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चीन का वुहान वर्तमान के कोविड-19 महामारी के उपरिकेंद्र होने के अलावा और भी मामलों में जाना गया है। कलीसिया द्वारा संत घोषित किये गए चीन के पहले संत की शहादत का स्थल भी है वुहान। कई मिशनरियों ने उन्नीसवीं शताब्दी में चीन की यात्रा की थी और उन्हें मालूम था कि वे कभी अपने देश नहीं लौटेंगे। उनमें से एक थे फ्रांस के विन्सेंशियन मिशनरी फादर जीन-गैब्रियल पेरबोयरे । चीन की अपनी यात्रा के दौरान लिखे एक पत्र में उन्होंने जिक्र किया था, “मुझे नहीं पता कि मेरे आगे के रास्ते पर मेरे लिए किस बात की प्रतीक्षा है: निस्संदेह, वह क्रूस ही होगा, जो मिशनरी की दैनिक रोटी है। हम क्रूसित ईश्वर का प्रचार करने के लिए जा रहे हैं तो इस से किस बेहतर चीज़ की हम उम्मीद कर सकते हैं?”
विन्सेंशियन धर्मसमाज के लोग वुहान में चीनी बच्चों को छुडाने और उन्हें कैथलिक धर्म में प्रशिक्षित करने के काम में लगे हुए थे। फादर पेरबोयरे इस सेवा में मदद करने लगे। उन्हें 1839 में ईसाई धर्म पर प्रतिबंध लगाने वाले एक आदेश के तहत गिरफ्तार किया गया। महीनों तक तड़पा-तड़पाकर उनसे पूछताछ की गई, 1840 में आखिरकार उन्हें एक लकड़ी के क्रूस से बांध दिया गया और दम घुटने के कारण उनकी मौत हो गई।
सन 1899 में पोप लियो तेरहवीं द्वारा उन्हें धन्य घोषित किया गया। लिसियू के संत पुष्पा (संत तेरेसा) को फादर पेरबोयरे के प्रति विशेष श्रद्धा-भक्ति थी। अपनी निजी प्रार्थना पुस्तक में तेरेसा फादर पेरबोयरे के प्रति समर्पित एक पवित्र तस्वीर रखा करती थी। सन 1996 में संत पापा जॉन पॉल द्वितीय द्वारा फादर जीन गैब्रियल पेरबोयरे संत घोषित किये गए।
संत जीन गैब्रियल पेरबोयरे पर विभिन्न प्रकार के उत्पीडन हुए थे। उनकी पीठ के निचले हिस्से पर लगातार उन्हें पीटा गया और टूटे हुए कांच पर घुटने टेकने के लिए उन्हें मजबूर किया गया। लेकिन जब उन्हें क्रूस पर लटकाया गया तो उन्हें साँस लेना असंभव हो गया था। कोविड -19 से पीड़ित लोगों के लिए इस संत की मध्यस्थता मांगना बहुत ही उपयुक्त है, क्योंकि उन्होंने स्वयं इस बीमारी से जुड़ी कुछ पीड़ाओं का अनुभव किया है।
अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले संत जीन गैब्रियल पेरोबोयरे द्वारा लिखित यह प्रार्थना है:
“हे मेरे दिव्य उद्धारकर्ता,
अपने व्यक्तित्व में तू मुझे परिवर्तित कर।
तुझ में, तेरे द्वारा और तेरे लिए जीने की कृपा मुझे प्रदान कर
ताकि मैं संत पौलुस के साथ सही मायने में कह सकूं,
“मैं अब जीवित नहीं रहा बल्कि मसीह मुझमें जीवित है।”
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अपनी युवावस्था से ही उसने ईश्वर की दाखबारी में काम किया| जानना चाहेंगे ईश्वर ने उसे किस प्रकार पुरस्कृत किया?
एक दुआ मांगे
मुझे यू.एस. प्रेसिडेंशियल स्कॉलर्स प्रोग्राम के बारे में तब पता चला जब मैं मिडिल स्कूल में थी| हर साल 161 अमरीकी विद्यार्थियों को उनकी अनोखी उपलब्धियों के लिए देश के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार से सम्मानित किया जाता रहा है| उन्हीं पुरस्कृत विद्यार्थियों को देख कर मैंने सोचा की उनकी उपलब्धियां तो आसमां जितनी ऊंची है और अधिक अनछुई थीं| फिर भी, अगले चार साल तक मैंने हर रात अपनी प्रार्थनाओं में इस प्रोग्राम को शामिल किया| ऐसा नहीं था कि मैं इस प्रोग्राम में चुने जाने के काबिल हूँ, लेकिन बचपन से ही मुझे अपनी इच्छाओं के बारे में ईश्वर के साथ बात करने की आदत थी| जब भी हम पारिवारिक प्रार्थना में बैठते थे और मैं प्रेसिडेंशियल स्कॉलर्स प्रोग्राम में चुने जाने के लिए प्रार्थना करती थी तब मेरे माता पिता हंसा करते थे| इसी लिए जब ईश्वर ने असल में मेरी प्रार्थना सुन लीं तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ|
हमारे परिवार में, मेरी माँ ने ईश्वर और हमारे बीच के सम्बन्ध में काफी प्रेम, सच्चाई और आज़ादी का एक आदर्श प्रस्तुत किया| ईश्वर को मेरी हर योजना, हर रुझान के बारे में बताना ज़रूरी होता था| और मेरी ज़िन्दगी की हर छोटी बड़ी बात में ईश्वर की राय ज़रूरी होती थी, चाहे वह स्कूल की बात हो या कॉलेज की, या करियर की बात हो या पढ़ाई से अतिरिक्त किसी गतिविधि में भाग लेने की बात| इन सब के साथ ही मेरे माता पिता हमें साल में कम से कम दो बार किसी सत्संग में ले जाते थे| इसी वजह से मेरी किशोरावस्था के दिनों में मुझे शालोम, सेहियोन और स्टुबेनविल जैसी सेवकाइयों से काफी मदद मिली| और चाहे इन सत्संगों में भाग लेते वक़्त मेरा मन कितना भी अशांत रहा हो, अंत में मुझे ढेर सारी आशीषों के साथ काफी प्यारी प्यारी बातें सीखने को मिला|
आगे बढ़कर सेवा
स्कूल में मुझे अपने दोस्तों की भलाई की बड़ी चिंता लगी रहती थी| यह बात साफ़ थी कि मेरी परवरिश काफी सच्चाई और ईमानदारी के आदर्श पर की गयी थी जिसकी वजह से मेरे जीवन में अनेक आशीषें थीं, जबकि मेरे दोस्त ऐसी परवरिश से बिलकुल अनजान थे| इसीलिए अगर मैं उन्हें ईश्वर के बारे में नहीं भी समझा पाती थी तो भी मैं वेदी के सामने ईश्वर से उनके बारे में बातें किया करती थीं| मेरा परिवार जहां तक हो सके दैनिक मिस्सा बलिदान के लिए जाया करता था| इसीलिए मैं नियमित रूप से ईश्वर से अपने टीम के सदस्य, अपने शिक्षक और उन लोगों के बारे में बात कर पाती थी जो कभी मेरा दिल दुखाते थे| इन्हीं छोटी छोटी बातों के दौरान मैंने अभी से ईश्वर के बारे में प्रचार करने की ओर अपना मन बना लिया|
मैं सात साल की उम्र से ही अपनी पल्ली में सेवा करती आई हूँ चाहे वह गायक मंडली में गाना हो, या वेदी से सेवा करनी हो, या गिरजाघर में पढ़ाना हो| और क्योंकि मेरा घर गिरजाघर से बस दो मिनट की दूरी पर था इसीलिए किसी भी काम में मदद कम पड़ने पर मुझे तुरंत बुला लिया जाता था और मैं आगे बढ़कर सेवा देती थी | शालोम मीडिया शिखर सत्संगो द्वारा मुझे जो मौके मिले, उनकी वजह से मैं काफी बड़े स्तर पर काम संभालने लगी| मेरे हाई स्कूल के कामों ने मुझे पहले से ही काफी उलझाए रखा था जब मैंने शालोम में स्वयंसेवक के रूप में कार्य करना शुरू किया| इतने व्यस्त रहने के बावजूद भी मैंने हमेशा ईश्वर के कार्यों को पहला स्थान दिया| इन सब की वजह से मैं खुद को किसी समय सारिणी में नहीं बाँध पा रही थी, लेकिन मुझसे जितना भी हो पा रहा था, मैं उतनी मदद कर रही थी| स्कूल में मध्यान्ह भोजन के वक़्त मैं मीडिया पोस्ट के लिए कुछ वाक्यों का सम्पादन कर देती थी, अपना गृह कार्य ख़तम करने के बाद मैं प्रेजेंटेशन स्क्रिप्ट का काम देख लेती थी, कभी कभी जीसस हील्स प्रोग्राम में मदद करने के लिए मैं स्कूल से छुट्टी ले लिया करती थीं, और इन सब के साथ विक्ट्री कॉन्फ्रेंस में भी माँ के साथ भाग ले लिया करती थी|
इसी तरह मैं अपना खाली वक़्त उन कामों में लगा देती थी जिनमें मुझे ख़ुशी मिलती थी| मैं अपने काम को लेकर बहुत ईमानदार भी थी| जिन क्लबों का काम मैं संभाल रही थी उनमें मैं हर चीज़ बड़े ध्यान से करती थी, ताकि जो बच्चे मुझसे चीज़ें सीख रहे होते थे, उन्हें किसी बात की कोई परेशानी ना हो| मैं हमेशा सोचा करती थी कि जो ईश्वर मुझे इतना प्यार करता है, मैं उस के लिए और क्या करूँ? ईश्वर से मिली आशीषों को दूसरों के साथ साझा करना मेरा कर्त्तव्य था, लेकिन इसके लिए भी ईश्वर ने मुझे इनाम दिया| वह हर परीक्षा या स्कूल का नियत कार्य जिसके लिए मैं ठीक से तैयारी नहीं कर पाती थी वे या तो टल जाते थे या मेरे लिए आसान कर दिए जाते थे| एक दिन मुझे जो राष्ट्रीय छात्र अनुदान/स्कालरशिप का आवेदन भरना था, वह चालीसा के पहले शुक्रवार को पड़ रहा था| उसके एक दिन पहले मैं काफी दुखी थी क्योंकि मेरा इतना काम बाकी था कि मुझे लगने लगा था कि मुझसे शुक्रवार की प्रार्थना छूट जाएगी| शुक्रवार की सुबह मुझे पता चला कि उस स्कालरशिप की समय सीमा तीन दिन और बढ़ा दी गयी है| बाइबिल में लिखा है कि अगर हम ईश्वर के नाम पर किसी को एक गिलास पानी भी देते हैं तो हमें उसका इनाम दिया जाएगा| तो आप सोच सकते हैं कि अगर हम ईश्वर को अपना समय देते हैं तो उसका पुरस्कार कितना महान होगा? मुझे लगता था कि मैं ईश्वर के लिए कुछ कर रही हूँ, लेकिन ईश्वर मेरे द्वारा व्यतीत एक एक सेकंड का हिसाब रख रहे थे और उनके बदले मेरे लिए बड़ी सारी आशीषों को बटोर रहे थे|
विवेक की कमाई
फिर भी, सेवा करने का मतलब सिर्फ काम निपटाना नहीं होता| सामाजिक स्तर पर हमें उन हालातों से सतर्क रहना चाहिए जो कभी कभी हमें अपने विश्वास से समझौता करने के लिए बहला फुसला सकते हैं| अक्सर एक छात्र के लिए ईश्वर की सेवा करने के बीच जो बाधा आती है वह है स्कूल के क्लबों में उनकी नियमित उपस्थिति की आवश्यकता| क्योंकि क्लबों में भाग लेना उनके स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई का एक ज़रूरी हिस्सा होता है| मीटिंग, कांफ्रेंस, और टीम बिल्डिंग सेशन ने मुझे बड़ी मुश्किल में डाल दिया| अगर मैं अब किसी म्यूज़िक या गेम से हटती थी तो मैं अपने साथियों से भी दूर होती जाती थी| स्कूल से सैर सपाटे पर जाने में मुझे बहुत ख़ुशी मिलती थी, लेकिन मेरे साथियों को लगता था कि मैं उन्हें उनके तौर तरीकों के लिए उनकी आलोचना करती हूँगी, जबकि ऐसा कुछ नहीं था| इसीलिए मैं अक्सर अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुना करती थी और ऐसा करते हुए खुद को बहुत अकेला महसूस करती थी| इन सब के बीच एक सत्संग के दौरान मैंने अपने दिल में यह आवाज़ सुनी “ मैं तुम्हारा दोस्त हूँ”| इन्हीं शब्दों ने मेरे स्कूल के दिनों में आ रहे हर मुश्किल वक़्त से जूझने में मेरी मदद की| ईश्वर हर ख्रीस्तीय के दोस्त हैं, पर क्या हम ईश्वर के प्रति अपनी दोस्ती सही तरह से निभाते हैं?
मैं ईश्वर को हर बात की ज़िम्मेदारी सौंपने में विश्वास करती हूँ| क्यूपर्टिनो के संत जोसेफ को मेरी हर परीक्षा की खबर दी गयी और मेरी माँ ने मेरे हर परीक्षा के दौरान चर्च में प्रार्थना की हैं| स्कूल की प्रतियोगिताओं में भाग लेते समय मैं ईश्वर से पूछा करती थी कि मुझे क्या लिखना चाहिए, प्रोजेक्ट प्रेजेंटेशन देते समय भी मैं ईश्वर से मार्गदर्शन मांगती थी| कोई प्रोजेक्ट या निबंध लिखते समय मैं पवित्र परम प्रसाद के सामने अपनी किताबें ले कर बैठ जाती थी और वहीँ बैठ कर अपने नोट्स बनाती थी| और तो और इस लेख को लिखने के लिए भी ईश्वर ने ही मेरी सहायता की है|
मौकों की दस्तक
जैसे ईश्वर ने मेरे लिए इतने सारे मौके तैयार किये, वैसे ही ईश्वर आपके लिए भी सब कुछ तैयार करेगा| प्रेसिडेंशियल स्कॉलर प्रोग्राम में चुने जाने के लिए छात्रों को किसी राज्य शिक्षा अधिकारी द्वारा नामांकित किया जाना ज़रुरी होता है| मेरा नाम मेरे प्रदेश के शिक्षा अधिकारी के उन दस छात्रों की सूची में होना ज़रूरी था | लेकिन मेरा इलाका बाकी इलाकों से थोड़ा पिछड़ा हुआ था जिसकी वजह से मुझे काफी चिंता थी| और मेरे गुमनाम हाई स्कूल ने भी पिछले कुछ सालों में मुझे कुछ ख़ास मौके नहीं दिए थे जिससे शिक्षा अधिकारी से मेरी कोई जान पहचान हो पाती| पर फिर एक साल पहले एक नई सुपरिन्टेन्डेन्ट हमारे इलाके में आईं जिन्होंने मेरे जैसे बच्चों के लिए कई नए अवसरों की शुरुआत की| उन्होंने नामांकन के लिए ऑनलाइन आवेदन की व्यवस्था की जो कि उन दिनों एक बिलकुल ही नयी पहल थी| यह सब, ईश्वर की कृपा से उसी साल लागू हुआ जिस साल मैंने अपनी पढ़ाई पूरी की| उन्हीं सुपरिन्टेन्डेन्ट के नामांकन की वजह से मुझे उस प्रसिद्ध स्कालरशिप के लिए चुन लिया गया जिसे ईश्वर ने मेरी प्रार्थनाओं को सुन कर मुझे प्रदान किया| ईश्वर के सेवक के रूप में हमें बुलाया गया है ताकि हम उन अवसरों को देख सकें जिन्हें ईश्वर हमें प्रदान करने वाला होता है, ना कि हम यह सोचें कि ईश्वर किस तरह से उन आशीषों को हमें देगा|
अगर हम अपने अंदर ईश्वर की सेवा करने के जूनून को सींचे तो ईश्वर हमारे लिए और कई अवसरों के द्वार खोल देगा| इसके साथ ही, ईश्वर हमें हमारी सेवा के लिए इनाम भी देगा| उन्हीं के मार्गदर्शन में हम वे सब कर पाते हैं जो हमारी सोच और हमारी क्षमता के बिलकुल परे हैं | हमारे स्वर्गीय पिता हमें कभी निराश नहीं करेंगे, खासकर तब जब हम अपनी सेवा का फल उनकी मर्ज़ी पर छोड़ते हैं| हमारा काम है ईश्वर के कार्यों को हाँ कहना, और फिर देखना कि कैसे ईश्वर हमारी ज़रूरतों में हमारी प्रार्थनाओं को चमत्कारी रूप से पूरा करते हैं| और चाहे ईश्वर को दिया हुआ हमारा तोहफा कितना भी छोटा क्यों ना हो, हमें यह याद रखना चाहिए कि यह वह ईश्वर है जिन्होंने पांच रोटियों से पांच हज़ार लोगों का पेट भरा था|
आइयें हम ईश्वर को उनकी महिमा प्रकट करने का अवसर दें|
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क्या यह संभव है कि आप कैथलिक के रूप में बप्तिस्मा लें और दुबारा जन्म लेने वाला भी बने ?
यदि आप कैथलिक हैं, तो बप्तिस्मा संस्कार के दौरान आपका दुबारा जन्म हुआ है और आपके माता-पिता या धर्म माता-पिता आपकी ओर से आपके दिल में प्रभु को आमंत्रित करते हैं | नहीं तो जिस अरह मेरे प्रोटोस्टेंट भाई बहन कहते हैं, आप जिस दिन प्रभु येशु को अपना व्यक्तिगत प्रभु और उद्धारकर्ता मानेंगे, उस दिन आपका दुबारा जन्म (बोर्न एगेन) होता है | हो सकता है कि आप उपरोक्त ये दोनों हैं | मेरे जीवन में और मेरे परिचित हजारों कैथलिक भाई बहनों के जीवन में यही होता है| वे उपरोक्त दोनों हैं |
कैफ़े में बातचीत
मेरा जन्म एक कैथलिक परिवार में हुआ था और एक अच्छे कैथलिक बालक के रूप में वेदी सेवक के रूप में, कैथलिक स्कूल में पढ़ाई करते हुए, कैथलिक प्रार्थनाएं और भक्ति में बढ़ते हुए, और बाद में कैथलिक कॉलेज में पढ़ाई करते हुए, मेरी परवरिश हुई थी | मेरा विश्वास इन सब हिस्सों का कुल जोड़ है | जब कॉलेज की पढ़ाई के दौरान एक दिन कैफ़े में कुछ मित्रों के साथ एक बातचीत हुई थी, तब तक मेरा वास्तव में ईश्वर के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं था | उस दोस्तानी बातचीत के दौरान ब्रदरन चर्च का एक भाई जो अमेरिका से भारत के दौरे पर थे, उसने मुझ से पूछा कि क्या मेरा ईश्वर के साथ व्यक्तिगत रिश्ता है और यह भी कि क्या येशु को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार करने की मुझ में इच्छा है ?
मैं पूछने लगा, “क्या मतलब है आपका ? यह कार्य कैसे होगा ?” उन्होंने जवाब दिया, “आपको केवल अपने विश्वास की घोषणा करके अपने व्यक्तिगत उद्धारकर्ता के रूप में उसे अपने दिल और जीवन में स्वीकार करना होगा।” मैंने इसे समझने की तीव्र इच्छा रखते हुए उन से पूछा, “लेकिन मैं यह काम कैसे करूं और कब करूं ?” उन्होंने कहा, “यदि आप तैयार हैं, तो अभी, इसी जगह।” मैंने उसे याद दिलाया कि हम एक कैफे में है और कैथलिक लोग इस तरह की हरकत नहीं करते। लेकिन किसी तरह, मैं सहमत हो गया और मेज़ की चारों और बैठे हमारे साथियों में कुछ ने प्रार्थना की और उसके बाद मैंने आधिकारिक रूप से मसीह को अपने व्यक्तिगत ईश्वर और उद्धारकर्ता के रूप में अपने जीवन में आमंत्रित किया। आसमान से गड़गड़ाहट या बिजली या तूफान नहीं आया जिसकी मुझे उम्मीद थी। लेकिन मेरे नवोदित भाइयों और बहनों ने मुझे यह कहते हुए बधाई दी कि मैं ने अब आधिकारिक तौर पर दुबारा जन्म लिया है।
हालाँकि मुझे बाहरी या भीतरी तौर पर कुछ ख़ास महसूस नहीं हो रहा था, लेकिन उस दिन शाम को अपने छात्रावास के कमरे में मैं अकेले प्रार्थना करने लगा और मेरे ह्रदय से धन्यवाद के शब्द नदी की तरह बहने लगे। इससे पहले मैंने कभी इस तरह की प्रार्थना नहीं की थी। मुझे अपने शब्दों पर विश्वास नहीं हो रहा था। मैं हैरान था, लेकिन जल्द ही महसूस किया कि कुछ घंटों पहले कैफे में मैंने जो सरल, सच्ची प्रार्थना की थी, उस प्रार्थना को स्वर्ग में बहुत गंभीरता से लिया गया है। और स्वर्ग और पृथ्वी के स्वामी ने स्वयं अपना घर मुझमें बना लिया है।
ईश्वर का स्वाद
प्रभु के प्रति मेरे नए प्यार के साथ, और मुझे इस मुकाम पर लानेवाले दोस्तों के समूह के प्रति दिल में प्रेम रखते हुए, मैंने प्रार्थना सभाओं में जाना शुरू किया और पवित्र आत्मा में अपने शिशु चरण आगे बढाने लगा । मैं ने लगभग पूरी तरह से मिस्सा बलिदान में जाना छोड़ दिया क्योंकि मैंने अपने नए दोस्तों के साथ वह पाया जिसे मैंने कभी भी पहले नहीं पाया, कम से कम उस तारीख तक नहीं।
फिर एक दिन, पवित्र आत्मा ने मुझसे मेरे दिल में बात की कि मुझे छात्रावास के प्रार्थनालय में दैनिक मिस्सा बलिदान में भाग लेना चाहिए। वहां सीरो-मलंकरा धर्मविधि में मिस्सा बलिदान होता था जिसका एक भी शब्द मैं नहीं समझ पाता था। लेकिन मैंने पवित्र आत्मा की बात मानी और मिस्सा बलिदान में भाग लिया। बड़े आश्चर्य की बात है कि, मैंने प्रार्थना के हर शब्द और उसके अर्थ को समझा और पहले से बिलकुल भिन्न बड़ी भक्ति के साथ मिस्सा में भाग लिया। मुझे पता था कि प्रभु मुझे घर वापस ले आए हैं।
मैंने प्रोटेस्टेंट आराधना और प्रार्थना सभाओं में जाना जारी रखा, तो साथ साथ मैंने मिस्सा बलिदान में भी भाग लिया। अगले दो वर्षों में यानी अपनी पढ़ाई के अंत तक, मैं तीनों धर्मविधियों की हर प्रार्थना को समझ और सुन सकता था, जिनका अनुष्ठान ऐसी भाषा में संपन्न किया जाता था, जिसे मैं पढ़ या लिख नहीं सकता था। मैं अब एक धर्मनिष्ठ कैथलिक हूं, मेरी परवरिश के कारण ही नहीं, बल्कि इसलिए कि मैंने व्यक्तिगत रूप से चखा और देखा कि प्रभु अच्छे हैं।
मैं जानता हूं कि ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से प्रभु की अच्छाई का स्वाद नहीं चखा है और उन्होंने इस तरह के रिश्ते की खुशी का अनुभव नहीं किया है और न ही उन्होंने कैथलिक आराधना विधि की समृद्धि – येशु ख्रिस्त का पवित्र शरीर और रक्त, संस्कारों के रहस्य, और संतो के समुदाय – में भाग लेने के आनंद को अनुभव किया है। यह कहना नहीं पडेगा कि धन्य माँ मरियम द्वारा जो समृद्धि मिलती है उसके भी मिठास उन लोगों ने नहीं चखा है।
यदि आप एक कैथलिक हैं, तो मैं आपको आमंत्रित करता हूं कि इस क्रिसमस को आपके जीवन को प्रभु द्वारा नियंत्रित करने के लिए उन्हें अपने जीवन में आमंत्रित करें ताकि आप अपने विश्वास को गहरा कर सकें। यदि आप प्रोटेस्टेंट व्यक्ति हैं, तो मैं आपको कैथलिक समुदाय और उसकी शिक्षाओं को अपनाकर अपने विश्वास को और गहरा करने के लिए आमंत्रित करता हूँ, जिससे मसीह के सत्य और प्रकाश की पूर्णता का आपको अनुभव हो । यदि आप न कैथलिक हैं न प्रोटेस्टेंट हैं तो मेरे प्रिय मित्र, मैं आपको आमंत्रित करता हूँ कि “चखकर देखो कि प्रभु कितना भला है” (भजन 34:9)। सिर्फ भला नहीं, जिसकी आप उम्मीद कर सकते हैं या पा सकते हैं उस से भी अधिक बल्कि अत्यंत और सर्वोत्तम भला। क्रिसमस की बहुत सारी शुभकामनाएं !
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मेरी माँ को अपने आखिरी दिनों में किसी अस्पताल के बिस्तर पर शांत और सुकून से होना चाहिए था, लेकिन उनके आखिरी दिन भी उसी तरह गुज़रे जिस तरह उनकी सारी ज़िन्दगी गुज़री थी |
उस दिन मेरे पसंदीदा महीने अक्टूबर का आखिरी दिन था| मैं अपने बच्चों को अपने माता पिता के पास ले जाने के लिए तैयार कर रही थी| एक साल पहले हमें पता चला था कि मेरी माँ को कैंसर है और उनके पास ज़्यादा समय नहीं बचा था| और उनकी नर्स ने हमें यह साफ़ साफ़ कह दिया था कि माँ की हालत जल्द ही बहुत खराब होने की कगार पर थी|
यह बात हमें अंदर ही अंदर खाए जा रही थी। अभी तीन दिन पहले ही तो मैंने उन्हें ठीक ठाक और व्यस्त देखा था, वह कभी टूटी हुई रोज़रियों को ठीक कर रही थी तो कभी पापा के लिए खाना बनाने की तैयारी कर रही थी। मेरी माँ हमेशा से ऐसी ही थीं। वह प्यार और निस्वार्थता की मूरत थीं। जो भी उन्हें जानता था वह उन्हें एक संत ही समझता था। उन्होंने अपने जीवन के द्वारा हमें भरोसे और आशा के क्रूस को अपने कंधों पर उठाना सिखाया। और अपनी इसी ज़िंदादिली की वजह से माँ को मौत का डर नहीं था। पवित्र मिस्सा और माँ मरियम की रोज़री पर उन्हें बहुत श्रद्धा थी। कलकत्ता की संत तेरेसा ने एक बार कहा था “ज़िन्दगी वही है जो दूसरों के लिए जिया जाए”। और मेरी माँ ने इस कथन को जिया है।
उस शाम जब मैं अपने माता पिता के घर पहुंची, तब मैं सीधे मां के छोटे से अंधियारे कमरे में गई। वहां मैंने माँ को बिस्तर पर आराम करते हुए देखा, और उस वक्त मुझे लगा कि शायद मां सो रही है। मेरे भाई-बहन माँ को घेरे खड़े थे। जब मेरी बहन ने मुझे देखा तो वह मेरा हाथ पकड़ कर मुझे किनारे ले गई। और उसने मुझे समझाया कि माँ को अपनी तबीयत ठीक नहीं लग रही थी इसी लिए वह यहां आराम करने आईं, लेकिन आराम करते करते वह कोमा में चली गईं और अब माँ बिल्कुल बात नहीं कर रही थीं। उस दिन माँ ने सुबह से सबके लिए खाना बनाया था, सबको घर पर बुलाया था जबकि कायदे से उन्हें किसी अस्पताल के बिस्तर पर सुकून से होना चाहिए था। उनके जीवन के आख़िरी दिन, उनके आख़िरी काम भी वैसे ही थे जैसे उनकी पूरी ज़िन्दगी थी – क्योंकि उन्होंने सारी ज़िन्दगी दूसरों की भलाई, दूसरों की सेवा की। मेरी माँ आत्म बलिदान की मूरत थी।
मेरी माँ ने कभी किसी बात की शिकायत नहीं की, कभी यह नहीं ज़ाहिर किया की वह कितना दर्द सह रहीं हैं, कभी अपने दर्द भरे कैंसर के इलाज की शिकायत नहीं की। ईश्वर ने माँ के कंधों पर इतना भारी क्रूस डाला था, लेकिन माँ ने कभी कुछ नहीं कहा। मेरी माँ ने जिस विश्वास के सहारे अपनी पूरी ज़िन्दगी गुज़ार दी, उसी विश्वास पर तब भी भरोसा रख कर माँ ने बिना किसी सवाल के ईश्वर का दिया क्रूस उठाया, बखूबी उठाया।
बारह घंटों तक मैं माँ के पास से हिली भी नहीं, मैं माँ को उनके सबसे दर्द भरे समय में कैसे अकेला छोड़ सकती थी? माँ हमेशा कहती थीं कि उन्हें अस्पताल में नहीं मरना है, आज उनके जाने के बाद मैं सोचती हूं कि कैसे उस अनंत ईश्वर ने माँ को यह कृपा प्रदान की कि वे अपने घर में, अपने पति और अपने दस बच्चों के बीच स्वर्ग सिधार सकें। जैसे जैसे मां की हालत बिगड़ने लगीं, हमारा पूरा परिवार एक आख़िरी बार उनके पास बैठ कर रोज़री बोलने लगा, उसी तरह जैसे हम बचपन से प्रार्थना करते आए थे। हमने अपनी भरी आंखों से अपने पल्ली पुरोहित द्वारा माँ को रोगियों का संस्कार देते हुए देखा। हम बारी बारी से माँ के पास बैठे, हमने उन्हें हर बात के लिए शुक्रिया कहा, क्योंकि उन्होंने ही हमें ईश्वर की योजनाओं पर भरोसा करना सिखाया था। हम सब जानते थे कि हालांकि माँ ने इस क्रूस को अपनाया था और खुद को स्वर्ग के द्वार से गुज़रने के लिए तैयार किया था, फिर भी उनका दिल इस बात से दुखता था कि उनके जाने पर हमें कितना दुख होगा। हालांकि उन्होंने हमें समझाने की कोशिश की कि स्वर्ग जा कर वह हमारे ज़्यादा काम आ पाएंगी, और मुझे उनकी बात पर भरोसा है।
और हालांकि माँ अपने आखिरी वक्त में कुछ बोल नहीं पा रही थीं, फिर भी हमने गौर किया कि जब भी हम उन्हें दवाई देने की कोशिश कर रहे थे तो वह अपनी आंखों से हमें मना कर रही थीं। उनके बार बार ऐसा करने पर आखिरकार सबने खुले आम यह कह ही दिया, कि माँ अपने आख़िरी समय में वह दर्द सहना चाहती थीं, और इसे हमारे लिए ईश्वर को समर्पित करना चाहती थीं।
धीरे धीरे रात दिन में बदलने लगी, और जब हम सब अपनी नींद से लड़ने की कोशिश कर रहे थे तभी हमने देखा कि माँ की सांसे थमने लगीं थी। हम सब तब माँ के बिल्कुल नज़दीक जा कर बैठ गए, और हमने माँ को आख़िरी बार अलविदा कहा। हमने उनसे कहा कि हम अपना और एक दूसरे का खयाल रखेंगे, ताकि वह सुकून से स्वर्ग जा कर अपने पिता और स्वर्ग की ओर जल्दी बुलाये गए अपने नाती पोतों से मिल सकें। मैंने भारी दिल से उन्हें अपनी आख़िरी सांस लेते हुए देखा। और उसके साथ ही, बारह लोगों से भरे उस छोटे से कमरे में सन्नाटा छा गया। मैंने चुपके से आहें भरते हुए कहा, “अब माँ ने ईश्वर का चेहरा देख लिया है।” उसी क्षण से मैंने “माँ के लिए” प्रार्थना छोड़ दिया और “माँ से” प्रार्थना करने लगी। वह दिन, सब संतों का दिन था। मैं सोचती हूं उस दिन स्वर्ग में मां का स्वागत कितनी धूम धाम से हुआ होगा!
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बच्चों को इस विश्वास में बढ़ाना कोई आसान काम नहीं है।
क्योंकि जो इसकी कोशिश करते हैं उनकी राहें अचरज से भरी पड़ी हैं।
बढ़ती ख़ुशी
“बच्चे मेरे जीवन में अपनी खुशियां और अपने गीत ले कर आते है।
कब मैं उन की जैसी बन पाऊंगी ? मुझे उनके संग गुनगुनाने सिखा दे |”
जब भी मैं “जीवित झरने बहता जा” गीत के इन बोलों को गुनगुनाती थी, मेरा दिल खुद मेरे अपने बच्चे को पाने की आशीष के लिए तड़प उठता था। मैं अपने माता पिता की इकलौती संतान हूं, और बचपन से ही मेरा बच्चों के प्रति एक अलग खिंचाव था। बच्चों के बीच रहना मुझे सबसे ज़्यादा ख़ुशी देता था। यहां तक कि मैंने शादी ही इसीलिए की ताकि मैं मां बन सकूं।
मुझे याद है कि उन दिनों जब मैं डायरी लिखा करती थी तो मैं उसमे उन सब गानों के नाम और उन सारी संतों की कहानियों के नाम लिखा करती थी जिसे मैं अपनी होने वाली संतानों को सुनाना चाहती थी। और इसी तरह मैं सोचा करती थी कि मैं अपने बच्चों को धार्मिकता में बड़ा करूंगी। मैं उन्हें येशु और मां मरियम को दिल से प्रेम करना सिखाऊंगी, इसी उत्साह में मैंने शादी से पहले ही बच्चों की बाइबल भी खरीद ली। मेरा दिल इन्हीं सारी बातों से भरा हुआ था इसीलिए अपनी गर्भावस्था की शुरुआत से ही मैंने अपने बच्चे को प्रार्थना, ईश्वर की स्तुति और अनेक क्रूस के चिन्हों से घेरे रखा। जब मुझे बिस्तर पर पूर्ण विश्राम दिया गया, तब मैंने अपनी प्रार्थनाओं को दुगना कर दिया। मुझे तो इस बात का अंदाज़ा भी नहीं था कि ईश्वर ने मेरे बच्चे को सत्ताइसवें हफ्ते में ही दुनिया में लाने की योजना बनाई थी। जब मैंने पहली बार अपनी बच्ची को अपनी गोद में लिया तब मेरा दिल ईश्वर की स्तुति से भर गया। और हालांकि हमें उसे पैंतालीस दिन तक अस्पताल में रखना पड़ा, फिर भी ईश्वर ने हमें एक बेटी का तोहफा दिया था इस बात से मेरा दिल फूला नहीं समा रहा था।
मैं हर रोज़ अपनी बेटी अन्ना से येशु के बारे में बात किया करती थी। और हालांकि मुझे बस कुछ ही देर उससे मिलने दिया जाता था फिर भी जहां तक हो सके मैं उसके शरीर के किसी कोने पर क्रूस का चिन्ह बना दिया करती थी, और उससे कहती थी कि वह अकेली नहीं है क्योंकि मां मरियम और येशु हमेशा उसके साथ हैं। कभी कभी जब मैं उसके लिए कोई भजन गुनगुनाती थी तो पास ही खड़ी नर्सें भी साथ में गाने लगती थीं और पूरा कमरा ईश्वर की स्तुति से भर जाता था। आखिर में जब मुझे अपनी बेटी को घर ले जाने की इजाज़त मिली तो मेरी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था।
आंसुओं के द्वारा
अन्ना के जन्म के तीन महीने बाद हमें पता चला कि अन्ना बाकी बच्चों की तरह एक आम ज़िन्दगी नहीं जी पाएगी। शारीरिक विकलांगता के साथ साथ वह मानसिक रूप से भी कमज़ोर थी। डॉक्टरों का कहना था कि उसके जन्म के समय ऑक्सीजन की कमी की वजह से उसका दिमाग सिकुड़ गया था। इन सब के बीच भी मैंने उसे प्रार्थना और भजन से घेरे रखा। और ईश्वर की कृपा से इतनी तकलीफों के बीच भी मेरी बच्ची के चेहरे पर एक दैविक ख़ुशी थी। जब भी मैं उसके सामने पवित्र माला विनती कहती थी वह रोना बंद करके मुस्कुराने लगती थी। उस वक्त ऐसा लगता था जैसे हम फरिश्तों के बीच हैं जो हमारे साथ प्रार्थना कर रहे हैं। मैं उसे संतों की कहानियां सुनाती सुनाती थकती ही नहीं थी, मुझे इस बात की फ़िक्र नहीं थी कि मेरी बच्ची को कुछ समझ आ भी रहा है या नहीं। कुछ दिन ऐसे भी गुज़रते थे जब मैं माला विनती कहते हुए रो पड़ती थी, क्योंकि मुझे नहीं पता था कि मेरी नन्ही अन्ना कभी मेरे साथ रोज़री कहने लायक हो पाएगी या नहीं।
अन्ना के जन्म को चार साल गुज़र चुके थे, इस बीच मेरा तीन बार गर्भपात हो चुका था। डॉक्टरों का कहना था कि मैं कभी स्वस्थ बच्चों को जन्म नहीं दे पाऊंगी और यह बात मुझे अंदर तक तोड़ रही थी। मुझे कहा गया की बस कोई चमत्कार ही इसे बदल सकता है और ईश्वर की असीम कृपा और प्रेम ने मुझे वह चमत्कार दिया इसा और आरिक के रूप में। मेरे ये दो फरिश्ते दो सालों के अंतराल में पैदा हुए। मेरी अन्ना छह साल की हो चुकी थी जब ईश्वर ने उसे एक भाई और बहन का तोहफा दिया।
इसा और आरिक के साथ भी मैं वैसे ही प्रार्थना किया करती थी जिस तरह मैं अन्ना के साथ प्रार्थना किया करती थी। पर इनके साथ मुझे ना जाने क्यों एक खालीपन सा महसूस होता था। जब मैं आरिक के सर पर हाथ रखने या क्रूस का चिन्ह बनाने की कोशिश करती थी तो वह ना जाने क्यों डर के मारे भाग जाता था। जबकि इसा बस अविश्वास भरी नज़रों से मुझे घूरा करती थी।
मुझे बड़ी कठिनाइयों के बाद यह समझ आया कि अपने बच्चों को अपने विश्वास में बड़ा करना कोई आसान काम नहीं है!
आपको लग रहा होगा कि मेरा अपने बच्चों की धार्मिकता की चिंता करना, वह भी तब जब वे महज़ दो साल या पांच महीने के हैं किसी मज़ाक से कम नहीं है। पर मैं मज़ाक नहीं कर रही हूं, उस वक्त मैं सच में यह सोचने लगी थी कि “क्या मैं कुछ ग़लत कर रही हूं? क्या मेरे बच्चे ईश्वर के नज़दीक जाने के बजाय ईश्वर से दूर जा रहे हैं? क्या मैं ईश्वर के प्रेम को उन पर ज़बरदस्ती थोप रही हूं?”
मेरा दिल जैसे रुक सा गया
एक शाम की बात है, मैं इन्हीं सवालों में उलझी हुई थी। इसा पास ही में एक झूमाझूमी पर बैठकर डोल रही थी, इसी बीच आरिक बिस्तर पर चढ़ा, उसने बिस्तर से लगे धर्मग्रन्थ के वचन के उद्धरण पर (मढवाकर दीवार पर टांग दिया गया था) अपना हाथ फेरा और फिर उसी हाथ से इसा के होठों को छू लिया। तभी मुझे समझ आया कि आरिक सब समझता है! मैं हर रोज़ आरिक को येशु के पवित्र हृदय की तस्वीर के सामने लाया करती थी, फिर मैं तस्वीर को छू कर उसके होठों को उन्हीं हाथों से छुआ करती थी। मुझे समझ आया कि इस समय आरिक बस मेरी नकल नहीं उतार रहा था, बल्कि जब वह दीवार को छू रहा था तब उस पवित्र वचन के उद्धरण पर हाथ लगने पर उसे समझ आया कि उसने कुछ पवित्र छुआ है। इस बात का अहसास होते ही मुझे नबी यिर्मियाह 15:16 की यह बातें याद आई:
तेरी वाणी मुझे प्राप्त हुई
और मैं उसे तुरंत निगल गया।
वह मेरे लिए आनंद और उल्लास का विषय थी;
क्योंकि तूने मुझे अपनाया,
विश्व मण्डल के प्रभु ईश्वर!
इस घटना ने मुझे यह सिखाया कि मुझे अपने बच्चों पर अपने विश्वास को थोपने की ज़रूरत नहीं है। बल्कि मेरे बच्चे ही मुझे नए सिरे से ईश्वर से प्रेम करना सिखाएंगे।
जब मेरे बच्चे मेरा ध्यान अपनी ओर करने के लिए इतनी ज़ोर ज़ोर से रोते हैं कि मैं उनके सामने से हिल भी नहीं पाती, तब मुझे याद आते हैं वे पल जब मैंने अपनी प्रार्थनाओं द्वारा ईश्वर का ध्यान अपनी ओर किया। और तब मैं खुद से यह सवाल करती हूं “क्या मैं उसी तरह ईश्वर के नज़दीक रहने की कोशिश करती हूं जिस तरह मेरे बच्चे हर वक्त मेरे नज़दीक रहने की ज़िद करते है?”
जब मैं अपने बेटे को किसी बात के लिए डांट लगाती हूं तो वह तुरंत मुझ से लिपट कर सुलह करने की कोशिश करता है। लेकिन जब मैं कोई गलती करती हूं, कोई ग़लत बात कहती हूं तब मुझे ईश्वर की ओर मुड़ने और उनसे माफी मांग कर सुलह करने में कितना वक्त लगता है? ईश्वर भी हमें कभी कभी डांट लगाते हैं और हमारे उन्हें गले लगाने और उनसे सुलह करने का इंतज़ार करते हैं।
और अगर मैं अपने बच्चों से इतना प्यार करती हूं जब कि वे रोज़ ही कोई ना कोई शरारत, कोई ग़लती करते हैं, तो सोचो ईश्वर हमारी गलतियों के बावजूद हमसे कितना ज़्यादा प्यार करता होगा।”
आंखों की चमक
एक बार जब मैं टी.वी. पर आराधना का लाइव कार्यक्रम में भाग ले रही थी, तब मैंने देखा कि आरिक ने भी अपने दोनों हाथ उठाए और इसा भी भजन सुन कर झूमने लगी। तब मुझे अहसास हुआ कि हमारे बच्चे हमारे विश्वास की अभिव्यक्ति की नकल करते हैं। चाहे मैं उन्हें येशु या संतों की अनेक कहानियां सुनाऊं, उनका ध्यान सिर्फ और सिर्फ मेरे कार्यों पर रहता है। क्या मैं येशु की तरह विनम्र और सौम्य हूं? क्या मैं येशु की तरह उन सब से प्रेम रखती हूं जो शायद मुझसे प्रेम नहीं रखते? जैसे जैसे बच्चे बड़े होते हैं, बच्चे हमारे कर्मों को हमारी बातों से ज़्यादा देखते और याद करते हैं।
मैं तब सबसे ज़्यादा अचंभे में पड़ जाती हूं जब नन्ही अन्ना पवित्र मिस्सा बलिदान सुनने चली आती है। वह हमेशा इतनी शांत रहती है। मिस्सा बलिदान के वक्त उसकी सारी शरारतें, उसकी तेज़ आवाज़, सब थम सी जाती है। वह बिल्कुल मौन रह कर ईश्वर की आराधना करती है। और जब पुरोहित कहते हैं “और हम भी सब दूतों और संतों के साथ मिल कर युगानुयुग तेरा स्तुतिगान करते हुए निरंतर एक स्वर से कहते हैं: पवित्र पवित्र पवित्र, हे स्वर्ग और पृथ्वी के परमेश्वर” तब अन्ना की आंखे ऐसे बड़ी हो जाती हैं जैसे वह उड़ते स्वर्गदूतों को देख पा रही हो। वह इतनी खुश और उत्साहित हो जाती है कि अगर कोई उसे उस समय देखेगा तो यह यकीन कर बैठेगा कि स्वर्ग सच में होता है। अन्ना के इसी उत्साह ने मुझे भी यकीन दिलाया कि स्वर्गदूत और संत हमारे आसपास ही रहते हैं और वे हमारे साथ ही मिस्सा बलिदान में भाग लेते हैं।
मेरे बच्चे मुझे हर समय येशु की बातों की याद दिलाते हैं “जब तक तुम खुद को इन बच्चों जेसे नहीं बना लेते, तुम स्वर्गराज में प्रवेश नहीं करोगे”। तो आइए हम सादगी और बच्चों जैसे विश्वास के साथ अपनी प्रार्थनाएं भेजें और मुझे यकीन है कि वे बादलों को चीर कर स्वर्ग पहुंच जाएंगी।
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नल खोलते ही पानी बहने लगता है
बटन दबाते ही बत्तियां बुझ जाती है
अलमारियों को खोलो तो खाना निकाला आता है
आजकल सुविधाएं इतनी बढ़ी हैं कि हम कितने लापरवाह हो गए हैं|
ईश्वर को धन्यवाद देने की आदत डालना आज के समय में बहुत ज़रूरी है| थेसलोनिकियों को लिखे गए पहले पत्र में संत पौलुस कहते हैं, “सब बातों के लिए ईश्वर को धन्यवाद् दें; क्यूंकि येशु मसीह के अनुसार आप लोगों के विषय में ईश्वर की इच्छा यही है|” ईश्वर क्यों हमें सब बातों में धन्यवाद देने को कहते हैं? संत पौलुस कहते हैं कि ऐसा करने से “ईश्वर की शान्ति जो हमारी समझ के परे है, आपके हृदयों और विचारों को येशु मसीह में सुरक्षित रखेगी|” इसीलिए अगर आप खुद को उत्तेजित, चिंतित, परेशान, या अशांत पाते हैं तो इससे निजात पाने का एक बढ़िया उपाय है ईश्वर को छोटी छोटी चीज़ों के लिए धन्यवाद देने की आदत डालना|
मैंने कई सालों पहले एक तीर्थ यात्रा के दौरान कृतज्ञता के बारे में कई महत्त्वपूर्ण बातें सीखीं| इस तीर्थ यात्रा के लिए मैंने और मेरे दोस्त ने 180 मील की दूरी एकसाथ तय करने का फैसला लिया| हम पैदल चल कर स्पेन के कमीनो डी संतियागो जाने वाले थे| एक दिन हम 15 मील लगातार चले, जिसके बाद हम रुक कर आराम करने के लिए बिलकुल तैयार थे| हम पसीने से लतपत और भूख व थकान से बेहाल थे| इसीलिए हमने नज़दीकी शहर में रुकने का फैसला किया| लेकिन जब हम नज़दीकी शहर पहुंचे तब हमें पता चला कि उस वक़्त उस शहर में एक महोत्सव चल रहा था जिसके चलते उस शहर के सारे होटल भर चुके थे| जब आप पैदल यात्रा करते करते इतना थक चुके हों, तब आराम करने की जगह ना मिलने से बुरा क्या ही हो सकता है?
थकान से हमारी हालत खराब हो रही थी, और हमें किसी तरह रात में सोने की जगह चाहिए थी| हमने कई होटलों में पूछा पर सब जगहें भरी हुई थीं जिसकी वजह से हमें काफी चिंता होने लगीं थी| फिर किसी ने हमें ठहरने की एक जगह के बारे में बताया जो शहर से थोड़ी दूर पर थी, जहाँ जगह मिलने की उम्मीद थी| उस व्यक्ति ने उस होटल में फ़ोन करके हमारे लिए पूछताछ भी की, और वाकई वहाँ किस्मत से एक डारमेट्री में दो बिस्तर खाली थे| हालांकि वहाँ पहुंचने के लिए हमें एक मील और चलना पड़ा और जब हम वहाँ पहुंचे तो वह जगह काफी गन्दी और लोगों से भरी हुई थी| पर उस वक़्त हम इसी बात से इतने खुश थे कि हमें ठहरने की एक जगह और सोने को एक बिस्तर मिल पाया, कि हमने बाकी किसी चीज़ की शिकायत नहीं की| कम से कम उस रात हमें ज़मीन पर, खुले आसमान के नीचे तो नहीं सोना पड़ा|
अगले दिन जब हम बस स्टेशन गए तब वहाँ हमने कई अफ़्रीकी शरणार्थियों को बस का इंतज़ार करते हुए देखा| वे किस चीज़ से दूर भाग रहे थे? उन्होंने कितनी दूर तक का सफर तय किया था? उन्होंने स्पेन तक आने के लिए कितनी दुःख, तकलीफों का सामना किया होगा, हम इसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते थे| उन्हें ऐसे देख कर हमारे दिल करुणा और दया से भर गए|
इस घटना के बारे में सोच विचार करते हुए मैंने खुद से एक सवाल किया, “कितनी बार मैंने ईश्वर को इस बात के लिए शुक्रिया कहा होगा कि आज रात मेरे पास सोने के लिए एक बिस्तर है?” शायद ही कभी मैंने इन बातों के लिए ईश्वर को याद किया होगा| उस रात, एक ऐसी चीज़ से वंचित रह जाने का डर, जिसके बारे में मुझे पहले कभी सोचना भी नहीं पड़ा, और फिर उन शरणार्थियों को मुझसे कहीं ज़्यादा बदतर हालत में देखकर मेरा ध्यान मेरे जीवन में मौजूद अनेक आशीषों की ओर गया, और इन सब बातों ने मुझे किसी भी बात के बारे में शिकायत ना करना सिखाया| इन सब के बाद मैंने अपने दिल में एक हल्कापन और ख़ुशी महसूस की| और इन सब बातों ने मुझे ईश्वर को छोटी छोटी बातों के लिए धन्यवाद कहना सिखाया| जैसे, अपनी तीर्थ यात्रा के दौरान मैंने और मेरे दोस्त ने पानी तक के लिए ईश्वर को धन्यवाद देना सीखा| कमीनो डी संतियागो की तीर्थ यात्रा के दौरान हमें अपने पीठ पर पानी ले कर चलना पड़ा, और पानी का वह बोझ काफी भारी होता है| लेकिन तीर्थ यात्रा करते वक़्त हम कई जगहों से गुज़रते हैं जहां पानी की कमी है, इसीलिए हमें अपने साथ काफी मात्रा में पानी ले कर चलना पड़ता है| हमारे साथ कई बार ऐसा हुआ की हमारा पानी ख़तम हो गया, उस वक़्त जब हमें पानी भरने और अपनी प्यास बुझाने के लिए कोई जगह दिखी तो हमने कितने दिल से ईश्वर को धन्यवाद कहा| हर दिन, शाम ढलने पर जब हम अपने डेरे में वापस जा कर ठन्डे पानी से नहा पाते थे तो हमारे दिल को एक अनोखा सुकून मिलता था|
जब हम तीर्थ से लौटे, तब हम ईश्वर को हर छोटी बात के लिए धन्यवाद देने की इस आदत को जारी रखना चाहते थे| बजाय इसके कि हमारे जीवन में किसी बात की कमी आए तभी हम ईश्वर की आशीषों के लिए ईश्वर को धन्यवाद देंगे, क्यों ना हम हर रोज़ ईश्वर को उन छोटी छोटी बातों के लिए धन्यवाद दें जिन्हें हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं| ईश्वर हमारी स्तुति और धन्यवाद के योग्य हैं, और जब हम हर दिन ईश्वर की आशीषों को खोजते हैं और उनके लिए ईश्वर को धन्यवाद देते हैं, तब हमारे जीवन की तकलीफें और चिंताएं जिन्हें हम अपने दिल में लिए फिरते हैं वे सारे बोझ हलकी लगने लगती हैं| और हम ईश्वर की उपस्थिति और उनके मार्गदर्शन पर ध्यान केंद्रित कर पाते हैं|
कृतज्ञता सच में वह दरवाज़ा है जो हमें “उस शान्ति की ओर ले जाता है जो सारी समझ के परे है”| एक बार कृतज्ञ हो कर देखें और सोचें की आप किन बातों के लिए अभी इसी वक़्त ईश्वर को धन्यवाद दे सकते हैं?
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तकलीफ के दिन ही तुम्हें सिखायेंगे कि अकेले बैठने में हिम्मत उठाना है
और जानो की तुम अकेले नहीं हो |
टेलीफोन मौन है | दरवाजे की घंटी पर अनछुआ पडी है, यानी किसी मेहमान के आने की सूचना के लिए वह अब बजती नहीं है | सारे मित्र और उनके परिवार मानो बहुत दूर चले गए हैं, शायद वे अपने ही कार्यों में व्यस्त हैं | इसलिए ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि मैं इन दिनों अपने रेफ्रिजरेटर को घूरकर देखती हूँ, इस उम्मीद से कि उसके अन्दर की खाद्य सामग्री से कुछ सुकून मिलगा | पूरा दिन कुछ न कुछ काम करती रहती हूँ, लेकिन उन कार्यों में बी कोई अर्थ नहीं निकलते | क्या अपने कभी पुरे दिन को उदासी और हताशा के भाव को देखा है, और यह भाव को पनपने दिया है, परिणाम स्वरूप आप दुःख और चिंताओं से भर गए हैं? हम में से बहुत सारे लोग इन दिनों यही करते हैं | सबसे सुखमय समय में भी एकाकीपन को सुलझाना कठिन कार्य है, लेकिन इन दिनों समूची दुनिया कोविड-१९ महामारी से जूझ रही है, यदि हम दुर्बल है तो एकाकीपन हमें बुरी तरह जकड सकता है | तो, हम क्या करें ?
सबकी परिस्थितियाँ भिन्न भिन्न हैं | तो भी, जब कभी मुझे अकेलापन महसूस होता है, मैं घर से बाहर निकलती हूँ, और एक लम्बी सांस लेती हूँ | कभी मैं अपने दरवाजे से बहार निकलकर सिर्फ दस १० कदम चलती हूँ, कभी लंबा देर के लिए टहल हो जाती है | दरवाज़ा खोलने के कार्य से ही हवा मेरे घर के अन्दर प्रवेश करती है, और अपने आसपास का एक भिन्न पहलू मुझे दिखाता है, और चाहे सिर्फ छह फीट के दूरी पर ही कोई व्यक्ति गुज़रता है तो यह एकाकीपन को दूर कर लेता है |
हल ही में एक दिन सुबह, अपनी सोच और नज़रिया बदलने के उद्देश से मैं हाथ में रोज़री माला लिए टहलने गयी | वह ऐसा दिन था जिस दिन आनंद के भेद पर मनन किया जाता है | धन्य माँ मरियम के साथ आनंद के साथ चलने की सोच से ही मेरे दृष्टिकोण में तत्काल अच्छा प्रभाव पड़ गया | टहलते हुए माला विनती करने से मेरे अन्दर एक शांतिपूर्ण लय बन जाती है, और अनायास ही ध्यान में मगन हो जाती हूँ | हर भेद पर मनन करते हुए मैं ने माँ मरियम से कहा कि वह उन भेदों के आनंद का खुलासा कर दें | उसके द्वारा प्रकाशित बातें विभिन्न तरीकों से प्रकट हो जाती हैं, लेकिन उस दिन वह बिलकुल अप्रतीक्षित बातें थीं |
मैं आनंद के अंतिम भेद पर मनन करने लगी जहां मरियम और जोसेफ येशु को मन्दिर में पाते हैं | जैसे ही मैं ने भेद का उच्चारण किया, उसी समय एक महिला जॉगिंग करती हुई निकल गयी | मैं ने अपने मन में सोचा, कितनी अच्छी बात है कि वह अपने शरीर रूपी मंदिर का ख्याल कर रही है और स्वस्थ रहने केलिए म्हणत कर रही है | मेरे मन में यह भी सवाल उठा कि उसका आत्मिक मंदिर कितना स्वस्थ होगा? जैसे ही यह सोच मेरे मन में आयी, अगली सोच उभरकर आयी: “तुम अपने मंदिर के बारे में मानंद करों” | तुरंत माँ मरियम ने मुझ से सवाल पूछा | “ तेरेसा, क्या तुमने आज अपने मंदिर में येशु को पाया है? जब तुम येशु को अपने मंदिर में खोजोगी, और उसे पाओगी, तब वह तुम्हें आनंद लाएगा” |
मैं कितनी मूर्ख थी | मैं कभी भी अकेली या एकाकी नहीं हूँ | येशु मेरे साथ हमेशा रहते हैं | पवित्र ग्रन्थ में येशु हमसे कहते हैं कि वह हमारे साथ हैं और हमें अकेले नहीं छोड़ेंगे | मत्ती 7:7 में येशु हमसे कहते हैं कि हम उनका द्वार खटखटायें और वह द्वार हमारे लिए खुल जाएगा | इसलिए मैं अपने मंदिर के द्वार खटखटाती हूँ और येशु को खोजती हूँ | वह हमेशा मेरा स्वागत करता है, अपने आनंद मुझे देता है, और
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प्रश्न: इस वायरस के संकट ने मुझे एहसास दिलाया है कि मेरा जीवन कितना छोटा है, और अब मुझे चिंता होने लगी है – बीमार होने की चिंता, और मृत्यु से डर। जब मुझे पता ही नहीं होगा कि मैं कोरोना वायरस से बीमार हो जाऊंगा या नहीं, तो मैं शांति से कैसे रह सकता हूं?
उत्तर: हर समाचार चैनल नियमित रूप से कोरोना महामारी की खबर देता आ रहा है। इस बीमारी की खबरों से बचना कठिन है – ये खबरें प्राय: हर जगह मौजूद है। यहां तक कि इस साल की शुरुआत में कई महीनों के लिए पूरे देश के गिरजाघरों में सार्वजनिक मिस्सा बलिदान को बंद कर दिया। मैंने एक गिरजाघर में पवित्र जल कुंड में आशीष किया गया हैण्ड सैनिटाइज़ेर भी देखा है!
सावधानी ज़रूरी है, लेकिन घबराहट बिलकुल अलग चीज़ है। मुझे लगता है कि बहुत से लोग (और संस्थाएं) एक आतंक-मोड के शिकार हो गए हैं जो ऐसे समय में न तो यथार्थवादी है, न ही सहायक है। इस वायरस के दौरान स्वस्थ रहने के लिए हम तीन चीजों को याद रखें:
सबसे पहले, डरिये नहीं। यह बाइबल में सबसे अधिक बार-बार कही गई वचनों में से एक है। वास्तव में, यह “डरो मत” वाक्यांश बाइबल में 365 बार दिखाई देता है – वर्ष के प्रत्येक दिन के लिए एक, क्योंकि हमें इसे हर दिन सुनने की आवश्यकता है।
हमें क्यों नहीं डरना चाहिए? क्योंकि सब कुछ ईश्वर के नियंत्रण में है। हमारी तर्कसंगत, विज्ञान-आधारित संस्कृति में, हम यह भूल जाते हैं – हम सोचते हैं कि मानव जाति की नियति हमारे ही हाथ में है। इसके विपरीत- सब कुछ पर ईश्वर का नियंत्रण है, और उसकी इच्छा की हमेशा जीत होगी। अगर यह उसकी इच्छा है कि हम इस बीमारी से ग्रसित होते हैं, तो हमें अपनी इच्छा को उसकी इच्छा के प्रति समर्पण करना होगा। हाँ, एहतियात बरतें, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा जीवन उसके हाथों में है। वह एक अच्छा पिता है जो अपने बच्चों का परित्याग नहीं करता है, लेकिन हमारी अच्छाई के लिए सब कुछ करता है। हां, “जो लोग ईश्वर से प्यार करते हैं, ईश्वर उनके कल्याण केलिए सभी बातो में उनकी सहायता करता है” – हाँ सभी बातों में: कोरोना महामारी में भी |
दूसरा, एक ख्रीस्तीय विश्वासी के रूप में हमें इस तथ्य पर ध्यान देना चाहिए कि हम सभी मरेंगे। यह पवित्र ग्रन्थ में कहा गया है (रोमियों 14: 8) कि “यदि हम जीते रहते हैं, तो हम प्रभु के लिए जीते हैं, और यदि मरते हैं, तो हम प्रभु के लिए मरते हैं; इस प्रकार, हम चाहे जीते रहें या मर जाएँ, हम प्रभु के ही हैं।” हम कभी-कभी सोचते हैं कि हम हमेशा के लिए मृत्यु से बच सकते हैं, लेकिन हम ऐसा नहीं कर सकते। हमारा जीवन हमारे लिए नहीं है जिस से कि हम उससे चिपके रहें – वह जीवन हमें प्रभु द्वारा ऋण पर दिया हुआ है, और हमें उसे किसी न किसी मौके पर येशु को लौटाना होगा। जिस दिन हम अनुभव करेंगे कि कभी इन उपहारों को हम पिता को लौटा देंगे, तो उस दिन हम अभूत पूर्व शांति का अनुभव करेंगे !
जैसा कि विख्यात ख्रीस्तीय लेखक जॉन एल्ड्रिज ने एक बार कहा था, “पृथ्वी पर सबसे शक्तिशाली व्यक्ति वह है जिसने अपनी ही मृत्यु को परखा है।” दूसरे शब्दों में, यदि आपको मृत्यु का भय नहीं है, तो आप अजेय हैं। उसी तरह, एक बार ख्रीस्तीय लोग इस तथ्य को स्वीकार कर लेते हैं कि उनका जीवन उनका अपना नहीं है, कि हमें किसी न किसी तरीके से ईश्वर के पास आना होगा, तो यह समझ हमें मृत्यु की डर से मुक्त करती है। यह समझ हमें जीवन के प्रति हमारे ऐसा अन्दर उन्मत्त लोभीपन या मोह से भी मुक्त करती है, जिसके कारण हम ऐसा जववन जीते है मानो कि इस भौतिक जीवन की रक्षा और संरक्षण ही सबसे महत्वपूर्ण बात है । हां, जीवन एक उपहार है, और हमें इसकी रक्षा के लिए हर संभव कदम उठाना चाहिए। लेकिन जीवन का उपहार पूर्ण नहीं है – हम सभी को किसी न किसी समय पर वह उपहार प्रभु को लौटाना होगा। चाहे वह कोरोनो वायरस हो या कैंसर, कार दुर्घटना की त्रासदी हो या बुढ़ापा, हम सभी को मरना होगा। ख्रीस्तीय विश्वासी अपनी निगाहें उस अनंत जीवन की ओर लगाकर रहता है, जहां जीवन कभी समाप्त नहीं होगा।
अंत में, बीमारों के प्रति हमें अपने कर्तव्यों को याद रखना चाहिए। हमारा कर्तव्य है कि हम बीमारों को न छोड़ें- भले ही वे संक्रामक बीमारी हों। जैसा कि 1576 के प्लेग के दौरान संत चार्ल्स बोरोमियो ने कहा था, “तुम्हारे जिम्मे में दिए गए लोगों की देखभाल करने के वास्ते इस नश्वर जीवन को त्यागने के लिए तैयार रहो।” हाल ही में, हमने रोम की संत फ्रांसेस की स्मृति का जश्न मनाया, जो 1440 के दशक में बड़े सामाजिक उथल-पुथल के समय में जीवित थी। उस संत ने अपना जीवन बीमारों को समर्पित कर दिया। उनके समकालीन एक धर्मबहन के शब्दों को सुनिये :
रोम में कई अलग-अलग बीमारियाँ व्याप्त थीं। घातक बीमारियां और प्लेग हर जगह थीं, लेकिन संत ने छूत के जोखिम को नजरअंदाज कर दिया और गरीबों और जरूरतमंदों के प्रति गहरी दया प्रदर्शित की। वे उनकी खोज में उन्हीं की झोपड़ियों और सार्वजनिक अस्पतालों में जाती थी, और उनकी प्यास को बुझाती, उनके बिस्तर को ठीक करती और उनके घावों पर मलहम पट्टी बांधती थी। दुर्गन्ध जितना अधिक घिनौना और अस्वस्थ करता था, उतना ही वे अधिक प्यार और देखभाल के साथ उनका इलाज करती थी । तीस वर्षों के लिए फ्रांसेस ने बीमार और अजनबी लोगों के लिए इस सेवा को जारी रखा… (सिस्टर मैग्डलीन एंगुलारिया द्वारा “रोम के संत फ्रांसेस का जीवन”)।
हमें भी, इस बीमारी से पीड़ित लोगों की देखभाल करने के तरीकों की तलाश करनी चाहिए । जो लोग इसके शिकार हो गए हैं, उनका तिरस्कार मत कीजिये ! यह हमारा ख्रीस्तीय कर्तव्य है, करुणा और दया के पवित्र कार्यों में से एक है। सावधानी ज़रूर बरतें, लेकिन जिन्हें हम सेवा दे रहे हैं अगर हम उनमे से किसी संक्रमित व्यक्ति से विषाणु की चपेट में आते हैं, तो यह श्वेत शहादत, प्रेम के क्रियान्वयन का एक रूप है।
और अंत में, हम खुद को याद दिलाएं कि यह सब ईश्वर के हाथों में है। अगर यह उसकी इच्छा है कि हम स्वस्थ रहें, इसके लिए हम ईश्वर की प्रशंसा करें। अगर यह उसकी इच्छा है कि हम बीमार हो जाएं, तो हम प्रभु के लिए अच्छे ढंग से पीड़ा भोगें । और अगर यह उसकी इच्छा है कि हम इस वायरस से मर जाएँ, तो हम अपने जीवन को उसके हाथों में सौंप दें।
तो, हाँ, सावधानी बरतें, यदि आप बीमार हैं तो घर पर रहें (बीमारी के कारण मिस्सा बलिदान छूट जाएँ तो आप कोई पाप नहीं कर रहे हैं!), अपने हाथों को धोएँ और स्वस्थ रहने की कोशिश करें। और बाकी सब ईश्वर पर छोड़ दें ।
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आपके जीवन में ईश्वर की एक योजना है, लेकिन यदि उनकी योजना आपकी योजना से मेल ना खाती हो तो क्या होगा ?
“थोड़ी चिंता की बात है”, अल्ट्रासाउंड तकनीशियन ने गंभीर होकर कहा| यह सुनकर हमारे दिल धक् धक् करने लगे| अपने नन्हें शिशु को देखने की जिस ख़ुशी और उत्सुकता को इतने दिनों से अपने मन में लिए हम चल रहे थे, अल्ट्रासाउंड तकनीशियन की बातों से उस सर्री ख़ुशी पर जैसे ग्रहण सा लग गया| ऐसा तो हमने कभी नहीं सोचा था|
हमारी शादी को बस डेढ़ साल ही हुए थे| हम एक दूसरे के साथ बहुत खुश थे और अपने जीवन में एक बच्चे की आशीष का इंतज़ार कर रहे थे| हमने अपने परिवार के लिए ढेर सारे प्यारे ख़्वाब देखे थे| हम एक नन्ही सी जान को इस दुनिया में लाने, उसे बड़े लाड़ प्यार से पाल पोस कर बड़ा करने, और इसके द्वारा खुद बेहतर इंसान बनने के लिए बेताब थे| हमें उम्मीद थी कि हम अपने होने वाले बच्चों के लिए अच्छे माता पिता साबित होंगे| और ये सारी बातें हमें बहुत ख़ुशी देती थीं|
डेढ़ साल की कोशिश के बाद जब हमें कोई फल नहीं मिला, तब हमें निराशा ने घेर लिया| गर्भधारण की हर जांच का नेगेटिव रिपोर्ट हमारे दुःख को और बढ़ा रहा था| इन सब के बीच जब हमें आखिरकार गर्भधारण का एक पॉजिटिव रिपोर्ट देखने को मिला तो हमारी ख़ुशी का ठिकाना ना रहा| हम आखिरकार माता पिता बनने वाले थे! हम जल्द ही अपने बच्चे को अपनी गोदी में खिला पाएंगे यह सोच कर हम बहुत उत्साहित थे|
हमने अपने पहले अल्ट्रासाउंड के लिए तीन हफ्ते इंतज़ार किया और इस बीच हमने एक बार भी नहीं सोचा कि कोई चिंता की बात हो सकती है| हमारी मुलाक़ात के अंत में, तकनीशियन ने हमें एक हफ्ते बाद डॉक्टर से दोबारा अल्ट्रासाउंड कराने को कहा, क्योंकि उसकी जांच के मुताबिक़ हमारे बच्चे की बढ़त और उसका माप उतना नही था जितना एक आठ हफ्ते के बच्चे का होना चाहिए|
यह सब सुन कर चिंता और डर में डूब जाने के बदले हमने आपस में यह तय किया कि हम येशु को इस नए जीवन के उपहार के लिए धन्यवाद देंगे| और उसकी योजना पर भरोसा रखेंगे, चाहे उसकी योजना जो भी हो| हमने इस विश्वास के साथ प्रार्थना की कि जो पहला अल्ट्रासाउंड हुआ था वह गलत हो और हमारी नन्ही सी जान बिलकुल सही सलामत हो| हमने बड़े विश्वास और भरोसे के साथ यह प्रार्थना की |
लेकिन कभी कभी, ज़िंदगी में चीज़ें आपकी इच्छा के हिसाब से नही चलती| और कभी कभी आपको सारी ज़िंदगी इस बात का जवाब नही मिलता कि आपके साथ जो हुआ वह क्यों हुआ| हम अपने पहले अल्ट्रासाउंड के दस दिन बाद दूसरे अल्ट्रासाउंड के लिए गए, जिसमें हमें यह बुरी खबर दी गई कि बच्चे के दिल की धड़कन बिलकुल नही मिल रही है और गर्भपात हो जाना निश्चित है|
उस दिन जब मैं और मेरे पति अपने दूसरे अल्ट्रासाउंड के लिए हॉस्पिटल गए थे, तब हमें विश्वास था कि ईश्वर हमें डॉक्टर के कंप्यूटर स्क्रीन पर एक स्वस्थ बच्चा दिखाएंगे| हमें इस बात पर पूरा भरोसा था कि हमारी प्रार्थना सुनी जाएगी और ईश्वर हमारी इच्छा को नही ठुकराएंगे| पर ईश्वर को उस वक़्त कुछ और ही मंज़ूर था, और इस बार ईश्वर को जोमंजूर था, उसे अपनाना हमारे लिए काफी मुश्किल हो रहा था|
जहां कुछ ही समय पहले तक हम अपने परिवार को बढ़ते हुए, नए कल के सपने देख रहे थे, वहीं अब हम अपने बच्चे को खो देने का मातम मना रहे थे| इस दुखभरी खबर पर मैं विश्वास नहीं करना चाह रही थी| मैं परिणाम को अपने हिसाब से पाना चाह रही थी| और मैंने इस दू:खद सच्चाई को कभी नहीं चाहा था | लेकिन अब मैं कर ही क्या सकती थीं?
ईश्वर के मन में हमारे लिए अलग योजनाएं थी, ऐसी योजनाएं जिन में अपने जीवन की इतनी अनमोल चीज़ को खो देने का दुःख, ह्रदय विदारक दर्द और मातम लिखा था| इतने दुःख के बीच भी हमने ईश्वर की योजना को स्वीकार करने का फैसला किया और उसकी मर्ज़ी की खोज में अपनी ज़िंदगी को आगे बढ़ाने की कोशिश की| इन सब के बावजूद, यह नही कहा जा सकता कि ईश्वर की योजना को अपनाना और ईश्वर की मर्ज़ी को समझ पाने के बराबर नहीं है| ईश्वर की मर्ज़ी को समझ पाने का मतलब ईश्वर की मर्ज़ी से सहमत होना या अच्छा लगना नहीं है | हम चाहते थें कि ईश्वर की योजनाएं हमारे मन मुताबिक़ हों लेकिन इन सब के बीच हमें खुद से यह सवाल करना पड़ रहा था कि अब क्या हमें ईश्वर से नाराज़ हो जाना चाहिए या हमें उनकी योजनाओं को अपना कर उन पर भरोसा करना चाहिए?
आखिर ईश्वर ने अपने वचन में यह कहा है,
“ क्योंकि मैं मैं तुम्हारे लिए निर्धारित अपनी योजनाएँ जानता हूँ – तुम्हारे हित की योजनाएँ, अहित की नहीं, तुम्हारे लिए आशामय भविष्य की योजनाएँ | जब तुम मुझे पुकारोगे और मुझ से प्रार्थना करोगे, तो मैं तुम्हारी प्रार्थना सुनूंगा| जब तुम मुझे ढूंढोगे, तो तुम मुझे पा जाओगे| यदि तुम मुझे सम्पूर्ण ह्रदय से ढूंढोगे तो मैं तुम्हें मिल जाऊँगा और मैं तुम्हारा भाग्य पलट दूँगा|” (यिर्मयाह 29:11-14)
अगर हम येशु में विश्वास करते हैं तो हमें उनके किये गए वादों पर भी भरोसा करना पडेगा, है ना? फादर जो मैकमोहन कहते हैं, “या तो येशु हमसे झूठ बोले थे या हम उसकी बातों पर भरोसा नही कर रहे हैं|” येशु हमारा भरोसा चाहते हैं| वह हमारा विश्वास चाहते हैं| वह हमारी आस्था चाहते हैं|
इसीलिए जब भी मैं उस गर्भपात द्वारा लाये गए ख़ालीपन और एकाकीपन के कारण मेरे जीवन की बर्बादी को महसूस करती हूँ, मैं यिर्मयाह 29:11-14 के वचनों को याद करती हूँ| जब भी इस बात से मेरा दिल दुखता है कि मैं इस जीवन में अपनी उस शिशु को अपनी गोद में ले नही पाउंगी, तब तब मैं उन वचनों से शक्ति पाती हूँ|
क्या मुझे लगता है कि येशु हमसे झूठ बोले थे? या क्या यह हो सकता है कि मैं अपने दुःख दर्द में उसपर पूरी तरह भरोसा नही कर पा रही हूँ? क्या मुझे लगता है कि येशु झूठे हैं, या क्या है संभव है कि मैंने अपनी पीड़ा में डूब कर खुद को उनसे दूर कर लिया?
आप अपने बारे में बताइये| क्या आप उन पर भरोसा रखते हैं जिन्होंने अपनी वाणी को उच्चारित करके आपकी सृष्टि की? क्या आप उस कहानी पर विश्वास करते हैं जिसे ईश्वर ने आपके जीवन के लिए लिखा है? क्या आप विश्वास करते हैं कि ईश्वर आपके जीवन को मार्गदर्शन दे रहा है? क्या आप अपनी दुःख तकलीफों के बीच ईश्वर पर भरोसा रख पाते हैं?
चाहे आपने अपने जीवन में बहुत सारे दुःख तकलीफें झेली हो, यह समय उन सब दुखों को क्रूसित येशु के पैरों के नीचे छोड़ने का अवसर है| ताकि आपके सृष्टिकर्ता उन बातों को निपट सकें और चंगा कर सकें| दुःख तकलीफों का समय ही वह समय है जब हमें ईश्वर में अपने विश्वास को बढ़ाना चाहिए, ऐसा करना चाहे कितना ही तकलीफदेह हो|
अपने आप से पूछिए, क्या आप विशवास करते हैं कि येशु हमसे झूठ बोले हैं ? क्या आपको लगता है कि उन्होंने हमारे भविष्य के लिए समृद्धि और आशा की योजनाएं नही बनाई हैं? या फिर इसकी संभावना है कि आप उनपर अभी तक पूरा भरोसा ही नही कर पाए हैं?
ईश्वर पर अपने भरोसे को बढ़ाइए| उन्हें अपनी दुःख तकलीफें सौंपिए ताकि वह आपको नया बना कर आपको अपने जीवन के लक्ष्य प्रकट कर सके| अपने आप को उनके सामने नम्र और छोटा बनाइये, ताकि वह आपको दिखा सकें कि वे कितने बड़े और महान हैं|
हे येशु, जब मैं कमज़ोर और निस्सहाय महसूस करता हूँ तब मुझे तेरी उपस्थिति का अनुभव करा दे| मुझे तेरी सुरक्षापूर्ण प्रेम और तेरी शक्तिशाली ताकत पर विश्वास करना सिखा, ताकि मुझे किसी बात की चिंता और किसी बात का डर ना लगे| मेरी सहायता कर कि मैं तेरे करीब रहकर सब कुछ में तेरा हाथ, तेरा उद्देश्य और तेरी योजनाको समझ सकूं| आमेन|
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क्या आप जानते हैं कि आपके एक पिता हैं जो हमेशा आपके आस-पास, आपकी देख-रेख करते रहते हैं? अगर आप उनके प्यार केलिए तरस रहे हैं तो उनके बारे में जानने केलिए आगे पढ़िए|
जब आप उनसे अपना मुँह फेरते हैं
सोलह साल पहले मैं कैलिफ़ोर्निया शहर की सबसे कड़ी सुरक्षित जेल फोलसोम में एक धर्मशिक्षा क्लास का संचालन कर रहा था| उस धर्मशिक्षा क्लास में जुआन नाम का कैदी सबके सामने अपनी जीवन-कहानी बता रहा था| उसने हमें बताया कि उसके असली पिता ने उसे तब छोड़ा जब वह एक नवजात था, और उसका सौतेला पिता बहुत बद्तमीज़ और गैरज़िम्मेदार इंसान था| जुआन ने कई बार अलग अलग तरह से यह जताया कि उसकी ज़िंदगी में एक पिता की कमी रही है और उसकी ज़िंदगी में जिसने भी एक पिता की भूमिका निभाने की कोशिश की, उससे उसके सम्बन्ध कभी ठीक नही रहे| उसने कहा कि शायद यही कारण उसे उसके बचपन के ईश्वर पर विश्वास में वापस ले आया — वह अब भी अपने पिता को खोज रहा था|
मैंने उससे कहा, “जुआन ईश्वर तुम्हारे पिता हैं, और येशु तुम्हें उस पिता को “अब्बा” कहने केलिए आमंत्रित करते हैं|”
“अब्बा का मतलब क्या होता है?” उसने मुझ से पूछा|
“अब्बा का मतलब होता है पिता, जैसे पापा| येशु तुम्हें ईश्वर को पापा कहकर पुकारने की इजाज़त देते हैं,” मैं ने कहा|
जुआन के गालों पर आंसू बह रहे थे| वह धीरे धीरे और बड़े आदर और श्रद्धा से “हे हमारे पिता” प्रार्थना कहने लगा| वह इस प्रार्थना को इतने विश्वास और दृढ़ता के साथ बोला जैसे वह इस प्रार्थना को ज़िंदगी में पहली बार बोल रहा हो|
“हे हमारे पिता” प्रार्थना की सरलता और इसे आसानी से बोलने की हमारी आदत के कारण हम भूल जाते हैं कि हमारे धर्म के इतिहास में इस का कितना बड़ा योगदान रहा है| इस प्रार्थना में येशु ईश्वर को न्यायाधीश, या सर्वज्ञानी, या आसमानी दिव्य शक्ति, या ऐसी कोई अनोखी उपाधि देकर नही बुलाते हैं| इसकी जगह, येशु ईश्वर को पिता कहकर पुकारते हैं, जो कि हमारे अंदर एक अपनापन के भाव को जगाता है, और हमें यह याद दिलाता है कि कैसे छोटे बच्चे अपने पिता को खोजते हैं, उनके पास दौड़े चले आते हैं, क्योंकि उन्हें इस बात का यकीन होता है कि उनके पिता उन से बेहद प्यार करते हैं|
ख़ालीपन को भरने की कोशिश
अगर कुछ लोग अपने जीवन में अपने पिता को घर से गायब, या जल्दी गुस्सा करते हुए, या कड़ा बर्ताव रखते हुए देखते हैं, तो यह मुमकिन है कि वह ईश्वर के व्यवहार को भी वैसा ही समझने की भूल कर बैठते हैं| अगर वे अपने पिता से कम उम्मीद रखते हुए बड़े हुए हैं, तो मुमकिन है कि वे ईश्वर से भी कम या कोई उम्मीद ना रखने लगें| अगर उनके पिता उन से बात नहीं किया करते थे तो मुमकिन है कि वे ईश्वर को भी अपने भक्तों से बात ना करने वाला समझते हों| पर येशु ने हमे ईश्वर को “अब्बा” कहना सिखाया है, और अब्बा का मतलब होता है “मेरे पिता”| ईश्वर को इस तरह पुकारना हमारे अंदर नज़दीकी, प्यार, सुरक्षा और अपनापन के भावों को जगाता है|
ईश्वर के परम प्रिय पिता के रूप के बारे में हमें नबी होशेआ की किताब में पढ़ते हैं| उन्होंने ईश्वर के उस प्यार भरे पिता-पुत्र के रिश्ते के बारे में लिखा जिसे महसूस करने केलिए येशु हमें न्यौता देते हैं|
इज़राइल जब बालक था, तब मैं उसे प्यार करता था
और मैंने मिस्र देश में अपने पुत्र को बुलाया
मैं उन लोगों को जितना अधिक बुलाता था,
वे मुझसे उतना ही दूर होते जाते थे |
वे बाल देवताओं को बलि चढ़ाते
और अपनी मूर्तियों के सामने धूप जलाते थे |
मैंने एफ्राइम को चलना सिखाया |
मैं उन्हें गोद में उठाया करता था |
किन्तु वे नहीं समझे कि मैं उनकी देखरेख करता था |
मैं उन्हें दया तथा प्रेम की बागडोर से टहलाता था
जिस तरह कोई बच्चे को उठा कर गले लगाता है,
उसी तरह मैं भी उनके साथ व्यवहार करता था |
मैं झुककर उन्हें भोजन दिया करता था | (होशेआ11:1-4)
बच्चे को उठा कर गले लगाने वाले ईश्वर का यह रूप कितना प्यारा है|
ईश्वर के इसी रूप ने जेल में जुआन नाम के उस कैदी के दिल को पिघला दिया और उसकी आँखों में ख़ुशी के आंसुओं से भर दिया| कई लोग सारी ज़िंदगी उस पिता को खोजने में बिता देते हैं| लेकिन येसु हमें बताते हैं कि हमारे पास पहले से ही एक ऐसे पिता हैं जो हमारे दुनियावी माता-पिता से कहीं ज़्यादा हमें प्यार करते है| हमें बस उनके सामने जाना हैं और बचपन की मासूमियत भरी आवाज़ में उनको पुकारते हुए कहना है, “अब्बा!”
हे स्वर्गिक पिता, मैं अपने आप को एक छोटे शिशु की तरह आप के हाथों में सौंपता हूँ, और मैं आप की दिव्य योजना पर विश्वास करता हूँ| मुझे हर दिन आपकी उन अदृश्य प्रेम की बागडोर का अनुभव कराइयेगा जो मुझे आप से बांधे रखतीं हैं|
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बात 18 अगस्त, 1996 की है| कबालितो अल्मागरो के संत मरिया गिरजाघर में मिस्सा के ठीक बाद एक महिला ने आकर बताया कि उसने गिरजाघर के पीछे वाले हिस्से में एक पुराने, धूल से सने कैंडल स्टैंड पर एक परम प्रसाद के टुकड़े को पाया| धूल की वजह से उसे खाया नहीं जा सकता था, इसीलिए पुरोहित ने उसे अपनी जानकारी के हिसाब से पानी में डालकर वेदी की मंजूषा में रख देना ही ठीक समझा|
अगले सोमवार को जब वेदी की मंजूषा को खोला गया तब वह परम प्रसाद खून से सना हुआ पाया गया| इस बात के बारे में बिशप जॉर्ज बर्गोगलियो (जो कि आगे चलकर ब्यूनोस आइरेस के आर्चबिशप और फिर पोप फ्रांसिस बने) को खबर दी गयी| फिर उस परम प्रसाद को एक सुरक्षित जगह ले जाया गया, जहां उस मे निरंतर बदलाव आता रहा और अंत में वह माँस का टुकड़ा बन गया और बिलकुल भी खराब नही हुआ | इसलिए आर्चबिशप जॉर्ज बर्गोगलिओ ने उसपे जांच बिठाई|
अक्टूबर 5, 1999 को आर्चबिशप के प्रतिनिधियों की मौजूदगी में एक वैज्ञानिक ने उस टुकड़े का एक छोटा सा नमूना लेकर उसे जांच के लिए न्यूयॉर्क भेजा| वहां के वैज्ञानिकोण को यह बताया नहीं गया कि वह टुकड़ा कहाँ से आया था| जाने-माने ह्रदय रोग विशेषज्ञ और फॉरेंसिक पैथोलोजिस्ट डॉ. फ्रेडरिक ज़ुगीबा ने अपनी जांच में पाया कि वह टुकड़ा असली इंसानी माँस है, और वह दिल का माँस है और उस मे लगा खून भी असली है | उनके हिसाब से उसमे से लिए गए खून के डी.एन.ए. से पता चलता है कि यह मांस का टुकडा किसी ऐसे इंसान का है जिसे मरने से पहले काफी तड़पाया गया था|
डॉ. फ्रेडरिक ने प्रमाणित किया कि जिस मांस के टुकड़े की उन्होंने जांच की वह “दरअसल एक दिल की उस मांसपेशी से लिया गया था जिसके बल पर ह्रदय का सिकुड़न और फूलना होता है | जिस दिल से यह टुकड़ा लिया गया था उस मे सूजन थी और उसके खून में सफ़ेद रक्त कोशिकाओं की तादाद ज़्यादा थी| मेरा मानना है कि जब यह टुकड़ा लिया गया था, तब वह दिल ज़िंदा था| ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि इंसान के मरते ही उसके अंदर पायी जानेवाली सफ़ेद रक्तकोशिकाएं भी तुरंत ही मर जाती हैं| चूँकि लिए गए नमूने में सफ़ेद रक्तकोशिकाएं मौजूद थी, तो यह बात पक्की थी कि वह टुकड़ा किसी ज़िंदा दिल का हिस्सा था| गौर करने वाली बात यह भी है कि यह सफ़ेद रक्तकोशिकाएं दिल के टिश्यू के अंदर तक घुस आयी थीं, जो कि तभी होता है जब कोई बहुत ज़्यादा तनाव में हो और उसकी छाती पर बड़ी बेरहमी से वार किया गया हो|”
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