Trending Articles
क्या आप आंतरिक शांति ढूंढ रहे हैं? आइए आत्मिक चंगाई प्राप्त करने के कुछ कारगर तरीकों के बारे में बात करते हैं।
एक शीतल शाम की बात है, गिरजाघर बिलकुल शांतिमग्न था, इस शांति के बीच एक पुरोहित की मधुर आवाज़ सुनाई दे रही थी। दर्जन भर स्त्रियां उस पुरोहित के साथ ध्यान में लीन थीं। हालांकि वह ईस्टर का समय था, फिर भी वहां क्रूस पर चर्चा हो रही थी।
“क्रूस हमें पीड़ित और दुर्बल नहीं बनाता,” पुरोहित ने आश्वासन दिया, और फिर उन्होंने वेदी के ऊपर टंगे क्रूस की ओर इशारा करते हुए कहा, “क्रूस हमें संत बनाता है!”
फिर पुरोहित ने अपने कथन को समझाते हुए कहा, “ईश्वर पर विश्वास का यह मतलब नहीं है कि हमारा जीवन कभी अंधकार में नहीं पड़ेगा। विश्वास ही वह रोशनी है जो अंधियारे भरे रास्तों में हमारा मार्गदर्शन करती है।”
हमारे लिए यह भूल जाना कितना आसान है कि क्रूस हमारे लिए आंतरिक चंगाई प्राप्त करने का रास्ता बन सकती है। “अपना क्रूस उठा कर मेरे पीछे हो लो”, इस वचन से हम लोग परिचित हैं: लेकिन कई बार हम यह समझ बैठते हैं कि इस का मतलब होगा अपनी पीड़ा को नज़रंदाज़ करना। इसी गलतफहमी की वजह से हम मुक्ति की असल क्षमता के असर से वंचित रह जाते हैं।
खुद को दुर्बल समझना और खुद के लिए दया भावना रखना आत्मिक चंगाई के मार्ग में रोड़े अटकाने के बराबर है। इसकी जगह हमें मसीह का अनुकरण करना चाहिए जो हमारे लिए दुर्बल बनाए गए।
“तूने हमें खुद के लिए बनाया है हे ईश्वर, और हमारा दिल तब तक अशान्त रहेगा जब तक यह आप में अनंत विश्राम नहीं पा लेता।” हिप्पो के संत अगस्तीन के ये प्रसिद्ध वचन बहुत प्रभावशाली हैं, क्योंकि ये हमें ईश्वर को जानने, प्रेम करने और ईश्वर की सेवा करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। खुद को परिपूर्ण महसूस करने के लिए हमें एक अर्थपूर्ण जीवन जीने की आवश्यकता है।
और हालांकि हम अपने पूरे दिल से ईश्वर को जानना, उनसे प्रेम करना और उनकी सेवा करना चाहते हैं फिर भी हम मनुष्य हैं इसीलिए धर्मग्रंथ कहता है: “आत्मा तो तत्पर है, परंतु शरीर दुर्बल है” (मत्ती 26:41)।
जो सिलसिला आदम और हेवा के आदिपाप से शुरू हुआ, वह पाप कामवासना के साए में आज भी जिंदा है और पनप रहा है – मानव स्वरूप का वही हिस्सा जो पाप के लालच की ओर खिंचा चला जाता है। ख्रीस्तीय विश्वास के द्वारा मिला नया जीवन मानव प्रकृति में मौजूद दुर्बलता को दूर नहीं करता, और ना ही वह कामवासना की ओर हमारे रुझान को कम करता है। ताकि बपतिस्मा के बाद ये दुर्बलताएं ख्रीस्तीयों में रह कर विश्वासियों के संघर्ष और अंततः विजय का मार्ग सुसज्जित करें। (कैथलिक चर्च की धर्मशिक्षा 1426)।
इसे आसान शब्दों में कहना चाहता हूँ: हालांकि बपतिस्मा द्वारा हमारी आत्मा से आदिपाप के दाग़ धुल जाते हैं, फिर भी हम पाप की ओर आकर्षित होने की क्षमता रखते हैं। पाप की ओर यह आकर्षण जीवनभर हमारे साथ रहेगा, लेकिन ईश्वर की कृपा के द्वारा हम पवित्रता में प्रगति कर सकते हैं। उसकी इच्छा के प्रति हमारा स्वेच्छा से समर्पण करना – हमारा ईश्वर के व्यक्तित्व के अनुसार आचरण करना – प्रत्येक आत्मा का अंतिम लक्ष्य है। साफ शब्दों में कहूं तो आंतरिक चंगाई और आध्यात्मिक स्वास्थ्य एक सिक्के के दो पहलू हैं। अगर हम सच्ची और अनंत आंतरिक चंगाई प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें पवित्रता में बढ़ना होगा, लेकिन यह सब एक रात में हासिल नहीं किया जा सकता।
मत्ती के सुसमाचार में हम पढ़ते है – “वे पार उतर कर गेनेसरेत पहुंचे। वहां के लोगों ने येशु को पहचान लिया और आसपास के सब गांवों में इसकी खबर फैला दी। वे सब रोगियों को येशु के पास ले आकार उन से अनुनय-विनय करते थे कि वे उन्हें अपने कपडे का पल्ला भर छूने दें। जितनों ने उनका स्पर्श किया, वे सब-के-सब अच्छे हो गए।“ (मत्ती 14:34-36)
जितनों ने उनका स्पर्श किया, ने उनका स्पर्श किया, वे सब-के-सब अच्छे हो गए: उन लोगों ने कितनी बड़ी आशीष को अनुभव किया। लेकिन हमारा क्या? हमारा जन्म येशु के दिनों में नहीं हुआ कि हम भी भीड़ में शामिल हो कर, लड़ झगड़ कर ईश्वर के वस्त्र का सिरा भर छू कर आंतरिक चंगाई प्राप्त कर लें।
हालांकि कैथलिक चर्च की धर्मशिक्षा हमें बताती है कि “सात संस्कारों के माध्यम से येशु आज भी हमें छू कर चंगाई दिलाने का प्रयत्न करते हैं।” (कैथलिक चर्च की धर्मशिक्षा 1504)
येशु संस्कारों के द्वारा हमारे समीप आते हैं: देखा जाए तो यह एक बहुत बड़ी आशीष भी है और एक निरंतर आशा भी। खासकर पापस्वीकार संस्कार और परमप्रसाद संस्कार अपने आप में हमें चंगा करने के लिए ईश्वर की चाह के अद्भुत उदाहरण हैं।
पापस्वीकार द्वारा : पापस्वीकार संस्कार का पूरा सामर्थ्य इस बात में है कि यह ईश्वर की कृपा को पुनःस्थापित करता है और हमें ईश्वर के साथ एक अटूट मित्रता के संबंध में जोड़ता है। इस प्रकार ईश्वर के साथ हमारा पुनर्मिलन कराना ही इस संस्कार का उद्देश्य और प्रभाव है। जो लोग पछतावे भरे हृदय और धार्मिक दृष्टिकोण के साथ पापस्वीकार संस्कार में भाग लेते हैं, उनके लिए यह पुनर्मिलाप तन मन की शांति और बड़ी आध्यात्मिक सांत्वना ले कर आता है। सच है कि ईश्वर के साथ सुलह कराने वाला यह संस्कार एक प्रकार के आध्यात्मिक पुनरुत्थान को जन्म देता है, जो कि ईश्वर की संतानों के जीवन में सम्मान और आशीर्वाद के द्वार को खोल देता है, जिसमें से सबसे बड़ी आशीष है ईश्वर के साथ हमारी मित्रता। (कैथलिक चर्च की धर्मशिक्षा -1468)
यूखरिस्त के बार बार दर्शन एक ऐसा सौभाग्य है जो हमारे लिए उन आलौकिक लाभों के द्वार खोल देता है, जो इस दुनिया से परे हैं। “पवित्र परमप्रसाद हमें पाप से अलग करता है।” (कैथलिक चर्च की धर्मशिक्षा 1393)। जिस प्रकार शारीरिक पोषण खोई हुई ताकत लौटाता है, उसी प्रकार यूखरिस्त हमारे अंदर की दान भावना को मज़बूत करता है, वही दान भावना जो रोज़मर्रा की दौड़भाग में कमज़ोर हो जाती है, क्योंकि दान भावना हमारे लघु पापों को धो डालती है।” (कैथलिक चर्च की धर्मशिक्षा 1394) यूखरिस्त हमारे अंदर जिस दान भावना को प्रज्वलित करता है, उसी के द्वारा यूखरिस्त हमें भविष्य में घातक महापाप करने से बचाता है। “जितना हम स्वयं के साथ येशु के जीवन को साझा करते हैं, और जितना हम उसकी मित्रता में बढ़ते जाते हैं, उतना ही हमारे लिए घातक महापाप करना मुश्किल होता जाता है।” (कैथलिक चर्च की धर्मशिक्षा -1395)
ज़ेली मार्टिन जो कि लिस्यू की संत तेरेसा की मां थी। वह सन 2015 में अपने पति लुइस के साथ संत घोषित की गईं। यह कामकाजी, लेस यानि जालीदार कपड़ा बनाने वाली स्त्री यह अच्छी तरह जानती थी कि आंतरिक चंगाई प्राप्त करने के लिए कितना परिश्रम और कितनी मेहनत लगती है।
उनकी यह रचना बहुत विख्यात है: मैं संत बनना चाहती हूं, लेकिन मैं जानती हूं कि यह आसान बात नहीं है। मानो मुझे बहुत सारी लकड़ियां काटनी है, पर यह लकड़ियां पत्थर समान हैं। मुझे कई सालों पहले यह पहल करनी चाहिए थी, तब जब यह कार्य मेरे लिए इतना मुश्किल नहीं था। पर वो कहते हैं ना, देर आए दुरुस्त आए।
इनकी इस सांसारिक यात्रा का अंत उनकी अल्पायु में मृत्यु के माध्यम से हुआ। उन्होंने स्तन कैंसर की वजह से अपनी जान गंवाई, और उस वक्त तेरेसा सिर्फ चार साल की थीं। ज़ेली यह समझती थीं कि उन्हें येशु के दुखभोग का अनुकरण करना है, इसीलिए उन्होंने अपने क्रूस ढोए और सफलतापूर्वक उन लकड़ियों को भी काटा जो उनके लिए पत्थर समान थीं। इसी परिश्रम के फलस्वरूप उनके परिवार में अनेक लोगों ने धार्मिक बुलाहट और संत की उपाधि प्राप्त की।
हम सब को अलग अलग प्रकार की “लकड़ी” काटने के लिए दी गई है। देखा जाए तो हम सब की आंतरिक चंगाई की यात्रा अलग अलग होगी, हालांकि हम सब ईश्वर के स्वरूप और पसंद के अनुसार बनाए गए हैं, फिर भी हम सब अपने आप में अनोखे हैं, और हमारी ताकतें, कमज़ोरियां और व्यक्तिगत अनुभव अलग हैं।
इन सब बातों के बावजूद वह कैथलिक कलीसिया जिसे संत पेत्रुस को सौंपा गया था, वह आंतरिक चंगाई और आध्यात्मिक स्वास्थ्य का खज़ाना है। फिर भी, हमें कलीसिया के माध्यम से येशु तक पहुंचने की पहल करनी है। और उनके कपड़े के सिरे को मज़बूती से पकड़ कर इस बात का निश्चय करना है कि जब कभी हम पाप से आकर्षित हो कर धर्म के मार्ग से भटक जाएंगे, तब तब हमें येशु के कपड़े के सिरे को मज़बूती से पकड़ने की कोशिश करनी है।
सच्ची आंतरिक चंगाई तभी मुमकिन है जब हमारे पास यीशु को छूने का विश्वास हो, उसे और उसके क्रूस को गले लगाने का साहस हो, कि हम अपने व्यक्तिगत जीवन में छुटकारा दिलाने वाली क्रूस की पीड़ा पर भरोसा रखें। हमें परमप्रसाद और यूखरिस्त की आराधना को सबसे ज़्यादा अहमियत देनी चाहिए और उस अनंत ईश्वर में अपनी आध्यात्मिक और भावनात्मक परिपूर्णता को खोजना चाहिए।
संत पापा जॉन पॉल द्वितीय उन प्रारंभिक लोगों में से थे, जिन्होंने यह समझा कि सच्ची आंतरिक चंगाई सिर्फ ईश्वर की ओर से आती है। इसी वजह से उन्होंने अपना ज़्यादा से ज़्यादा समय विश्वासी जनों को ख्रीस्त से जुड़े रहने के लिए प्रेरित करने में लगाया। और उन्होंने लोगों से आग्रह किया कि वे “नई सदी में संत बनने का साहस करें।”
Emily Shaw ऑस्ट्रेलियाई कैथलिक प्रेस एसोसिएशन की पुरस्कार विजेता संपादक रह चुकी हैं, जो कि अब Youngcatholicmums.com के लिए ब्लॉग लिखा करती है और कैथलिक-लिंक में अपने लेखों द्वारा योगदान करती हैं। वह गृहणी सात बच्चों की मां हैं। वह ग्रामीण ऑस्ट्रेलिया में रहती है और अपनी स्थानीय कैथलिक समुदाय में आध्यात्मिक मदद करना पसंद करती हैं।
Want to be in the loop?
Get the latest updates from Tidings!