरह साल से यह आई-फोन था और यह मेरे स्वयं के एक हिस्से की तरह था। शुरूआती दिनों में, मैंने “नए आई-फोन” को सिर्फ एक फ़ोन की तरह इस्तेमाल किया, लेकिन जल्द ही यह अलार्म घड़ी, कैलकुलेटर, अखबार, मौसम, बैंकिंग और बहुत कुछ बन गया…और फिर…यह हाथ से निकल गया।
आई फोन खो जाने के बाद जब मुझे डिजिटल डिटॉक्स, यानी आई फोन के कारण मेरे मन में व्याप्त विष उन्मूलन की प्रक्रिया में जाने के लिए मजबूर किया गया, तो मेरे सामने कई गंभीर समस्याएँ खड़ी हो गईं। अब से मुझे अपनी शॉपिंग की सूची को कागज़ पर लिखने की ज़रूरत पड़ी। मैं ने एक अलार्म घड़ी और एक कैलकुलेटर खरीदा। पूर्व में, मुझे रोज़ाना सन्देश आने पर जो ‘पिंग’ आवाज़ आई-फोन से सुनाई देती थी और उन संदेशों को जल्दी जल्दी देखने की होड़ थी (और दूसरों द्वारा स्वीकृत किये जाने और चाहने का एहसास), ये सारी बातें अब केवल स्मृतियाँ रह गयीं।
लेकिन अब इस छोटे से धातु का टुकड़ा मेरे जीवन पर हावी नहीं हो रही है, और उससे अब मैं अपार शांति महसूस कर रही थी।
जब यह यंत्र मेरे हाथ से चला गया, तभी मुझे यह एहसास हुआ कि यह मुझसे कितनी प्रकार की मांग करती थी, और मुझ पर हावी होकर मेरा नियंत्रण करती थी। तब भी दुनिया रुकी नहीं। मुझे बस दुनिया के साथ बातचीत करने के नए-पुराने तरीके सीखने थे, जैसे लोगों से आमने-सामने बात करना और घटनाओं की योजना बनाना। मैं इसे बदलने की जल्दी में नहीं थी। वास्तव में, इसके खत्म होने से मेरे जीवन में एक स्वागत योग्य क्रांति आई।
मैंने अपने जीवन में मीडिया का न्यूनतम प्रयोग करना शुरू कर दिया। अब से कोई अखबार, पत्रिकाएँ, रेडियो, टेलीविज़न या फ़ोन नहीं। मैंने काम के ईमेल, सप्ताहांत पर चुनिंदा यू ट्यूब वीडियोज़ और कुछ स्वतंत्र समाचार पोर्टल के लिए एक आइ-पैड रखा। यह एक प्रयोग था, लेकिन इसने मुझे अमन और शांति महसूस कराया, जिससे मैं अपना समय प्रार्थना और धर्म ग्रन्थ के अध्ययन के लिए उपयोग कर सकी।
मैं अब और अधिक आसानी से परमेश्वर से जुड़ सकती हूँ, जो “कल, आज और युगानुयुग एकरूप रहते हैं।” (इब्रानी 13:8)। पहली आज्ञा “अपने प्रभु ईश्वर को अपने सारे ह्रदय, अपनी सारी आत्मा, अपनी सारी बुद्धि और सारी शक्ति से प्यार करने और अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करने” के लिए हमें कहती है (मारकुस 12:30-31)। मुझे आश्चर्य होता है कि जब हमारा दिमाग दिन के ज़्यादातर समय हमारे फ़ोन पर लगा रहता है, तब हम ऐसा कैसे कर सकते हैं !
क्या हम वाकई अपनी बुद्धि से परमेश्वर से प्यार करते हैं? रोमी 12:2 कहता है: “आप इस संसार के अनुकूल न बने, बल्कि सब कुछ नयी दृष्टि से देखें और अपना स्वभाव बदल लें।”
मैं आपको चुनौती देती हूँ कि आप मीडिया से विरक्त रहें, चाहे थोड़े समय के लिए ही क्यों न हो। अपने जीवन में उस परिवर्तनकारी अंतर को महसूस करें। जब हम खुद को थोड़ा आराम देंगे तभी हम अपने प्रभु परमेश्वर को नवीकृत मन से प्रेम कर पायेंगे।
'प्रश्न – मुझे कैसे पता चलेगा कि खेलों के प्रति मेरा प्रेम मूर्तिपूजा है? मैं कॉलेज की छात्रवृत्ति पाने की उम्मीद से दिन में चार घंटे खेल का अभ्यास करता हूं और इसके बारे में हर समय सोचता रहता हूं| खेल में निपुण टीमों को ध्यानपूर्वक देखता रहता हूं। मैं परमेश्वर से प्रेम करता हूं लेकिन परमेश्वर के प्रति मुझे वैसा आकर्षण नहीं होता जैसा खेलों के प्रति होता है। खेलों के प्रति मेरा जुनून कब मूर्तिपूजा की सीमा पार कर सकता है ?
उत्तर – मैं भी खेलों के प्रति बहुत लालायित हूँ। मैंने हाई स्कूल और कॉलेज में बेसबॉल खेला, और यहां तक कि एक पुरोहित के रूप में, मैं अल्टीमेट फ्रिसबी, सॉकर और अमेरिकी फुटबॉल खेलना जारी रखता हूं। संत पापा जॉनपॉल द्वितीय ने एक बार कहा था, खेल “सद्गुण का क्षेत्र” हो सकते हैं। लेकिन हमारे आधुनिक दुनिया में, हम अक्सर खेलों को बहुत ऊंचा स्थान देते हैं… शायाद बहुत ही अधिक ऊंचा स्थान|
मेरे कॉलेज के बेसबॉल कोच का एक महान कथन था: “खेलों में कुछ भी शाश्वत नहीं है।” इस कथन ने मुझे हर चीज़ को परिप्रेक्ष्य में रखने में मदद की है। चैंपियनशिप जीतने से या खेल हारने से अनंत जीवन पर कोई फरक नहीं पड़ेगा। इसका उद्देश्य आनंद लेना है और हमें व्यायाम करने और टीम वर्क, अनुशासन, साहस और निष्पक्षता का अभ्यास करने का अवसर देना है – लेकिन अगर किसी एथलेटिक प्रतियोगिता का शाश्वत जीवन पर कोई परिणाम नहीं होता।
तो हम खेलों को उसके उचित परिप्रेक्ष्य में कैसे रखें? हम यह जानने के लिए कि खेल (या कुछ और) कब एक मूर्ति बन गया है इस केलिए हम तीन बातों पर गौर करें:
पहला है, समय: – हम खेल में कितना समय बिताते हैं या हम परमेश्वर के साथ कितना समय बिताते हैं? मैंने एक बार एक कक्षा में बैठे युवाओं को प्रतिदिन अपने घर में जाकर दस मिनट प्रार्थना में बिताने की चुनौती दी थी, और एक लड़के ने मुझे बताया कि यह असंभव है क्योंकि वह वीडियो गेम खेलता था। मैंने उससे पूछा कि वह कितना समय विडियो गेम पर बिताता है, तो उसने मुझे बताया कि वह अक्सर दिन में आठ से ग्यारह घंटे खेलता है| यदि किसी व्यक्ति के पास गंभीर प्रार्थना जीवन के लिए प्रतिदिन पंद्रह से बीस मिनट का न्यूनतम समय नहीं है, क्योंकि वे युवा वह समय खेलों में बिता रहे हैं, तो यह वास्तव में मूर्तिपूजा है। इसका मतलब यह नहीं है कि ये दोनों पूरी तरह बराबर होना चाहिए – यदि आप प्रतिदिन दो घंटे अभ्यास करते हैं, तो इसका मतलब यह नहीं है कि आपको आवश्यक रूप से प्रतिदिन दो घंटे प्रार्थना करने की आवश्यकता है। लेकिन आपके प्रार्थनामय जीवन के लिए आपके पास पर्याप्त समय होना चाहिए ।
इसमें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारा खेल रविवार की आराधना के साथ न टकराए। मेरा भाई, एक उत्कृष्ट फुटबॉल खिलाडी था, उन्हें एक बार खेल का एक महत्वपूर्ण अभ्यास छोड़ना पड़ा क्योंकि यह अभ्यास ईस्टर रविवार की सुबह हो रहा था। जो कुछ भी हम रविवार की मिस्सा के बजाय करते हैं वह हमारी मूर्ति बन जाता है |
परमेश्वर को हमारे बलिदान का एक अभिन्न हिस्सा बनाने के लिए समय देना भी इसमें शामिल है । क्या आपके पास अपने गिरजाघर के या अन्य कोई स्थानीय संस्था के दयाकार्य में स्वयंसेवा करने के लिए समय है? क्या आपके पास अपने दैनिक कर्तव्यों को अच्छी तरह से करने के लिए तथा (अपनी पढ़ाई को अपनी पूरी क्षमता के अनुसार करने, घरेलू काम करने और एक अच्छे बेटे/बेटी और मित्र होने) केलिए पर्याप्त समय है?? यदि खेलों में इतना समय लगता है कि दूसरों को देने के लिए कोई समय नहीं है, तो हम संतुलन से बाहर हैं।
दूसरा है पैसा: हम खेलों, उपकरणों, प्रशिक्षकों, जिम सदस्यताओं पर कितना पैसा खर्च करते हैं – यहाँ तक कि हम गिरजाघर में, दया के कार्य में या गरीबों को कितना पैसा देते हैं? हम जहां अपना पैसा खर्च करते हैं वह निर्धारित करता है कि हमारी प्राथमिकताएं क्या हैं । फिर, यह आवश्यक रूप से पूरी तरह से समान अनुपात नहीं है – लेकिन उदारता परमेश्वर का एक प्रमुख गुण है, जिससे सभी अच्छी चीजें आती हैं।
अंत में है उत्साह: अमेरिका में, जहाँ मैं रहता हूँ, अमेरिकन फुटबॉल हमारा राष्ट्रीय धर्म है। जब मैं देखता हूँ कि कई पुरुष ग्रीन बे पैकर्स के खेल में शून्य से नीचे के तापमान में बाहर बैठते हैं, अपनी शर्ट उतारकर टीम के रंग में पेंट किए हुए अपने सीने का प्रदर्शन करते हैं, फोम की टोपी को पहने हुए है (यह एक अजीब परंपरा है!), अपने गला फाड़कर, फेफड़ा खोलकर चिल्लाते हैं तो मुझे आश्चर्य होता है उन्हें देखता हूँ… और इन्हीं में से कई पुरुष रविवार सुबह की आराधना में गिरजाघर में उबाऊ होंगे, मिस्सा बलिदान के जवाब को केवल अनमने ढंग से कम आवाज़ में बडबडाते हैं (यदि वे गिरजाघर तक पहुँच गए तो)।
आपको कौन सी चीज़ उत्साहित करता है? क्या आपको एक खेल प्रतियोगिता से अधिक उत्साह होता है, जिसे एक साल बाद याद नहीं किया जाएगा, या पवित्रता के लिए जोखिम भरी, संघर्ष भरी खोज की चुनौती और आनंद, जिससे ईश्वर के राज्य को आगे बढ़ाने, आत्माओं के लिए युद्ध करने का अवसर प्राप्त होता है, जिसके अनंत फल होते हैं? वह एक अनंत विजय की पीछे दौड़ लगाना जैसा है, और यह जीत आपको प्राप्त तमाम खेल के ट्राफियों को फीका बना देगीI
अगर आपको लगता है कि आपका खेल के प्रति उत्साह अभी भी मजबूत है, तो ख्रिस्तीय धर्म क्या है इसपर सोच विचार और ध्यान करें। संत बनने की खोज से अधिक रोमांचक और उत्कृष्ट इस पृथ्वी पर कुछ भी नहीं है। इसमें एक अच्छे खिलाड़ी के कई विशेषताएँ शामिल हैं: स्व-त्याग, समर्पण और एकल-मन से लक्ष्य की पुनरावृत्ति। लेकिन हमारा लक्ष्य अनंत जीवन से गुंजायमान है!
इन तीन बातों को विचार कीजिये— कहां आप अपना समय बिताते हैं, आप अपने पैसे कैसे खर्च करते हैं, और आपको क्या उत्साहित करता है। कुछ चीज़ें हमारे लिए मूर्ती कब बन जाती हैं, इसे समझने केलिए यह प्रक्रिया हमें मदद देगी।
'बहुत धनी, सर्व-ज्ञानी, अति-सम्मानित और आदरणीय, शक्तिशाली असरदार व्यक्ति … सूची अंतहीन है, लेकिन आप कौन हैं, इस सवाल की बात जब आती है तो ये सब विशेषण मायने नहीं रखते।
60 के दशक की शुरुआत के दौर में, द बर्ड्स नामक लोक-रॉक समूह का एक प्रचलित और लोकप्रिय गाना था: टर्न! टर्न! टर्न! इसे बाइबिल के उपदेशक ग्रन्थ के तीसरे अध्याय से रूपांतरित किया गया था। मुझे यह गाना बहुत पसंद आया। इसने मुझे पूरा उपदेशक ग्रन्थ को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया, जो मुझे बहुत अजीब लगा। यह इसलिए अजीब था क्योंकि, गाने के बोलों के विपरीत, मेरे लिए ग्रन्थ का बाकी हिस्सा, खासकर पहला अध्याय, मानवीय स्थिति का एक अविश्वसनीय वर्णन था।
उपदेशक ग्रन्थ के लेखक कोहेलेथ, अपने आप को बूढ़ा व्यक्ति कहता है जिसने जीवन में भौतिक वस्तुओं का यह सब सुख देखा है, यह सब किया है, और यह सब अनुभव किया है। उसने जीवन की हर चीज का सुख भोगा है: वह बहुत धनी है, उसने बहुत ज्ञान संचित किया है, अपने साथियों द्वारा अच्छी तरह से सम्मानित है, जीवन को सही दिशा में संचालित करने का सामर्थ्य है, और मूल रूप से उसके रास्ते में आ चुके हर सुख को भोगा है। लेकिन, यह सब देखते हुए, वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
क्यों नहीं? मुझे लगता है कि उसने गहराई से महसूस किया है कि आपके पास क्या है, उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है कि आप कौन हैं। ऐसा क्यों? इसका कारण अपेक्षाकृत सीधा और सरल है – दुनिया की चीजें हमेशा हाथ से निकल जाती हैं और गायब हो जाती हैं क्योंकि वे क्षणभंगुर, अस्थाई, सीमित और अल्पकालिक हैं।
इससे पहले कि आप का जीवन आपसे ले लिया जाएं
हम कौन हैं यह हमारे नैतिक और आध्यात्मिक चरित्र का मामला है, हमारी आत्मा का मामला है। उत्पत्ति ग्रन्थ के शुरुआती अध्यायों में, हमें पता चलता है कि हम ईश्वर के प्रतिरूप और सादृश्य में बनाए गए हैं, जो हमें ईश्वर के असली अस्तित्व और अनंतता में भाग लेने के लिए तैयार करता है। सीधे शब्दों में कहें तो, हम ईश्वर के साथ अपने रिश्ते में वही हैं जो हम हैं, न कि हमारे पास क्या है। हम मूल रूप से आध्यात्मिक और धार्मिक प्राणी हैं।
सुसमाचार में धनी मूर्ख के दृष्टांत में, येशु उपरोक्त सत्य से मिलती जुलती बात कहते हैं, लेकिन इससे बढ़कर कहीं आगे जाते हैं। येशु प्रभावी रूप से उस व्यक्ति का मजाक उड़ाते हैं जो अपना पूरा भरोसा अपनी संपत्ति और सुरक्षा के प्रति रखता है, इस गलत धारणा में कि उसकी संपत्ति उसे आनंद देगी। वह व्यक्ति न केवल धनी है, बल्कि उसकी संपत्ति में नाटकीय रूप से वृद्धि होने वाली है क्योंकि उसकी फसल अच्छी हुई है। तो, वह क्या करता है? वह अपने पुराने खलिहानों को गिराने और अपने अतिरिक्त दौलत को संग्रहीत करने के लिए बड़े खलिहान बनाने का संकल्प लेता है। उस मनुष्य ने अपने जीवन को कई बातों पर आधारित किया है: (1) दुनिया की चीज़ें मूल्यवान हैं; (2) कई साल वह ऐसी जीवनशैली जियेगा जो उसकी महत्वाकांक्षाओं को साकार करने में काम आएगी; (3) उसका धन शांति और उन्मुक्त असीमित आनंद की भावना को बढ़ावा देगा। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए, उसके पास किसी बात की कमी नहीं है।
इसके विपरीत, हे मूर्ख! कहकर परमेश्वर ने उससे जो वचन कहा, वह उसकी योजनाओं को निरर्थक कर देता है: “हे मूर्ख, इसी रात प्राण तुझ से ले लिए जायेंगे, और तू ने जो इकट्ठा किया है, वह अब किस का होगा?” (लूकस 12:20) येशु उसे बता रहे हैं कि परमेश्वर उसकी सम्पत्ति नहीं, बल्कि उसका जीवन माँग रहा है—वह कौन है! और यह माँग दूर के भविष्य में नहीं, बल्कि यहीं, अभी की जा रही है।
इस रात, तुम्हारी आत्मा, तुम्हारा हृदय, तुम्हारा जीवन तुमसे माँग लिया जाएगा। “इसलिए,” येशु कहते हैं, “यही दशा उसकी होती है जो अपने लिए तो धन एकत्र करता है, किन्तु ईश्वर की दृष्टि में धनी नहीं हैं।” (लूकस 12:21) ‘जीवन में सुख’ के बजाय, अर्थात्, संसार की वस्तुओं के संचय के बजाय, येशु उसे अपना जीवन समर्पित करने का प्रस्ताव देते हैं। “ईश्वर के राज्य की खोज में लगे रहो, ये सब चीज़ें भी तुम्हें यों ही मिल जाएँगी।” (लूकस 12:31)
अंततः वास्तविक
प्रिय पाठक, यह मुख्य बिंदु है – एक मौलिक या तो यह या वह विकल्प: क्या मेरी नज़र ईश्वर पर है या दुनिया की वस्तुओं पर? यदि पहला, तो हम मानव होने की अपनी सच्ची गरिमा को जीएँगे। हम ईश्वर को अपने पूरे दिल और आत्मा से प्यार करेंगे और अपने पड़ोसी को अपने जैसा ही प्यार करेंगे, क्योंकि हमारी नीव अंततः जो वास्तविक है, उसमें निर्मित है । हम ईश्वर, अपने पड़ोसी और पूरी सृष्टि के साथ सही रिश्ते में होंगे।
दुनिया की वस्तुओं से जुड़े रहना संभवतः दिल की इच्छा को संतुष्ट नहीं कर सकता, क्योंकि वे हमें प्यार नहीं कर सकते, और प्यार पाना ही आत्मा की मूल इच्छा है। इसके बजाय, दुनिया की वस्तुओं से प्यार पाने का जुनून और लत अधिक भूख का कारण बनती है और चिंता की अत्यधिक बढ़ी हुई भावना को जन्म देती है। सीधे शब्दों में कहें तो, अगर हम अपने जीवन में पवित्र और पारलौकिक को अस्वीकार करते हैं, तो हम अनिवार्य रूप से अपने अस्तित्व के प्रति भय, अपने साथी मनुष्यों से खालीपन और अलगाव की भावना, गहरे अकेलेपन तथा अपराधबोध का अनुभव करेंगे।
इसका अंत इस तरह नहीं होना चाहिए। येशु हमें इस बात पर यथार्थवादी नज़र डालने के लिए आमंत्रित करते हैं कि कैसे धन हमारे दिलों को गुलाम बना सकता है, और हमें उस जगह से विचलित कर सकता है जहाँ हमारा सच्चा खजाना है, जिसकी पूर्ती स्वर्ग में परमेश्वर के राज्य के रूप में होती है। इसी तरह, संत पौलुस ने कलोसियों को लिखे अपने पत्र में हमें याद दिलाया कि “आप पृ्थ्वी पर की नहीं, ऊपर की चीज़ों की चिंता किया करें” (3:1-2)।
इसलिए, हमारे लिए यह जाँचना ज़रूरी है कि हम वास्तव में किससे प्यार करते हैं। सुसमाचार के अनुसार जिया गया प्रेम सच्ची खुशी का स्रोत है, जबकि भौतिक वस्तुओं और धन की अतिरंजित और बिना किसी प्रतिफल की खोज अक्सर बेचैनी, चिंता, दूसरों के साथ दुर्व्यवहार, हेरफेर और वर्चस्व का कारण बन जाता है।
उपदेशक ग्रन्थ, लूकस के सुसमाचार और पौलुस के पत्र से प्राप्त सभी पाठ इस प्रश्न की ओर संकेत करते हैं: ‘मैं कौन हूँ?’, आप कौन है यह आपके पास जो है उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। जो बात मायने रखती है वह यह है कि आप ईश्वर की प्रिय संतान हैं, जिन्हें अंततः ईश्वर के प्रेम में विश्राम करने के लिए बनाया गया है।
'तपस्या काल आने वाला है। क्या आप को अपने पसंदीदा गाने छोड़ने में तकलीफ होगी?
बचपन में, मैं बहुत ही शोरगुल करने वाली बच्ची थी; मैं बहुत अधिक गपशप करती थी और संगीत के प्रति मेरा गहरा प्रेम था। मेरी सबसे पुरानी यादों में से एक है, जब मैं अकेले ही रेडियो चालू करती थी और उस छोटे से बक्से से जादुई तरीके से निकलता हुआ संगीत सुनकर आनंद विभोर हो जाती थी। यह मेरे लिए एक पूरी नई दुनिया में प्रवेश करने जैसा था!
मेरा पूरा परिवार संगीत से प्यार करता था, और हम अक्सर गाते थे, पियानो बजाते थे, गिटार बजाते थे, शास्त्रीय संगीत सुनते थे, या अपनी खुद की धुनें बनाते थे। मुझे याद है कि मैं सोचती थी कि अगर बैकग्राउंड में कोई मधुर साउंडट्रैक बज रहा होता तो जीवन कितना बेहतर होता।
मैंने संगीत के प्रति अपने प्यार को अपने बच्चों में भी डाला। एक युवा परिवार के रूप में, हमारे पास प्रार्थना के समय केलिए और लगभग हर अवसर के लिए गाने होते थे। अब, हम सभी किसी न किसी रूप में संगीत का नेतृत्व करते हैं, और मैं वर्तमान में दो पल्लियों के लिए गायक मंडली की अगुआ के रूप में सेवा करती हूँ। संगीत बहुत खुशी देता है और यह जीवन का स्रोत है!
हालांकि, एक दिन मुझे अचानक एहसास हुआ कि मुझे संगीत से ज़रुरत से ज़्यादा लगाव था।
उस तपस्या काल में, मैंने कार में संगीत सुनना छोड़ दिया। यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी, क्योंकि मैं हमेशा गाड़ी चलाते समय संगीत सुनती थी। इस आदत को छोड़ना बहुत मुश्किल था। हर बार जब मैं अपनी कार में बैठती, तो मेरा हाथ गाने की सी.डी. लगाने के लिए उठता।
लेकिन मैंने दृढ़ता से मेहनत की और अंततः अपने हाथ को इस तरह प्रशिक्षित किया कि वह किसी भी बटन को न छुए, बल्कि इसके बजाय क्रूस का चिह्न बनाए। फिर, मैंने संगीत सुनने की जगह प्रार्थना करना शुरू कर दिया, खास तौर पर रोज़री माला जपना। यह सात साल पहले की बात है, और मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। मुझे प्राप्त इस आराम के समय केलिए मैं इश्वर के प्रति बहुत आभारी हूँ।
ईश्वर के साथ आराम का समय हमें वह जगह देता है जिससे हमें बाहरी चीजों से अलग थलग होकर अपने आंतरिक जीवन से जुड़ने के लिए अवसर मिलता है। यह हमें शांति पाने में मदद करता है। यह हमें ईश्वर की ओर झुकने और उसे बेहतर ढंग से सुनने में मदद करता है। याद करें कि कैसे प्रेरित संत योहन ने अंतिम भोज में येशु की छाती से सटकर आराम किया था। अब, कल्पना करें कि आप येशु के इतने करीब झुके हुए हैं कि आप उनके दिल की धड़कन को महसूस कर सकते हैं।
ईश्वर चाहता है कि हम उसके पास झुकें। ईश्वर चाहता है कि हम अपने दैनिक जीवन में एक ऐसा स्थान बनाएँ जहाँ हम उनके पवित्र हृदय पर अपना सिर टिकाएँ और उससे सीखें या बस अपनी थकी हुई आत्माओं को आराम दें।
संगीत का प्रेमी होने के नाते, मेरे दिमाग में हमेशा एक धुन चलती रहती थी, और कई बार, इससे वास्तव में विकर्षण होता था। अब, अगर मेरे दिमाग में कोई धुन चलती है, तो मैं रुक जाती हूँ और ईश्वर से पूछती हूँ कि क्या वह इसके माध्यम से मुझसे कुछ संवाद कर रहा है। उदाहरण के लिए, आज सुबह, मैं एक ऐसी धुन के साथ उठी जो मैंने वर्षों से नहीं सुनी थी, “मैं हमेशा प्रभु की दया के बारे में गाऊंगा; मैं गाऊंगा, मैं गाऊंगा।”
संगीत दिल की भाषा है। मेरा मानना है कि ईश्वर हमारे द्वारा गाए गए भजनों से प्रसन्न होता है और वह अक्सर हमारे लिए गाता है। इसलिए, मैं अभी भी गाती हूँ! हालाँकि, मैं विशेष रूप से धन्य महसूस करती हूँ जब गायन शान्ति या मौन की जगह पर ले जाता है; इसे मैं ‘गर्भवती मौन’ कहना पसंद करती हूँ, क्योंकि इससे हमें प्रभु के साथ गहन अंतरंगता का स्थान प्राप्त होता है। मैं पवित्र संस्कार प्राप्त करने के ठीक बाद इस शांत स्थान का विशेष रूप से आनद लेती हूँ।
हमारे व्यस्त जीवन में, प्रभु के साथ आराम का समय निकालना अक्सर एक संघर्ष होता है। रोजरी माला की प्रार्थना करने से मुझे इस संघर्ष में बहुत मदद मिलती है, चूँकि हमारी धन्य माँ चिंतन की चैंपियन हैं इसलिए यह समझ में आता है। “मरियम ने इन सब बातों को अपने हृदय में संचित रखा और वह इन पर विचार किया करती थी ।” (लूकस 2:19)
येशु ने स्वयं हमें मौन में प्रवेश करने के महत्व का उदाहरण दिया, क्योंकि वह अक्सर अपने स्वर्गीय पिता के साथ अकेले समय बिताने के लिए एक शांत स्थान पर चले जाते थे।
पिछली गर्मियों में एक दिन, हमारे परिवार के पुनर्मिलन के दौरान, भीड़ भरे समुद्र तट पर, मैंने खुद को जपमाला से विरक्त और बेचैन पाया। मैं प्रभु के साथ शांत समय बिताना चाहती थी। मेरी बेटी ने पहचान लिया कि मैं प्रसन्न नहीं थी और उसने हलके में इसका जिक्र भी किया। मैंने एक घंटे के लिए अकेले झील के अन्दर जाने का फैसला किया और पाया कि अगर मैं पानी के नीचे चली गयी, तो मुझे अपना शांत क्षेत्र मिल जाएगा। मैंने उस दोपहर तैराकी करते हुए एक बार रोजरी माला की प्रार्थना की और अपनी शांति वापस पा ली।
“जितना अधिक हम प्रार्थना करते हैं, उतना ही अधिक हममें प्रार्थना करने की इच्छा पैदा होती है। एक मछली की तरह, जो पहले पानी की सतह पर तैरती है, और बाद में नीचे गोता लगाती है, और हमेशा गहराई में जाती है; उसी तरह आत्मा है, डुबकी लगाती है, गोता लगाती है, और ईश्वर के साथ बातचीत की मिठास में खुद को गहराई में खो देती है।” – संत जॉन विएनी।
हे पवित्र आत्मा, हमें वह शांत समय खोजने में मदद कर, जिसकी हमें बहुत ज़रूरत है, ताकि हम तेरी आवाज़ को बेहतर ढंग से सुन सकें और बस तेरे आलिंगन में आराम कर सकें।
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