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संत पापा फ्रांसिस के सबसे हालिया सार्वभौम परिपत्र ‘फ्रातेल्ली तूत्ती’ के प्रकाशन के मद्देनजर, पूंजीवाद और निजी संपत्ति के प्रति संत पापा के रवैये के बारे में नकारात्मक टिप्पणी का एक बड़ा तूफ़ान मचा हुआ है। कई पाठकों ने पापा फ्रांसिस के विचारों की व्याख्या इस प्रकार की कि पूंजीवादी व्यवस्था अपने आप में शोषणकारी है और निजी संपत्ति की पकड़ नैतिक रूप से गलत है। जो भविष्यवाणी-शैली में लिखते हैं, उनकी तरह संत पापा फ्रांसिस भी वास्तव में मजबूत और चुनौतीपूर्ण भाषा का प्रयोग करते हैं, और इसलिए, यह समझना आसान है कि उनके विरोधी किस तरह उत्तेजित हो जाते हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण यह है कि संत पापा फ्रांसिस के कथन को बड़े ध्यान से पढ़ने की आवश्यकता है और उसे कैथलिक सामाजिक शिक्षण की लंबी परंपरा के संदर्भ में व्याख्या करने की ज़रूरत है।
सबसे पहले, जिस पूंजीवाद के संबंध में कलीसिया “बाजार अर्थव्यवस्था” कहती है, उस के सम्बन्ध में संत पापा का कहना है: “व्यावसायिक गतिविधि अनिवार्य रूप से एक महान बुलाहट है, जिसका लक्ष्य धन का उत्पादन कर हमारी दुनिया को बेहतर बनाना है” (फ्रातेल्ली तूत्ती, 123)। इसके अलावा पूंजीवाद को दुष्ट कहनेवाली किसी भी विचारधारा से संत पापा खुद को अलग कर लेते हैं | वे स्पष्ट रूप से पुष्टि करते हैं कि नैतिक रूप से सराहनीय आर्थिक व्यवस्था वह है जो न केवल धन वितरित करती है बल्कि उद्यमशीलता के माध्यम से धन पैदा भी करती है। इसके अलावा, वे तर्क देते हैं कि एक निश्चित स्व-चिंता, जिसमें कुछ लाभ लेना भी शामिल है, आर्थिक गतिविधि के नैतिक उद्देश्य के प्रतिकूल नहीं है: “ईश्वर की योजना में, प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वयं के विकास को बढ़ावा देने के लिए बुलाया गया है, और इसमें उत्पादन को बढ़ाने और धन में वृद्धि करने का सबसे अच्छे आर्थिक और तकनीकी साधन की खोज भी शामिल है ”(123)। ऐसी टिप्पणियाँ करते हुए, संत पापा फ्रांसिस संत जॉन पॉल द्वितीय की परंपरा में मजबूती से खड़े हैं, जिन्होंने मानव रचनात्मकता, सरलता और साहस के अभ्यास के लिए बाजार की अर्थव्यवस्था को एक अवसर के रूप में देखा जो हमेशा अधिक से अधिक लोगों को अपनी गतिशीलता में खींचने का प्रयास करता आया है। आधुनिक कैथलिक सामाजिक परंपरा के संस्थापक, महान लियो तेरहवें, जिसने रेरुम नोवारुम सार्वभौम परिपत्र के द्वारा, निजी संपत्ति का बचाव किया और कई तर्कों का उपयोग करते हुए, साम्यवादी आर्थिक व्यवस्थाओं को नकार दिया। संत पापा फ्रांसिस ने अपने इन दोनों पूर्वगामियों की परंपरा की पुष्टि की है | इसलिए मैं आशा करता हूँ कि ‘संत पापा फ्रांसिस पूंजीवाद के दुश्मन है और वैश्विक समाजवाद के जयजयकार करनेवाले व्यक्ति हैं’, ऐसी मूर्खतापूर्ण झूठी अफवाह के विरुद्ध उपरोक्त सबूत दिये जा सकते हैं ।
अब, इसमें से किसी से भी लाभ प्राप्त किए बिना, हमें अब यह भी इंगित करना चाहिए कि, सामाजिक शिक्षण परंपरा में अपने सभी पूर्वगामियों की तरह, अपवाद के बिना, संत पापा फ्रांसिस भी बाजार की अर्थव्यवस्था के लिए, कानूनी और नैतिक सीमाओं की आवश्यकता पर भी बल देते हैं। और इस संदर्भ में, शास्त्रीय कैथलिक धर्मविज्ञानं “वस्तुओं के सार्वभौमिक गंतव्य” के रूप में जो संकेत करता है उस पर संत पापा भी जोर देते है। यहाँ ‘फ्रातेली तूत्ती’ में पापा फ्रांसिस ने इस तरह कहा है: “निजी संपत्ति का अधिकार हमेशा इस प्राथमिक और पूर्व सिद्धांत के साथ होता है कि पृथ्वी की भौतिक वस्तुओं के सार्वभौमिक गंतव्य के लिए सभी निजी संपत्ति की अधीनता का और उपभोग का सभी को अधिकार है” (123)। स्वामित्व और उपभोग के बीच अंतर करने में, संत पापा फ्रांसिस, संत थॉमस एक्विनास के विचार को दुहरा रहे हैं, जिन्होंने सुम्मा थियोलोजिया के प्रश्न संख्या 66 में इस पर प्रासंगिक अंतर किया था। संत थॉमस का तर्क है कि कई कारणों से, लोगों को “माल की खरीद और निस्तारण” का अधिकार है और इसलिए उन्हें “संपत्ति” के रूप में रखने का भी अधिकार है। लेकिन वे जो कुछ भी स्वयं के लिए नीतिगत रूप से उपयोग करते हैं, उसके संबंध में, उन्हें हमेशा सबसे पहले सामान्य कल्याण को ध्यान में रखना चाहिए: “इस लिहाज से मनुष्य को भौतिक चीजों पर स्वामित्व होना चाहिए, अपनी निजी वस्तु के रूप में नहीं, बल्कि सामूहिक रूप में, ताकि वह वे उन्हें दूसरों की जरूरत के हिसाब से उन के साथ साझा करने के लिए तैयार रहें।”
अब, इस अंतर के संबंध में, संत थॉमस खुद एक पुरानी परंपरा के उत्तराधिकारी थे, जो कलीसिया के आचार्यों की परंपरा है। पापा फ्रांसिस संत जॉन क्रिसोस्टम का उद्धरण इस प्रकार देते हैं: “गरीबों के साथ हमारे धन को साझा नहीं करना, उन्हें लूटने और अपनी आजीविका छीनने के समान है। हमारे पास जो धन है वह हमारा अपना नहीं है, बल्कि उनका भी है।” और इसी प्रकार वे संत ग्रेगरी महान का भी हवाला देते हैं: “जब हम जरूरतमंदों को उनकी बुनियादी ज़रूरतें प्रदान करते हैं, तो हम उन्हें वही दे रहे हैं जो हमारा नहीं, बल्कि उनका अपना है।” स्वामित्व और उपभोग के बीच के अंतर को समझने का सबसे सरल तरीका यह है कि देर रात को आपके घर के दरवाजे पर आकर भोजन की माँग करने वाले भूखे आदमी के परिदृश्य की आप कल्पना करें। हालांकि आप अपने ही घर में हैं, जिसका स्वामित्व वैध रूप से आप ही के पास है, और आप दरवाजे के पीछे हैं, जिसे आपने घुसपैठियों से बचने केलिए बंद कर दिया है, फिर भी उस भिखारी को उसकी सख्त जरूरत में आप अपनी कुछ संपत्ति को देने के लिए नैतिक रूप से बाध्य होंगे। संक्षेप में, निजी संपत्ति एक अधिकार है, लेकिन वह एक “अलंघनीय” अधिकार नहीं है – और ऐसा कहना साम्यवाद को बढ़ावा देना नहीं होता है।
संत पापा फ्रांसिस के सार्वभौमिक परिपत्र में एक नवीनता हमें दिखाई देती है वह उपरोक्त अंतर है जो राष्ट्रों के बीच के संबंध, न केवल व्यक्तियों के बीच के सम्बन्ध का अनुप्रयोग है। एक राष्ट्र या राज्य के पास वास्तव में अपनी संपत्ति रखने का अधिकार होता है, जो अपने लोगों की ऊर्जा और रचनात्मकता के माध्यम से प्राप्त होता है, और उसे अपनी सीमाओं को वैध रूप से बनाए रखने का अधिकार है; हालाँकि, ये विशेषाधिकार नैतिक रूप से पूर्ण नहीं हैं। पापा फ्रांसिस के शब्दों में, “हम फिर कह सकते हैं कि प्रत्येक देश, विदेशी का भी है, क्योंकि किसी अन्य क्षेत्र से आने वाले जरूरतमंद व्यक्ति को किसी क्षेत्र की संपत्ति या वस्तु देने से इनकार नहीं किया जान चाहिए।” (124) यह “वैश्विकता” नहीं है या राष्ट्रीय अखंडता का खंडन नहीं है; यह केवल स्वामित्व और उपभोग के बीच थॉमस एक्विनास द्वारा प्रतिपादित प्रभेद या अंतर है, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लागू है।
ऐसा न हो कि हम पापा फ्रांसिस के शिक्षा को यहां मूर्खतापूर्ण समझें, इसलिए मैं निजी संपत्ति के प्रबल रक्षक और साथ साथ साम्यवाद के तीव्र विरोधी संत पापा लियो तेरहवें के वचनों को उधार लेना चाहता हूं,: “जब आवश्यकता की मांग के अनुसार पूर्ती की जाती है, और किसी के आर्थिक स्थिति पर ज़रूरी ख्याल किया गया हो, उसके बाद यह एक कर्तव्य बन जाता है कि जो कुछ भी बचता है उसे गरीब को दे दिया जाए।” (रेरुम नोवारुम, 22)।
'आपकी सबसे पसंदीदा याद कौन सी है? कभी सोचा है कि वह याद आपके ज़हन में आज भी ताज़ा क्यों है?
यादों की गलियों में
एक दिन अचानक मैंने सोचा कि क्यों न अपने एक पुरोहित मित्र से मिलने जाया जाए। मेरे दोस्त की अब उम्र हो चली है और ईश्वर ही जानता है कि उनके पास कितनी ज़िंदगी बची है। पिछले कुछ दिनों से मैं मानव जीवन पर मनन चिंतन कर रहा था, क्योंकि हम तीस साल से दोस्त रहे हैं। और मुझे अहसास हुआ कि हमने न जाने कितने ही बहुमूल्य पल एक साथ गुज़ारे है, जिनमे से काफी पल तो मुझे अब याद भी नहीं हैं। कभी कभी अगर मैं दिमाग पर ज़ोर डालूं तो बड़ी मुश्किल से मुझे उनमें से कुछ पल याद आ जाते हैं। या कभी कोई बात मुझे इन पलों की याद दिला देते हैं। ये यादें उस हर एक दिन की हैं जब भी मैं अपने दोस्त से अलग अलग पल्ली या अलग स्थानों में मिलने जाया करता था।
जो बात मुझे सोच में डालती है वह यह है कि समय के साथ हम कितना कुछ भूलते जाते हैं और कितना कम हमें आखिर में याद रह जाता है। देखा जाए तो वर्तमान में मिला समय किसी ख़ज़ाने की तरह है जो समय बीतने के साथ साथ खर्च होता जाता है और कुछ समय बाद हमारे पास इन पलों की यादें तक नहीं बचती। पर जब हम इन बीते लम्हों को याद करने की कोशिश करते हैं तब हमें अहसास होता है कि उस बीते लम्हे में कैसे हमारे अवचेतन मन को उस वक्त बस इस बात की समझ थी कि वर्तमान का यह लम्हा ही सबसे बहुमूल्य है।
समय तेज़ी से भाग रहा था इसीलिए मैं अपने दोस्त से मिलने के लिए निकला; रास्ते में मैं यह सोचने लगा, एक दिन यह रात भी खुद में अनेक राज़ छुपाए मेरे यादों के गलियारे में एक धुंधली सी याद बन कर रह जाएगी। वर्तमान का यह लम्हा जब अतीत में परिवर्तित हो जाएगा, तो उसका सिर्फ ढांचा ही रह जाएगा और उसका एक बड़ा हिस्सा हमेशा के लिए खो जाएगा। और जो बचेगा वह कुछ ऐसा सामने लाएगा जो उस वक्त छिपा था जब वह लम्हा जीवंत था, खेत में छुपे ख़ज़ाने की तरह (मत्ति 13:44-46)
जीवन का केंद्र
मैं मन ही मन यह सोचने लगा कि ऐसा क्या है जो मेरे लिए दोस्तों के साथ बिताए इस पल को यादगार बनाता है? ऐसा क्या है जो इन लम्हों को बहुमूल्य बनाता है? मेरे लिए इसका जवाब बेहद सरल है। मेरे लिए हमारी दोस्ती और हमारी आपसी समझ ही इन लम्हों को खास बनाती है। अक्सर दोस्ती सामान्य गुणों और रुचियों पर आधारित होती है। आपस में कुछ न कुछ सामान्य गुण तुच्छ भी हो सकते हैं जिनकी नीव पर बनी दोस्ती भी तुच्छ होती है। पर हमारी दोस्ती ऐसी नही है, तो फिर हमारी दोस्ती किस समानता की नीव पर स्थापित है? इसका जवाब है ख्रीस्त के लिए हमारा प्रेम। वे ही हमारे केंद्र में हैं। हमें अपने कैथलिक विश्वास से प्रेम है, पवित्र मिस्सा से स्नेह है, पाप स्वीकार और धर्मशास्त्र की गहराइयां हमें आकर्षित करती हैं। जब हम साथ होते हैं, तब हम अपना ज़्यादातर समय धर्मशास्त्र के सिद्धांतों, महान किताबों, सियासी बातों आदि में चर्चा करने में गुज़ारते हैं। और इन सारी बातों के केंद्र में हैं मसीह और उनके प्रति हमारा प्रेम।
और ख्रीस्त कौन हैं? ख्रीस्त समय को अनंत काल से जोड़ने का काम करते हैं। जैसा कि बोथियस ने कहा “अनंत काल अपने आप में अनगिनत सदियां पूर्णता में समेटे हुए हैं।” ईश्वर अनंत हैं, हम नहीं, क्योंकि हमारे मन में हमारी ज़िंदगी का हर पल अपनी पूर्णता में उपस्थित नहीं है। हमारी सारी यादें अधूरी हैं, अपूर्ण हैं। इसीलिए हमारी ज़िंदगी में समय अपूर्णता और असंतोष से भरा हुआ है। हालांकि हमारा दिल यह चाहता है कि हमें सब कुछ पूर्णता में प्राप्त हो। संक्षेप में कहें तो हमें अनंत काल की आशा है, हमें ईश्वर की आशा है। इसीलिए उपदेशक की किताब में सच ही लिखा गया है, ” व्यर्थ ही व्यर्थ; व्यर्थ ही व्यर्थ; सब कुछ व्यर्थ है” (उपदेशक 1:2)। इस ज़िंदगी में समय हमें सब कुछ नही दे सकता। पर अनंत काल ने समय में प्रवेश किया, शब्द ने शरीर धारण कर हमारे बीच निवास किया। (योहन 1:14) इसका नतीजा यह हुआ है कि अब समय ईश्वर से जुड़ कर ईश्वर में समाहित हो गया है जिसके द्वारा हमें हमारे हृदय की इच्छा प्राप्त होती है, जो कि अनंत काल है।
अनंत काल में वर्तमान
हम उस शब्द की इच्छा रखते हैं जिसमें हम अपने स्वर्गीय पिता की छवि देखते हैं और जिसके द्वारा हम मानव जीवन के रहस्यों को समझ पाते हैं, यानी जिसमें हम अपने जीवन के बिखरे टुकड़ों को सिमटता देख पाते हैं। हम ख्रीस्त की इच्छा रखते हैं। और जब हमारी दोस्ती, हमारा दिन प्रतिदिन का जीवन येशु में केंद्रित और येशु में समाहित है, तब हमारे लिए समय कईं ज़्यादा अर्थपूर्ण बन जाता है। वर्तमान में छुपा अर्थ वर्तमान की बेड़ियां पार कर जाता है और हमारी स्मृति हमें इस बात की सिर्फ झलक मात्र दे पाती है। एक झलक उस बहुमूल्य ख़ज़ाने की, जिसे हमने उस पल में जिया तो ज़रूर, पर समझ नही पाए। इस प्रकार ईश्वर समय के द्वारा हर मनुष्य में जाने अंजाने में समाहित हैं, क्योंकि खुद को मानव प्रकृति से जोड़ कर ईश्वर ने खुद को हर इंसान से जोड़ लिया। हम जिसकी आशा करते हैं वह हमारे अंदर ही है, क्योंकि “ईश्वर का राज्य हमारे ही बीच है।” (लूकस 17:21) और हमारे बाहर भी, हर गुज़रते पल में समाहित।
ख्रीस्त को समझ पाना जैसे अनंत काल के रहस्यों को वर्तमान काल में समझ पाना है। ख्रीस्त से दूर जाना जैसे वर्तमान की गहराई से दूर जाना और यह दूरी हमारे अंदर एक बेचैनी को, ठहर जाने की इच्छा को जन्म देती है। फिर हम अतीत में जीने लगते हैं, और अपने पुराने कर्मों को कोसते हुए, वर्तमान की ताज़गी से दूर जीवन बिताने लगते हैं। हम भविष्य की आशा में वर्तमान पर ध्यान ही नही देते हैं; वह भविष्य जो कभी आएगा ही नही क्योंकि जिस भविष्य की हम बाट जोहते हैं वही तो वर्तमान है, और हमें वर्तमान की कोई कदर ही नहीं है। हो सकता है कि हम अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के एक साल बाद स्वर्ग सिधार जाएं। हो सकता है कि हमारी मृत्यु उसी घर में हो जिसे हमने सालों मेहनत करके अपने बुढ़ापे के लिए खड़ा किया हो। हो सकता है कि हमारी मृत्यु कैंसर की वजह से हो, या सड़क दुर्घटना की वजह से, या हार्ट अटैक से हो। हो सकता है कि हमारी मृत्यु पर हमारा कोई नियंत्रण न हो। और ऐसा सब कुछ इसलिए क्योंकि हम ख्रीस्त के लिए नहीं जिए और हमने जीते जी वर्तमान की ताकत, अहमियत और सौंदर्य को कभी अपनाया ही नहीं। इसकी जगह हम उन चीज़ों में सौंदर्य और संपदा ढूंढते रहे जो अभी उपस्थित भी नही है, यानी भविष्य। ख्रीस्त को हार जाना यानी ज़िंदगी में हार जाना। एक हारी हुई ज़िंदगी एक व्यर्थ ज़िंदगी है। लोग कहते हैं रुको और फूलों की महक को महसूस करो। हमारे लिए ख्रीस्त वह गुमान का फूल हैं, कांटों के मुकुट से सुसज्जित, जिसकी खुशबू हमें यह बताती है कि जब ख्रीस्त का रक्त हमारी रगों में दौड़ता है, तभी हमारी ज़िंदगी खूबसूरत बनती है।
'क्या आप अपने बच्चे के लिए चिंतित है ?
क्या आप अपने जीवन साथी के लिए लम्बे अरसे से प्रार्थना करते आये हैं ?
तब आपको इस व्यक्ति के बारे में जानना चाहिए |
आशा का लंगर
मुझे संत मोनिका के बारे में कुछ ही साल पहले जानकारी मिली | जब मैं ने जाना कि उसने अपने पुत्र अगस्तीन के मनपरिवर्तन के लिए और अपने अविश्वासी पति पेट्रीसियस के धर्म परिवर्तन के लिए बहुत वर्षों तक प्रार्थना करती रही, तब मुझे लगा कि तीसरी सदी के इस संत के बारे में मुझे और अधिक जानकारी हासिल करनी है | मैं अपने परिवार में बदलाव के लिए बहुत वर्षों से प्रार्थना कर रही थी | अपने प्रिय लोगों के लिए प्रार्थना में बरकरार रहने की आशा संत मोनिका ने मुझे दी है |
संत मोनिका का जन्म सन 331 ईसवीं में उत्तरी आफ्रिका के तागास्ते शहर में एक ख्रीस्तीय परिवार में हुआ था | उनके माता पिता ने ख्रीस्तीय विश्वास में उनकी परवरिश की | एक रोमी अधिकारी पेट्रीसियस से उनकी शादी हुई | दाम्पत्य जीवन आनंदमय नहीं था, लेकिन मोनिका की क्षमा और कुशलता के कारण ही उनका दाम्पत्य शांतिपूर्ण और स्थिरातापूर्ण था |
मोनिका को इस बात का बहुत दुःख था कि उनके बच्चों को बप्तिस्मा दिलाने में उसका पति अडंगा लगा रहा है | जब अगस्तीन बहुत अधिक बीमार हो गया तब उसके बप्तिस्मा केलिए मोनिका अपने पति से बहुत रो रोकर गिडगिड़ाई | पेट्रीसियस ने अनुमति दी | जैसे ही बप्तिस्मा से पूर्व अगस्तीन ठीक हो गया बप्तिस्मा ने फिर मना किया | जिस विश्वास को मोनिका इतना प्रेम करती थी, उसी विश्वास में अपने बच्चों की परवरिश और लालन पालन करने से रोका जाना कितना चिन्ताजनाक रहा होगा | इसके बावजूद वह अपने विश्वास में अडिग रही |
दयालुता का पुरस्कार
मोनिका ने अपने पति के हिंसक प्रकोपों को बेहद धैर्य से सहन करती हुई अपने वैवाहिक जीवन में दृढ़ता दिखाई। उनके पैतृक शहर की अन्य बहुत सी पत्नियां और माताएं भी अपने अपने पति के हिंसक प्रकोपों को झेल रही थी। उन्होंने भी मोनिका के धैर्य की प्रशंसा की और उनका बड़ा सम्मान किया। अपने वचनों और नमूना द्वारा मोनिका ने उन्हें दिखाया कि वे अपने पतियों से कैसे प्यार कर सकती हैं। अपने वैवाहिक जीवन की कठिनाइयों के बावजूद, मोनिका अपने पति के रूपांतरण के लिए प्रार्थना करती रही।
मोनिका का विश्वास अंततः पुरस्कृत किया गया। अपनी मृत्यु से एक साल पहले, पेट्रीशियस ने अपनी पत्नी के ईसाई धर्म को स्वीकार कर लिया। लम्बी प्रार्थना का यह जवाब तब आया जब अगस्तीन 17 साल का था। आप ज़रूर सोचेंगे कि अगस्तीन के पिता के धर्मांतरण का असर उसके पुत्र पर अवश्य पड़ा होगा। लेकिन इसका उल्टा असर होने लगा: अगस्तीन ने अपने अधार्मिक और अनैतिक तरीके जारी रखे और वह गंभीर पाप में गिर गया। मोनिका अपने बेटे के लिए ईश्वर से दया की भीख मांगती रही।
अगस्तीन ने सांसारिक महत्वाकांक्षाओं के साथ अपने अनैतिक जीवन शैली को जारी रखा और मोनिका अपने बेटे की आत्मा के लिए ईश्वर के साथ संघर्ष करती रही। ऐसा लग रहा था कि उसके बेटे और पति को स्वर्ग में सुरक्षित देखना ही उसके जीवन का एकमात्र मिशन है। एक ओर वह गहरी प्रार्थना और दयालुता के कार्य करनेवाली महिला थी, लेकिन अगस्तीन ने अपनी मां को उससे धर्म परिवर्तन करानेवाली, उसे नियंत्रित करनेवाली और जबरन सुधारने के जिद पर अड़ी व्यक्ति के रूप में देखा। लेकिन आज कितनी कैथलिक माताएँ हैं जो अपने बच्चों को अपने धार्मिक विश्वास को हस्तांतरित करने को तैयार रहती हैं? कितनी बार मोनिका ने अपने बेटे को ईश्वर के सम्मुख समर्पित कर दिया होगा और उसकी दया के लिए भीख मांगी होगी?
एक लम्बी यात्रा
एक समय पर, मोनिका ने मिलान में रहनेवाले अपने बेटे की खोज में निकलने का फैसला किया, हालांकि इस लम्बी यात्रा का खर्च उठाने के लिए उसके पास पर्याप्त धन नहीं था। वह अपने बेटे को उसके पापमय जीवन से छुडाने के लिए किसी भी बलिदान के लिए तैयार थी। मोनिका ने जहाज द्वारा मिलान की लम्बी और दुर्गम यात्रा हेतु आवश्यक धन जुटाने के लिए अपने कुछ क़ीमती संपत्ति बेच दी, और एक शिकारी कुत्ते की तरह अपने बेटे का पीछा किया। इस यात्रा के दौरान, मोनिका की मुलाकात मिलान के धर्माध्यक्ष अम्ब्रोस से हुई, जो बाद में चलकर अंतत: अगस्तीन को विश्वास में लाए। छह महीने के धर्म प्रशिक्षण के बाद अगस्तीन को संत अम्ब्रोस द्वारा सेंट जॉन द बैपटिस्ट चर्च में बप्तिस्मा दिया गया। अपने बेटे पर की गयी इस दया के लिए मोनिका ने खुशी से झूम ली होगी और प्रभु की बहुत स्तुति की होगी। .
संत अगस्तीन के धर्म परिवर्तन से पहले, मोनिका ने अपने अड़ियल बेटे को लेकर एक अनाम बिशप से सलाह ली थी। बिशप ने उसे यह कहकर सांत्वना दी: “उन आँसुओं का पुत्र कभी नष्ट नहीं होगा।” अगस्तीन के धर्म परिवर्तन के तीन साल बाद तक मोनिका जीवित थी। पृथ्वी पर उसका मिशन पूरा हुआ था। ईश्वर ने उन्हें अपने बेटे और पति के धर्म परिवर्तन के लिए प्रार्थना करने और अपनी दुःख पीडाओं की भेंट चढाने के लिए बुलाया था। सन 387 ईसवीं में जब वह 56 वर्ष की थी ईश्वर ने मोनिका को स्वर्ग में बुला लिया और अनंत आनंदमय जीवन का इनाम दिया। जब अगस्तीन की मां की मृत्यु हुई, तब वह 33 साल का था। अगस्तीन बाद में हिप्पो के बिशप बने और अंततः कलीसिया के आचार्य भी घोषित हुए। मुझे यकीन है कि स्वर्ग से मोनिका ने अपने बेटे के लिए प्रार्थना करना जारी रखी होगी और परमेश्वर की अनवरत स्तुति करती रही होगी |
उठो और चमको
संत अगस्तीन अपनी आत्मकथा, “कन्फेशन्स” को लिखते हुए अपनी माँ के प्रति गहरी भक्ति और श्रद्धा को प्रकट करते हैं। जब माँ की मृत्यु हुई, तो उन्हें गहरा दुख हुआ और उन्होंने लिखा: “वे मेरी विकट स्थिति के संबंध में पहले से ही इस हद तक आश्वस्त थी, कि जब तक वे प्रभु के सम्मुख मुझे एक मरे हुए आदमी के रूप में मेरे लिए लगातार रोती रही, मानो मरा हुआ आदमी फिर से जीवित किया जा सकता है; उसने मुझे अपने ध्यान की अर्थी पर तुझे समर्पित करती थी और तुझसे गिडगिडाकर भीख मांगती थी की तू इस विधवा के बेटे को, ‘हे नव युवक, उठो’ कहें, कि वह फिर से जीवित हो जाए और बोलना शुरू कर दे ताकि तू उसे बहाल कर उसकी माँ को सौंप सकें।”
मोनिका ने एक बार अगस्तीन से कहा था कि वे आश्वस्त हैं कि वे इस दुनिया से विदा लेने के पहले उसे एक वफादार ख्रीस्तीय के रूप में देखेंगी। आइए हम सभी इस तरह के मज़बूत और भरोसापूर्ण विश्वास की कामना करें। हम याद रखें कि मातृत्व या पितृत्व का आह्वान संतों को जन्म देने के लिए एक बुलाहट है, लोगों को परिवर्तित करने और संतों का निर्माण की एक बुलाहट है। धरती पर माता-पिता होने का असली उद्देश्य स्वर्ग में संतों की संख्या में वृद्धि करना है!
'प्रश्न: मुझे लगता है कि मैं एक ही तरह के पापों को लेकर बार बार संघर्ष कर रहा हूं। जितना भी मैं उन्हें लेकर पापस्वीकार करता हूं और अपने को बदलने की कोशिश करता हूं, उतना ही मैं अपने आप को फिर से उन्हीं में गिरता हुआ पाता हूं। पाप की इस जिद्दी आदत को तोड़ने के लिए मैं क्या कर सकता हूं?
उत्तर: बार-बार एक ही पाप का पापस्वीकार करना निराशाजनक हो सकता है। लेकिन, जैसा कि एक धर्मगुरु ने एक बार मुझसे कहा था, यह अच्छा है कि आप नए पापों को लेकर नहीं आ रहे हैं!
ऑस्ट्रेलियाई कैथलिक प्रचारक मैथ्यू केल्ली कहते हैं, “जब हमारी आदतें बदल जाएंगी तो हमारा जीवन भी बदल जाएगा।” यह एकदम सच है! यदि हम वही करते हैं जो हमने हमेशा किया है, तो हमें वही मिलेगा जो हमने हमेशा पाया है। तो इस आध्यात्मिक लीक से बाहर निकलने के लिए हम क्या व्यावहारिक कदम उठा सकते हैं?
सबसे पहले, आप अपने प्रार्थना जीवन पर काम करें। पाप की तुलना में मजबूत एकमात्र वस्तु प्रेम है। जब हम येशु को अपने पाप से अधिक प्यार करते हैं, तो हम अपने पाप से मुक्त होंगे। मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता था, जिसे विशेष रूप से एक खास बुरी आदत या लत थी। वह हताश होने लगा था, लेकिन हताशा में उसने धन्य माँ मरियम की दुहाई दी। उसने महसूस किया कि माँ मरियम उसकी आत्मा से यह कह रही है: “जब कभी तुमने पाया कि तुम किसी अमुक पाप में पड़ गए हो, उसके बदले तुम हर बार एक रोज़री माला विनती की प्रार्थना करोगे, तो तुम उस पाप से मुक्त हो जाओगे।” उसने सोचा, “अरे, तब तो बहुत सारी रोज़री माला की विनती बोलनी होगी!” लेकिन उसने शुरू किया, और ईश्वर और धन्य माँ के लिए उसका प्यार बढ़ता गया और धीरे-धीरे पाप की आदत से वह मुक्त हो गया!
दूसरा, उपवास को लागू करें। मनुष्य शरीर और आत्मा दोनों से बना हुआ है। शुरुआत में, ईश्वर ने शरीर को (अपनी भावनाओं, वासनाओं, इंद्रियों और इच्छाओं के साथ) आत्मा के नियंत्रण में रखने का इरादा किया (हमारा विवेक हमें दिखाता है कि वास्तव में क्या अच्छा है, और हमारा स्वतंत्र मन इसे चुनता है)। लेकिन आदि पाप के कारण हमारा शरीर, आत्मा के खिलाफ विद्रोह करता है और इसलिए अक्सर शरीर के नियंत्रण में सब कुछ रहता है! कितनी बार हमने गपशप में न पड़ने की कसम खाई है लेकिन हमें इस प्रलोभन को रोकना अच्छा नहीं लगता है; कितनी बार हमने अनायास ही उस अतिरिक्त पकवान को पकड़ा जिस से हमारे स्वास्थ्य को हानि हो सकती है? संत पौलुस हमें निर्देश देते हैं कि “शरीर तो आत्मा के विरुद्ध इच्छा करता है, और आत्मा शरीर के विरुद्ध। ये एक-दूसरे के विरोधी हैं। इसलिए आप जो चाहते हैं, नहीं कर पाते हैं (गलाती 5:17)।
इसलिए हमारे शरीर के प्राकृतिक विद्रोह पर काबू पाने की कुंजी है – इच्छाशक्ति को मजबूत करना। हम इसे उपवास के माध्यम से करते हैं। चॉकलेट को त्याग देने से, उसके प्रति आसक्ति के पाप को छोड़ना आसान हो जाता है। दूसरी बार अपनी थाली में भोजन भरने से इनकार करने से, हम मजबूत हो जाते हैं और एक अवैध खुशी का त्याग कर सकते हैं। हम कुछ अच्छाई का त्याग करते हैं ताकि कुछ बुराई छोड़ देना हमारे लिए आसान हो जाए। हमारी स्वतंत्र इच्छा एक मांसपेशी की तरह है – जब इसका व्यायाम किया जाता है, तो यह मजबूत होती है। हर दिन कुछ स्वैच्छिक त्याग को चुनें, और आप पाएंगे कि आपका आत्म-संयम बढ़ेगा।
तीसरा, हमें अपने पाप के विपरीत पुण्य का अध्ययन और अभ्यास करना चाहिए। अगर हम क्रोध या खुद को गुस्से से जूझते हुए पाते हैं, तो शांति के बारे में पवित्र धर्म ग्रन्थ के उद्धरण को पढ़ें, या ख्रीस्तीय मनन चिंतन में लग जाएँ । यदि वासना हमारा जिद्दी पाप है, तो शुद्धता का पीछा करना होगा और शरीर के धर्मविज्ञान (संत पापा द्वारा प्रकाशित धर्मपत्र – थियोलजी ऑफ़ बॉडी) का अध्ययन करना चाहिए। यदि हम जीभ के पापों से जूझते हैं, तो याकूब के पत्र के तीसरे अध्याय को पढ़ें और अविवेकी शब्दों को काबू में करने का अभ्यास करें। पाप के विपरीत पुण्य में वृद्धि करें और पाप दूर हो जाएगा।
अंत में, किसी भी हालत में हार मत मानिए! मेरे पिताजी हमेशा कहा करते थे, “निराशा शैतान की ओर से आता है!” ईश्वर अक्सर हमें संघर्ष करने की अनुमति देता है ताकि हम विनम्रता में बढ़ें, यह पहचानते हुए कि हमें उसकी आवश्यकता है। उसकी दया पर भरोसा रखिये, और भले ही पूरे जीवन की अवधि इसमें लग जाए, उस जिद्दी पाप पर काबू पाने के लिए काम करते रहें ! यदि आप ईश्वर के साथ साझेदारी के लिए उसे अनुमति देते हैं, तो वह आपके जीवन में कामयाबी ज़रूर दिलाएगा!
'हाल ही में मैं अपने परिवार के साथ जंगल में पैदल ही सैर कर रही थी | हम एक शानदार गुफा में प्रवेश कर चुके थे, उस समय मेरी बेटी एक खराब मनोदशा से पीड़ित थी । जब हम सभी प्राकृतिक सुंदरता को अचम्भित दृष्टि से निहार रहे थे, वह अपनी निगाहें लगातार नीचे की ओर रख रही थी | उसने ऊपर के सुन्दर नज़ारे को देखने से इनकार कर दिया। हम सबको लग रहा था कि हमारी चारों ओर के भव्य और सुन्दर दृश्य पर नज़र नहीं डालना और केवल उसके पैरों के नीचे पडी सुस्त पृथ्वी को घूरना कितनी अतार्किक और अजीब बात थी | कभी कभी वह अपनी आँखों को अपने हाथों से ढक रही थी ताकि एक भी झलक उसे उसके मन से बाहर के दृश्य की ओर आकर्षित न करे।
इस पर मनन करने पर, मुझे याद आयी कि जब मैं रोज़मर्रा की ज़िंदगी की चिंताओं और काम के बोझ में इतना डूबी रहती हूँ कि ईश्वर द्वारा मेरे सामने रखे गए खजाने के मूल्य को समझने में मैं असफल हो जाती हूँ जैसे – किसी बच्चे की मुस्कान का चमत्कार; सर्दियों की सुबह सूरज की किरणें; मेरे पति द्वारा प्रेमपूर्वक तैयार किया गया भोजन; या अद्भुत सूर्योदय और सूर्यास्त जिससे ईश्वर हर दिन आकाश में बहुत सारे खूबसूरत रंग भरता हैं।
कितनी बार हम टेलीविज़न की तुच्छ बातों के भारी बोझ से स्वयं को विचलित करते हैं? विभिन्न तरह की फिल्मों, धारावाहिकों, रियलिटी टीवी शो, खेलकूद, सोशल मीडिया और कंप्यूटर गेम की अंतहीन आकर्षक चीज़ें हमारे ध्यान आकर्षित करने के लिए होड़ लगा रही हैं। फिर भी हमें प्रार्थना, पारिवारिक गतिविधियों और घर की जिम्मेदारियों के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता है। हम अक्सर विलाप करते हैं कि हमारे पास प्रतिदिन के व्यावहारिक जीवन में दोस्तों के साथ बातचीत करने के लिए पर्याप्त समय नहीं है। फिर भी दोस्तों या परिवार के साथ हमारा समय अक्सर एक स्क्रीन के आसपास केंद्रित होता है, या हर किसी के हाथ में एक स्क्रीन होती है।
शायद यह समय स्क्रीन बंद करने, इयरफ़ोन को कान से खींचकर बाहर निकालने और कुछ देर के लिए चिंताओं और काम के बोझ को भूल जाने का समय है। हम अपनी आँखों को ऊपर की ओर उठा सकते हैं जहां प्रभु द्वारा हमें प्रतिदिन प्रदत्त महिमा को आलिंगन करने का यह अवसर है। आइए हम ईश्वर को धन्यवाद दें और उसे हमारे आस-पास की वास्तविक दुनिया के साथ अपने दैनिक गतिविधियों में आमंत्रित करें।
'ज़िंदगी की आंधियाँ हमें बहुत भयभीत कर सकते हैं, लेकिन जब भी यह आंधियाँ हमारी ओर बढ़ती हैं, हम अकेले नहीं हैं।
मैं हवाई द्वीप में पली बढ़ी हूं। अपने हाईस्कूल के जूनियर वर्ष में मैंने एक शिक्षात्मक प्रोग्राम में एक शिक्षक छात्र के रूप में बच्चों को समुद्री जीव विज्ञान पढ़ाना शुरू किया। छात्रों के छोटे छोटे समूह को हम एक बड़ी नाव में ले जा कर चार घंटों तक उन्हें समुद्र में यात्रा करना, जाल फैलाना और समुद्र की सतह में पाए जाने वाले पत्थरों और जीव जंतुओं के बारे में सिखाया करते थे।
इस प्रोग्राम के दौरान हमें काम पर रखे हुए लोगों की मदद करनी थी ताकि वे हर हवाई टापू पर जा कर वहां के छात्रों तक हमारी उच्च शिक्षा वाला प्रोग्राम पहुंचा सके। वह रात मुझे अच्छी तरह याद है जब हम माउई द्वीप की ओर जा रहे थे। हम दो वॉलंटियर नांव पर पहरा दे रहे थे जब हमारे आसपास एक तूफान उठने लगा। हम बड़ी मुश्किल से नाव को सीधे रास्ते में रखने की कोशिश कर रहे थे जब लहरों ने हमारी नाव के आसपास सब तहस नहस करना शुरू कर दिया। इन सब के बीच नाव में मौजूद प्रशिक्षित क्रू कमरे में आ कर हमारी मदद करने लगा। हवाएं बहुत तेज़ थी इसीलिए हमारी नाव बार बार रास्ते से भटक जा रही थी। इतने तेज़ तूफान में खुद को सुरक्षित रखने के लिए हमें खुद को नाव की रेलिंग से बांधना पड़ा। कई घंटों तक हम इसी तरह तूफान से लड़ते रहे जिसके बाद हम आखिर में एक शांत जगह के पास शरण ले पाए।
इसके बाद से जब भी मैं सुसमाचार में उस घटना को पढ़ती हूं जहां येशु और उनके शिष्यों को समुद्र के बीचों बीच आंधी का सामना करना पड़ा था, तब मुझे तूफान के बीच खुद का संघर्ष याद आता है। “येशु नाव पर सवार हो गए और उनके शिष्य उनके साथ हो लिए। उस समय समुद्र में एकाएक इतनी भारी आंधी उठी कि नाव लहरों से ढकी जा रही थी। परंतु येशु तो सो रहे थे। शिष्यों ने पास आ कर उन्हें जगाया और कहा, “प्रभु! हमें बचाइए! हम डूब रहे हैं!” येशु ने उन से कहा, “अल्पविश्वासियो! डरते क्यों हो?” तब उन्होंने उठ कर वायु और समुद्र को डांटा और पूर्ण शांति छा गई। इस पर वे लोग अचंभे में पड़ कर बोल उठे, “आखिर यह कौन है? वायु और समुद्र भी इनकी आज्ञा मानते है।” (मत्ती 8:23-27)
येशु के शिष्यों ने अपनी पूरी जिंदगी समुद्र पर बिताई थी, जिसमें उन्होंने कई लोगों को आंधी में अपनी जान गंवाते हुए देखा होगा। वे जानते थे कि आंधी कितनी जानलेवा हो सकती है, और तेज़ हवा और डरावनी लहरों के बीच फंसी सागर में गोता खाती नाव में सफर करना कितना खौफनाक होता है।
और फिर भी येशु आंधी तूफान के बीच सो पाए! उनके शिष्यों को उन्हें जगा कर उनकी सहायता मांगनी पड़ी और येशु को इस बात पर आश्चर्य हुआ कि वे लोग भयभीत थे। फिर अपने शिष्यों के देखते देखते येशु ने आराम से मौसम को शांत हो जाने का आदेश दिया और प्रकृति में शांति छा गई। यह सब देख शिष्य यह सोचने लगे “यह किस प्रकार का इंसान है जिसकी आज्ञा हवा और समुद्र भी मानते है?”
इन सब बातों से हमें क्या सीख मिलती है? साल 2020 कई मायनों में एक तूफानी साल रहा है जिसमे विश्व भर में फैली महामारी से लेकर, प्राकृतिक आपदाएं, नस्लीय तनाव, आर्थिक संकट न जाने क्या कुछ था। इन सब के बीच कईयों को अनेक प्रकार की चिंताएं सता रही हैं और कईयों को ऐसा लग रहा है कि उनके पैरों तले ज़मीन ही खिसक गई।
मेरे खुद के परिवार में हमने बेरोज़गारी देखी, जिसने हमें मुश्किल हालातों में ला खड़ा किया। इस महामारी की शुरुआत में मेरी बहन ने अपनी नौकरी खो दी और मेरा भाई तो लॉकडाउन लागू होने के पहले से ही नौकरी की तलाश में था। उस समय नौकरी खोजना समय की बरबादी ही था क्योंकि व्यवसाय ठप हो रहे थे और लोगों को नौकरी से निकाला जा रहा था। लेकिन हमने येशु को पुकारा और दिन रात अपनी प्रार्थनाओं के द्वारा उन्हें जगाने की कोशिश की ताकि वह हमारी नामुमकिन सी इच्छा को पूरा कर दें। और ईश्वर ने हमारी पुकार को सुना। मेरे भाई को एक अच्छी नौकरी मिल गई और मेरी बहन को भी एक बेहतर नौकरी मिल गई।
आंधी तूफान का सामना करना आसान नही होता। और तो और वे बड़े डरावने होते हैं। लेकिन हर तूफान में ईश्वर हमारे साथ होते हैं। ईश्वर नाव में हमारे साथ हैं क्योंकि वह हमारा साथ कभी नहीं छोड़ता है। यही उसका हमसे वादा है, “मैं तुम्हें कभी नही छोडूंगा, मैं तुम्हें कभी नही त्यागूंगा।” (इब्रानियों 13:5) और इसीलिए उसका नाम है “एमेनुअल, ईश्वर हमारे साथ है”।
जब भी ऐसा लगे कि लहरें आपको बहा ले जाएंगी और आप कमज़ोर और अकेला महसूस करें, ईश्वर को पुकारें। और लगातार पुकारते रहें, तब भी जब आपको लगे कि वे नींद में है। विश्वास की आंखों से देखें और आपको येशु नाव में आपके साथ दिखाई देंगे। याद रखें, “ईश्वर के तुल्य कोई नहीं! वह महिमा से विभूषित हो कर बादलों पर आरूढ़, आकाश के मार्ग से तुम्हारी सहायता करने आता हैं। शाश्वत ईश्वर तुम्हारा आश्रय है, उसका बाहुबल निरंतर सक्रिय है। वह तुम्हारे सामने से यह कहते हुए तुम्हारे शत्रु को भगाता है – उसे मिटा दो।” (विधि विवरण 33:26-27)
चाहे कितनी भी तेज़ आंधियां हों।
'कई बार हम नए संकल्प लेने में तो फुर्ती दिखाते हैं, लेकिन उसी उत्साह के साथ उन्हे निभा नही पाते हैं। अगर हम इन संकल्पों में थोड़ा बदलाव लाएं तो क्या होगा?
एक अनजान मंज़िल की ओर
हर साल की तरह, इस साल के शुरुआती दिनों में भी मैंने खुद को खोया खोया और भटका हुआ सा पाया। एक साल का अंत और दूसरे साल की शुरुआत ने मुझे यह सोचने पर मजबूर किया कि मैं अपने जीवन में और अपने आप में कौन कौन से बदलाव चाहती हूं। हालांकि साल के पहले कुछ हफ्ते गुज़र जाने के बाद मेरे लिए सारे संकल्पों का रंग फीका पड़ने लगा। जो प्रोत्साहन मुझे इन संकल्पों से साल के शुरुआती दिनों में मिला था वह धीरे धीरे कम होने लगा। मैं हमेशा से अपने आध्यात्मिक जीवन में उन्नति करना चाहती थी और खुद को एक बेहतर इंसान बनाना चाहती थी पर हमेशा मैं कहीं ना कहीं बीच में ही हार मान लेती थी। हालांकि ये संकल्प मेरी ही इच्छा थे, पर उन्हें पूरा करने के बजाय मैं उन्हें टालती रहती थी। इन सबकी वजह से मुझे ऐसा लगने लगा था कि या तो मैं आगे ही नहीं बढ़ रही हूं या जीवन में दिशा हीन बहती जा रही हूं।
क्योंकि ईश्वर जानते हैं कि मुझे शब्दों से बड़ा प्यार है, इसीलिए ईश्वर मुझ से मेरे दिल की जुबान में ही बातें करते हैं। कई सालों पहले एक शाम की बात है, मैं हर साल की तरह उस साल भी अपने संकल्पों को पूरा ना कर पाने की नाकामी में दुखी हो रही थी जब ईश्वर ने मेरे दिल में एक कविता डाली जो कि मेरी समस्या के समाधान के रूप में मुझे मिली।
मैं, मेरा और मुझ
एक नांव थी जो रुकी सी थी
सागर के बीचों बीच कही
उस नांव में सवार थे तीन इंसान
मैं, मेरा और मुझ
हम साथ बैठकर हर सूर्यास्त देखा करते
सन्नाटे के बीच, ना कोई पंछी, ना कोई आहट
मगर मुझे लगा जैसे मैंने सुनी कोई आहट
और मैं उठी जाकर ढूंढने को उस आहट का पता
किसी साए ने किया उस रात हवाओं में बसेरा
वह साया जिसे कोई देख नही पाया
वह’ साया जो साथ लाया था एक संदेसा
मैं, मुझ, और मेरे लिए
मेरी आवाज़ ने उस रात के सन्नाटे को तोड़ा
फिर मैंने मेरा और मुझसे कहा
हम कैसे यहां बस बैठे रह सकते हैं?
ऐसे ही तो हमने अपनी मंज़िल खोई है!
मैंने मुझसे कहा कि वह पतवार उठाए
और मेरे लिए रास्ता बनाए
मैंने फिर नाव की कमान को संभाला
और नाव को सागर के बीच से बाहर निकाला
लेकिन नाव हमारी हिली तक नही
हमारी नाव खड़ी सागर के बीच अब भी
हमारे अंदर नाव को बढ़ाने की संकल्प शक्ति तो थी
पर फिर भी हमारी नाव एक इंच ना हिली
एक आहट सुनी हमने फिर एक बार
मेरे लिए कहे गए थे वह शब्द इस बार
हवा को पुकारो, हवा से मदद मांगो
हवा ही करेगी तुम्हे इस उलझन से आज़ाद
मैं, मेरा और मुझ ने हाथ मिलाए
हम तीनों अपने घुटनों पर आए
हमने हवा में बसी आत्मा से की दुआ
हे आत्मा हमें सागर के उस पार ले जा
एक झटका सा लगा हमें जैसे आंधी चली
सोचा हमने किस दिशा यह नाव जाएगी
हवा के सहारे से नाव हमारी मुड़ी
और फिर आराम से चलने लगी
हमें ना पता था दिशाओं का
और ना यह कि सागर है कितना गहरा
हमें बस हवा की आत्मा पर था भरोसा करना
की वह मैं, मेरा और मुझ को दिखाए रास्ता
बस एक पुकार की देरी
जब पहली बार मेरे मन में यह कविता आई और मैं इसे लिखने बैठी तो सच मानिए मैंने इसे बहुत जल्दी जल्दी लिखा। फिर भी मैं ईश्वर के इस संदेश को पहली बार में ना पूरा लिख पाई और ना ही पूरा समझ पाई। बात दरअसल यह है कि अपनी ज़िंदगी के ज़्यादातर सालों में मैं ने ईश्वर को अपने लिए एक जीवन बीमा की तरह देखा है। मुझे लगता था कि मेरी ज़िंदगी के सारे फैसले मुझे खुद लेने हैं और अगर कहीं मेरा कोई फैसला गलत साबित होता है तो मैं ईश्वर को पुकारूंगी और वे मुझे उस मुसीबत से निकाल लेंगे। ईश्वर मेरे लिए एक इंश्योरेंस एजेंट बन कर रह गए थे। मुझे हमेशा से पता था कि ईश्वर हमारे साथ है, पर मैंने सोचा कि ईश्वर को रोज़मर्रा की छोटी छोटी बातों केलिए क्यों तंग किया जाए? यह इस प्रकार था जैसे मुझे पता है कि मेरा इंश्योरेंस एजेंट एक कॉल की दूरी पर है, पर मुझे उस से रोज़ मिलने की ज़रूरत ही क्या है?
दुनिया ने मुझे यही सिखाया कि मैं ही अपनी नांव की नाविक हूं। तो मैंने भी मान लिया कि मैं ही अपनी नैया की नाविक हूं, पर हर गुज़रते साल के साथ मुझे अहसास हुआ कि मेरी ज़िंदगी का कंपस मेरे हाथ में नही था। मैं कितनी बेवकूफ थी। साथ ही साथ मुझे अहसास हुआ कि मुझे तो नाव चलानी भी नही आती थी। ना मुझे दिशाओं का कुछ पता था और ना मुझे मुश्किल राहों को संभालने का कोई तजुर्बा। इन सब चीज़ों की वजह से ही मैं हर साल के शुरुआत में खुद को दिशाहीन पाती थी। ईश्वर कभी मेरे जीवन का इंश्योरेंस प्लान नही थे। क्योंकि ईश्वर ही मेरे जीवन का प्लान मुझ से बेहतर जानते हैं। ईश्वर ही मेरे जीवन का प्लान हैं।
एक नया तरीका
हां यह ज़रूरी है कि हम अपने जीवन की जांच करें और समझें कि हम किस प्रकार अपने जीवन में पवित्रता को बढ़ा सकते है, लेकिन यह बदलाव मैं बस अपनी इच्छाशक्ति के बलबूते पर नहीं ला सकती थी। जब मैंने उस कविता के शब्दों पर ध्यान दिया तो मुझे अहसास हुआ कि ईश्वर मेरे दिल पर दस्तक देकर कह रहे थे कि वे हैं मेरे साथ, इस इंतज़ार में कि मैं उनसे कहूंगी और वे मेरे जीवन को निर्देशित करेंगे। ईश्वर मुझे मेरे जीवन का प्लान और उसे पूरा करने का सामर्थ्य देना चाहते थे। ईश्वर हम से सूक्तिग्रंथ 3:5-7 में कहते हैं “तुम सारे हृदय से प्रभु का भरोसा करो; अपनी बुद्धि पर निर्भर मत रहो। अपने सब कार्यों में उसका ध्यान रखो। वह तुम्हारा मार्ग प्रशस्त कर देगा। अपने को बुद्धिमान मत समझो। प्रभु पर श्रद्धा रखो और बुराई से दूर रहो।”
अब मेरे नए साल के संकल्पों में बदलाव आया है। अब मैं नए साल से पहले ईश्वर से प्रार्थना में कहती हूं कि वह अपनी इच्छा और अपने समय के अनुसार मुझे नए साल की योजनाएं बताएं। फिर मैं पवित्र आत्मा से विनम्रतापूर्वक निवेदन करती हूं कि वे ईश्वर की योजना के अनुसार मेरा मार्गदर्शन करें। मैं विश्वास के वरदान केलिए प्रार्थना करती हूं ताकि गहरे पानी में भी मैं ईश्वर की उपस्थिति पर विश्वास रख सकूं और यह याद रख सकूं कि वे मुझे अपनी पवित्र योजना में ले चलेंगे। यिरमियाह 29:11 में लिखा है “क्योंकि मैं तुम्हारे लिए निर्धारित अपनी योजनाएं जानता हूं – यह प्रभु की वाणी है – तुम्हारे हित की योजनाएं, अहित की नहीं, तुम्हारे लिए आशामय भविष्य की योजनाएं।” यह कितना सुंदर कथन है, है ना?
हममें से वे लोग जिन्हें उम्र और तजुर्बे का पुरस्कार प्राप्त है वे यह जानते हैं कि हर चीज़ का एक सही समय होता है। शायद आप केलिए अभी का समय सही है अपनी भटकी हुई ज़िंदगी को राह पर लाने केलिए। यही समय है अपने वार्षिक संकल्पों को ईश्वर की पवित्र योजना से जोड़ने का । ईश्वर आपको अनुग्रहीत करें और आपके दिल की भाषा में आप से बात करे।
'चीन का वुहान वर्तमान के कोविड-19 महामारी के उपरिकेंद्र होने के अलावा और भी मामलों में जाना गया है। कलीसिया द्वारा संत घोषित किये गए चीन के पहले संत की शहादत का स्थल भी है वुहान। कई मिशनरियों ने उन्नीसवीं शताब्दी में चीन की यात्रा की थी और उन्हें मालूम था कि वे कभी अपने देश नहीं लौटेंगे। उनमें से एक थे फ्रांस के विन्सेंशियन मिशनरी फादर जीन-गैब्रियल पेरबोयरे । चीन की अपनी यात्रा के दौरान लिखे एक पत्र में उन्होंने जिक्र किया था, “मुझे नहीं पता कि मेरे आगे के रास्ते पर मेरे लिए किस बात की प्रतीक्षा है: निस्संदेह, वह क्रूस ही होगा, जो मिशनरी की दैनिक रोटी है। हम क्रूसित ईश्वर का प्रचार करने के लिए जा रहे हैं तो इस से किस बेहतर चीज़ की हम उम्मीद कर सकते हैं?”
विन्सेंशियन धर्मसमाज के लोग वुहान में चीनी बच्चों को छुडाने और उन्हें कैथलिक धर्म में प्रशिक्षित करने के काम में लगे हुए थे। फादर पेरबोयरे इस सेवा में मदद करने लगे। उन्हें 1839 में ईसाई धर्म पर प्रतिबंध लगाने वाले एक आदेश के तहत गिरफ्तार किया गया। महीनों तक तड़पा-तड़पाकर उनसे पूछताछ की गई, 1840 में आखिरकार उन्हें एक लकड़ी के क्रूस से बांध दिया गया और दम घुटने के कारण उनकी मौत हो गई।
सन 1899 में पोप लियो तेरहवीं द्वारा उन्हें धन्य घोषित किया गया। लिसियू के संत पुष्पा (संत तेरेसा) को फादर पेरबोयरे के प्रति विशेष श्रद्धा-भक्ति थी। अपनी निजी प्रार्थना पुस्तक में तेरेसा फादर पेरबोयरे के प्रति समर्पित एक पवित्र तस्वीर रखा करती थी। सन 1996 में संत पापा जॉन पॉल द्वितीय द्वारा फादर जीन गैब्रियल पेरबोयरे संत घोषित किये गए।
संत जीन गैब्रियल पेरबोयरे पर विभिन्न प्रकार के उत्पीडन हुए थे। उनकी पीठ के निचले हिस्से पर लगातार उन्हें पीटा गया और टूटे हुए कांच पर घुटने टेकने के लिए उन्हें मजबूर किया गया। लेकिन जब उन्हें क्रूस पर लटकाया गया तो उन्हें साँस लेना असंभव हो गया था। कोविड -19 से पीड़ित लोगों के लिए इस संत की मध्यस्थता मांगना बहुत ही उपयुक्त है, क्योंकि उन्होंने स्वयं इस बीमारी से जुड़ी कुछ पीड़ाओं का अनुभव किया है।
अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले संत जीन गैब्रियल पेरोबोयरे द्वारा लिखित यह प्रार्थना है:
“हे मेरे दिव्य उद्धारकर्ता,
अपने व्यक्तित्व में तू मुझे परिवर्तित कर।
तुझ में, तेरे द्वारा और तेरे लिए जीने की कृपा मुझे प्रदान कर
ताकि मैं संत पौलुस के साथ सही मायने में कह सकूं,
“मैं अब जीवित नहीं रहा बल्कि मसीह मुझमें जीवित है।”
'अपनी युवावस्था से ही उसने ईश्वर की दाखबारी में काम किया| जानना चाहेंगे ईश्वर ने उसे किस प्रकार पुरस्कृत किया?
एक दुआ मांगे
मुझे यू.एस. प्रेसिडेंशियल स्कॉलर्स प्रोग्राम के बारे में तब पता चला जब मैं मिडिल स्कूल में थी| हर साल 161 अमरीकी विद्यार्थियों को उनकी अनोखी उपलब्धियों के लिए देश के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार से सम्मानित किया जाता रहा है| उन्हीं पुरस्कृत विद्यार्थियों को देख कर मैंने सोचा की उनकी उपलब्धियां तो आसमां जितनी ऊंची है और अधिक अनछुई थीं| फिर भी, अगले चार साल तक मैंने हर रात अपनी प्रार्थनाओं में इस प्रोग्राम को शामिल किया| ऐसा नहीं था कि मैं इस प्रोग्राम में चुने जाने के काबिल हूँ, लेकिन बचपन से ही मुझे अपनी इच्छाओं के बारे में ईश्वर के साथ बात करने की आदत थी| जब भी हम पारिवारिक प्रार्थना में बैठते थे और मैं प्रेसिडेंशियल स्कॉलर्स प्रोग्राम में चुने जाने के लिए प्रार्थना करती थी तब मेरे माता पिता हंसा करते थे| इसी लिए जब ईश्वर ने असल में मेरी प्रार्थना सुन लीं तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ|
हमारे परिवार में, मेरी माँ ने ईश्वर और हमारे बीच के सम्बन्ध में काफी प्रेम, सच्चाई और आज़ादी का एक आदर्श प्रस्तुत किया| ईश्वर को मेरी हर योजना, हर रुझान के बारे में बताना ज़रूरी होता था| और मेरी ज़िन्दगी की हर छोटी बड़ी बात में ईश्वर की राय ज़रूरी होती थी, चाहे वह स्कूल की बात हो या कॉलेज की, या करियर की बात हो या पढ़ाई से अतिरिक्त किसी गतिविधि में भाग लेने की बात| इन सब के साथ ही मेरे माता पिता हमें साल में कम से कम दो बार किसी सत्संग में ले जाते थे| इसी वजह से मेरी किशोरावस्था के दिनों में मुझे शालोम, सेहियोन और स्टुबेनविल जैसी सेवकाइयों से काफी मदद मिली| और चाहे इन सत्संगों में भाग लेते वक़्त मेरा मन कितना भी अशांत रहा हो, अंत में मुझे ढेर सारी आशीषों के साथ काफी प्यारी प्यारी बातें सीखने को मिला|
आगे बढ़कर सेवा
स्कूल में मुझे अपने दोस्तों की भलाई की बड़ी चिंता लगी रहती थी| यह बात साफ़ थी कि मेरी परवरिश काफी सच्चाई और ईमानदारी के आदर्श पर की गयी थी जिसकी वजह से मेरे जीवन में अनेक आशीषें थीं, जबकि मेरे दोस्त ऐसी परवरिश से बिलकुल अनजान थे| इसीलिए अगर मैं उन्हें ईश्वर के बारे में नहीं भी समझा पाती थी तो भी मैं वेदी के सामने ईश्वर से उनके बारे में बातें किया करती थीं| मेरा परिवार जहां तक हो सके दैनिक मिस्सा बलिदान के लिए जाया करता था| इसीलिए मैं नियमित रूप से ईश्वर से अपने टीम के सदस्य, अपने शिक्षक और उन लोगों के बारे में बात कर पाती थी जो कभी मेरा दिल दुखाते थे| इन्हीं छोटी छोटी बातों के दौरान मैंने अभी से ईश्वर के बारे में प्रचार करने की ओर अपना मन बना लिया|
मैं सात साल की उम्र से ही अपनी पल्ली में सेवा करती आई हूँ चाहे वह गायक मंडली में गाना हो, या वेदी से सेवा करनी हो, या गिरजाघर में पढ़ाना हो| और क्योंकि मेरा घर गिरजाघर से बस दो मिनट की दूरी पर था इसीलिए किसी भी काम में मदद कम पड़ने पर मुझे तुरंत बुला लिया जाता था और मैं आगे बढ़कर सेवा देती थी | शालोम मीडिया शिखर सत्संगो द्वारा मुझे जो मौके मिले, उनकी वजह से मैं काफी बड़े स्तर पर काम संभालने लगी| मेरे हाई स्कूल के कामों ने मुझे पहले से ही काफी उलझाए रखा था जब मैंने शालोम में स्वयंसेवक के रूप में कार्य करना शुरू किया| इतने व्यस्त रहने के बावजूद भी मैंने हमेशा ईश्वर के कार्यों को पहला स्थान दिया| इन सब की वजह से मैं खुद को किसी समय सारिणी में नहीं बाँध पा रही थी, लेकिन मुझसे जितना भी हो पा रहा था, मैं उतनी मदद कर रही थी| स्कूल में मध्यान्ह भोजन के वक़्त मैं मीडिया पोस्ट के लिए कुछ वाक्यों का सम्पादन कर देती थी, अपना गृह कार्य ख़तम करने के बाद मैं प्रेजेंटेशन स्क्रिप्ट का काम देख लेती थी, कभी कभी जीसस हील्स प्रोग्राम में मदद करने के लिए मैं स्कूल से छुट्टी ले लिया करती थीं, और इन सब के साथ विक्ट्री कॉन्फ्रेंस में भी माँ के साथ भाग ले लिया करती थी|
इसी तरह मैं अपना खाली वक़्त उन कामों में लगा देती थी जिनमें मुझे ख़ुशी मिलती थी| मैं अपने काम को लेकर बहुत ईमानदार भी थी| जिन क्लबों का काम मैं संभाल रही थी उनमें मैं हर चीज़ बड़े ध्यान से करती थी, ताकि जो बच्चे मुझसे चीज़ें सीख रहे होते थे, उन्हें किसी बात की कोई परेशानी ना हो| मैं हमेशा सोचा करती थी कि जो ईश्वर मुझे इतना प्यार करता है, मैं उस के लिए और क्या करूँ? ईश्वर से मिली आशीषों को दूसरों के साथ साझा करना मेरा कर्त्तव्य था, लेकिन इसके लिए भी ईश्वर ने मुझे इनाम दिया| वह हर परीक्षा या स्कूल का नियत कार्य जिसके लिए मैं ठीक से तैयारी नहीं कर पाती थी वे या तो टल जाते थे या मेरे लिए आसान कर दिए जाते थे| एक दिन मुझे जो राष्ट्रीय छात्र अनुदान/स्कालरशिप का आवेदन भरना था, वह चालीसा के पहले शुक्रवार को पड़ रहा था| उसके एक दिन पहले मैं काफी दुखी थी क्योंकि मेरा इतना काम बाकी था कि मुझे लगने लगा था कि मुझसे शुक्रवार की प्रार्थना छूट जाएगी| शुक्रवार की सुबह मुझे पता चला कि उस स्कालरशिप की समय सीमा तीन दिन और बढ़ा दी गयी है| बाइबिल में लिखा है कि अगर हम ईश्वर के नाम पर किसी को एक गिलास पानी भी देते हैं तो हमें उसका इनाम दिया जाएगा| तो आप सोच सकते हैं कि अगर हम ईश्वर को अपना समय देते हैं तो उसका पुरस्कार कितना महान होगा? मुझे लगता था कि मैं ईश्वर के लिए कुछ कर रही हूँ, लेकिन ईश्वर मेरे द्वारा व्यतीत एक एक सेकंड का हिसाब रख रहे थे और उनके बदले मेरे लिए बड़ी सारी आशीषों को बटोर रहे थे|
विवेक की कमाई
फिर भी, सेवा करने का मतलब सिर्फ काम निपटाना नहीं होता| सामाजिक स्तर पर हमें उन हालातों से सतर्क रहना चाहिए जो कभी कभी हमें अपने विश्वास से समझौता करने के लिए बहला फुसला सकते हैं| अक्सर एक छात्र के लिए ईश्वर की सेवा करने के बीच जो बाधा आती है वह है स्कूल के क्लबों में उनकी नियमित उपस्थिति की आवश्यकता| क्योंकि क्लबों में भाग लेना उनके स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई का एक ज़रूरी हिस्सा होता है| मीटिंग, कांफ्रेंस, और टीम बिल्डिंग सेशन ने मुझे बड़ी मुश्किल में डाल दिया| अगर मैं अब किसी म्यूज़िक या गेम से हटती थी तो मैं अपने साथियों से भी दूर होती जाती थी| स्कूल से सैर सपाटे पर जाने में मुझे बहुत ख़ुशी मिलती थी, लेकिन मेरे साथियों को लगता था कि मैं उन्हें उनके तौर तरीकों के लिए उनकी आलोचना करती हूँगी, जबकि ऐसा कुछ नहीं था| इसीलिए मैं अक्सर अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुना करती थी और ऐसा करते हुए खुद को बहुत अकेला महसूस करती थी| इन सब के बीच एक सत्संग के दौरान मैंने अपने दिल में यह आवाज़ सुनी “ मैं तुम्हारा दोस्त हूँ”| इन्हीं शब्दों ने मेरे स्कूल के दिनों में आ रहे हर मुश्किल वक़्त से जूझने में मेरी मदद की| ईश्वर हर ख्रीस्तीय के दोस्त हैं, पर क्या हम ईश्वर के प्रति अपनी दोस्ती सही तरह से निभाते हैं?
मैं ईश्वर को हर बात की ज़िम्मेदारी सौंपने में विश्वास करती हूँ| क्यूपर्टिनो के संत जोसेफ को मेरी हर परीक्षा की खबर दी गयी और मेरी माँ ने मेरे हर परीक्षा के दौरान चर्च में प्रार्थना की हैं| स्कूल की प्रतियोगिताओं में भाग लेते समय मैं ईश्वर से पूछा करती थी कि मुझे क्या लिखना चाहिए, प्रोजेक्ट प्रेजेंटेशन देते समय भी मैं ईश्वर से मार्गदर्शन मांगती थी| कोई प्रोजेक्ट या निबंध लिखते समय मैं पवित्र परम प्रसाद के सामने अपनी किताबें ले कर बैठ जाती थी और वहीँ बैठ कर अपने नोट्स बनाती थी| और तो और इस लेख को लिखने के लिए भी ईश्वर ने ही मेरी सहायता की है|
मौकों की दस्तक
जैसे ईश्वर ने मेरे लिए इतने सारे मौके तैयार किये, वैसे ही ईश्वर आपके लिए भी सब कुछ तैयार करेगा| प्रेसिडेंशियल स्कॉलर प्रोग्राम में चुने जाने के लिए छात्रों को किसी राज्य शिक्षा अधिकारी द्वारा नामांकित किया जाना ज़रुरी होता है| मेरा नाम मेरे प्रदेश के शिक्षा अधिकारी के उन दस छात्रों की सूची में होना ज़रूरी था | लेकिन मेरा इलाका बाकी इलाकों से थोड़ा पिछड़ा हुआ था जिसकी वजह से मुझे काफी चिंता थी| और मेरे गुमनाम हाई स्कूल ने भी पिछले कुछ सालों में मुझे कुछ ख़ास मौके नहीं दिए थे जिससे शिक्षा अधिकारी से मेरी कोई जान पहचान हो पाती| पर फिर एक साल पहले एक नई सुपरिन्टेन्डेन्ट हमारे इलाके में आईं जिन्होंने मेरे जैसे बच्चों के लिए कई नए अवसरों की शुरुआत की| उन्होंने नामांकन के लिए ऑनलाइन आवेदन की व्यवस्था की जो कि उन दिनों एक बिलकुल ही नयी पहल थी| यह सब, ईश्वर की कृपा से उसी साल लागू हुआ जिस साल मैंने अपनी पढ़ाई पूरी की| उन्हीं सुपरिन्टेन्डेन्ट के नामांकन की वजह से मुझे उस प्रसिद्ध स्कालरशिप के लिए चुन लिया गया जिसे ईश्वर ने मेरी प्रार्थनाओं को सुन कर मुझे प्रदान किया| ईश्वर के सेवक के रूप में हमें बुलाया गया है ताकि हम उन अवसरों को देख सकें जिन्हें ईश्वर हमें प्रदान करने वाला होता है, ना कि हम यह सोचें कि ईश्वर किस तरह से उन आशीषों को हमें देगा|
अगर हम अपने अंदर ईश्वर की सेवा करने के जूनून को सींचे तो ईश्वर हमारे लिए और कई अवसरों के द्वार खोल देगा| इसके साथ ही, ईश्वर हमें हमारी सेवा के लिए इनाम भी देगा| उन्हीं के मार्गदर्शन में हम वे सब कर पाते हैं जो हमारी सोच और हमारी क्षमता के बिलकुल परे हैं | हमारे स्वर्गीय पिता हमें कभी निराश नहीं करेंगे, खासकर तब जब हम अपनी सेवा का फल उनकी मर्ज़ी पर छोड़ते हैं| हमारा काम है ईश्वर के कार्यों को हाँ कहना, और फिर देखना कि कैसे ईश्वर हमारी ज़रूरतों में हमारी प्रार्थनाओं को चमत्कारी रूप से पूरा करते हैं| और चाहे ईश्वर को दिया हुआ हमारा तोहफा कितना भी छोटा क्यों ना हो, हमें यह याद रखना चाहिए कि यह वह ईश्वर है जिन्होंने पांच रोटियों से पांच हज़ार लोगों का पेट भरा था|
आइयें हम ईश्वर को उनकी महिमा प्रकट करने का अवसर दें|
'क्या यह संभव है कि आप कैथलिक के रूप में बप्तिस्मा लें और दुबारा जन्म लेने वाला भी बने ?
यदि आप कैथलिक हैं, तो बप्तिस्मा संस्कार के दौरान आपका दुबारा जन्म हुआ है और आपके माता-पिता या धर्म माता-पिता आपकी ओर से आपके दिल में प्रभु को आमंत्रित करते हैं | नहीं तो जिस अरह मेरे प्रोटोस्टेंट भाई बहन कहते हैं, आप जिस दिन प्रभु येशु को अपना व्यक्तिगत प्रभु और उद्धारकर्ता मानेंगे, उस दिन आपका दुबारा जन्म (बोर्न एगेन) होता है | हो सकता है कि आप उपरोक्त ये दोनों हैं | मेरे जीवन में और मेरे परिचित हजारों कैथलिक भाई बहनों के जीवन में यही होता है| वे उपरोक्त दोनों हैं |
कैफ़े में बातचीत
मेरा जन्म एक कैथलिक परिवार में हुआ था और एक अच्छे कैथलिक बालक के रूप में वेदी सेवक के रूप में, कैथलिक स्कूल में पढ़ाई करते हुए, कैथलिक प्रार्थनाएं और भक्ति में बढ़ते हुए, और बाद में कैथलिक कॉलेज में पढ़ाई करते हुए, मेरी परवरिश हुई थी | मेरा विश्वास इन सब हिस्सों का कुल जोड़ है | जब कॉलेज की पढ़ाई के दौरान एक दिन कैफ़े में कुछ मित्रों के साथ एक बातचीत हुई थी, तब तक मेरा वास्तव में ईश्वर के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं था | उस दोस्तानी बातचीत के दौरान ब्रदरन चर्च का एक भाई जो अमेरिका से भारत के दौरे पर थे, उसने मुझ से पूछा कि क्या मेरा ईश्वर के साथ व्यक्तिगत रिश्ता है और यह भी कि क्या येशु को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार करने की मुझ में इच्छा है ?
मैं पूछने लगा, “क्या मतलब है आपका ? यह कार्य कैसे होगा ?” उन्होंने जवाब दिया, “आपको केवल अपने विश्वास की घोषणा करके अपने व्यक्तिगत उद्धारकर्ता के रूप में उसे अपने दिल और जीवन में स्वीकार करना होगा।” मैंने इसे समझने की तीव्र इच्छा रखते हुए उन से पूछा, “लेकिन मैं यह काम कैसे करूं और कब करूं ?” उन्होंने कहा, “यदि आप तैयार हैं, तो अभी, इसी जगह।” मैंने उसे याद दिलाया कि हम एक कैफे में है और कैथलिक लोग इस तरह की हरकत नहीं करते। लेकिन किसी तरह, मैं सहमत हो गया और मेज़ की चारों और बैठे हमारे साथियों में कुछ ने प्रार्थना की और उसके बाद मैंने आधिकारिक रूप से मसीह को अपने व्यक्तिगत ईश्वर और उद्धारकर्ता के रूप में अपने जीवन में आमंत्रित किया। आसमान से गड़गड़ाहट या बिजली या तूफान नहीं आया जिसकी मुझे उम्मीद थी। लेकिन मेरे नवोदित भाइयों और बहनों ने मुझे यह कहते हुए बधाई दी कि मैं ने अब आधिकारिक तौर पर दुबारा जन्म लिया है।
हालाँकि मुझे बाहरी या भीतरी तौर पर कुछ ख़ास महसूस नहीं हो रहा था, लेकिन उस दिन शाम को अपने छात्रावास के कमरे में मैं अकेले प्रार्थना करने लगा और मेरे ह्रदय से धन्यवाद के शब्द नदी की तरह बहने लगे। इससे पहले मैंने कभी इस तरह की प्रार्थना नहीं की थी। मुझे अपने शब्दों पर विश्वास नहीं हो रहा था। मैं हैरान था, लेकिन जल्द ही महसूस किया कि कुछ घंटों पहले कैफे में मैंने जो सरल, सच्ची प्रार्थना की थी, उस प्रार्थना को स्वर्ग में बहुत गंभीरता से लिया गया है। और स्वर्ग और पृथ्वी के स्वामी ने स्वयं अपना घर मुझमें बना लिया है।
ईश्वर का स्वाद
प्रभु के प्रति मेरे नए प्यार के साथ, और मुझे इस मुकाम पर लानेवाले दोस्तों के समूह के प्रति दिल में प्रेम रखते हुए, मैंने प्रार्थना सभाओं में जाना शुरू किया और पवित्र आत्मा में अपने शिशु चरण आगे बढाने लगा । मैं ने लगभग पूरी तरह से मिस्सा बलिदान में जाना छोड़ दिया क्योंकि मैंने अपने नए दोस्तों के साथ वह पाया जिसे मैंने कभी भी पहले नहीं पाया, कम से कम उस तारीख तक नहीं।
फिर एक दिन, पवित्र आत्मा ने मुझसे मेरे दिल में बात की कि मुझे छात्रावास के प्रार्थनालय में दैनिक मिस्सा बलिदान में भाग लेना चाहिए। वहां सीरो-मलंकरा धर्मविधि में मिस्सा बलिदान होता था जिसका एक भी शब्द मैं नहीं समझ पाता था। लेकिन मैंने पवित्र आत्मा की बात मानी और मिस्सा बलिदान में भाग लिया। बड़े आश्चर्य की बात है कि, मैंने प्रार्थना के हर शब्द और उसके अर्थ को समझा और पहले से बिलकुल भिन्न बड़ी भक्ति के साथ मिस्सा में भाग लिया। मुझे पता था कि प्रभु मुझे घर वापस ले आए हैं।
मैंने प्रोटेस्टेंट आराधना और प्रार्थना सभाओं में जाना जारी रखा, तो साथ साथ मैंने मिस्सा बलिदान में भी भाग लिया। अगले दो वर्षों में यानी अपनी पढ़ाई के अंत तक, मैं तीनों धर्मविधियों की हर प्रार्थना को समझ और सुन सकता था, जिनका अनुष्ठान ऐसी भाषा में संपन्न किया जाता था, जिसे मैं पढ़ या लिख नहीं सकता था। मैं अब एक धर्मनिष्ठ कैथलिक हूं, मेरी परवरिश के कारण ही नहीं, बल्कि इसलिए कि मैंने व्यक्तिगत रूप से चखा और देखा कि प्रभु अच्छे हैं।
मैं जानता हूं कि ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से प्रभु की अच्छाई का स्वाद नहीं चखा है और उन्होंने इस तरह के रिश्ते की खुशी का अनुभव नहीं किया है और न ही उन्होंने कैथलिक आराधना विधि की समृद्धि – येशु ख्रिस्त का पवित्र शरीर और रक्त, संस्कारों के रहस्य, और संतो के समुदाय – में भाग लेने के आनंद को अनुभव किया है। यह कहना नहीं पडेगा कि धन्य माँ मरियम द्वारा जो समृद्धि मिलती है उसके भी मिठास उन लोगों ने नहीं चखा है।
यदि आप एक कैथलिक हैं, तो मैं आपको आमंत्रित करता हूं कि इस क्रिसमस को आपके जीवन को प्रभु द्वारा नियंत्रित करने के लिए उन्हें अपने जीवन में आमंत्रित करें ताकि आप अपने विश्वास को गहरा कर सकें। यदि आप प्रोटेस्टेंट व्यक्ति हैं, तो मैं आपको कैथलिक समुदाय और उसकी शिक्षाओं को अपनाकर अपने विश्वास को और गहरा करने के लिए आमंत्रित करता हूँ, जिससे मसीह के सत्य और प्रकाश की पूर्णता का आपको अनुभव हो । यदि आप न कैथलिक हैं न प्रोटेस्टेंट हैं तो मेरे प्रिय मित्र, मैं आपको आमंत्रित करता हूँ कि “चखकर देखो कि प्रभु कितना भला है” (भजन 34:9)। सिर्फ भला नहीं, जिसकी आप उम्मीद कर सकते हैं या पा सकते हैं उस से भी अधिक बल्कि अत्यंत और सर्वोत्तम भला। क्रिसमस की बहुत सारी शुभकामनाएं !
'मेरी माँ को अपने आखिरी दिनों में किसी अस्पताल के बिस्तर पर शांत और सुकून से होना चाहिए था, लेकिन उनके आखिरी दिन भी उसी तरह गुज़रे जिस तरह उनकी सारी ज़िन्दगी गुज़री थी |
उस दिन मेरे पसंदीदा महीने अक्टूबर का आखिरी दिन था| मैं अपने बच्चों को अपने माता पिता के पास ले जाने के लिए तैयार कर रही थी| एक साल पहले हमें पता चला था कि मेरी माँ को कैंसर है और उनके पास ज़्यादा समय नहीं बचा था| और उनकी नर्स ने हमें यह साफ़ साफ़ कह दिया था कि माँ की हालत जल्द ही बहुत खराब होने की कगार पर थी|
यह बात हमें अंदर ही अंदर खाए जा रही थी। अभी तीन दिन पहले ही तो मैंने उन्हें ठीक ठाक और व्यस्त देखा था, वह कभी टूटी हुई रोज़रियों को ठीक कर रही थी तो कभी पापा के लिए खाना बनाने की तैयारी कर रही थी। मेरी माँ हमेशा से ऐसी ही थीं। वह प्यार और निस्वार्थता की मूरत थीं। जो भी उन्हें जानता था वह उन्हें एक संत ही समझता था। उन्होंने अपने जीवन के द्वारा हमें भरोसे और आशा के क्रूस को अपने कंधों पर उठाना सिखाया। और अपनी इसी ज़िंदादिली की वजह से माँ को मौत का डर नहीं था। पवित्र मिस्सा और माँ मरियम की रोज़री पर उन्हें बहुत श्रद्धा थी। कलकत्ता की संत तेरेसा ने एक बार कहा था “ज़िन्दगी वही है जो दूसरों के लिए जिया जाए”। और मेरी माँ ने इस कथन को जिया है।
उस शाम जब मैं अपने माता पिता के घर पहुंची, तब मैं सीधे मां के छोटे से अंधियारे कमरे में गई। वहां मैंने माँ को बिस्तर पर आराम करते हुए देखा, और उस वक्त मुझे लगा कि शायद मां सो रही है। मेरे भाई-बहन माँ को घेरे खड़े थे। जब मेरी बहन ने मुझे देखा तो वह मेरा हाथ पकड़ कर मुझे किनारे ले गई। और उसने मुझे समझाया कि माँ को अपनी तबीयत ठीक नहीं लग रही थी इसी लिए वह यहां आराम करने आईं, लेकिन आराम करते करते वह कोमा में चली गईं और अब माँ बिल्कुल बात नहीं कर रही थीं। उस दिन माँ ने सुबह से सबके लिए खाना बनाया था, सबको घर पर बुलाया था जबकि कायदे से उन्हें किसी अस्पताल के बिस्तर पर सुकून से होना चाहिए था। उनके जीवन के आख़िरी दिन, उनके आख़िरी काम भी वैसे ही थे जैसे उनकी पूरी ज़िन्दगी थी – क्योंकि उन्होंने सारी ज़िन्दगी दूसरों की भलाई, दूसरों की सेवा की। मेरी माँ आत्म बलिदान की मूरत थी।
मेरी माँ ने कभी किसी बात की शिकायत नहीं की, कभी यह नहीं ज़ाहिर किया की वह कितना दर्द सह रहीं हैं, कभी अपने दर्द भरे कैंसर के इलाज की शिकायत नहीं की। ईश्वर ने माँ के कंधों पर इतना भारी क्रूस डाला था, लेकिन माँ ने कभी कुछ नहीं कहा। मेरी माँ ने जिस विश्वास के सहारे अपनी पूरी ज़िन्दगी गुज़ार दी, उसी विश्वास पर तब भी भरोसा रख कर माँ ने बिना किसी सवाल के ईश्वर का दिया क्रूस उठाया, बखूबी उठाया।
बारह घंटों तक मैं माँ के पास से हिली भी नहीं, मैं माँ को उनके सबसे दर्द भरे समय में कैसे अकेला छोड़ सकती थी? माँ हमेशा कहती थीं कि उन्हें अस्पताल में नहीं मरना है, आज उनके जाने के बाद मैं सोचती हूं कि कैसे उस अनंत ईश्वर ने माँ को यह कृपा प्रदान की कि वे अपने घर में, अपने पति और अपने दस बच्चों के बीच स्वर्ग सिधार सकें। जैसे जैसे मां की हालत बिगड़ने लगीं, हमारा पूरा परिवार एक आख़िरी बार उनके पास बैठ कर रोज़री बोलने लगा, उसी तरह जैसे हम बचपन से प्रार्थना करते आए थे। हमने अपनी भरी आंखों से अपने पल्ली पुरोहित द्वारा माँ को रोगियों का संस्कार देते हुए देखा। हम बारी बारी से माँ के पास बैठे, हमने उन्हें हर बात के लिए शुक्रिया कहा, क्योंकि उन्होंने ही हमें ईश्वर की योजनाओं पर भरोसा करना सिखाया था। हम सब जानते थे कि हालांकि माँ ने इस क्रूस को अपनाया था और खुद को स्वर्ग के द्वार से गुज़रने के लिए तैयार किया था, फिर भी उनका दिल इस बात से दुखता था कि उनके जाने पर हमें कितना दुख होगा। हालांकि उन्होंने हमें समझाने की कोशिश की कि स्वर्ग जा कर वह हमारे ज़्यादा काम आ पाएंगी, और मुझे उनकी बात पर भरोसा है।
और हालांकि माँ अपने आखिरी वक्त में कुछ बोल नहीं पा रही थीं, फिर भी हमने गौर किया कि जब भी हम उन्हें दवाई देने की कोशिश कर रहे थे तो वह अपनी आंखों से हमें मना कर रही थीं। उनके बार बार ऐसा करने पर आखिरकार सबने खुले आम यह कह ही दिया, कि माँ अपने आख़िरी समय में वह दर्द सहना चाहती थीं, और इसे हमारे लिए ईश्वर को समर्पित करना चाहती थीं।
धीरे धीरे रात दिन में बदलने लगी, और जब हम सब अपनी नींद से लड़ने की कोशिश कर रहे थे तभी हमने देखा कि माँ की सांसे थमने लगीं थी। हम सब तब माँ के बिल्कुल नज़दीक जा कर बैठ गए, और हमने माँ को आख़िरी बार अलविदा कहा। हमने उनसे कहा कि हम अपना और एक दूसरे का खयाल रखेंगे, ताकि वह सुकून से स्वर्ग जा कर अपने पिता और स्वर्ग की ओर जल्दी बुलाये गए अपने नाती पोतों से मिल सकें। मैंने भारी दिल से उन्हें अपनी आख़िरी सांस लेते हुए देखा। और उसके साथ ही, बारह लोगों से भरे उस छोटे से कमरे में सन्नाटा छा गया। मैंने चुपके से आहें भरते हुए कहा, “अब माँ ने ईश्वर का चेहरा देख लिया है।” उसी क्षण से मैंने “माँ के लिए” प्रार्थना छोड़ दिया और “माँ से” प्रार्थना करने लगी। वह दिन, सब संतों का दिन था। मैं सोचती हूं उस दिन स्वर्ग में मां का स्वागत कितनी धूम धाम से हुआ होगा!
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