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अगस्त 18, 2021 1605 0 डीकन जिम मैकफैडेन
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सुनें खामोशी को

आध्यात्मिक लेखक और कवि जॉन ओ डोनोहुए ने लिखा है, “जब आप अपनी आत्मा से सुनते हैं तभी आप सृष्टि की धुन और ताल से जुड़ पाते हैं।” (अनम कारा – केल्टिक दुनिया का आध्यात्मिक ज्ञान)।

 एक पीढ़ी भर के समय के लिए ईश्वर की चुनी हुई प्रजा ने सिर्फ ईश्वर की खामोशी को सुना और जाना था। सामुएल के ग्रंथ में हम पढ़ते हैं कि ईश्वर की चुनी हुई प्रजा को ईश्वर का वचन सुनाई देना बंद हो गया था: “उन दिनों में प्रभु का वचन दुर्लभ था” (1 सामुएल 3:1)। लोग ईश्वर से बात करते थे, उनकी स्तुति करते थे, उनसे विनती करते थे, उनसे मिन्नतें करते थे, रोते गिड़गिड़ाते थे लेकिन उन्हें कोई जवाब नहीं मिलता था। लेकिन फिर एक रात, एक आवाज़ ने सामुएल को चौंका दिया।

उस वक्त सामुएल सोचता है कि वह पुकार एली की है जो कि शिलोह का महापुरोहित था। सामुएल को लगा कि एली को किसी चीज़ की ज़रूरत होगी इसीलिए वह एली के पास जाता है लेकिन एली उसे सो जाने को कहता है। जब सामुएल को वह आवाज़ दोबारा सुनाई देती है तब एली को लगने लगता है कि आज ही वह रात है जब ईश्वर वर्षों का मौन तोड़ कर इसराएल को पुनः मार्गदर्शित करने लगेंगे। इसके बाद एली सामुएल से कहते हैं ” यदि वह तुझे फिर बुलाएगा तो तू यह कहना: “प्रभु, बोल; तेरा सेवक सुन रहा हूं।” (1 सामुएल 3:9)

सीबीएस संवाददाता और 60 मिनट के मेजबान डैन रादर ने एक बार कोलकत्ता की संत मदर तेरेसा से उनके आध्यात्मिक जीवन के बारे में सवाल करते हुए पूछा, “जब आप ईश्वर से प्रार्थना करती हैं तो उनसे क्या कहती हैं?” उन्होंने जवाब दिया “मैं कुछ नही कहती हूं बस सुनती हूं।” ऐसा जवाब सुन कर हैरानी में रादर ने आगे सवाल किया “तो फिर ईश्वर आपसे प्रार्थना के समय क्या कहते हैं?” मदर तेरेसा ने कुछ पल सोच विचार करने के बाद कहा “ईश्वर कुछ कहते नहीं हैं, वे बस सुनते हैं।” कल्पना करिए कि तेरेसा और ईश्वर आमने सामने बैठे हैं, चुपचाप, एक साथ सन्नाटे को सुनते हुए।

क्या हम सन्नाटे में स्थिर रह सकते हैं? क्या हमारा मन व्याकुल हो कर ईश्वर की उपस्थिति पर सवाल करने लगता है? या फिर हम यह सोचने लगते हैं कि ईश्वर हमारी बात सुन भी रहा है या नही? उसे हमारी कदर है भी या नही? अपने आध्यात्मिक निर्देशक को लिखे एक खत में मदर तेरेसा ने ईश्वर की उपस्थिति से जुड़े अपने संदेहों को प्रकट करते हुए लिखा है “मुझे मेरी आत्मा में एक दर्द महसूस होता है, कुछ खोने का दर्द, ईश्वर के ना होने का दर्द।” वे आगे लिखती हैं “अगर मैं कभी संत बन पाऊंगी तो ज़रूर ‘अंधकार की संत’ कहलाऊंगी।”

कभी कभी प्रार्थना का मतलब है अंधियारी रात में बड़े धैर्य के साथ ईश्वर की आवाज़ को सुनना। लेकिन अब सवाल यह उठता है: क्या हम भी उसी तरह ईश्वर की वाणी सुनने को तैयार हैं जैसे सामुएल ने ईश्वर को भरोसा दिलाया था कि वह तैयार है? “सुनने का मतलब है ईश्वर की ओर अपने दिल को मोड़ना, इस भरोसे के साथ कि उसकी आत्मा बाकी सब संभाल लेगी।

प्रार्थना ज़ोर ज़बरदस्ती से नही की जा सकती। अगर हमें ईश्वर की उपस्थिति में जाने की ज़रूरत महसूस होती है तो वह ईश्वर की तरफ से मिला इशारा है। ईश्वर के इस इशारे के जवाब में हमें एक पवित्र जगह बनानी चाहिए, जहां हम दुनिया के जंजालों से दूर ईश्वर की उपस्थिति की ओर ध्यान लगा सकें। प्रार्थना ईश्वर की ओर से दिया गया एक तोहफा है और अगर हम ईश्वर के सानिध्य में शामिल होते हैं तो वह हमें यह तोहफा प्रदान करेगा।

अब सवाल यह उठता है कि हम ईश्वर की इस उपस्थिति तक पहुंचे कैसे? इसके लिए हमें वही करना है जो सामुएल ने किया, यानी हमें सुनना है। मिसाल के तौर पर हमें लेक्शियो दिविना से शुरुआत करनी चाहिए जो कि पवित्र बाइबिल को पढ़ने का एक तरीका है जिससे हम ईश्वर की वाणी को और गहराई से सुन सकते हैं। इस विधि में हम पवित्र वचन को पढ़ते हैं, उसे समझते हैं, उसे अपने जीवन में इस्तेमाल करते हैं और इन सब बातों की चर्चा करते हैं। इसके बाद हम शांत बैठते हैं और बिना कुछ कहे ईश्वर की उपस्थिति में स्थिर और संतुष्ट हो कर बैठते हैं।

हममें से कइयों के लिए यह स्थिरता लाना थोड़ा मुश्किल होता है, क्योंकि जिस दुनिया में हम रहते हैं वह दौड़भाग वाली दुनिया है जो कि एक तेज़ जीवनशैली को प्रोत्साहित करती है। येशु संघी ईश शास्त्री कार्ल राहनर ने कहा है, “हम सब आध्यात्मिक जीवन जीने के लिए बुलाए गए हैं, अगर हम आध्यात्मिक नहीं बन पाएंगे तो हम खुद का सर्वनाश कर डालेंगे।” प्रार्थना आखिर में स्थिरता की ओर ही मुड़ती है। मां मरियम ने अपने जीवन द्वारा हमें यही सीख दी है, क्योंकि मसीह की मां के रूप में वे लगातार ईश्वर की बातों पर मनन चिंतन करती रहीं। खामोशी हमारे दिल की उन गहराइयों को खोलती हैं जहां हम अपनी वास्तविक भावनाओं को देख पाते हैं और उनकी जड़ों को समझ पाते हैं। इन्हीं सब के द्वारा ईश्वर हमसे बात करते हैं और हमारे सबसे गहरी इच्छाएं और डर हमारे सामने रखते हैं। फिर ईश्वर हमें मौका देते हैं कि हम ईश्वर के सानिध्य में आ कर और अपने दुख व डर ईश्वर को समर्पित कर सकें।

ईश्वर को सुनने के लिए एक किस्म का समर्पण चाहिए। ऐसा समर्पण लाने के लिए हमें सबसे पहले हमारा ध्यान खुद से हटा कर ईश्वर को अपने ध्यान का केंद्र बनाना चाहिए। जब हम अपने जीवन से नियंत्रण हटाते हैं तब ही हम ईश्वर को सुनना शुरू करते हैं। लेकिन यह समर्पण इतना आसान नही होता, क्योंकि जब ईश्वर हमारे जीवन को नियंत्रित करना शुरू करते हैं तब वे हमें जीवन जीने के नए तरीकों से परिचित कराते हैं। जब हम ईश्वर को नियंत्रण देते हैं तब हम ईश्वर के वचन की सच्चाई की ओर अपना विश्वास प्रकट करते हैं। हम यह घोषित करते हैं कि ईश्वर अपने वादे पूरे करते हैं और विश्वास के योग्य हैं। हम यह भी घोषित करते हैं कि हम विश्वास करते हैं कि ईश्वर हमारी खामोशी में खुद को उंडेल देगा और हमें अपनी आत्मा से भर देगा।

आइए हम सामुएल के इस बुलावे को थोड़ा बढ़ाएं जो इस प्रकार है: “प्रभु, बोल; मैं तेरा सेवक, सुन रहा हूं।” और जब ईश्वर हमसे बात करें तब हम मां मरियम के उन्हीं वचनों के साथ तैयार रहें जिसे उन्होंने काना के विवाह में सम्मिलित होने पर कहा था “वह तुम लोगों से जो कुछ कहे वही करना।” यही हमारी परीक्षा है, यही उसका मूल्य है, यही वह रोमांचक यात्रा है जो हमें ईश्वर के रहस्य की ओर ले जाती है।

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डीकन जिम मैकफैडेन

डीकन जिम मैकफैडेन कैलिफोर्निया के फॉल्सम में संत जॉन द बैपटिस्ट कैथलिक चर्च में सेवारत हैं। वह ईशशास्त्र के शिक्षक हैं और वयस्क विश्वास निर्माण और आध्यात्मिक निर्देशन के क्षेत्र में कार्य करते हैं।

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